नरेंद्र मोदी का ये 'एक और झूठ' दर्ज कर लीजिए, इस दफा पीएम की 'कला' से हवा में पैदा हुए 'अनेक देशवासी'!

नरेंद्र मोदी का ये 'एक और झूठ' दर्ज कर लीजिए, इस दफा पीएम की 'कला' से हवा में पैदा हुए 'अनेक देशवासी'!

NEWSMAN DESK

भारत के 14 वें और अब 15 वें प्रधानमंत्री के बतौर अपनी सेवाएं दे रहे नरेंद्र दामोदर दास मोदी अपने झूठ बोलने की 'कला' को लेकर अजब का रहस्य पैदा कर देते हैं, जो उनके पद और कद को देखकर कभी-कभी अंचभित भी करता है। ऐसा भी नहीं है कि नरेंद्र मोदी ​सिर्फ अपनी सत्ता को बचाने के लिए ही झूठ बोलते है, बल्कि वो प्रधानमंत्री बनने से पहले भी बेधड़क झूठ बोलते थे और इसके प्रमाण भी सार्वजनिक जगहों पर मौजूद हैं। नरेंद्र मोदी के झूठ बोलने की रफ्तार ने इतिहास से लेकर वर्तमान तक को 'सहूलियत' और 'फायदेनुसार' कुचला है।

भविष्य में कभी उनके झूठ बोलने की आदतों को लेकर रिसर्च हुई, तो संभव है कि उनके नाम बतौर प्रधानमंत्री जैसे जिम्मेदार पद पर रहने के बावजूद झूठ बोलने का रिकॉर्ड दर्ज हो जाए और वो इस मामले में तो कम से कम 'भारत के पहले प्रधानमंत्री' का खिताब हमेशा के लिए पा जाएं। एक वाकया याद आता है, जब नरेंद्र मोदी एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के दावेदार थे। एक रैली में दहाड़ते हुए मोदी कहते हैं कि चीन अपनी जीडीपी का 20 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है, लेकिन भारत सरकार ऐसा नहीं करती है। मोदी ने झूठ बोलकर 'तर्कविहीन भारतीयों' के आगे अपना कद बढ़ा लिया था, जबकि हकीकत में चीन उस दौरान अपनी जीडीपी का महज 3.93 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च कर रहा था।

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ऐसे ही एक सभा में सिर्फ वोट बटोरने के लिए नरेंद्र मोदी इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने से भी नहीं चूके और उन्होंने कहा- 'सिकंदर महान को गंगा नदी के तट पर बिहारियों ने हराया था!' ये ऐसा झूठ था, जिसे सुनकर इतिहासकारों ने सिर पकड़ लिया। इतिहास के पन्नों से गुजरने वाले जानते थे कि सिंकदर को पंजाब से ही लौटना पड़ा था, लेकिन मोदी ने बिहार के वोटर्स को गर्व का 'झूठा' बहाना दे दिया था। ये केवल कुछ उदाहरण है, ताकि इस नए झूठ को आप तथ्यों की रोशनी से देंखे और सोचें कि तब प्रधानमंत्री कास काम ही झूठ बोलकर चल जा रहा है, तब भारत के नागरिकों को स्कूलों में 'सच बोलने' का पाठ क्यों पढ़ाया जाए! असल में नरेंद्र मोदी के एक और हालिया झूठ से पर्दा उठा है और इस दफा प्रधानमंत्री ने बड़ी चालाकी से 'अनेक हवाई देशवासियों' के कंधे पर अपनी राजनीतिक बंदूक रखकर फायर झोंक दिया है।

मामला ‘राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड’ का नाम बदलकर ‘मेजर ध्यानचंद खेल रत्न अवॉर्ड’ करने से जुड़ा हुआ है। तब इस मामले को लेकर चौतरफा बहस छिड़ गई थी। सोशल मीडिया पर यूजर्स ने इसे मोदी सरकार द्वारा कांग्रेस परिवार को अपमानित करने और उनकी उपलब्धियों को मिटाने का नया पैंतरा करार दिया था। मेजर ध्यानचंद के नाम पर पहले से ही एक पुरस्कार दिया जा रहा था, लेकिन छह अगस्त को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने ट्वीट में दावा किया कि ‘अनेक देशवासियों ने उनसे यह आग्रह किया था कि खेल रत्न पुरस्कार का नाम बदलकर मेजर ध्यानचंद के नाम पर किया जाए।’

अब इसी मामले में 'द वायर' ने एक नई रिपोर्ट प्रकाशित की है, जिसमें दावा किया गया है कि खेल मंत्रालय के पास ऐसे कोई दस्तावेज नहीं हैं, जिसमें पुरस्कार का नाम बदलने को लेकर नागरिकों के आग्रह का कोई ज़िक्र हो। रिपोर्ट में कहा गया है कि मंत्रालय ने प्रधानमंत्री मोदी के ट्वीट के बाद ही 'राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड' का नाम बदलने का फैसला किया था और आनन-फानन में अधिकारियों द्वारा इसका सर्कुलर जारी किया गया था।

'द वायर' द्वारा सूचना का अधिकार (आरटीआई) कानून के तहत प्राप्त दस्तावेजों के जरिये यह जानकारी सामने आई है। भारत के युवा कार्यक्रम और खेल मंत्रालय ने आधिकारिक रूप से यह स्वीकार किया है कि उनके पास इस पुरस्कार का नाम बदलने को लेकर जनता से कोई निवेदन या आग्रह प्राप्त होने संबंधी कोई दस्तावेज नहीं हैं। 'द वायर' ने आठ अगस्त 2021 को एक आरटीआई आवेदन दायर किया था, जिसमें ये पूछा गया था कि इस अवॉर्ड का नाम बदलने को लेकर सरकार को कुल कितने निवेदन प्राप्त हुए हैं। इसके साथ ही इन निवेदन पत्रों की फोटोकॉपी की भी मांग की गई थी। हालांकि मंत्रालय की अवर सचिव और केंद्रीय जन सूचना अधिकारी शांता शर्मा ने कहा, ‘इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है।’ इतना ही नहीं, यह फैसला लेने से पहले मंत्रालय ने संबंधित स्टेकहोल्डर्स के साथ भी कोई विचार-विमर्श नहीं किया था और सिर्फ प्रधानमंत्री के ट्वीट के आधार पर ही पुरस्कार का नाम बदला गया।

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दूसरे शब्दों में कहें तो, पहले मोदी ने ट्वीट किया और बाद में पुरस्कार का नाम बदला गया। प्रधानमंत्री के ट्वीट को ‘सरकार के निर्णय’ में तब्दील करने की अधिकारियों की बेचैनी और जल्दबाजी का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस फाइल में केंद्रीय युवा कार्यक्रम और खेल मंत्री अनुराग ठाकुर ने यह स्वीकृति प्रदान की थी, उसमें कई जगहों पर ‘स्पेलिंग’ जैसी मूलभूत गलतियां भी हैं। 'द वायर' ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि इस फैसले की फाइल में लगे दस्तावेजों की शुरुआत प्रधानमंत्री के ट्वीट से होती है। इसमें उनके तीन सिलसिलेवार ट्वीट्स की फोटो लगाई गई है, जिसके आधार पर पुरस्कार का नाम बदलने संबंधी मंजूरी प्राप्त करने के लिए फाइल नोटिंग्स तैयार की गई थी।

मजेदार बात यह है कि इस पूरी कवायद के दौरान मंत्रालय के अधिकारियों के सामने एक अन्य दुविधा खड़ी हुई थी कि चूंकि मेजर ध्यानचंद के नाम पर पहले ही एक पुरस्कार ‘ध्यानचंद अवॉर्ड’ दिया जाता है, तो इसके बारे में क्या किया जाए? बाद में उन्होंने ये फैसला लिया कि आगे चलकर इसका भी नाम बदल दिया जाएगा!

मांगा था भारत रत्न, नाम बदलकर बता दी 'भारतीयों की इच्छा'
तीन बार के ओलंपिक पद विजेता ध्यानचंद निसंदेह भारत के महानतम हॉकी खिलाड़ी हैं। 29 अगस्त को उनके जन्मदिन के मौके पर राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है और इसी तारीख को हर साल राष्ट्रीय खेल पुरस्कार दिए जाते हैं। इस बार के ओलंपिक खेलों में जब भारत की हॉकी टीम शानदार प्रदर्शन कर रही थी, उस दौरान मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न देने मांग की एक बार फिर से जोर-शोर से उठी थी। हालांकि मोदी सरकार ने इन मांगों को तो स्वीकार नहीं किया, लेकिन उन्होंने देश के सर्वोच्च खेल पुरस्कार ‘राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड’ का नाम बदल दिया, जबकि ध्यानचंद के नाम पर पहले से ही एक पुरस्कार दिया जा रहा था।

जाहिर सी बात है, जिस तरह से एक ट्वीट के बाद हड़बड़ी में ‘राजीव गांधी खेल रत्न अवॉर्ड’ का नाम बदल दिया गया था, वो प्रतीकों को खत्म करने की राजनीति थी। इस मांग को कम से कम 'अनेक देशवासियों', जैसा कि प्रधानमंत्री ने दावा किया था, उन्होंने तो नहीं रखा था। ये 'अनेक देशवासी' शायद उस रोज भी प्रधानमंत्री के झूठ बोलने की आदतों का शिकार हुए थे!  

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