रामदास कोरवा मार्ग, जो कहीं नहीं जाता..!

तीसरी फसलरामदास कोरवा मार्ग, जो कहीं नहीं जाता..!

NEWSMAN DESK

रामदास कोरवा को ये जानकर बिल्कुल भी खुशी नहीं हुई कि सरकार उसके नाम पर गांव में एक सड़क का निर्माण कर रही है। सड़क का बजट रखा गया था 17 लाख 44 हजार रुपये। रचकेठा गांव के अपने घर में उसने मुझे बताया कि उसे इस बात की बिल्कुल भी खुशी नहीं है कि सरकार उसके नाम पर एक सड़क का निर्माण करने जा रही है, जबकि गांव के अन्य लोग भी उस पर हंस रहे हैं। एक आदिवासी और उसके परिवार के नाम पर किसी सड़क का निर्माण? ये सवाल उसको अचंभित कर रहा था।

यह है मध्य प्रदेश का वाडरोफनगर, जिसे आमतौर पर सरगुजा जिले का सबसे पिछड़ा ब्लाॅक माना जाता है। 1993 के बाद के महीनों में अधिकारियों ने रचकेठा गांव तक जाने के लिये तीन किलोमीटर लंबी सड़क बनवाने का फैसला किया। सरकार ने ये काम आदिवासी विकास के नाम पर किया। जनवरी 1994 में रचकेठा के जंगलों के सिरे पर कोई एक बोर्ड लगाया गया। जिस पर शान के साथ लिखा था- 'कोरवा विकास परियोजना, सड़क निर्माण- लंबाई तीन किमीः अनुमानित लागत रू 17. 44 लाख।' 

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भारत के सर्वाधिक गरीब जिलों में से एक सरगुजा में आदिवासियों की आबादी 55 प्रतिशत है और इनमें से कोरवा और खासतौर से पहाड़ी कोरवा आदिवासियों की संख्या बेहद कम यानी पांच प्रतिशत ही है। कोरवा लोगों को सरकार ने एक आदिम जनजाति की सूची में डाल रखा है। उनके विकास के लिये विशेष प्रयास जारी हैं। इस काम में प्रायः काफी धन खर्च किया जाता है। केंद्र की आर्थिक मदद से चलने वाली महज एक परियोजना पहाड़ी कोरवा परियोजना पर पांच साल की अवधि के लिये 42 करोड़ रूपये निर्धारित किये गये हैं। 

पहाड़ी कोरवा लोगों की संख्या तकरीबन 15 हजार है और इनमें से सबसे ज्यादा तादाद में ये लोग सरगुजा में पाये जाते है। बावजूद इसके, राजनीतिक कारणों के चलते परियोजना का मुख्य केंद्र रायगढ़ में रखा गया है। पहाड़ी कोरवा परियोजना के अंतर्गत ही रामदास के नाम पर सड़क बनाने की बात उठी। रचकेठा में पहाड़ी कोरवा मार्ग के निर्माण को लेकर बस एक छोटी सी समस्या थी। इस गांव में कोई पहाड़ी कोरवा है ही नहीं। हां, रामदास का परिवार एकमात्र अपवाद है। 

एक स्थानीय एनजीओ कार्यकर्ता ने बताया कि, चूंकि आदिवासी विकास के नाम पर करोड़ों रूपया आवंटित कर दिया जाता है। इसलिये अनेक परियोजनाओं को जायज ठहराने के लिये यह दिखाया जाता है कि इनसे आदिवासियों को कितना लाभ होगा। अगर इनसे उन्हें कोई लाभ नहीं मिलता और ये इनके लिये एकदम बेकार हों, तब भी कोई फर्क नहीं पड़ता। खुद यहां पर भले ही आप स्वीमिंग पूल बनवा लें या बंगला, बस इस काम को आदिवासी विकास के नाम पर करिये। 

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सरकार से पैसा जारी करवाने के उत्साह में किसी ने यह पता लगाने की जरूरत ही महसूस नहीं की कि रचकेठा गांव में सचमुच कोई पहाड़ी कोरवा है भी या नहीं। रामदास के परिवार के अलावा कहीं पड़ोस में केवल दो और कोरवा परिवार रहते थे, लेकिन वो सड़क से कम से कम 25 किलोमीटर की दूरी पर रहते हैं। 

रामदास का बेटा रामअवतार कोरवा बताता है कि यहां तो पहले से एक कच्ची सड़क थी। उन्होंने बस उस पर लाल मिट्टी डाल दी, जिस पर पूरे 17 लाख 44 हजार रूपये खर्च हुये। वहीं पहले यह सड़क छह मीटर चौड़ी थी और अब इसकी चौड़ाई चार मीटर ही रह गई है। बड़ी बात यह है कि एक बार भी अधिकारी इस सड़क को देखने नहीं आये और ये सड़क रामदास के घर से दो किलो मीटर पहले ही खत्म हो जाती है। 1991 के उत्तरार्द्ध में किये गये सर्वे से पता चला कि रामदास के परिवार को छोड़कर बाकी सभी 249 परिवार गोंड जनजाति के हैं। 

'रामदास कोरवा रोड' पर कुल 17 लाख रूपये खर्च हुये, लेकिन रामदास की मांग तो कुछ और ही है। उनका कहना है कि मुझे तो बस थोड़ा सा पानी चाहिये। पानी के बिना हम भला खेती कैसे कर सकते हैं। उन्होंने बताया कि उस सड़क पर 17 लाख 44 हजार रुपया खर्च करने के बजाय, अगर उन्होंने कुछ हजार रुपया खर्च कर मेरी जमीन पर कुएं की मरम्मत कर दी होती, तो वो ज्यादा अच्छा काम होता। बेशक जमीन में भी कुछ सुधार की जरूरत है, लेकिन पहले पानी के मामले में शुरूआत करते तो भला रहता।

रामदास के साथी भी इन बातों से सहमति जताते हैं। सरकारी खातों के मुताबिक रचकेठा में 4,998.011 एकड़ खेतिहर जमीन है। इसमें से महज 13 एकड़ यानी 0.26 प्रतिशत जमीन ही सिंचाई के दायरे में आती है। 

रामदास ने बताया कि उनके पड़ोसी पंडित माधव मिश्र ने उनके परिवार की सबसे उपजाऊ नौ एकड़ जमीन पर कब्जा किया हुआ है। रामदास कहते हैं कि इसी जमीन पर वह हम धान पैदा करते थे। मिश्र के पास पहले से ही 400 एकड़ जमीन है, जो हदबंदी कानून का भी उल्लघंन है। खैर, रामदास ने यह उम्मीद छोड़ ही दी है कि वो जमीन कभी उसे वापस मिलेगी। मिश्र का कहना है कि उसने रामदास के पिता की बीमारी के समय उस परिवार को बहुत आर्थिक मदद दी। उसका पैसा रामदास की ओर बकाया है, इसलिये जमीन पर अब उसका कब्जा है।

मध्य प्रदेश भू-राजस्व की धारा 170-बी के अंतर्गत आदिवासी जमीन के हस्तांतरण अथवा उसके हड़पने पर पाबंदी है, लेकिन स्थानीय अधिकारी मिश्र के साथ हैं। रामदास कहता है, मैने पटवारी को 500 रूपये दिये ताकि अपनी जमीन वापस पा सकूं, लेकिन वो मुझसे 5000 रूपये की मांग करता है। अब इतने पैसे मैं कहां से लाता। आज हालत यह हैं कि नौ सदस्यों का यह परिवार साढे़ पांच एकड़ की जमीन पर खेती कर बमुश्किल जीविका चला रहा है। जो जमीन उसके परिवार के पास है, उसमें भी आधी बहुत खराब किस्म की है।

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भोपाल में एक अधिकारी ने बातचीत में बताया कि रामदास के अनुभवों से यह पता चलता है कि योजना बनाने वाले अधिकारी और योजना का लाभ उठाने वालों के बीच कितनी दूरी है। रामदास की समस्या का संबंध उसकी जमीन के हड़पे जाने और उसके टूटे-फूटे कुंऐ से था। सरकार की समस्या थी कि वो किस तरह अपना लक्ष्य पूरा करे। इस काम में जो अफसर और ठेकेदार शामिल हुये उनकी समस्या इसके लिये निर्धारित धनराशि को लूटने की थी। सबकी अपनी-अपनी समस्या थी। 

इस बीच किसी ने यह सोचने की जरूरत ही नहीं समझी कि रामदास को किस चीज की जरूरत है। उसकी क्या समस्या है। इसके बजाय उन्होंने 17 लाख 44 हजार रूपये खर्च कर उसके नाम पर एक सड़क बनवा दी, जिसका इस्तेमाल वो खुद भी नहीं करता है। सर, हमारी पानी की समस्या के लिये आप कुछ करिये, रामदास ने मुझसे कहा! हम अब वहां से रवाना हो रहे थे, ताकि दो किलोमीटर दूरी तय कर उस 'रामदास कोरवा मार्ग' तक जा सकें, जो कहीं नहीं पहुंचती थी।

(यह हिस्सा मशहूर पत्रकार पी. साईनाथ की चर्चित किताब 'Every Body loves a good Drought' से लिया गया है। इस किताब को कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी चर्चा मिली। इस किताब में पी. साईनाथ भारत के सबसे निर्धन जनपदों का हाल बयान करते हुए देश के भीतर सरकारों की व्यवस्था और लूट का खाका बुनते चलते हैं। इस किताब में बताया गया है कि कैसे सरकारी योजनाये गांव में काम करती हैं और कैसे यहां असमानता दिखती है।)

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