कोविड ने देश की एक और मशहूर शख्सियत को लील लिया है। जाने-माने पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा का कोरोना संक्रमित होने के बाद एम्स में इलाज चल रहा था, जहां उन्होंने शुक्रवार को अंतिम सांस ली है। डॉक्टरों की तमाम मशक्कत के बावजूद 94 वर्षीय पर्यावरणविद को नहीं बचाया जा सका।
इस वक्त जब सुंदरलाल बहुगुणा को लोग अपने-अपने ढंग से याद कर रहे हैं, तब इतिहास में झांकने पर एक ऐसा किस्सा भी सामने आता है, जो इस पर्यावरणविद के एक फैसले को लेकर काफी चौंकाता भी है। हम यहां इतिहास की गलियों से 70 के दशक के ऐसे ही किस्से को सामने रख रहे हैं, जब उत्तराखंड के अलग-अलग हिस्सों में जंगलों को बचाने की लड़ाई जोरों पर लड़ी जा रही थी। ये चिपको आंदोलन की शुरुआत का दौर था, जब अलग-अलग लोग आंदोलनों को मजबूत कर जंगलों की लड़ाई को एक के बाद एक जीत रहे थे और सरकार घुटनों पर आ गई थी।
पहले थोड़ा तब के माहौल को समझें
ये 70 के दशक की बात है। हजारों की तादात में गोपेश्वर पहुंचे लोगों के हुजूम से गोपेश्वर की सड़कें भर गई थी। तब तीन हजार की आबादी वाले कस्बे में लोगों का हुजूम उमड़ आया था। मंदिरों में बजने वाले वाद्ययंत्रों के साथ प्रदर्शनकारी जगह-जगह से जंगलों को बचाने के लिये पहुंचे थे। आंदोलनकारियों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। इसकी धमक दिल्ली तक सुनाई दी, लेकिन कुछ सरकारी दफ्तरों और नेताओं के चंद खतों के यहां-वहां सरकने के अलावा कुछ भी नहीं बदला था। पहड़ों में तब जंगल कटाई का ठेका उठाने वाली साइमंड कंपनी को मंडल में अंगू के कटान का ठेका औन-पौने दाम पर दे दिया गया था।
27 मार्च 1973 को साइमंड कंपनी के कारिंदे अंगू के पेड़ों को काटने के लिए गोपेश्वर पहुंच गए। यह सूचन जब सामाजिक कार्यकर्ता चंडी प्रसाद को मिली तो उन्होंने लगभग गुस्से में उबलते हुए कहा- 'उनसे कह दो कि हम उन्हें पेड़ नहीं काटने देंगे, जब उनके आरे पेड़ों पर चलेंगे, हम पेड़ों को अंगवाल्ठा (बांहो में भर लेंगे डाल लेंगे), उन पर चिपक जाएंगे’। कुछ ने बैठक में कहा कि वो लोग लीसा जे जा रहे ट्रकों के आगे लेट जाएंगे, कुछ ने कहा कि उन्हें लीसा डिपो को ही आग के हवाले कर देना चाहिए, लेकिन चंडी प्रसाद के दिमाग में लंबी और असरदार लड़ाई का खाका पल रहा था। 'चिपको' शब्द और साइमंड कंपनी एक साथ गोपेश्वर पहुंचे थे।
दशौली ग्राम स्वराज्य संघ के परिसर में ही साइमंड के कारिंदों को रुकवाया गया था। वो ये देखकर हैरत में पड़ गए कि एक ओर हमारी आवभगत हो रही है और दूसरी ओर उन्हें जंगलों में न घुसने देने की योजना बन रही है। इस सूचना ने जिलाधिकारी की नींद उड़ा दी। जिलाधिकारी ने प्रदेश के वन सचिव और मुख्य अरण्यपाल को वायरलैस से संदेश भेज दिया कि गांववालों को अंगू के पेड़ दे दिए जाएं। स्थानीय लोग गुस्से में हैं। अंगू के पेड साइमण्ड कंपनी को दिए जाने से असंतोष उभर रहा है। सरकार को समझ आ चुका था कि इस दफा ग्रामीणों के गुस्से को रोकना उनके बूते से बाहर हो सकती है। मामला गरमाता देख चंडी प्रसाद को मुख्यमंत्री ने लखनउ बुलवा लिया।
बैठक में चंडी प्रसाद के गुस्से से सरकार को आक्रोष की आहट का अंदेशा हो चुका था। चंडी प्रसाद जब लौटकर गोपेश्वर पंहुचे तो उसे सूचना दी गई कि उनकी गैरमौजूदगी में विभाग ने मंडल में पेड़ों का छपान कर दिया है। साइमण्ड ने जगदीश प्रसाद नौटियाल को अपना ठेकेदार बनाया था। साइमण्ड के कारिंदे अपनी योजना में काम कर रहे थे, इधर गोविंद सिंह समाजवाद के द्वार खोलने के लिए पहाड़ों पर कारखाने लगवाने का ख्वाब देख रहा थे। वो बैठको में गरजते कि पहाड़ों पर लकड़ी की लूट खतरनाक है। पूरा इलाका ‘साइमण्ड भगाओ, अंगू बचाओ’ के पोस्टरों से भर गया।
इस आंदोलन को हर वर्ग का साथ मिला। दलितों के मंदिर में प्रवेश का आंदोलन चला चुके बचनलाल ने एक सभा में यह तक कह दिया कि हम गांव-गांव में छा जाएंगे और भले ही कुल्हाड़ी हमारी पीठों पर पड़ जाए, लेकिन पेड़ नहीं गिरने देंगे। जंगलों को बचाने के लिए पहाड़ों में हर तबके के लोग सक्रिय हो गए थे। एक अघोषित लड़ाई जंगलों को बचाने के लिए छिड़ चुकी थी।
'चिपको आंदोलन' ने बिना पेड़ों पर चिपके ही पहली सफलता हासिल कर ली
साइमण्ड कंपनी के लोग मंडल पहुंचे तो उनके स्वागत में सैकड़ों ग्रामीण वहां पहले से ही मौजूद थे। वो घबरा गए। उनको समझ आ गया था कि वो पेड़ नहीं काट सकेंगे। पेड़ों के करीब जाकर भी साइमण्ड के कर्मचारी बैरंग वापस लौट गए। 'चिपको आंदोलन' ने बिना पेड़ों पर चिपके ही पहली सफलता हासिल कर ली थी। सरकार ने आंदोलन को कुचलने के लिए नया पैंतरा चला। अरण्यपाल ने इस दफा आंदोलनकारियों को खत लिखा और अपनी नाराजगी जाहिर की। खत में लिखा था कि ‘साइमण्ड कंपनी देश के लिए फाॅरेन एक्सचेंज बनाती है, इसलिए आंदोलन जनहित में नहीं है।’ जंगलात वाले चुप नहीं बैठने वाले थे।
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साइमण्ड के कारिंदों का दबाव जंगलात के अफसरों को परेशान कर रहा था। इधर गांव वालों ने नई रणनीति के लिए फिर बैठक बुलाई। इस बैठक में तब नए-नए पर्यावरणविद का जामा पहन रहे सुंदरलाल बहुगुणा भी शामिल हुए और उन्होंने ‘चिपको’ आंदोलन को ‘प्रेम के विस्तार का नया कदम’ बताया। सुंदरलाल बहुगुणा गढ़वाल के अलग-अलग हिस्सों में उस वक्त काम कर रहे थे और जंगलों को बचाने की लड़ाई को धार दे रहे थे। वो आंदोलन के प्रचार के लिए गांवों का दौरा करने के पक्षधर थे।
गोष्ठी के बाद चिपको आंदोलन के प्रचार के लिए गांवों में यात्रा निकालने की बात सामने आई, लेकिन काॅमरेड गोविंद ने इसमें जाने से इनकार कर दिया। काॅमरेड ने तर्क रखा कि जब पूरा इलाका आसन्न आंदोलन की कगार पर खड़ा हो, तब वो ऐसी यात्रा पर नहीं निकला जा सकता। आंदोलनकारी दो मत लिये हुए ही इस लड़ाई को लड़ रहे थे। काॅमरेड ने अपने ढंग से अपना काम जारी रखा और इधर सुंदर लाल बहुगुणा और अन्य लोगों ने अपनी यात्रा शुरू कर दी।
जंगलात और आंदोलनकारियों के बीच जब बात नहीं बन सकी तो जंगलात के आला अधिकारियों ने सरकार के दबाव में साइमण्ड को मंडल से 70 किमी दूर फाटा के जंगलों का देने का फैसला किया। चंडी प्रसाद भट्ट को जब इस बात की भनक लगी तो उन्होंने मंदाकिनी घाटी के लोगों को जुटाना और जंगलों को बचाने के लिए इकट्ठा करना शुरू कर दिया। इस काम में मददगार बने तत्कालीन उखीमठ के कनिष्ठ प्रमुख केदार सिंह रावत। केदार सिंह से मुलाकात कर चंडी प्रसाद ने उन्हें आगाह कर दिया। केदार सिंह ने इलाके में अपने लोगों तक मंडल में लोगों की लड़ाई के बारे में प्रचार करना शुरू कर दिया। मंडल के घाटी के बाद मंदाकिनी घाटी साइमण्ड जैसी बड़ी कंपनी से लड़ने के लिए भीतर ही भीतर तैयार हो रही थी। चंडी प्रसाद और कॉमरेड गोविंद अपने-अपने ढंग से इस लड़ाई की तैयारियों में जुटे हुए थे। गढ़वाल के अलग-अलग हिस्सों में जंगलों के कटान और स्थानीय लोगों को जंगलों से बेदखल करने की साजिश के खिलाफ विरोध प्रदर्शन आम होते जा रहे थे।
इसी दौरान काॅमरेड की अगुवाई में 18 जून 1973 में कई गांवों के लोग जोशीमठ आई गढ़वाल आयुक्त कुसुमलता मित्तल का घेराव करने पहुंचे। इनमें गौरा देवी के गांव रैणी के लोग भी थे। गौरा और बाकी महिलाओं ने गरजते हुए आयुक्त से कहा कि वो उन्हें अनपढ़ पहाड़ी न समझे और सरकार ने जो उनसे जबरन चीन आंदोलन के बाद सड़क बनाने के लिए उनके खेत हड़पे हैं, उसका मुआवजा पहले दिया जाए। ये बात मित्तल को चुभ गई, उसने रैणी की महिलाओं की मुखरता को भांप लिया था और तब चुपचाप लौट आई थी। महिलाओं की एकजुटता देख आयुक्त सकते में आ गई। इधर चंडी प्रसाद को जंगलात के ही किसी आदमी से सूचना मिली कि साइमण्ड कंपनी को दिए गए पेड़ों का छपान फाटा में शुरू होने वाला है। दिन गुजरे और इस बीच फाटा के मैखंडा में पेड़ों का छपान का काम पूरा हो गया। काटे जाने वाले पेड़ों की रकम जंगलात विभाग में कंपनी ने जमा करवा दी। इस बीच केदार सिंह के लोग भी चुपचाप जंगलों का मुआयना करते रहे।
23 जून 1973 को हिमालय सेवा संघ ने ऋषिकेश में रचनात्मक कार्यकर्ता सम्मेलन का आयोजन करवाया, जिसमें शामिल होने के चंडी प्रसाद भी पंहुचे। ये बेहद अहम बैठक थी। इस बैठक में तत्कालीन केंद्रीय संचार मंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा भी पहुंचे थे। उन्होंने पहाड़ों पर जंगलों को बचाने के लिए चल रहे आंदोलन की आलोचना करते हुए कहा- 'हिमालय पूरे देश की थाती है, केवल उत्तराखंड के कुछ गांवों की नहीं। यहां की कीमती वन संपदा का उपयोग जब पूरे देश हित में हो रहा है, तब यहां की संपदा को ले जाने से रोकने हेतु ‘चिपको आंदोलन’ का कया औचित्य है? कल यदि भिलाई वाले यहां बनने वाले इस्पात को रोककर ‘लटको आंदोलन’ चलाएं तो क्या होगा?' ये बात चंडी प्रसाद को अच्छी नहीं लगी और वो सम्मेलन छोड़कर बाहर निकल आए।
चंडी प्रसाद को ऋषिकेश में ही किसी ने सूचना दी कि 27 जून 1973 को साइमंड के लोग पेड़ काटने निकल रहे हैं। केदार सिंह रावत को भी यह खबर मिल चुकी थी। चंडी प्रसाद ऋषिकेश से आंनद सिंह को लेकर सीधे सिल्यारा आश्रम पहुंचे, जहां सुंदरलाल बहुगुणा रहते थे। चंडी प्रसाद और आनंद सिंह ने उन्हें पूरी कहानी सुनाई और जंगलों में कटान रोकने के लिये मदद मांगी। जानते हैं उस रोज क्या हुआ था! सुंदर लाल बहुगुणा ने दो टूक शब्दों में फाटा में जंगलों की लड़ाई लड़ने से इनकार कर दिया। सुंदरलाल बहुगुणा ने तब कहा था कि वो नहर मरम्मत और रोपाई के कामों में मशगूल हैं।
अगले दिन चंडी प्रसाद भट्ट और आंनद सिंह दोनों मायूस होकर सिल्यारा आश्रम से निकलकर गुप्तकाशी की ओर चल पड़े। सुंदर लाल बहुगुणा जो कि तब तक इलाके में काफी मशहूर हो चुके थे, उन्होंने जंगल की इस लड़ाई में शामिल होने के बजाय धान के खेतों में रोपाई करना ज्यादा मुनासिब समझा था। इतिहास में ऐसी घटनाओं की क्या वजह रही होंगी मालूम नहीं, लेकिन हिमालय ने आज अपना एक अजीज पर्यावरण हितैशी खो दिया है। सुंदरलाल बहुगुणा ने हिमालय और उसके पर्यावरण के लिए एक दौर में खूब काम भी किये, लेकिन विवाद भी उनके साथ चलते रहे। ... और हां, चंडी प्रसाद भट्ट और आंनद सिंह ने स्थानीय लोगों की मदद से मंडल के बाद फाटा में भी साइमंड को हरा दिया था। कंपनी के कारिंदों को बिना एक भी पेड़ काटे यहां से बैरंग लौटना पड़ा था।
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24 जून 1973 को भारी बरसात के बावजूद फाटा में सड़क पर सभा हुई और तय किया गया कि वो जंगल से एक भी पेड़ नहीं कटने देंगे। साइमण्ड के लोगों के सामने ही चिपको प्रस्ताव पारित हुआ और एक समिति को जंगल की निगरानी करने के लिए काम पर लगा दिया गया। मैखंडा के जंगलों की ओर जाने वाले रास्ते में पड़ने वाले तरसाली गांव के दयानंद को जिम्मेदारी सौंपी गई कि वो किसी भी अजनबी को जंगल की ओर जाता देखकर शंख बजा दे। साइमण्ड के कारिंदे जंगल में घुसने की हिम्मत नहीं कर पा रहे थे। जंगल की रखवाली के लिए ढोल, नगाडे और भंकारे रात भर बजते रहे। दयानंद को शंख बजाने की जरूरत ही नहीं पड़ी और साइमंड के कारिंदों को यहां से भी चुपचाप जाना पड़ा। बिना पेड़ों से चिपके ही यह दूसरी लड़ाई थी, जो आंदोलनकारियों ने जीत ली थी।
बहरहाल, सुंदरलाल बहुगुणा ने फाटा में लोगों की लड़ाई का साथ देने के बजाय उस दिन खेतों में धान की रोपाई करना क्यों जरूरी समझा था, इसका कोई जवाब कभी मिल ही नहीं सका, लेकिन यह भी सच है कि उन्होंने एक दौर में जंगलों की लड़ाई को आम लोगों के बीच ले जाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।
(इन तमाम बातों का जिक्र मशहूर इतिहासकार शेखर पाठक की हाल ही में आई पुस्तक 'हरी-भरी उम्मीद' में विस्तृत रूप से मौजूद है, जिसमें उन्होंने चिपको आंदोलन और उस दौरान जमीन पर काम कर रहे कार्यकर्ताओं पर तिथिवार घटनाओं का जिक्र करते हुए विस्तार से लिखा है।)
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