जंगलों की आग दिल के लिए है खतरनाक, अस्थमा के रोगियों का बुरा हाल

पर्यावरणजंगलों की आग दिल के लिए है खतरनाक, अस्थमा के रोगियों का बुरा हाल

NEWSMAN DESK

कोविड के डर के बीच रह रहे उत्तराखंड के लोगों को अब दिल की बीमारी, अवसाद, दमा, सीओपीडी और अन्य श्वास रोगों के गंभीर संकट से सामना करना पड़ रहा है। जंगलों में लगी आग से निकल रही उत्सर्जित गैस और कार्बन पार्टिकल हवाओं के जरिये लोगों के फैफडों को नुकसान पहुंचा रहे है। सबसे ज्यादा दिक्कत उन लोगों को हो रही है, जो पहले से दमा और श्वास रोगों से पीडित है। अस्पतालों में ऐसे मरीजों की संख्या बढ गई है। विशेषज्ञों के अनुसार, पिछले एक सप्ताह में ही वायु प्रदूषण बीस गुना ज्यादा बढ गया है। इसमें सबसे ज्यादा ब्लैक कार्बन की मात्रा है।

उत्तराखंड में इस समय मैदानी जिलों को छोडकर नैनीताल में प्रदूषण मापने का जांच केंद्र है। आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान एवं शोध संस्थान के पर्यावरण विशेषज्ञ डा. नरेंद्र सिंह ने बताया कि आग लगने के बाद ब्लैक कार्बन, पीएम 2.5 जैसे कार्बन पार्टिकल और कार्बन मोनो आक्साइड जैसे प्रदूषकों की मात्रा वायुमंडल में कई गुना बढ़ गई है। यह मानव स्वास्थ्य के साथ ही हिमालय क्षेत्र और ग्लेशियरों के लिए भी घातक हो सकता है। 

दून मेडिकल काॅलेज में छाती रोग विभाग के एचओडी प्रो डा अनुराग अग्रवाल बताते हैं कि  वायुमंडल में ब्लैक कार्बन की मात्रा एक माइक्रोग्राम प्रति क्यूब मीटर होती है, जो बढ़कर 16 माइक्रोग्राम प्रति क्यूब मीटर पहुंच गई है। ब्लैक कार्बन जीवाश्म ईधन या लकड़ी के अपूर्ण दहन पर उत्सर्जित होने वाला कणीय पदार्थ है। यह उत्सर्जन के बाद एक से दो सप्ताह तक वायुमंडल में स्थिर रह सकता है।

इस वायु प्रदूषण का हमारी सेहत पर कई तरह से बुरा असर पड़ता है। खतरनाक और जहरीली हवा में सांस लेने की वजह से अस्थमा, ब्रॉन्काइटिस, कार्डियोवस्क्युलर डिसीज यानी दिल से जुड़ी बीमारियां और सीपीओडी जैसी दिक्कतें हो सकती हैं। इतना ही नहीं, वायु प्रदूषण की वजह से डिप्रेशन और कैंसर तक होने का खतरा रहता है।

85 माइक्रोग्राम पहुंची पीएम 2.5 की मात्रा
मानव स्वास्थ्य के लिए बेहद घातक माना जाने वाले पोल्यूटेड मैटर पीएम 2.5 की मात्रा में भी वनाग्नि के बाद कई गुना बढ़ोतरी हुई है। विशेषज्ञों के अनुसार, सामान्य दिनों में उत्तराखंड में दो हजार मीटर तक की उंचाई वाले इलाकों में इसकी मात्रा 25-30 माइक्रोग्राम क्यूब मीटर होती है, जो आग लगने के बाद अब 85 पहुंच गई है। बताया कि आग लगने के बाद धूल के बहुत छोटे कण हवा में घुल जाते है। जोकि सांस के जरिये आसानी से फेफड़ो तक पहुंच जाते है। इसकी अधिकता से व्यक्ति को फेफड़ों का कैंसर तक हो जाता है।

बिगड सकता है पूरा इको सिस्टम
अमेरिका की नेशनल ओशियेनिक एंड अटमाॅस्पेयर एडमिनिस्टेशन के अनुसार, जंगल की आग जलवायु को भी बडे पैमाने पर प्रभावित कर देते है। जंगल की आग बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड, ब्लैक कार्बन, ब्राउन कार्बन छोड़ते हैं, जिससे ओजोन परत भी प्रभावित होती है। इस उत्सर्जन के चलते रेडिएशन, बादल और मौसम उस क्षे़त्र में तो प्रभावित होता ही है, कई बार वैश्विक तौर पर भी इस पर असर पडता है। इससे पूरे इको सिस्टम एक के बाद एक प्रभावित होते जाते हैं।

हिमालय की सेहत भी खतरे में
उत्तराखंड के जंगलों में लगी भीषण आग के कारण हिमालय की पहले से नासाज सेहत और बिगड सकती है। बीती सर्दियों में औसत से बेहत कम हिमपात और अब आग के कारण हो रहे वायु प्रदूषण से ग्लेशियर औसत से ज्यादा ब्लेक कार्बन के चपेट में आ रहे है। जिससे उनके पिघलने की रफतार पहले से तेज हो गई है। ग्लेशियर वैज्ञानिकों ने इस पर गहरी चिंता जताई है।

क्या होता है ब्लेक कार्बन
ब्लैक कार्बन से तापमान में वृद्धि होती है, क्योंकि यह प्रकाश को अवशोषित करने और निकटवर्ती वातावरण की ऊष्मा की वृद्धि में अत्यधिक प्रभावी है। यह बादल निर्माण के साथ-साथ क्षेत्रीय परिसंचरण और वर्षा को भी प्रभावित करता है। बर्फ तथा हिम पर चिपक जाने पर, ब्लैक कार्बन और सह-उत्सर्जित कण एल्बिडो प्रभाव (सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने की क्षमता) को कम करते हैं तथा सतह के तापमान में वृद्धि करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आर्कटिक और हिमालय जैसे ग्लेशियर क्षेत्रों में बर्फ पिघलने लगती है। वाडिया भू विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों के रिपोर्ट के अनुसार हिमालय के ग्लेशियरों में कैंसर की तरह खाने वाला ब्लैक कार्बन है। वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार, उच्च हिमालय में ब्लैक कार्बन की मात्रा सामान्य से ढाई गुना बढ़कर 1899 नैनोग्राम जा पहुंचा है।

कितने ही उत्तराखंड में ग्लेशियर
उत्तराखंड में गंगा बेसिन पर 917, यमना बेसिन में 50, भागीरथी बेसिन में 277, अलकनंदा बेसिन में 326 ग्लेशियर है। प्रदेश के करीब 75 वर्ग किलोमीटर की 127 ग्लेशियर झीलें हैं।

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