हिमांशु जोशी पत्रकारिता शोध छात्र हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।
उत्तराखंड के सियासी हाल की कहानी को आप कहां से समेटना पसंद करेंगे! चलिये शुरू से ही शुरुआत करते हैं। उत्तराखंड के भाग्य में अब तक आया हर मुख्यमंत्री गद्दी संभालते ही बेलगाम 'ब्यूरोक्रेसी' पर नियंत्रण करने के इरादे तो जाहिर करता रहा, लेकिन ऐसा हो नहीं सका। इस मामले में मरहूम नारायण दत्त तिवारी अपवाद की तरह नजर आते हैं, जिन्होंने उत्तराखंड के विकास के लिए नौकरशाही को नियंत्रित करते हुये नवनिर्मित राज्य के विकास की बुनियाद रखने का काम किया।
बेरोज़गारी की बेरहम लपटों में घिरे सूबे के लिये तिवारी कार्यकाल में सिडकुल की स्थापना महत्वपूर्ण निर्णय रहा है। इस तरह के विकास कार्य कर कोई नेता उत्तराखंडवासियों के बीच लोकप्रिय होता, तब शायद दिल्ली सूबे की सियासत में हस्तक्षेप करने से कतराती, लेकिन यहां तमाशे ही ज्यादा दिखते हैं। 20 साल में 11 मुख्यमंत्री! इसे आप क्या कहेंगे! नारायण दत्त तिवारी के बाद एक दौर भुवन चंद्र खंडूरी का याद आता है, जिनकी लोकप्रियता इतनी थी कि वह खुद ही चुनाव हार गये। बाकी बीच में आयाराम-गयाराम वाले मुख्यमंत्री ही याद आते हैं।
शायद भारत में उत्तराखंड एकमात्र ऐसा प्रदेश है, जहां कपड़ों की तरह मुख्यमंत्रियों को बदला जा रहा है। भाजपा हो या कांग्रेस प्रदेश की सियासत के फरमान दिल्ली से ही जारी किए जाते हैं, जो इस छोटे से पहाड़ी राज्य से खिलवाड़ ही ज्यादा नजर आता है। ऐसा लगता है कि जनता को राजनीतिक दलों ने बहुत पहले ही हाशिए पर छोड़ दिया और इस सूबे को अपने सियासी प्रयोगों की जमीन में तब्दील कर दिया है। ऐसा लगता है जैसे उत्तराखंड नेताओं की अतिमहत्वकांक्षा का अड्डा बन गया है, जहां सूबे के संसाधनों पर नियत्रंण के लिये ही हर पार्टी का नेता रेस लगा रहा हो! आपको लगता है कि ऐसा नहीं है, तब आप इस सूबे का छोटा सा राजनीतिक इतिहास खंगालने की कोशिस कर सकते हैं।
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कभी अल्पमत की सरकारों में मुख्यमंत्री बदले गये, तो कभी गठबंधन और आंतरिक कलह ने सूबे में राजनीतिक अस्थिरता को जन्म दिया। इस बार तो हद ही हो गई, जब पूर्ण बहुमत से आई भाजपा सरकार ने प्रदेशवासियों को पांच सालों के अंदर विकास की सौगात देने के बजाय, चार महीनों के भीतर ही तीसरा मुख्यमंत्री थोप दिया। सामान्य तौर पर लगे आरोपों को देखें तब भ्रष्टाचार के मामलों में नाम आना, कुम्भ में की गई सख्ती और अपने ही पार्टी कार्यकर्ताओं से दूरी जैसे कारण त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री पद की कुर्सी से हटने की वज़ह बने। त्रिवेंद्र के बाद शोर शराबे से आए तीरथ सिंह रावत मार्च से लेकर जुलाई तक सिर्फ़ चार महीने के मुख्यमंत्री बने।
अपने इस्तीफे में उन्होंने लिखा कि आर्टिकल 164-ए के हिसाब से उन्हें मुख्यमंत्री बनने के बाद छह महीने में विधानसभा का सदस्य बनना था, लेकिन आर्टिकल 151 कहता है कि अगर विधानसभा चुनाव में एक वर्ष से कम का समय बचता है, तब उप-चुनाव नहीं कराए जा सकते हैं। यह कोरी गप्प है, जिसे सूबे का हर बाशिंदा बखूबी जानता है। बजाय कि अपनी कमियों के संवैधानिक मजबूरी की आड़ लेना हास्यास्पद स्टंट है। सवाल यह भी उठता है कि संविधान कोई तीरथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद तो लिखा नही गया, जब यह सब पहले से ही पता था, तब उन्हें मुख्यमंत्री बनाया ही क्यों गया! असल में इसके पीछे भी भाजपा की आंतरिक गुटबाजी ही प्रमुख रही और जब पार्टी को लगा कि तीरथ रेस का वो घोड़ा नहीं हैं, जिन पर दांव लगाया जा सके, तब बड़ी चालाकी से संवैधानिक कारणों को आगे कर दिया गया। यह सूबे के बाशिंदों का सामूहिक दुर्भाग्य ही कहलाएगा कि पूर्ण बहुमत देने के बाद भाजपा ने जनता को हाशिए पर धकेल दिया है। चुनावी वर्ष में प्रवेश से पहले सरकार भीतरघात से ही ज्यादा जूझ रही है।
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सिर्फ विवाद जो याद रहेंगे!
तीरथ के पिछले चार महीनों के कार्यकाल को देखें तब त्रिवेंद्र सिंह रावत के कुम्भ में आने वाले लोगों के लिए आरटी-पीसीआर निगेटिव रिपोर्ट जरूरी वाले निर्णय और गैरसैंण को कमिश्नरी बनाने वाले निर्णय को स्थगित कर हंगामे के अलावा उनके हिस्से महिलाओं के पहनावे पर अभद्र टिप्पणी ही याद रह जाती है। तीरथ सिंह रावत के बाद मुख्यमंत्री कौन के सवाल पर कुछ समय अनिश्चय की स्थिति बनी रही और अंत में खटीमा से दो बार के युवा विधायक पुष्कर सिंह धामी के नाम पर मुहर तो लग गई, लेकिन पार्टी के भीतर कलह का दौर जारी है।
हरक से नहीं जनता से हो रहा है धोखा
सूबे के अखबारों में हरक सिंह रावत के बगावती तेवर अभी से दिखने लगे हैं। वो इसे खुद के साथ 'धोखे' और पार्टी की ओर से अविश्वास जैसी स्थिति बता रहे हैं, लेकिन वो सूबे की जनता को मिल रहे धोखों का जिक्र करना भूल जाते हैं। वो भूल जाते हैं कि पहाड़ की जनता ने उन्हें बिना शर्त लंबे वक्त से सिर आंखों पर बिठाया हुआ है। वो जब खुद की महत्वकांक्षाओं को जाहिर करते हैं, तब वो हजारों बेरोजगार नौजवानों की आंकाक्षाओं को भी कुचल रहे होते हैं।
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मीम्स जो बन गए राज्य का सच
सोशल मीडिया पर उत्तराखंड की राजनीति को लेकर तरह-तरह के मीम्स साझा किए जा रहे हैं, जो सूबे की स्थिति पर इस दौर के मारक व्यंग्य है। साल 2000 में उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद हमेशा से अपने विकास की जगह राजनीति को लेकर देशभर में चर्चित रहने वाले इस राज्य का भविष्य अब भी अधर में ही ज्यादा लटका हुआ दिखता है। एक लंबी लड़ाई के बाद पहाड़ियों का सपना अधर में लटके उस घड़े की तरह है, जिसे फोड़कर उत्सव का आगाज करने की तैयारी तो है, लेकिन ये उत्सव राज्य के बाशिंदों के लिये कभी आ ही नहीं सका।
इतिहास में दफ्न सपने और सियासत
इतिहास में झांके तब साल 1897 में इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया के समक्ष कुमाऊं को प्रान्त का दर्जा देने की मांग पहली बार रखी गई। नए मुख्यमंत्री के शहर खटीमा में ही दो सितंबर 1994 को पृथक राज्य के लिए जुलूस निकाल रहे आंदोलनकारियों पर पुलिस ने फायरिंग की, फिर आंदोलन की यह आग पूरे उत्तर प्रदेश से लेकर दिल्ली तक फैल गई। 15 अगस्त 1996 को तत्कालीन प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने लाल किले से उत्तराखंड राज्य बनाने की ऐतिहासिक घोषणा की, जिसके बाद 9 नवम्बर 2000 को यह राज्य बना। लंबी लड़ाई के बाद मिले राज्य को लेकर जनता ने जिस तरह की उम्मीदें पाली थी, वो अब नेताओं के विकास के जुमलों का अंश बन चुके हैं।
रबर स्टाम्प वाले मुख्यमंत्री
जानकार उत्तराखंड में दिल्ली से बनाए जाते इन मुख्यमंत्रियों को सिर्फ रबर स्टाम्प वाला मुख्यमंत्री मानते हैं। कारण, छोटे राज्यों के नेताओं को दिल्ली दरबार में कम भाव मिलना और अधिकतर निर्णयों की दिल्ली पर निर्भरता ही अब तक देखने को मिली है। अब मौजूदा मुख्यमंत्री की लोकप्रियता को ही सूबे में नापा जाये तब मुझे मेरे दूधवाले की बात याद आती है, जिसका कहना था- 'पुष्कर सिंह धामी गढ़वाल से आते हैं!' असल में यही सच भी है कि मौजूदा मुख्यमंत्री के बारे में राज्य के एक बड़े हिस्से की जनता कुछ भी नहीं जानती। वो परंपरा का निर्वहन करते हुये दिल्ली से थोप दिये गये हैं।
बड़े दिग्गजों की जमीन विवेकहीन कैसे हो गई!
गोविंद वल्लभ पन्त, हेमवती नन्दन बहुगुणा और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री के तौर पर अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा करने वाले एकमात्र नेता नारायण दत्त तिवारी जैसे राजनीतिक दिग्गजों ने उत्तराखंड से निकल अपनी छाप पूरे देश में छोड़ी थी। तमिलनाडु में अम्मा कैंटीन, अम्मा फार्मेसी जैसी योजनाएं चला जयललिता जिस तरह लोकप्रिय हुई, ठीक वैसे ही उत्तराखंड में नारायण दत्त तिवारी लोकप्रिय हुये थे, लेकिन उनके बाद कोई भी मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल ही पूरा नहीं कर सका। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकप्रिय होने का दावा करने वाले नेता असल में कितने कमजोर हैं!
नेता मस्त और जनता त्रस्त
अब इसके उलट जरा नेताओं की शानो शौकत और सुविधाओं को सुरक्षित करने की जंग पर नजर डालें! एक ओर सूबे में आए दिन सियासी संकट के चलते जनता त्रस्त है और दूसरी ओर पूर्व मुख्यमंत्रियों को दी जाने वाली सुविधा को लेकर सरकार का अड़ियल रुख जारी है। हिंदुस्तान की एक ख़बर से पता चलता है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास के किराए में राहत दिलाने को लेकर, अब सरकार सुप्रीम कोर्ट में विशेष रिट याचिका दायर करेगी। मामला यह है कि उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को राज्य सरकार की ओर से आवास, गाड़ी समेत कई तरह सुविधाएं मिलती थी। साल 2019 में उत्तराखंड हाईकोर्ट ने आदेश दिया था कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सभी सुविधाओं का किराया बाजार भाव से देना होगा। हाईकोर्ट ने सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों से छह महीने में पूरा पैसा जमा करने का आदेश दिया था।
इस फैसले के कुछ ही महीनों के बाद राज्य सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सुविधाएं जारी रखने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री सुविधा अधिनियम बना दिया था। इस अधिनियम को एक संस्था ने हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिस पर हाईकोर्ट ने उस अधिनियम को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया था। अब सोचने वाली बात यह है कि जिस प्रदेश में कपड़ों की तरह बदलते हुए मुख्यमंत्री 'पूर्व' बन जा रहे हैं, वहां जनता की खून पसीने की गाढ़ी कमाई को लुटाने के प्रयास तेज हैं। माननीयों के ठाठ बाट यहीं ख़त्म होते दिखते, तब भी ठीक था, लेकिन यह फेहरिस्त लंबी है। सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ाने में नेता जितने सक्रिय नजर आते हैं, लोगों की मुश्किलें उतनी ही बढ़ी हुई दिखती हैं।
समाज सेवा या लूट का मेवा
साल 2018 में हिंदुस्तान में एक ख़बर आई कि उत्तराखंड के विधायक भी अब मालदार हो गए हैं। विधायकों के वेतन भत्तों में कुल 120 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी की गई थी। विधेयक के तहत विधायकों के लिए होम लोन की सीमा 30 लाख से बढ़ाकर पचास लाख कर दी गई। यह वही समय था जब उत्तराखंड में बेरोज़गारी की दर तेज़ी से बढ़ रही थी। पिछले पांच सालों में उत्तराखंड की बेरोजगारी दर छह गुना से ज्यादा बढ़ गई है। कोरोना महामारी के दौरान इसमें सबसे तेजी से वृद्धि हुई। लॉकडाउन के बाद कामकाज ठप होने और काम के अभाव में घर लौटे प्रवासियों के चलते प्रदेश में अब जबकि बेरोजगारी बेकाबू हो चुकी है, तब सरकार की ओर से राहत के बजाय सियासी खेल ही जनता को तोहफे में दिया जा रहा है।
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मुख्यमंत्री बनते ही पुष्कर सिंह धामी ने देहरादून स्थित उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी शहीद स्मारक पर जा पुष्पांजलि अर्पित की और ट्वीट कर शहीदों के सपनों का राज्य बनाने की बात तो कह दी, लेकिन वो कम समय में ऐसा किस जादू की छड़ी से करेंगे, यह बताना भूल गये। इसके इतर कोरोना महामारी की तीसरी लहर दरवाजे के करीब है और रोजगार का संकट अभूतपूर्व स्थितियों में पहुंच गया है।
राजनीतिक घटनाक्रमों के बीच कैसी है कोरोना के खिलाफ़ जंग
उत्तराखंड में अप्रैल माह में हुए कुम्भ के बाद कोरोना तेज़ी से फ़ैला। 13 अप्रैल 2021 को कोरोना से हो रही मौत दो अंकों तक पहुंची और 17 मई को यह आंकड़ा एक दिन में 223 तक भी पहुंचा। इस दौरान प्रदेश में हुआ देश का सबसे बड़ा कोविड टेस्ट घोटाला भी अब सामने है। रिपोर्ट्स के मुताबिक इसमें सरकार द्वारा अनुबंधित जांच प्रयोगशालाओं ने कम से कम कोविड की एक लाख फर्जी रिपोर्ट जारी की हैं।
देहरादून स्थित 'सोशल डेवलपमेंट फ़ॉर कम्युनिटीज फाउंडेशन' संस्था के अनूप नौटियाल के एक ट्वीट के अनुसार 30 जून 2021 तक प्रदेश में 1210 बैकलॉग मृत्यु दर्ज हुई हैं। मृत्यु दर में 2.15% के साथ उत्तराखंड देश में पंजाब के बाद दूसरे स्थान पर है। इससे पता चलता है की राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं मे सुधार की बड़ी आवश्यकता है।
बुरे हाल में है स्वास्थ्य सुविधाएं
यहां उत्तराखंड हाईकोर्ट में दायर नवनीश नेगी की याचिका पर भी ध्यान देना जरूरी है, जहां उन्होंने अपनी याचिका में कोर्ट का ध्यान पौढ़ी गढ़वाल जिले की ओर खींचा और नोडल ऑफिसर द्वारा प्राप्त हुए जिले के विभिन्न अस्पतालों के आंकड़े दिए गए। इन आंकड़ों के अनुसार जिला अस्पतालों के कोविड हेल्थ सेंटरों में दस वेंटिलेटर हैं, उनमें कोई भी एक्टिव मोड में नही है। आंकड़ों से पता चलता है कि जिले के अस्पतालों में आईसीयू के केवल चार बेड हैं। हाईकोर्ट से फटकार के बावजूद सरकार कोविड नियंत्रण की तैयारियों के बजाय, मुख्यमंत्री बदलने पर ज्यादा ताकत खर्च करती हुई नजर आई है।
इन तमाम बातों के बीच फिलवक्त उत्तराखंड मंझधार में नजर आता है, जहां जनता नाउम्मीद खड़ी अपने दिन गुजार रही है और पार्टियां अगले चुनाव के लिये जुमलों का घोल तैयार करने में मशगूल। उत्तराखंड जनता के सपनों का राज्य तो न बन सका, लेकिन नेताओं के सपनों और महत्वकांक्षाओं को पंख देने का राज्य जरूर बन गया है।
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