राजेश जोशी दिल्ली स्थित स्वतंत्र पत्रकार और हरिदेव जोशी पत्रकारिता और जनसंचार विश्वविद्यालय, जयपुर में विजिटिंग प्रोफेसर हैं। वो बीबीसी हिंदी रेडियो के संपादक रह चुके हैं।
सिर्फ़ एक वाक्य का संदेसा टेलीप्रिंटर के ज़रिए आया था। अंग्रेज़ी में लिखा था - “यू हैव गॉट योअर बैप्टिज़्म बाइ फ़ायर”- प्रभाष। जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी ने मेरी एक रिपोर्ट पर हुए हंगामे के बाद ये संदेसा मेरे लिए भेजा था, पर आज मैं इसे उन दो बेख़ौफ़ लड़कियों को भेजना चाहता हूं, जिन्होंने आज़ाद क़लम का मान रखते हुए गिरफ़्तारी क़बूल की लेकिन सत्तामद में चूर त्रिपुरा सरकार के सामने झुकना मंजूर नहीं किया।
एच डब्ल्यू न्यूज़ की रिपोर्टर स्वर्णा झा और समृद्धि सकुनिया को त्रिपुरा पुलिस ने ‘झूठी ख़बरें’ फैलाने के आरोप में गिरफ़्तार किया। बाद में अदालत ने उन्हें ज़मानत दे दी। दरअसल दोनों रिपोर्टरों ने अपनी पत्रकारिता के ज़रिए उन ख़बरों को जनता के सामने लाने की ईमानदार कोशिश की जिन्हें त्रिपुरा सरकार दबाना चाह रही थी। स्वर्णा और समृद्धि के इसी जीवट के कारण मुझे बरसों पहले भेजा प्रभाष जोशी का वो संदेसा याद आ गया।
उन दिनों आज जैसी संचार सुविधाएं नहीं थीं। राज्यों के संवाददाता टेलीप्रिंटर से ही ख़बरें भेजते थे। न्यूज़रूम में दिनभर टेलीप्रिंटर की खर्र-खर्र जारी रहती और ख़बरों के फर्रे निकलते रहते थे। एक कर्मचारी ख़बरों के इन पन्नों को फाड़ फाड़ कर न्यूज़ डेस्क पर बैठे उप-संपादकों तक पहुंचाता रहता था।
उन्हीं ख़बरों के बीच मेरे नाम आया प्रभाष जोशी का ये संदेश आज भी मेरी फ़ाइलों में कहीं सुरक्षित रखा है: यू हैव गॉट योअर बैप्टिज़्म बाइ फ़ायर - यानी पत्रकारिता में तुमने अग्नि से अपना प्रथम संस्कार हासिल कर लिया है। इतने बरसों बाद भी प्रभाष जोशी का ये वाक्य अब तक मेरे साथ रह गया है और जब भी कभी उहापोह की स्थिति बनी तो इसी वाक्य ने हमेशा राह भी दिखाई।
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ये पत्रकारिता में मेरे शुरुआती दिनों की बात है जब दिल्ली से निकलने वाले जनसत्ता अख़बार में काम करना किसी भी पत्रकार के लिए फ़ख़्र की बात हुआ करती थी। प्रभाष जोशी ने हमें दबंग पत्रकारिता करना सिखाया था। वो ख़ुद भी क़लम के दबंग थे। उन्होंने जब पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के ख़िलाफ़ लिखा तो उनसे अपने रिश्तों की परवाह नहीं की, कम्युनिस्टों की राजनीतिक के तो वो हमेशा ख़िलाफ़ रहे। बाबरी मस्जिद के ध्वंस को जब उन्होंने ‘संघ क़बीले’ का ‘धतकरम’ बताया तो इस बात की परवाह नहीं की कि नानाजी देशमुख जैसे संघ के लीडरों से उनके निजी संबंध थे। उनका पहला सबक़ था - तुम्हारा धर्म सच को सच की तरह दिखाना है, चाहे फिर वो तुम्हारे अपने विचारों के ख़िलाफ़ ही क्यों न हो।
उस बरस दिसंबर के महीने में ग़ाज़ियाबाद के पास की एक मज़दूर बस्ती में सफ़दर हाशमी की पीट पीटकर हत्या कर दी गई। वो अपने साथियों के साथ वहां मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांस्कृतिक इकाई जन नाट्य मंच की ओर से नुक्कड़ नाटक करने गए थे। सफ़दर के अलावा उसी जगह पर राम बहादुर नाम के एक नेपाली मज़दूर का भी क़त्ल कर दिया गया था। इन हत्याओं के ख़िलाफ़ ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शन हुए, जिनमें शबाना आज़मी, दादी पुदुमजी, भीष्म साहनी सहित दिल्ली में साहित्य, संगीत, नाट्यकला और वामपंथी राजनीति से जुड़े नामी-गिरामी लोगों ने हिस्सा लिया। चारों ओर सफ़दर हाशमी की ‘शहादत’ की बातें हो रही थीं, लेकिन असली सर्वहारा राम बहादुर का नाम लेना भी किसी ने गवारा नहीं किया।
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मैंने यही ख़बर जनसत्ता में लिखी कि सर्वहारा की राजनीति करने वालों के लिए एक सर्वहारा की हत्या इतनी मामूली है कि उन्होंने सफ़दर के साथ राम बहादुर का नाम तक नहीं लिया। ख़बर छपने के बाद जन नाट्य मंच के लोगों ने मंडी हाउस के श्रीराम सेंटर में मुझे घेर लिया और जान से मारने की धमकी दी। वो लोग मुझे पत्रकारिता करने के लिए सज़ा देना चाहते थे, ठीक उसी तरह जैसे आज त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री बिप्लब कुमार देब की पुलिस स्वर्णा झा और समृद्धि सकुनिया को पत्रकारिता करने के लिए दंडित करना चाह रही है।
ये दोनों रिपोर्टर मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा की रिपोर्टिंग करने त्रिपुरा पहुंची थीं। पड़ोसी देश बांग्लादेश में हिंदुओं पर हुए हमलों के विरोध में विश्व हिंदू परिषद और हिंदू जागरण मंच ने त्रिपुरा के गोमती ज़िले में निषेधाज्ञा के बावजूद 21 अक्तूबर को जुलूस निकालने का फ़ैसला किया। इस दौरान प्रदर्शनकारियों और पुलिस के बीच झड़प हो गई जिसमें कुछ पुलिस वाले घायल हुए। इसके बाद राज्य में मस्जिदों पर हमलों की ख़बरें आने लगीं। पुलिस ने स्वीकार किया कि 150 मस्जिदों की सुरक्षा का इंतज़ाम किया गया है।
त्रिपुरा सरकार ही नहीं केंद्रीय गृहमंत्रालय ने भी मस्जिदों पर हमलों का खंडन किया। लेकिन अभी इस मुल्क में बेख़ौफ़ पत्रकारिता पूरी तरह मरी नहीं है, हालांकि न्यूज़ टेलीविज़न को देखकर कई बार लगता है कि आज़ाद पत्रकारिता की क्षत-विक्षत लाश का बस अंतिम संस्कार होना बाक़ी है। पर गिने चुने पत्रकार ही सही, सत्ता को आइना दिखाने का काम कुछ लोग अब भी निडर होकर कर रहे हैं। पिछले साल हाथरस में एक बलात्कार पीड़िता की लाश को रात के अंधेरे में चुपचाप जला देने वाली उत्तर प्रदेश पुलिस के अफ़सरों से बिना डरे लगातार सवाल करने वाली टीवी रिपोर्टर तनुश्री पांडेय याद है आपको? पुलिस वालों से उसका एक ही सवाल था - ये क्या जल रहा है बस इतना बता दीजिए! लेकिन यही वो सवाल था जिसे योगी आदित्यनाथ की सरकार जनता के सामने नहीं आने देना चाहती था।
इसी तरह त्रिपुरा की पुलिस नहीं चाहती थी कि लोगों को ये पता चले कि मुसलमानों और उनकी मस्जिदों को निशाना बनाया गया है। इसीलिए हिंसा की घटनाओं की स्वतंत्र पड़ताल करने के लिए दिल्ली से त्रिपुरा पहुंची वकीलों की एक टीम को भी सरकार ने अपने निशाने पर लिया और उनमें से कई के ख़िलाफ़ आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत मुक़द्दमा दर्ज कर लिया गया।
पर सरकार की बदक़िस्मती कि स्वर्णा झा और समृद्धि सकुनिया भी उसी वक़्त त्रिपुरा पहुंच गईं। सरकार कह रही थी कि मस्जिदों पर हमले नहीं हुए हैं पर इन रिपोर्टरों ने उन्हीं मस्जिदों में पहुंचकर अपने वीडियो के ज़रिए ये सिद्ध कर दिया कि दंगाइयों की भीड़ ने मस्जिदों को निशाना बनाया।
पत्रकारिता का काम ही उन अंधेरे कोनों को रौशन करना होता है, जहां सत्ताधीश रौशनी नहीं पहुंचने देना चाहते क्योंकि उन अंधेरे कोनों में ही वो अपने सब पाप छिपाकर रखते हैं। लेकिन इन अंधेरे कोनों में रौशनी डालने वाले जानते हैं कि उन्हें इसके लिए कभी भी दुश्मनों की श्रेणी में रखा जा सकता है। स्वर्णा और समृद्धि बहुत क़िस्मत वालियां हैं कि उन्होंने छोटी उम्र में ही ये पाठ सीख लिया। पत्रकारिता में आपकी पहली अग्निपरीक्षा हो चुकी है और आप दोनों इस परीक्षा में खरी उतरीं। प्रभाष जोशी आज होते तो लिखते - ‘स्वर्णा एंड समृद्धि, यू हैव गॉट योअर बैप्टिज़्म बाइ फ़ायर’!
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