हिमालय पर शोध के मामले में नेपाल से फिसड्डी है भारत, हवा-हवाई रिसर्च की भी नहीं है यहां कमी!

Special Reportहिमालय पर शोध के मामले में नेपाल से फिसड्डी है भारत, हवा-हवाई रिसर्च की भी नहीं है यहां कमी!

महेंद्र रावत

महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।

हिमालय पृथ्वी की सबसे नवीनतम पर्वत श्रृंखलाओं में से एक है। ये पर्वत श्रृंखलाएं 4 से 5 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में आयी हैं। हिमालय का विस्तार भारत, चीन, नेपाल और भूटान जैसे देशों तक होता है। भारत में यह पर्वत श्रृंखला जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, व उत्तर-पूर्वी राज्यों के पर्यावरण, जलवायु और जनजीवन को सीधे तौर पर प्रभावित करती है, लेकिन अब यह तेजी से पिछले कुछ सालों में प्रभावित हुई है। हिमालय जितनी विविधताओं से भरा हुआ है, उतना ही संवेदनशील मसला भी है। इसे लेकर कई शोध अब तक किये जा चुके हैं, लेकिन यह भी नाकाफी साबित हो रहे हैं।

एक मसला भ्रामक और तथ्यहीन शोधकार्यों का भी है, जो चिंता का बड़ा विषय है। इसके अलावा पर्यावरण को लेकर सरकारों की बेरुखी और जमीनी स्तर पर शोध के नतीजों के मुताबिक नीतियां न बना सकने और कमजोर इच्छाशक्ति भी, इस पर्वत श्रृंखला को नुकसान ही ज्यादा पहुंचा रही है। एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि हिमालय पर शोध के मामले में हमारा पड़ोसी देश नेपाल बाजी मार ले जाता है।

हाल ही में गोविन्द बल्लभ पंत हिमालयी विकास संस्थान के शोधकर्ताओं ने पिछले 200 वर्षों में हिमालयी क्षेत्र में किये गए शोध कार्यों पर समीक्षा करते हुए एक शोध पत्र छापा है, जिसमें ऐसे तथ्य निकलकर सामने आते हैं, जो चिंतित करते हैं। शोधकर्ताओं ने अलग-अलग देशों, क्षेत्रों, विषयों और कालखंडों में आये शोध कार्यों को विश्लेषण करने के साथ ही, मौजूदा दौर में चल रहे शोधों में खामियां भी सामने रखी हैं। शोध सम्बन्धी गणनाओं के लिए शोधकर्ताओं ने 8 स्तरीय डेटबेसेस का इस्तेमाल किया है, जिसमें पिछले 200 सालों का हिमालयी जैव-विविधता से जुड़ा साहित्य खंगाला गया है। शोधार्थियों के समूह ने पाया कि 1808 से लेकर 2018 के दौरान हिमालयी जैव विविधता पर 28,120 लेख, 3725 शोध पत्र, व 3471 पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं। 

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हर भारतीय राज्य शोध में जुटा
हिमालय भारत के शोधार्थियों के लिये एक हॉट टापिक की तरह है। तकरीबन हर भारतीय राज्य अपने-अपने स्तर पर हिमालयी शोध में लगा हुआ है। हालिया दशकों में जिस तरह से वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन एक बड़ा मुद्दा बना है, हिमालय पर शोध करने वालों की दिलचस्पी भी बढ़ी है। अलग-अलग शोधों में जो कॉमन बात निकलकर समाने आती है, वह है हिमालय की जलवायु का अन्य पारिस्थितिकीय तंत्रों (इकोसिस्टम) के समान गरम होना और यही असली चिंता भी है। इसके पीछे शोधार्थी भू-प्रयोगों में व्यापक बदलाव, जंगलों व संवेदनशील जगहों पर बड़े पैमाने पर जंगलों के कटान व अंधाधुंध विकास को जिम्मेदार मानते हैं।इसका सीधा असर हिमालय की जैव विविधता व लोगों की परंपरागत आजीविका स्रोतों पर भी बढ़ा है।

हजारों अज्ञात प्रजातियों का घर भी है हिमालय
भारत व पडोसी देशों की एक बड़ी आबादी हिमालयी क्षेत्र में रहती है व इसी पर निर्भर होकर अपना अपना गुज़र बसर करती है। हिमालय की जैव विवधता विश्व में बेहद अनूठी व समृद्ध है। यह अनेक दुर्लभ जीव, जंतुओं, पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों और मछलियों की हज़ारों ज्ञात व अज्ञात प्रजातियों का घर भी है। इनमें कई प्रजातियां तो ऐसी भी हैं, जो कहीं और पाई ही नहीं जाती हैं। विश्व मानचित्र में हिमालय की श्रृंखलाएं इतनी महत्वपूर्ण हैं। यहां से एशिया की कुछ बेहद महत्वपूर्ण नदियां निकलती हैं, जिस कारण इसे विश्व का तीसरा ध्रुव भी कहा जाता है। हिमालय अपनी इन्हीं खूबियों और विविधताओं के कारण वैज्ञानिकों, शोधकर्ताओं और यहां तक कि बुद्धिजीवियों की बहस-मुबाहिसों के केंद्र में भी रहा है। 

हिमालय की इकोलॉजी है हिट, नेपाल है आगे 
गोविन्द बल्लभ पंत हिमालयी विकास संस्थान के शोधकर्ताओं के मुताबिक हिमालय के मामले में इकोलॉजी (पारिस्थितिकी) सबसे अधिक शोध का क्षेत्र अब तक रहा है, जिसमें कुल शोध का 40 फीसदी लेख, 46 फीसदी शोध पत्र व 48 फीसदी पुस्तकें शामिल हैं। इसमें जीव जगत की बात करें तब सबसे ज्यादा तकरीबन 75 फीसदी शोध जानवरों, पेड़-पौधों, व Fungi पर अब तक हुआ है, जबकि पादप समूह के ही अन्य मसलन कवक (Algae), ब्रायोफाइट्स, व टेरीडोफाइट्स पर एक फीसदी से भी कम काम हुआ है। नेपाल शोध के मामले में काफी आगे है। हिमालय पर हुये कुल शोध में 20 फीसदी लेख व 34 फीसदी किताबें नेपाल से छपी हैं। शोध पत्रों के मामले में असम भारत के बाकी राज्यों के मुकाबले तुलनात्मक रूप से आगे चल रहा है।

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उत्तर-पूर्व के राज्य हो रहे फिसड्डी साबित
नेपाल और पश्चिम हिमालयी भारतीय राज्यों से प्रकाशित शोध और पुस्तकें भारतीय उत्तर-पूर्वी राज्यों से कहीं ज्यादा है। शोध में पाया गया है कि उत्तर पूर्वी राज्यों की जैव विविधता पर जानकारी व आंकड़ों का भण्डार छिपा ही रह गया है। इसका कारण बताते हुए शोधकर्ता कहते हैं कि उत्तर-पूर्व के शोधकर्ता अपने शोध व जानकारी सही पत्रिकाओं (हाई इम्पैक्ट व पीयर रिव्यूड जर्नल) में प्रकाशित करवा पाने में पीछे रहे हैं।

आपकी जानकारी के लिये बता दें कि हाई इम्पैक्ट व पीयर रिव्यूड जर्नल्स में शोध पत्र व लेख छपने के अंतरराष्ट्रीय मापदंड होते हैं, जिसमें क्षेत्र विशेष के वैज्ञानिक व विशेषज्ञ प्रकाशनार्थ शोध की गुणवत्ता को परखते हैं। शोध के निश्चित मानदंडों पर खरा उतरने पर ही इन जर्नल्स में शोध प्रकाशित हो पाता है।

13 फीसदी शोध कार्य को ही प्रतिष्ठित जर्नल्स में मिली जगह
असम से थोड़ा आगे बढ़कर उत्तर-पूर्व के राज्यों का हाल शोध पत्रों व पुस्तकों के मामले में खराब है। शोध की गुणवत्ता पर शोधार्थियों के समूह के मुताबिक नेपाल, भूटान, व भारतीय राज्यों के दो तिहाई शोध कार्य किसी भी उच्च स्तरीय पत्रिका (पीयर रिव्यूड जर्नल) में नहीं छपे। इनमें केवल 13 फीसदी शोध कार्यों को प्रभावी पत्रिकाओं (हाई इम्पैक्ट जर्नल्स) में स्थान मिल सका है। ऐसे में यह भी साफ है कि अधिकांश शोध असल में किसी काम के ही नहीं है।

ब्राजील अर्थ समिट के बाद बढ़ी दिलचस्पी
पिछले तीन दशकों में हिमालयी जैव-विविधता पर सालाना प्रकाशनों में इधर इजाफा हुआ है। प्राकशन में वर्ष 2000 के बाद से तेज़ी आयी है। इकोलॉजी की अगर देंखे, तो इस विषय पर पिछले दो दशकों के मुकाबले साल 2000 से पहले किताबें अधिक संख्या में आयी हैं। शोधार्थियों के मुताबिक 1970 के बाद से हिमालयी शोध में इजाफा होना शुरू हुआ और 1992 की ब्राज़ील अर्थ समिट के बाद इस दिशा में तेजी आ सकी। ब्राज़ील में हुई इस अंतराष्ट्रीय बैठक ने प्रकृति व पर्यावरण को बहस के केंद्र में ला दिया, जिस कारण हिमालयी क्षेत्र में भी शोध वर्ष दर वर्ष बढ़ते चले गये। दिलचस्प यह है कि यह उछाल ब्राजील में हुई बैठक के दस साल बाद दिखता है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसके पीछे का कारण अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर नीति लागू करने में आपसी समझदारी व संवाद की कमी रही है। इसके अलावा सरकारों का इस मुद्दे को लेकर बेरुखी भी बड़ी वजह बना है।

शोधकर्ताओं के अनुसार यूं तो हिमालयी क्षेत्र पर शोध की कोई कमी नहीं है, पर वे इस बात को पूरे दावे के साथ कह रहे हैं कि हिमालयी क्षेत्र के बारे में जानकारी की इसके बावजूद अब भी भारी कमी है। इतनी भारी संख्या में शोध होने के बावजूद हिमालयी क्षेत्र अपने बारे में आंकड़ों और पर्याप्त जानकारी की कमी झेल रहा है। शोध के अनुसार Fungi, बैक्टीरिया, एलगी, ब्रायोफाइट्स और टेरीडोफाइट्स हिमालय में अपनी व्यापकता और बहुतायत होने के बावजूद शोध का हिस्सा व्यापक तौर पर अब तक नहीं बन पाए हैं। शोध का कमोबेश यही हाल वैश्विक स्तर पर भी है, जहां पेड़-पौधों के बरक्स पशुओं पर ज्यादा शोध हुआ है।

तब किस काम के ऐसे शोधकार्य! 
हिमालय के पर्यावरण व उसकी जैव-विविधता की अहमियत क्षेत्रीय व वैश्विक स्तर पर हिमालय सम्बन्धी हमारे ज्ञान और जानकारी से तय होती है, जो कि बेहद कम है। बड़ी संख्या में हो रहे शोधकार्य प्रभावी पत्रिकाओं में जगह बनाने में नाकाम साबित हो रहे हैं, जिसके चलते इन आंकड़ों व जानकारियों का इस्तेमाल नीति निर्माण में नहीं हो पा रहा है। विशेषज्ञ इस खामी का समाधान निकालने की जरूरत पर बल देते हैं, ताकि एक सटीक व सही जानकारी पर आधारित हिमालयी नीति तैयार हो सके। एक सुझााव शोधकर्ता ही देते हैं। वह कहते हैं कि शोध पत्र जिन पत्रिकाओं में छप रहे हैं, उन पत्रिकाओं को वैश्विक स्तर के मापदंडों वाली सर्विस सिस्टम्स में पंजीकृत करवाना चाहिए। इसमें सरकारों की बड़ी भूमिका निभाने की जरूरत है, जिससे शोध को प्रोत्साहित किया जा सके। शोध क्षेत्र की इन कमियों की पहचान इसलिये भी जरूरी है, ताकि हिमालय पर जो जलवायु परिवर्तन का खतरा मंडरा रहा है, उससे समय रहते लड़ा जा सके।

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बहरहाल जितनी भारी संख्या में हिमालय पर शोध कार्य चल रहे हैं, उससे एकबारगी ऐसा लग सकता है कि हिमालय को लेकर जितना जानने के लिये था, वह जान लिया गया है। असल में ऐसा नहीं है। हिमालय पर चल रहे शोधों पर शोर बहुत है, इसे संरक्षित करने से संबंधित नई स्टडीज सामने आती रहती हैं पर इन शोधों की गुणवत्ता पर मुश्किल से बात हो पाती है। इन शोधों की दिशा और वर्तमान में जरूरी क्षेत्रों पर शोध की आवश्यकता पर मुश्किल से सवाल उठते हैं! चल रहे शोधों, पत्रिकाओं में छप रहे लेखों, पुस्तकों के हिमालय से जुडी जानकारी के भंडार से इसके संरक्षण में हुये योगदान को देखें तब ऐसी आलोचनात्मक नजर की जरूरत उठ खड़ी होती है, जो शोध और शोधार्थी दोनों को सही दिशा दे सके।

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