बड़े आदमी बनाने की टेक्नोलॉजी और अपराधबोध

Hafta Bol!बड़े आदमी बनाने की टेक्नोलॉजी और अपराधबोध

उमेश तिवारी 'विश्वास'

उमेश तिवारी व्यंग्यकार, रंगकर्मी और मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। अपनी शर्तों पर जीने के ख़तरे उठाते हुए उन्होंने रंगकर्म, पत्रकारिता, लेखन, अध्यापन, राजनीति से होकर गुज़रती ज़िंदगी के रोमांच को जिया है। रंगकर्म के लेखे-जोखे पर 2019 में 'थिएटर इन नैनीताल' नाम से किताब छप चुकी है।

अपने मुल्क में बड़े लोगों की जयंती मनाए जाने का चलन आम है। बहुत बड़े लोगों की पुण्यतिथि भी मनाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि सामान्य जन इन आयोजनों से प्रेरणा लेकर उनके 'टाइप' बनने का प्रयास करेंगे। विशेषकर बच्चे। ये अलग बात है कि बच्चों के लिए मुख्य आकर्षण आयोजन का कोई अन्य पहलू हो सकता है। मसलन हाफ हॉलिडे या लड्डू। अभिभावकों के रूप में फ़ीस चुकाती जनता उक्त दिवसों को पढ़ाई में व्यवधान मानती है। ..तब भी ये कार्यक्रम स्कूलों में अवश्य होते हैं।

शिक्षा विभाग अच्छा आदमी तैयार करना अपना उत्तरदायित्व मानता है, वो नहीं तो क्या आबकारी विभाग करेगा? उनका पाठ्यक्रम आदमी या इंसान बनाने का कार्य तो करता है, किंतु बड़ा आदमी बनाने की मारक टेक्नोलॉजी आज तक ईजाद नहीं हो सकी है। इतने बड़े मुल्क में अभी भी बड़े आदमी बनाने की टेक्नोलॉजी का टोटा ही है! अतः इसके लिए विभाग को प्रयासरत रहना होता है। अपने इन्हीं प्रयासों के क्रम में उसकी दृष्टि सर्वप्रथम विभागीय कर्मचारी, अध्यापक, प्रधानाचार्य आदि पर पड़ती है पर दुर्भाग्य से वो वेतन, छुट्टी, प्रमोशन, तबादले और आपस की लड़ाई लड़ते हुए पहले ही देश के काम आ चुके होते हैं।

'हैलो, हैल्लो सर मैं भौर्सा सुगम, पूर्व दुर्गम इंटर कालेज से सहायक अध्यापक एलटी, के.के. पांडे बोल रहा हूँ। सर अगले माह मेरा रिटायरमेंट है, पूरा कैरियर दुर्गम में सेवा देते कटा है, अब तक पहला प्रमोशन नहीं मिला। प्रतीक्षारत हूँ महोदय..'

''हलो, हलो पांडे जी आपकी आवाज़ कट-कट कर आ..री है..मैंने पहचाना नहीं।''

''सर दुर्गम में यह भी प्रॉब्लम रहती है, अभी मैं नेटवर्क कैच करने को पेड़ पर चढ़ा हुआ हूँ। मैं कमला कांत हूँ सर, आवाज़ आ रही है क्या सर ?''
“आ रही है थोड़ा ज़ोर से बोलो..”
“सर आपके स्वागत समारोह में मंचित 'नाटक जारी है' में बच्चा गुरधनदास का रोल किया था मैंने। याद करो सर आपने मुझे कंबल प्रदान कर पुरस्कृत किया था और कहा था कि मैं बहुत तरक्क़ी करूंगा..'
'हाँ-हाँ याद आ गया, याद आ गया। तुम अगले महिने तीन-चार दिन की छुट्टी लेकर देहरादून आ जाओ। तुम्हारा केस दिखवाते हैं पर इसका प्रचार मत करना.. हाँ, नैनीताल से दो किलो नमकीन उधार उठा लाना, भुगतान लौट कर करोगे।'

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जो स्वयं न कर पाए हों, दूसरों को उसे हासिल करने के लिए प्रेरित करना शिक्षा के टॉप उद्देश्यों में आता है। जब विभाग के महानिदेशक की आत्मा प्रेरणा के स्वर गुंजायमान करने को छटपटाए उसी पल दूरस्थ अवस्थित स्कूल में एक शिक्षक कुछ बीड़ा उठा लेता है। उसकी कर्तव्यनिष्ठता और विभाग की दूरदृष्टि अब एकाकार होकर आने वाली पीढ़ी पर केंद्रित हो जाती है। पीढ़ी, जिसके सम्मुख छमाही-सालाना परीक्षा पास करने की चुनौती होती है। इस कारण वो थोड़ा-बहुत एक्स्ट्रा कॅरिकुलर करने में भी रुचि दिखाते हैं। इस भावना का फ़ायदा उठाते हुए एसयूपीडब्लु शिक्षक उनमें से चार-छह को राष्ट्र निर्माण में भूमिका निभाने हेतु चुन लेता है। इन नौनिहालों को आगे चलकर उसे
डिबेट वग़ैरा में मदद करनी होती है।

इस महत्वपूर्ण दायित्व को कंधोधार्य करते ही त्याग और तपस्या के शेष गुण शिक्षक के मस्तिष्क में घुस कर खलबली मचा देते हैं। अब कमी होती है मात्र एक कार्ययोजना की। वो तुरंत जयंती आदि आयोजनों की रूपरेखा बना कर प्रधानाचार्य के माध्यम से विभाग को प्रेषित कर देते हैं।

विभाग का एक महत्वपूर्ण कार्य वर्ष भर के आयोजनों की तिथि और उनका बजट तय करना भी है। बजट में प्रधानाचार्य का दखल रहता है जिस कारण शिक्षक बेलगाम होकर गांधी या नेहरू बनाने का लक्ष्य निर्धारित न कर दर्ज़ाधारी नेता जैसा कुछ बनाने का प्रयत्न करता है। विभाग के लिए भी यह महत्वपूर्ण नहीं होता कि कितने विद्यार्थी ‘सुपर’ बने, उसकी चिंता होती है आयोजन को समाचार पत्रों में मिले कॉलम। जिसके लिए बजट में प्रावधान और प्रधानाचार्य को फ़ोन किया होता है महानिदेशक ने। आख़िर यही कटिंग तो मंत्री के पास जाती है। कार्यक्रम सम्पन्न होते ही विभाग को ख़ुशी और मीडिया को विज्ञप्ति मिल जाती है। आयोजन सालों-साल सफलतापूर्वक संपन्न होता जाता है और ख़ुशी मिलती चली जाती है। अख़बार वाले फ़ोटो सहित स्कूल की ख़बर छापते हैं अलबत्ता यह कभी पता नहीं चलता कि कितने बच्चे चाचा नेहरू या दादा कोंडके बने।

दूसरा पक्ष वो है जिनकी जयंती या पुण्यतिथि मनाई जाती है। उनमें कुछ उभयनिष्ठ खोजें तो वो स्कूल ही होता है। जिन महानुभावों का स्कूल-कालेज या शिक्षा का कोई रिकॉर्ड उपलब्ध न हो शिक्षण संस्थानों में उनकी जयंती मनाये जाने में अराजक तत्वों द्वारा रायता फ़ैलाया जा सकता है। इस संभावना के मद्देनज़र ये नये आकांक्षी कुछ उटपटांग कर गुज़रते हैं। साथ ही अपने रसूख का इस्तेमाल कर वो उक्त वर्णित आयोजनों के मुख्य अतिथि बनते हैं। कार्यक्रम के दौरान वो टेंट हाउस से आई कुर्सी पर पसरे-पसरे सरस्वती वंदना और आशुभाषण इत्यादि प्रस्तुतियों के प्रभाव में उनींदे हो जाते हैं। कई तो खुली आँखें मेंटेन करते हुए खर्राटे भरते पाए जाते हैं। अपने भाषण पर बजने वाली संभावित तालियां ही उनका एकमात्र मोटिवेशन होती हैं। आख़िर वो उठते हैं, उनका भाषण होता है, स्काउट ताली बजती है और वो पुनः स्थापित हो जाते हैं। राष्ट्रगान की ख़ातिर एक बार फ़िर कुर्सी छोड़ टेढ़े-मेढ़े खड़े होते हैं, तभी गोदी मीडिया उनका इंटरव्यू लेने आ जाता है। वो पुनः बैठ जाते हैं।

'सर आप अपने व्यस्त कार्यक्रम से बच्चों के लिए समय कैसे निकाल लेते हैं?'
'देखिए निकालने का क्या है, समय तो बहुत छोटी चीज़ है, इच्छा हो तो आदमी कुछ भी निकाल सकता है..'
'जी, इसमें कितनी सच्चाई है कि बाल दिवस पर आप घर पर विशेष आयोजन करते हैं?'
'आपने बहुत अच्छा सवाल किया है..बाल दिवस का क्या है कि इसे नेहरू के नाम से जोड़कर एक ऐतिहासिक भूल की गई है, हम उस दिन बच्चों के बीच हनुमान चालीसा वितरित करवाते हैं।'
'आपको जो आईडिया आते हैं वो इतने अच्छे कैसे होते हैं?'
'सच बताऊं आपको तो.. हमें बचपन से ही आईडिया देने का अभ्यास है। इतने लोग आईडिया लेने आते थे कि हमें स्कूल जाने का भी समय नहीं रहता था।'
'सर आप आज के दिन कोई प्रभावशाली संदेश देना चाहेंगे?'
'देखिए ..आपका नाम भूल रहा हूँ..'
'जी, चप्लू सर !'

'देखिए चप्लू सर, हम कभी ऐसा कुछ नहीं देते जो प्रभावशाली न हो। हम कहेंगे कि युवाओं को निश्चित रूप से ऐसे संदेशों से बचना चाहिए जो प्रभावशाली न हों। महत्वपूर्ण है कि आज अगर रात होती तब भी हम यही संदेश देते। थैंक्यू।'

चलते-चलते वो प्रधानाचार्य को स्कूलों में ऑटोग्राफ़ कल्चर की कमी उजागर करते हैं। द्वार पर खड़े अपने ड्राइवर को हाँक लगा कर पूछते हैं 'चाय-नमकीन मिला कि नहीं?' वो कहता है 'कोई नहीं सर!' शिक्षक अपराध बोध से ग्रस्त नतमस्तक दिखते हैं।

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