शालिनी एक युवा एक्टिविस्ट हैं। वो पेशे से एक टीचर हैं। इससे पहले वो कई पत्रिकाओं के लिए लिख चुकी हैं। हिलांश के लिए शालिनी यात्रा वृतांत के साथ ही, कई अन्य मसलों पर लिख रही हैं।
यूं तो इतनी बड़ी दुनिया में कुछ-कुछ घटनाएं ऐसी हो ही जाती हैं, जिन्हें हम तपाक से 'संयोग' का नाम दे देते हैं, लेकिन आज 26 मई को हिन्दुस्तान के राजनीति में अजब का संयोग बैठा है। असल में आज दिल्ली की सरहद से देश के भीतर तक पहुंच चुके किसान आंदोलन को 6 महीने पूरे हो गये हैं और इधर इस आंदोलन से मुंह फेरे बैठी ढीठ सरकार के कार्यकाल को भी सात साल पूरे हो गये हैं। इन सात सालों में बीजेपी के फैसलों ने बड़ी तादात में हिन्दुस्तान की नाक में कई दफा दम किया है। फिर चाहे वह नोटबंदी के दौरान नागरिकों की फजीहत हो या फिर इन दिनों कोरोना महामारी के दौरान सरकार की लापरवाही, केन्द्र सरकार के फैसलों ने बड़ी संख्या में नागरिकों को मुश्किलों में ही ज्यादा डाला है, बजाय कि उनका जीवन बेहतर बनाने के।
अब किसान आंदोलन को ही ले लीजिये। पिछले छह महीने से सड़कों पर बैठे हुए भारत के किसानों ने अब तक क्या कुछ नहीं झेल लिया होगा, लेकिन क्या मजाल जो आलीशन बंगलों में बैठे हुये नेताओं के कान में जूं तक रेंगी हो। किसानों का भला करने के नाम पर लाये गये कृषि कानूनों ने किसानों को ही सड़कों पर ला दिया है, लेकिन बावजूद इसके सरकार समाधान निकालने को तक तैयार नहीं है। इससे पहले किसानों को खालिस्तानी तक बताने की मुहिम चलाई गई और रातों-रात खड़े करवाये गये नकली किसान संगठनों से सरकार को समर्थन तक दिलवा दिया गया, लेकिन इससे क्या हासिल हुआ! असल में इससे गांधीवादी ढंग से चल रहा किसान आंदोलन ही मजबूत हुआ है।
इस रिपोर्ट में शालिनी किसान आंदोलन के भीतर के उस माहौल को याद कर रही हैं, जो उन्होंने गुजरी सर्दियों में दिल्ली के सिंघु, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर के भीतर कई दिनों तक भटक कर महसूस किया। इस बीच सिर्फ मौसम बदला है, न किसानों का जुनून ही कम हुआ है और न आगे लड़ने के इरादे कमजोर पड़े हैं। इस रिपोर्ट में वह कहानियां हैं, जो आपको उस लोक का दर्शन बारीकी से करवाएगी, जो इन बॉर्डर पर जाये बिना आप दूर बैठकर कभी महसूस नहीं कर पाएंगे...
मैं भीतर दाखिल हो रही हूं: जनवरी 2021
दिल्ली की कडकडाती ठण्ड में जहां 11 बजे से पहले धूप नहीं निकलती और 5 बजे के बाद कोहरे की चादर से दिल्ली ढक जाती है, उस वक़्त पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड और तमाम राज्यों के किसान सड़कों, ट्रालियों, ट्रकों और अस्थाई टेंट में रात और दिन गुजार दे रहे हैं। किसान आंदोलन को नजदीक से जानने के लिए मुझे उनके बीच जाना ठीक लगा। इस आन्दोलन में शामिल होने की कई सारी वजहें हैं। सोशल मीडिया यूजर होने के चलते ऐसी बहुत सी चीज़ें मेरे सामने आयी जिनके चलते देहरादून से उठकर मुझे दिल्ली आना पड़ा।
मैंने उन्हीं दिनों एक खबर पढ़ी थी कि ऑस्ट्रेलिया में रह रही 2 बहनों ने आन्दोलन में शामिल अपने पिता को कड़कड़ाती ठण्ड में सरकार से अपने हक के लिये लड़ते हुये देखा, तो उन्होंने 10 लाख के गरम कपड़े आन्दोलनकारियों के लिए भिजवा दिये। ऐसे ही एक 19 साल की लड़की मूस (मुस्कान) ऑस्ट्रेलिया से किसानों के समर्थन में दिल्ली आ गयी। जब मूस से पूछा गया कि उनका किसानी से क्या लेना देना है या वो यहां क्या करने आयी हैं, तो उसने जवाब दिया कि मैं कुछ कहने नहीं आई हूँ, मै सिर्फ किसानों को सुनने और उन्हें ये जताने आयी हूं कि तुम लड़ो बाकी लोगों की तरह मैं भी तुम्हारे साथ हूँ। मूस से प्रभावित होकर एक और लड़की कनाडा से दिल्ली को निकल पड़ी।
ये वो वक्त था जब भारतीय मुख्यधारा मीडिया का एक बड़ा धड़ा सरकार के सुर में सुर मिलाकर किसानों को खालिस्तानी, पाकिस्तानी, विदेश फंडेड और इससे भी तुच्छ आरोपों से सुशोभित करने से बाज नहीं आ रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो सरकार ने अपनी पूरी ताकत आन्दोलन को बदनाम और बंद करने की कोशिशों में लगा दी हो। सारे हथकंडे एक के बाद एक जब फेल होने लगे तब भारत का मीडिया यहां तक गिर गया कि उन्होंने किसानों को झूठा और नकली किसान तक कहना शुरू कर दिया। ऐसे हास्यास्पद आरोप मढ़े गये कि किसान अंग्रेजी बोल रहा था और पिज़्ज़ा खा रहा था!
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अनाज उगाने वाले से सवाल किये जा रहे थे कि वो 'इतना अच्छा' खाना कैसे खा सकता है! ये निराश कर देने वाला दौर था कि देश का मीडिया और सरकार प्रायोजित धड़ा अपने ही मुल्क के किसानों को सुनने के बजाय उन्हें कटघरे में खड़ा करने पर तुला हुआ था, वह भी उस अपराध के लिये जिसका अपराधी कोई और था... वो जिसने किसानों से उनके घरों की छत छीन ली थी। किसान अपने बच्चों के हाथों की गर्माहट और पत्नियों के साथ शामें गुजारने के बजाय, सड़क पर बेघर लेटे हुये थे। जहां खाना मिलता, वहां वो खा लेते और हर शाम इस उम्मीद में गुजर जाती कि शायद कल उनकी सरकार मान जाये, लेकिन अफसोस ऐसी नई सुबह आज तक नहीं आई है। इस बीच किसानों ने इतिहास में कई सुनहरे पन्ने जरूर जोड़ दिये हैं।
सिंघु बॉर्डर पहुंचने के लिए मेट्रो और बस के बाद 2 किलोमीटर पैदल चलने के बाद मैं धरनास्थल के मुख्य मंच के पास पहुंची। इन दिनों कोरोना के चलते मास्क और दूरी ये दो चीज़े सभी ने अपना ली हैं, लेकिन बॉर्डर के अन्दर घुसते ही मानो मैं नई दुनिया में दाखिल हो गई थी। दिल्ली पुलिस के बैरेकेडिंग को पार करते ही एक आजाद दुनिया थी, जहां जिंदादिल किसान गांधी के देश में गांधी के तरीकों से अपनी लड़ाई लड़ रहे थे।
बैरेकेडिंग के पार इस दुनिया में ना कोई दूरी थी, ना कोई मास्क और ना ही कोई कोरोना! ये चौंकाता भी है। इतने ज्यादा लोगों के होने के बावजूद मेरी पिछले 7 महीनों की सारी घबराहट दूर हो गयी थी। अब इन सभी लोगों की तरह मुझे भी कोरोना से कोई डर नहीं लग रहा था। यहां भी कोरोना से बचने के लिए उतनी ही एहतियात बरती गयी थी, जितनी किसी भी चुनावी रैली में बरती जाती हैं... फर्क सिर्फ इतना था कि यहां डॉक्टर्स के कैंप लोगों की सेवा के लिये लगे हुये थे।
भीतर एक नया लोक था। कहीं लोग नहा रहे थे, कहीं खाना खा रहे थे, कोई सोया हुआ था, कोई सड़क साफ़ कर रहा था। कहीं मेडिकल कैंप लगे थे, कहीं भाषण चल रहे थे, कहीं जोर-जोर से पंजाबी संगीत चल रहा था तो कहीं किसान जत्थों में गप्पबाजी में मशगूल थे। कुछ के हाथ में उस दिन के अखबार थे, तो कोई रात के लिये अपने टेंट को दुरुस्त कर रहा था, जिससे तीखी हवाओं से बचकर वो सो सके। कुछ लोग लंगर में सेवा दे रहे थे। बहसें चल रही थी, कहीं कोई सिर्फ सुस्ता रहा था, कोई पढ़ रहा था, कुछ नारेबाजी करते हुए घूम रहे थे... हर गुजरते कदम पर यही दृश्य था। एक अजब मेला लगा हुआ था, जो शायद ही दोबारा कभी हिन्दुस्तान में लगे। हिन्दुस्तान के लोकतंत्र का रंग और सीन इससे बेहत्तर और क्या हो सकता था कि जाति-धर्म के झगड़ों से परे लोग अपने अधिकार के लिये इकट्ठे लड़ रहे हैं।
आन्दोलन में मैं अपने एक दोस्त के साथ गई, जो वहां काफी दिनों से बुक स्टॉल लगा रहा था। कई दिनों तक में मैं सिंघु से टीकरी और टीकरी से गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों के बीच घूमती रही। मैंने उनसे बातें करना शुरू किया और ऐसी-ऐसी कहानियां मेरे सामने आई कि मेरे लिये यह सब लिखना जरूरी हो गया। मुझे लगा कि इस आंदोलन के बारे में और किस तरह के लोग यहां शामिल हैं, इन सब बातों के बारे में मुझे लिखना चाहिये। ऐसे दौर में जब टीवी पर रोज आपको बताया जा रहा हो कि किसान आंदोलन बेवजह है, और जहां सिर्फ सरकार की भाषा और सरकारी शब्दों के फ्रेम में रखकर ही आंदोलन को दिखाकर आम भारतीयों के जेहन में बुरी तस्वीर बनाने की कोशिशें हो रही हों, तब मुझे उस सच को लिखना चाहिये जो मेरी आंखों देखी है।
गुरदासपुर का हैप्पी
सामान्य कद काठी, सिर पर पगड़ी पहने एक लड़का मेरे बगल में काफी देर से खड़ा था। उसकी उम्र करीब 20 साल होगी। वो अपनी उम्र और राजनीतिक समझदारी को प्रदर्शित करता हुआ ही चुटकुले नुमा तख्ती पकड़े हुए खड़ा था। जिस पर लिखा था- “मोदी जी जैसे आपने अपनी पत्नी को छोड़ा वैसे ही आप हम किसानों को भी छोड़ दें”। यह पढ़कर मैंने लड़के की तस्वीर ली और वापस अपनी जगह पर आकर खड़ी हो गयी। उसका नाम था हैप्पी और वह पंजाब के गुरदासपुर का रहने वाला था।
मेरे कटे हुए बाल देख कर उसने हैरानी जताई और खुद को सवाल दागने से नहीं रोक सका। उसने बड़ी मासूमियत से पूछा-
“आपने बाल अभी काटे या बाय बर्थ ही ऐसे हैं”
“अभी काटे।”
“आपके घर वालों ने मारा नहीं? मैंने तो एक बार कटवा लिए थे तो घरवाले मुझे ही काटने दौड़ पड़े, वो क्या है ना बड़े बालों में डेंड्रॉफ्फ हो जाता है”
उसने ऐसे ही ढेर सारे उलजलूल सवाल मुझसे पूछ डाले। बातों ही बातों में पता चला कि हैप्पी बी-फार्मा का स्टूडेंट है। मैंने यूं ही उसे छेड़ने के लिए कह दिया- “कहां जाओगे फिर ऑस्ट्रेलिया या कनाडा?” उसने जवाब दिया कि ऑस्ट्रेलिया तो उसकी बहन रहती है नर्सिंग की स्टूडेंट है, उसे पढ़ाई खत्म कर के कनाडा जाना है।
“सही है! पंजाब में तो कनाडा के मील के पत्थर भी होते हैं ना?”
“हाँ जी, मेरे खुद के गाँव मे ही दो हैं।“
“तुम्हारे पिता के बाद तुम्हारे खेतों का क्या होगा?”
“कुछ नही जी अपने खेत रेंट में दे देंगे।“
“तुम यहां आंदोलन में क्या कर रहे हो? तुम्हे तो सिर्फ भारत छोड़कर जाने की जल्दी है। खेती-किसानी से तुम्हारा कोई लेना देना नहीं! अपना समय क्यों बर्बाद करते हो!”
उसे मेरी बात जैसे चुभी हो और वह तपाक से बोल पड़ा- “हां अभी तो नहीं है, लेकिन क्या पता बाद में वापस आने का मन बन जाये तब”। हैप्पी लगातार गांव और सिंघु बॉर्डर के बीच आ-जा रहा था। लगातार इतने बड़े आंदोलन का हिस्सा बनकर उसे बदलाव की उम्मीद है। मैं हैप्पी से विदा लेकर आगे बढ़ गई।
मोगा जिले के जोगिंदर
बुकस्टॉल पर तीन नए कृषि बिलों पर एक विश्लेषण करती हुई पत्रिका रखी हुई थी। टाइटल पढ़कर एक सरदार जी हमारे पास आए और हम से पूछा कि क्या यह किताब उन्हें पंजाबी में मिल सकती है? हमारे मना करने पर उन्होंने कहा कि कोई नहीं आप मुझे हिंदी में ही दे दीजिए। मैं इन्हें अपने गांव में सबको दूंगा और उन्हें पढ़ने को कहूंगा। 2 दिन पहले मैं यह किताब लेकर गया था तो मुझे यह काफी ज्ञानवर्धक लगी। बातों-बातों में पता चला कि सरदार जी का नाम जोगिंदर है और वह पंजाब के मोगा के रहने वाले हैं। वो बस ड्राइवर थे और सिंघु बॉर्डर से मोगा अपने गांव वह 9 बार लोगों को लाने ले जाने का काम अब तक कर चुके थे। हमसे मुलाकात के अगले ही दिन उन्हें दसवीं बार वापस गांव लौटना था।
उनसे बात करने के दौरान पता चला कि उनके गांव से एक बार में आधे लोग ही आंदोलन में शामिल होते हैं। आधे लोगों को गांव में ही रुक कर बाकी गांव और किसानी से जुड़े हुए कामों को करना होता है। गांवों में सभी काम सामूहिक रूप में हो रहे थे। उनके गांव के गुरुद्वारे से रोज शाम को अनाउंसमेंट होता था कि जिस घर में बड़ा बुजुर्ग नहीं है या जिस घर के आदमी आंदोलन में शामिल होने गए हैं, क्या उस घर के बच्चों को या औरतों को किसी चीज की जरूरत तो नहीं है? उनके खेतों का और उनके बाकी रोजमर्रा की जिंदगी के कामों का सभी लोग मिलजुल कर ध्यान रख रहे थे।
गांव का कोई भी शख्स ऐसे ही अपनी मर्जी से आंदोलन में आ-जा नहीं सकता था। आंदोलन में शामिल होना अब किसी की निजी इच्छा भर नहीं रह गई थी, यह एक जिम्मेदारी थी, जिसे हर हाल में सभी को निभाना ही है। उन्हें आंदोलन से काफी उम्मीद थी। साथ ही वे किताबों और भगत सिंह के विचारों से काफी प्रभावित थे। उस वक़्त वो थोड़ा जल्दी में थे तो अपने गांव वालों को पढ़ाने केलिए वो 100 पुस्तिका का ऑर्डर देकर चले गए।
मोदी, कंगना और गृह मंत्री अमित शाह के कार्टून वाले पोस्टर्स
जैसे-जैसे मैं आन्दोलन में आगे बढती चली गयी नजारे बदलते चले गये। कीचड़ वाली सड़कों को पार कर और लंगर की भीड़ को पार कर आगे बढ़ना भी एक बड़ा काम लग रहा था। हर वक़्त ट्रेक्टर आते-जाते रहते। जगह-जगह गोदी मीडिया के पोस्टर्स को लाल रंग से काटा गया था और उनके प्रमुख पत्रकारों के मुंह पर कालिख लगी हुई थी। यहां सिर्फ पत्रकारों का ही बॉयकॉट करने वाले पोस्टर ही नहीं लगे थे, बल्कि पीएम नरेन्द्र मोदी, फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत और गृह मंत्री अमित शाह के कार्टून वाले पोस्टर्स जगह-जगह चस्पा किये गये थे, जिनमें गुरुमुखी में चुटकुले लिखे गये थे।
लंगर, जो किसी को भूखा नहीं सोने देते
मैं आगे धरना स्थल के भीतर केंद्र की ओर बढ़ रही थी। इस बीच लगातार मेरी नजर धरना स्थल पर लगे लंगरों पर भी थी। कहीं जलेबी का लंगर, कहीं दूध का लंगर, कहीं गाजर का हलवा बंट रहा था, कहीं पिज्जे-दा लंगर तो कहीं प्रोटीन दा लंगर...ये सब दिखाता है कि आंदोलनकारी किसानों के समर्थन में आस-पास के गांवों से पर्याप्त मात्रा में राशन पंहुच रहा है।
कई जगह लड़के दूसरे लड़कों की तेल मालिश करते हुये नजर आये तो किसी टेंट में बच्चों की ऑनलाइन क्लास चल रही थी। कहीं टीचर्स ऑनलाइन क्लास दे रहे थे तो कहीं गुमनाम किसान नेता अलग-अलग चैनलों और यूट्यूबर्स को बाइट दे रहे थे। इधर सिर्फ राजनीति ही नहीं थी, बल्कि मानों पूरा एक शहर बस गया था। यहां जिम में कसरत करते हुये लोग मिल जाएंगे, सड़के साफ़ करते हुये लोग दिखेंगे और तो और छोटे बच्चे करतब करते हुये भी नजर आ जायेंगे। कहीं निहंगों के शानदार घोड़े खड़े मिलेंगे, तो कहीं आंदोलनकारियों के कपड़े धुलने के लिये स्टॉल दिख जाएगा।
एक कैंप मनचलों की फिटनेस का भी था
कहीं कपडे सिले जा रहे थे तो कहीं जूते बंट रहे थे, पतीले भर भर हर वक्त चाय बनती रहती, हर 500 मीटर में कोई ना कोई इंटरव्यू देता दिखायी देता था। इन सबके बीच महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा का खास ध्यान रखते हुए, एक टेंट फिटनेस का भी था। फिटनेस वाले टेंट में मनचलों की मरम्मत करके उन्हें दुरुस्त बना कर बाहर भेजा जाता था।
कुल मिलाकर सेवा और सामूहिकता के वो रंग इस आंदोलन में मैंने देखे जो मुझे और किसी दूसरे आंदोलन में आज तक नजर नहीं आये हैं। इस आंदोलन के इतना लंबा टिकने की भी शायद यही वजह हो... सामूहिकता, जो कि कूट-कूट कर यहां भरी हुई नजर आती है। सबने अपने-अपने काम पकड़े हुये हैं, जिससे आंदोलन व्यवस्थित ढंग से चल सके।
स्टेज से 2-3 किलोमीटर आगे निकल जाने के बाद मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं राजधानी के भीतर चल रहे किसी आन्दोलन में नहीं, बल्कि पंजाब के किसी पिंड में पहुंच गई हूं। कई जत्थों में बूढ़े हुक्का गुड़क रहे थे तो कुछ दिल्ली की सर्दी से बचने के लिये अलाव के आस-पास घेरा डालकर बैठे थे। पूरा माहौल जमा हुआ था, जहां इस बात का भी तनाव गायब था कि उन्हें सड़कों पर बैठे हुये ही कई दिन गुजर गये।
उन्हें लगा कि अब वो इंटरनेट पर छाने वाले हैं!
इसी बीच मेरी नजर धूल से सने एक ट्रक में बैठे 3 बुजर्ग आदमियों पर पड़ी। उनकी शक्ल में उनका तजुर्बा दिखाई दे रहा था। मैले-कुचैले कपड़े, फटे हुए पैर, सफेद कुर्ता पायजामा, जो अब लगभग काले रंग का दिखने लगा था। झुर्रियां ऐसी जैसे किसी बूढ़े पेड़ की छाल हो। इनकी उम्र 80 से ऊपर रही होगी। मैंने उनके पास जाकर दुआ-सलाम की, खैरियत पूछी और उनकी फोटो खींचने की इजाजत ली। फ़ोटो लेने के बाद मैंने आगे बढ़ने की इजाजत ली, तो उन्होंने रोककर मुझसे फ़ोटो दिखाने के लिए कहा। उनके चेहरे पर खुशी दौड़ पड़ी। वो बोले- “पुत्तर ऐ फ़ोटो तू नेट विच पावेगी?” मैंने जवाब दिया- “हां, जी पा दूंगी।” और यह सुनते ही उनके चेहरों में एक अलग ही सन्तुष्टि मुझे नजर आई। वो ऐसे खुश हुये कि जैसे अब उन्हें पूरी दुनिया जान जाएगी। उन्होंने जिंदगी में कभी भी इंटरनेट का इस्तेमाल नहीं किया होगा, लेकिन उन्हें लगा कि अब वो इंटरनेट पर छाने वाले हैं।
पुत्तर साम्झ गयी?
थोड़ा आगे जाने पर कुछ और उम्रदराज़ सरदारों का जत्था आग सेंकता हुआ नजर आया। उनके पास बैठकर खूब देर तक मैंने भी आग सेंकी। उनसे गप्पें मारी और काफी देर तक हम आंदोलन पर चर्चा करते रहे। इस बीच जवान लड़के आकर हम से चाय, नाश्ता पूछते रहते। कभी वहीं बैठकर हमसे बातें करते। एक बूढ़ा आदमी कुछ बोल रहा था। उन्हें हिंदी नही आती थी, वो अपनी सारी बातें पंजाबी में करते थे। उनके दांत भी नहीं थे, तो उनकी बात समझना मेरे लिये और भी मुश्किल हो रहा था।
वो अपने गांव से बहुत कम बाहर निकले थे। वो कब-कब अपने गांव से बाहर निकले इसकी तारीख तक उन्हें याद थी, लेकिन इस बार वो आंदोलन में पहले दिन से ही दिल्ली में आकर बैठ गये थे। वो बता रहे थे कि किस तरह गुरु गोविंद ने 2 रुपये में लंगर की शुरुआत की जो कि अब तक चला आ रहा है। वो ऐसे ही कई सारे किस्से कहानियां सुना रहे थे। हम सभी उनकी बातें ध्यान से सुन रहे थे। इधर वो बीच-बीच में रुक कर मुझसे पूछते- “पुत्तर साम्झ गयी?”
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इस दफा मैंने ना में गर्दन हिलाई तो वहां मौजूद सभी लोग जोर-जोर से हंसने लगे। उनमें से एक ने मुझसे पूछा, “आप कहाँ से आये हो पुत्तर जी?”
मैंने कहा- “जी मैं उत्तराखंड की रहने वाली हूं।”
“बहुत दूर है जी। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश पहले एक ही थे ना?”
“हां, जी।”
“फिर उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश अलग हो गए और बन गया झारखंड।” मैंने उन्हें ठीक नहीं किया और कहा- “हाँ जी”! वैसे भी क्या फर्क पड़ता है, झारखंड हो या उत्तराखंड, देश के हर नागरिक की हालत तो एक जैसी ही है? बहुत वक्त गुजर चुका था, लिहाजा मैंने चलते-चलते ही उनसे कहा, “आप तो यहां हो और आपके मोदी साहब गुरुद्वारे में!” ...यह सुनते ही एक बार फिर वहां सब के सब जोर-जोर से हंसने लगे। मैंने विदा ली और आगे बढ़ गई।
टिकरी बॉर्डर में गुजरा दिन
अगले दिन मुझे अपने दोस्त के साथ टिकरी बॉर्डर पर बुक स्टॉल लगाने जाना था। वहां का माहौल सिंघु बॉर्डर से बिल्कुल अलग था। यहां बॉर्डर तक मेट्रो जाती थी और बस्तियों से गुजर कर धरना प्रदर्शन वाली जगह पर पहुंचना होता था। यहां पर सिंघु बॉर्डर के मुकाबले हलचल कम ही थी। फ्लाईओवर के नीचे स्टेज था, जहां तमाम लोग भाषण और गाना-बजाना कर रहे थे। सामने देखने में रंग-बिरंगी पगड़ियों का सैलाब सा लग रहा था। आप जितने रंग सोच सकते हैं, वहां उतने रंगों की पगड़ियां पहने हुये किसानों का हुजूम था। वहां उन किसानों की ही तरह एक बूढा पेड़ भी था जो मानो उनका साथ देने के लिए तना हुआ खड़ा हो!
हम वहां किसानों के लिए प्रेमचंद, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद और तमाम क्रांतिकारियों की जीवनियां या उनकी खुद की लिखी हुई किताबें लेकर गये थे। लोग चाहे तो उन्हें खरीद कर घर ले जा सकते थे या शाम 6 बजे तक किताब वापस करने के वादे के साथ ले जा सकते थे।
सिंघु की तरह यहां भी सड़कों में कीचड, ट्राली, ट्रेक्टर, टेंट थे। यहां भी लोग कीचड़ वाली सड़कों में खाना खा रहे थे और पेट्रोल पम्पों में टेंट लगा कर सो रहे थे। टीकरी में मिले तमाम लोगों से की गयी बातचीत मुझे किसानों से और ज्यादा जोडती थी।
हमारे बच्चे एक दिन जरूर समझेंगे!
टीकरी में मुझे भटिंडा के करतार सिंह मिले, जिन्होंने स्टेज के पास ही अपना मेडिकल कैंप लगाया हुआ था। वो अपने आने वाली पीढ़ी का किताबों के प्रति रुझान न होने के चलते चिंतित थे। जब उनसे मैंने पूछा कि इस लड़ाई का असर ज्यादा से ज्यादा 10 साल और रहेगा। आने वाली पीढ़ी तो खेती के लिए तैयार ही नही है? इसपर उन्होंने कहा- “बच्चों के सिर पर तो विदेश जाने का जैसे भूत ही सवार हो गया हो। इन्हें लगता है कि इधर उन्होंने फरमाइश की और विदेश की टिकिट मां-बाप इनके हाथ मे रख देंगे। आप जानती हो विदेश जाने के लिए कम से कम 30 लाख रुपये लगते हैं। कहाँ से लाएंगे हर बच्चे के लिए इतना पैसा?”
मैंने पूछा- “लेकिन आंदोलन में युवाओं की कमी तो नहीं है!” उन्होंने कहा- “हाँ, चाहे वो विदेश ही जाना चाहते हैं, लेकिन खेती से अलग तो नहीं हैं ना! अपने मां-बाप का संघर्ष तो अपनी आंखों से वो भी देख ही रहे हैं। इतने बड़े आंदोलन का हिस्सा हैं, उन पर भी जरूर इसका कुछ ना कुछ तो असर पड़ेगा ही। कुछ बच्चे तो वापस आ रहे हैं, कुछ बच्चे वहीं रहकर आर्थिक मदद दे रहे हैं। हमारे बच्चे जरूर समझेंगे। वो एक दिन पक्का समझेंगे जी।”
कम्युनिटी वर्क
अपने घर से बाहर अगर हिंदुस्तान में किसी चीज़ की सबसे ज्यादा दिक्कत होती है तो वह है साफ सुथरे टॉयलेट! ..और जब अच्छी खासी संख्या में लोग एक ही जगह पर इकट्ठा हो जाएं, तब ऐसे में साफ टॉयलेट तो दूर खाली टॉयलेट मिलना भी बहुत बड़ी बात है। मैं टॉयलेट ढूंढते हुए हरियाणा के जत्थे की तरफ बढ़ गयी।
मैं यहां किसी से टॉयलेट के बारे में पूछ ही रही थी कि इतने में एक लड़का मेरे पास आकर बोला सिस्टर आप मेरे साथ चलो, मैं दिखाता हूं। वो हरयाणवी लड़का होटल मैनेजमेंट का स्टूडेंट था। अपने फाइनल एग्जाम देकर विदेश जाने की तैयारी कर रहा था, लेकिन आंदोलन के चलते वो 2 महीने से बॉर्डर पर ही जमा हुआ था। वो वहां वालेंटियर का काम कर रहा था और उसकी ड्यूटी टॉयलेट के पास ही लगी हुई थी। उसने बताया कि कोई भी अपने हिसाब से आंदोलन में ड्यूटी नहीं दे सकता। यहां पंजाब और हरियाणा अलग नही था, ना ही उनकी पुरानी लड़ाइयों के ही अब कुछ मायने रह गये थे। जगह जगह पंजाब-हरियाणा भाईचारे के बैनर लगे हुये थे।
पंजाब और हरियाणा के बीच सतलुज के पानी को लेकर जो लड़ाइयां रही हैं, वो सब इस आंदोलन ने फिलवक्त खत्म कर दी हैं और दोनों ही राज्यों के लोग मिलकर सरकार के फैसलों के खिलाफ लड़ रहे हैं। इनमें कोई भी टकराव नजर नहीं आया। पंजाब के लड़के पानी बांट रहे थे, तो हरियाणा के लड़के कहीं कोई मनचला न हो इसकी निगरानी पर जुटे हुये थे। पंजाबी अगर सबके सोने का इंतज़ाम देख रहे थे, तो हरियाणवी सबके लिये गरम पानी का इंतज़ाम कर रहे थे। सारा काम बहुत अच्छी तरह से बांट लिया गया था। कुछ लोगों की ड्यूटी इस काम में थी कि जाग-जाग कर इस बात का ध्यान रखा जाए कि कहीं कोई चोरी तो नहीं हो रही है!
ऐसे ही ढेर सारे काम वहां आसानी से हो रहे थे। वो जगह एक परिवार जैसी थी। वहां पर सभी के अलग अलग काम बंटे हुए थे। कम से कम यह परिवार बाहर से तो दिखने में काफी अच्छा ही लग रहा था। बाकी, अंदर जो है, वो तो है ही।
हरियाणा की राम्या
हरियाणा की जो तस्वीर मेरे दिमाग मे है वो है हरियाणा के गांवों की या फिर उन सरकारी आंकड़ों की है, जिनमें हरियाणा की हालत देश में सबसे खराब है। मसलन हरियाणा में औरतों की स्थिति और शिक्षा से लेकर आजादी तक के सवाल जो इस राज्य का नाम सुनाई देते ही अब तक मेरे जेहन में कौंधते थे। हरियाणा का टेंट जिस पेट्रोल पम्प में लगा हुआ था, वहां कुछ तो अलग और खास था। ..और यह खास बात क्या थी! असल में उनका टेंट एक ट्रेक्टर था।
वहां नुमाइश में लगे ट्रैक्टर के अस-पास उस खाप (52 गांव मिला कर एक खाप) का अध्यक्ष धोती और पगड़ी लगाए शान से घूम रहा था। हर नेता की तरह उसके आस-पास भी लोग घूम रहे थे। चौधरी साहब का अच्छा खासा भभका बना हुआ था, लेकिन इन सबके बावजूद जो बात ध्यान देने वाली थी, वो यह कि यहां इस स्टेज में 8 आदमियों के साथ एक औरत बैठी हुई थी। उनका नाम राम्या था।
लंबी, खूबसूरत, जीन्स पहने हुए करीब 40 साल की औरत। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक अकेली औरत इतने सारे आदमियों के साथ कैसे! मैं खुद को उनसे पूछने से नहीं रोक सकी और जब मैंने उनसे यह सवाल किया तो उन्होंने कहा- 'वो एक फैशन डिजाइनर है और खेती से उनका संबंध अपने पिता के चलते है।'
बातों-बातों में पता चला कि राम्या की शादी नही हुई है। फिर तो मुझे और भी ज्यादा आश्चर्य हुआ। एक ऐसा समाज जहां पर लड़कियों को और उनके वजूद को ही स्वीकारने में मर्दो को झिझक होती है, वहां पर एक ऐसी लड़की जो शादीशुदा ना हो कैसे स्वीकार कर ली गई। यही शायद इस आंदोलन की खूबसूरती भी है, जहां कई बंधन पीछे छूट गये हैं।
राम्या ने भी न जाने ऐसी जिंदगी चुनने में कितना लंबा संघर्ष किया होगा। शायद इसीलिए कहते हैं कि आंदोलन जब भी होते हैं, वो कई चीजों को बदलकर रख देते हैं। आंदोलन सिर्फ तय चीज के लिए ही नहीं होते, बल्कि और भी कुरीतियों को तोड़कर समाज को आगे बढ़ाते हैं और राम्या ने वह शुरुआत कर ली है।
जिंदादिल हरयाणवी औरतें
पूरे दिन कई सारे जत्थे नारे लगाते हुए स्टेज के पास से गुजर रहे थे। कभी 2 आदमी, कभी 10 आदमी कभी कुछ आदमी और कुछ औरतें, कभी सिर्फ बच्चे, कभी सिर्फ पीले झंडे वाले, कभी लाल झंडे वाले, कभी सफेद, कभी तिरंगे वाले, लेकिन इनमें सबसे मजेदार जत्था था हरयाणवी औरतों का जत्था।
50-55 साल की औरतें सर पर लंबा घूंघट नुमा पल्लू लटकाये वो बेहद जोश में आंदोलनस्थल के भीतर दाखिल हो रही थी। घरेलू काम-काज करने वाली वो किसान औरतें गजब का आकर्षण पैदा कर रही थी। वो नारे लगाते हुए बीच-बीच में नाचने लगती और कुछ ऐसा बोल जाती कि उनके साथ सभी का नाचने का जी करने लगता। आंदोलनों में ऐसे जिंदादिल लोग भी होते हैं, यह भी मुझे पहली बार ही पता चला।
इधर न्यूज़ चैनल तो ऐसा माहौल बना रहे थे, जैसे कि आप आंदोलन में गए और अगला निवाला फिर सीधा जेल में ही खाने को मिलेगा! ये शर्मनाक है कि देश का मीडिया इस दौर में सच के साथ नहीं खड़ा है। ये मीडिया का काला दौर है, जहां उनके पोस्टर किसानों ने चिपकाये हैं, जिनपर लिखा हुआ है- 'गोदी मीडिया दूर रहे'।
फेसबुक में टैग कर देना
आन्दोलन में कई सारे रंग नजर आ रहे हैं। किस्म-किस्म के लोग और उनके दिलचस्प किस्से। इन सब के बीच एक प्रजाति सोशल मीडिया प्रेमियों की भी थी। फिर चाहे सिंघु हो, गाजीपुर हो या फिर टीकरी बॉर्डर। किसी की भी तस्वीर लेने से पहले आदतन मैं उनसे पूछती थी कि क्या मैं उनकी तस्वीर ले सकती हूँ। कभी जवाब में हाँ आता, कभी मुस्कराहट, कभी कैंडिड का नाटक और कभी सामान्य सा जवाब- ‘हमें भी दिखाओ कैसी आयी है!’
एक बूढ़ा शख्स जो अपने रेडियो में देशभक्ति गीत बजाते हुये चल रहा था, उनका जब मैं वीडियो बनाने लगी, तो उन्होंने कहा- 'अच्छी तरह से बनाना और फेसबुक में मेरे बेटे को टैग कर देना, क्योंकि मुझे तो फेसबुक चलाना आता नहीं।' ऐसे ही एक निहंग ने तो बकायदा मुझे बैठा कर खुद की प्रोफाइल को फेसबुक पर सर्च करवाया और फिर अपनी तस्वीर को उन्हें टैग करने को कहा। फेसबुक में उनके बहुत सारे दोस्त आन्दोलन के दौरान बने थे। ये कितनी खूबसूरत बात थी, भारत का एक हिस्सा दूसरे हिस्से से जुड़ रहा था, भले ही यह दुनिया आभाषी थी।
किसान आंदोलन के बीच कुछ रोज गुजारने के बाद जब मैं वापस देहरादून लौटी, तो मेरे जेहन में कई ऐसी कहानियां दर्ज थी, जिन्हें मैं शायद ही ताउम्र भुला सकूं। मैं बुढ़ापे में जब कभी नरेन्द्र मोदी का नाम कहीं सुनूंगी, तब मुझे वो बूढ़े किसान पहले याद आएंगे, जिन्हें मोदी सरकार ने सड़कों पर बिठा दिया था। मैं जब कभी किसी को इस दौर का इतिहास बताऊंगी, तो मंहगे कपड़े पहनने वाले प्रधानमंत्री के बारे में बताना पसंद नहीं करूंगी, मैं उन्हें उन तीन बूढ़ों की कहानी सुनाऊंगी, जिनके सफेद सलवार सड़क पर संघर्ष में काले पड़ गये थे।
मैं आने वाली पीढ़ी को यह नहीं बताना चाहूंगी कि एक वक्त में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी, मैं उन्हें बताऊंगी कि कैसे हिन्दुस्तान के किसानों ने इतिहास रच दिया था। मैं उन्हें बताऊंगी कि कैसे किसानों के सामने मिसकॉल मरवाकर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी बनने की डींगें हांकने वाले दल को किसानों ने घुटने टिकवा दिये थे और कैसे उनकी मांगों को अनसुना किया जाता रहा।
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