ये 2013 नवंबर में सर्दियों के दिन थे, जब उत्तराखंड समेत देशभर के मीडिया में एक खबर ने भूचाल मचा दिया था। यह खबर थी बाबा से लाला बने रामदेव के पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट पर दर्ज किये गए 81 मुकदमों की फेहरिस्त की और उस दौर में मुख्यमंत्री थे विजय बहुगुणा। ये अपने आप में बड़ी खबर थी। रामदेव पर गुरु की गुमशुदगी, उत्पादों की गुणवत्ता, पतंजलि योगपीठ ट्रस्ट पर हरिद्वार में बेनामी संपत्ति, सरकारी जमीन पर कब्जा और सरकारी भूमि के दुरुपयोग के मामलों समेत दस करोड़ से अधिक की स्टांप ड्यूटी चोरी के 52 मामले शामिल थे। इसके अलावा दो और मुकदमे दायर हुये थे, जिनमें बाबा के सहयोगी बालकृष्ण के फर्जी पासपोर्ट और रामदेव के भाई रामभरत पर किडनैपिंग के आरोप तक शामिल थे।
सरकार और रामदेव दोनों की ओर से ही एक-दूसरे पर तीखी बयानबाजियां आम हो गई थी। सरकार भूमि के दुरुपयोग के 27 मामलों में पतंजलि को दी गई जमीन वापस लेने की बात कर रही थी और इधर बाबा इन मामलों को राजनीतिक बताकर अपने पत्ते फेंक रहे थे।
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ये सब उस घटना के महीनों बाद हो रहा था, जब दिल्ली में गेरुआ छोड़ बाबा को पुलिसिया लट्ठ के खौफ से रातों-रात महिलाओं के वस्त्र पहनकर भागना पड़ा था। इस घटना के बाद रामदेव की बौखलाहट साफ दिखने लगी थी और बाबा ने देशभर में घूम-घूम कर कांग्रेस के खिलाफ माहौल बनाने के लिये बड़ी संख्या में योग शिविरों का ओयोजन शुरू कर दिया। तब इन योग शिविरों को ताकत दे रहे थे आरएसएस और भाजपा से जुड़े हुये कई संगठन। ये उस सत्ता को पाने की तैयारी थी, जिसने भाजपा को कभी केन्द्र में ठीक से अब तक बैठने ही नहीं दिया था। ये पूरी तरह से राजनीतिक योग शिविर थे, जिनमें पेट मरोड़ने और सांसों को खास लय में खींचने-छोड़ने के तमाशे के बीच बाबा कांग्रेस पर व्यंग्य कसने से नहीं चूकते।
वो मंच से कालाधन आने पर भारतीयों के अमीर होने की पंचतंत्र सरीखे कथाओं का प्रसार कर रहे होते और इधर भीड़ अमीर होने का सपना लिये हुये जयकारों में मशगूल रहती। पीआर मशीनरी और खबरिया चैनलों पर तैरते विज्ञापनों के बीच ऐसा 'लफ्फाज' लोक तैयार किया जा रहा था, जहां मानों दूध-घी की नदियां बस बहने वही वाली हों। शहर-दर-शहर यह राजनीतिक शिविर आयोजित होते रहे। महंगी कार से बाबा लोगों और मीडिया की भीड़ को चीरते हुए मंच तक पहुंचते और फिर वही बात दोहराते, जो वो पहले ही कहीं और कह चुके होते। सब कुछ एक तय पैटर्न पर चल रहा था। रामदेव मंच से मोदी के आने के बाद भारत के बदल जाने के सपने बेच रहे थे और इधर बाबा का समर्थक एक बहुत बड़ा मिडिल क्लास तबका इन बातों की सत्यता को जांचे-परखे बिना ही इस अंधे प्रचार का हिस्सा बन गया। साफ था कि बाबा रामदेव मौजूदा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की ताजपोशी के लिये माहौल बना रहे थे।
इधर सरकारी मशीनरी की धमक हरिद्वार में पतंजलि योगपीठ में बढ़ रही थी। तब मुल्क में रामदेव से हमदर्दी रखने वाले और कांग्रेस के शासनकाल से त्रस्त एक बड़े तबके की सहानुभूति के चलते इस कार्रवाई की निंदा ही ज्यादा हुई। वक्त गुजरा और अचानक उत्तराखंड में सियासी संग्राम शुरू हो गया। 2013 में केदारनाथ आपदा में अव्यवस्थाओं को लेकर पार्टी के भीतर ही आक्रोश झेल रहे विजय बहुगुणा को जनवरी 2014 में रुखसत कर दिया गया और उनकी जगह हरीश रावत ने सूबे के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। इधर देशभर में मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ रिकॉर्ड छू रहा था। देशभर में मोदी की रैलियों ने कांग्रेस को बैकफुट पर डाल दिया था और भारतीय 15 लाख रुपये खातों में आने का जश्न मनाने के दिन गिन रहे थे।
कुछ ही महीनों के बाद बीजेपी ने वो कारनामा कर दिखाया था, जिसका तोड़ आज तक भी राजनीतिक दल ढूंढते फिर रहे हैं। रामदेव की मेहनत रंग लाई और अब वो सरकार केंद्र में थी, जिसे केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने के लिये खुद रामदेव ने भी ऐड़ी-चोटी का जोर लगा दिया था। धीरे-धीरे सारे मामले अदालतों की लंबी सुनवाइयों के साथ सुर्खियों से भी गायब हो गये और किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि वाकई पतंजलि योगपीठ के अपराधों का क्या हुआ? प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों के गलों में बाहें डाले हुए रामदेव की तस्वीरें उनकी ताकत और पहुंच दोनों को बताने के लिये पर्याप्त थी, फिर किसी जांच अधिकारी की क्या मजाल जो वह इन मामलों की गहराई तक जाकर सच खोदने का साहस जुटा पाता।
आज स्थितियां उलट हैं। पिछले 7 सालों में रामदेव का साम्राज्य बेशुमार बढ़ा ही है। भाजपा के केंद्र की सत्ता में आते ही बीजेपी शासित प्रदेशों में निवेश के नाम पर रामदेव को बेशकीमती जमीनें औने-पौने दामों पर ही दे दी गई। 2017 तक ही बीजेपी शासित राज्यों में जमीनों के अधिग्रहण पर बाबा रामदेव के पतंजलि योगपीठ को 3 अरब 35 करोड़ 80 लाख रुपये की छूट दी गई थी। अब 2021 में यह छूट कितना गुना और बढ़ी है, यह जांच का विषय है।
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जाहिर सी बात है यह तोहफे ऐसे ही सरकार की ओर से रामदेव को नहीं दिये जा रहे थे, ये तोहफे रामदेव ने 2014 से पहले ही अर्जित कर लिये थे जब वह कालाधान और भ्रष्टाचार के नाम पर कांग्रेस का पत्ता साफ करने की मुहिम छेड़े हुये थे। ये हास्यास्पद है कि ठीक उसी वक्त रामदेव की पतंजलि योगपीठ पर भ्रष्टाचार और सरकारी जमीनों के दुरुपयोग के मामलों में मुकदमे दायर किये जा रहे थे।
इस छूट से पतंजलि ने राज्यों में कितना निवेश किया और रोजगार के कितने मौके स्थानीय लोगों को मिले ये भी सरकार ही बेहतर बता सकती है, लेकिन इन सौदों ने रामदेव के एफएमसीजी कारोबार के लिये नये रास्ते जरूर खोल दिये। इन सौदों ने बाबा रामदेव, बालकृष्ण और रामदेव के भाई राम भरत पर अकूत संपत्ति बरसाई और आज ये तिकड़ी अरबों डॉलर की मालिक है। फोब्र्स के मुताबिक बाबा के सहयोगी बालकृष्ण की मौजूदा संपत्ति 2.3 बिलियन डॉलर है।
रामदेव अगर सीना तानकर महामारी के बीच भी अवैज्ञानिक बातें कर रहे हैं, तो वो उस बीजेपी की ताकत के बिना मुमकिन ही नहीं है, जिसे सत्ता में लाने और बचाने दोनों का काम रामदेव तल्लीनता से करते हुये नजर आते हैं। रामदेव अगर यह कह रहें हैं कि 'गिरफ्तार तो उनका बाप भी नहीं कर सकता' या फिर ‘एलोपैथी एक स्टुपिड और दिवालिया साइंस है', तो वह ऐसा हवा में नहीं कह रहे हैं, इसके पीछे पर्याप्त राजनीतिक संरक्षण ही नजर आता है। ये सब उस दौर में हो रहा है, जब डॉक्टर अत्यधिक दबाव के बीच भी भारत में कोरोना मरीजों के साथ ही अन्य बीमारियों के इलाज में जुटे हुये हैं।
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रामदेव इस सराकर के लिये कितने महत्वपूर्ण हो चुके हैं, इसका अंदेशा भी पिछले कुछ दिनों में हुई घटनाओं को देखकर पता चल जाता है। वापस 2013 में चलें तो जब उत्तराखंड सरकार रामदेव पर मुकदमे लाद रही थी, तब तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कहा था कि कि बाबा रामदेव उत्तराखंड में पतंजलि के नाम का दुरुपयोग कर रहे हैं। उन्होंने कहा था कि इन मामलों में संलिप्त अधिकारियों के खिलाफ भी सरकार कार्रवाई करेगी, लेकिन यह सब भी अब गुजरे जमाने की बात है।
2013 में दर्ज हुये अधिकांश मुकदमे फिलवक्त नेपथ्य में चले गये हैं और अब वो कहानियां भी धुंधली पड़ने लगी है, जिनमें ऋषिकेश और हरिद्वार के लोग बाबा के साइकिल पर माइक लगाकर घास-फूस बेचने की कहानियां सुनाया करते थे। अब बिलेनियर बाबा ऋषिकेश-हरिद्वार के गप्पबाजों के दायरे से बाहर की चीज है और वो प्रधानमंत्री के गले में हाथ डालकर मुस्कुराने की ताकत रखता है।
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