बिहार के दक्षिण में घने जंगल और पहाड़ियों वाले इलाके में कई आदिवासी जनजातियां रहती हैं। इन्हीं में से एक है मुंडा जनजाति। हिन्दुस्तान की कई जनजातियों में से एक रही इस जनजाति को आदिवासियों के बीच कल्ट बन चुके बिरसा मुंडा ने नई पहचान दी, लेकिन इसके लिए लंबी लडाईयों के इतिहास में झांके बिना समझना मुश्किल है। जंगलों वाला ये इलाका आज के झारखंड तक विस्तार पाता है।
पीढ़ियों से मुंडा आदिवासियों की इकॉनमी और जिंदगी दोनों जंगलों पर आश्रित रही है। मुंडा परिवार मोटा अनाज या घास के दाने उबालकर 'घाटो' खाते थे। ये वो दौर था जब पांच या दस रुपयों के लिए आदमी को बेगारी करनी पड़ती थी। जमींदार, जागीरदार, साहूकार, महाजन, जो बाहर से आए हुए लोग थे, बिहार (अब झारखंड) के मालिक बन बैठे थे और वो आदिवासियों का जमकर शोषण कर रहे थे। ये एक किस्म से स्लेवरी की ही तरह था।
पुलिस अधिकारी, वन्य अधिकारी और जमींदार इंग्लैंड में बैठे शासकों के छोटे-छोटे स्थानीय प्रतिनिधि थे। इनकी मिलीभगत से जनजातीय भूमि व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई थी। अंग्रेजों के कई क़ानून अब भी भारतीयों को खून के आंसू रुला रहे थे. ख़ासतौर पर कृषि से जुड़े कई ऐसे क़ानून थे जिनके चलते किसानों और आदिवासियों की ज़मीन छीनी जा रही थी। ब्रिटिश औपनिवेशिक व्यवस्था ने आदिवासी कृषि व्यवस्था के एक सामंती राज्य में परिवर्तन करना शुरू कर दिया। गैर-आदिवासी किसानों को छोटा नागपुर पठार पर बसने और खेती करने के लिए आमंत्रित किया जाने लगा। छोटा नागपुर पठार का बिरसा मुंडा की कहानी से क्या संबंध है, इसे ऐसे समझें कि वर्तमान में झारखंड राज्य का ज्यादातर हिस्सा और पश्चिम बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़ का थोड़ा-बहुत भू-भाग छोटा नागपुर पठार के इलाके में आता है। इन सभी बदलावों से आदिवासियों की ज़मीन का या तो बंटवारा हो गया या वो छिन गयीं। साल 1874 आते-आते इस क्षेत्र की मुंडा और बाकी जनजातियों के अधिकारों को लगभग पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया।
अब से कोई सौ साल पहले मुंडा जनजाति की दशा बेहद खराब थी, लेकिन अब चीजें बदलने वाली थी। वक्त हमेशा के लिए एक जैसा नहीं रहने वाला था। घनघोर शोषण और दमन के दिनों में सन् 1875 में चलकद के एक निर्धन परिवार में एक शिषु का जन्म हुआ, जहां बिरसा के पिता सुगना मुंडा के मामा का घर था।। बिरसा मुंडा का पैतृक गांव उलिहातू है। गुरुवार को जन्म लेने के कारण इस बच्चे का नाम पड़ा बिरसा और यही बच्चा आगे चलकर समूची आदिवासी जातियों के लिए 'भगवान' सरीखा बन गया।
मुंडाओं को उनके जातीय गौरव की याद दिलवाने वाले बिरसा के भगवान बनने की कहानी चमत्कृत करने वाली है, लेकिन इसके पीछे अथक समर्पण और संघर्ष की कहानी छिपी हुई है। एक ऐसी कहानी जो पूरे हिन्दुस्तान की भी शौर्य गाथा बन जाती है। मात्र 25 साल की अल्पायु में ही बिरसा असाधारण उपलब्धियां हासिल कर इस दुनिया से रुखसत हो गए थे, लेकिन इस छोटी सी अवधि में ही वो आदिवासियों के संघर्ष का चेहरा बन गए ।
पिता की गरीबी के कारण बिरसा की प्रारंभिक शिक्षा मामा घर में रहते हुए सलगा गांव के स्कूल में हुई। बिरसा का स्कूल जाना भी चौंकाने वाली घटना थी, क्योंकि उस वक्त आदिवासियों में यही धारणा थी कि पढ़कर बच्चा अधिकारी या दिकू (शोषक) बन जाता है। दो वर्ष की प्रारंभिक शिक्षा के बाद बिरसा की सबसे छोटी मौसी नवमी उन्हें अपने गांव खटंगा ले गईं। मौसी बिरसा को पढ़ाना चाहती थीं, जबकि मौसा इसके खिलाफ थे।
बिरसा अपने मौसा के मवेशियों को चराते हुए भी पढ़ाई में खो जाता। इस दौरान कई दफा मवेशी दूसरों के खेत चर जाते और बिरसा को मार पड़ती। मार से आहत होकर एक दिन बिरसा अपने गांव चला आया। यहां नजदीक के बुड़जू गांव स्थित जर्मन ईसाई मिशन स्कूल से प्राइमरी शिक्षा पूरी की और फिर आगे की शिक्षा के लिए तीन दिन पैदल चलकर चाईबासा पहुंचा, जहां उच्च प्राथमिक एसपीजी मिशन स्कूल में वर्ष 1886 में दाखिला मिल गया। यहां बिरसा की पहचान दाऊद बिरसा पुरती के रूप में दर्ज हुई। कुछ ही वर्षों बाद स्वतंत्रता संग्राम से प्रभावित होकर उनकी मां ने उनको स्कूल से हटा लिया. परिवार ने जर्मन मिशन की सदस्यता भी छोड़ दी और ईसाई धर्म छोड़कर अपनी पारंपरिक आदिवासी धार्मिक व्यवस्था में वापस आ गए।
आदिवासी परिवार में पैदा हुए बिरसा मुंडा नैसर्गिक तौर पर प्रकृति के बेहद करीब थे। निषाद परिवार से ताल्लुक रखने वाले बिरसा मुंडा की आरंभिक पढ़ाई साल्गा गांव में हुई और इसके बाद बिरसा चाईबासा चले आए। 1886 से 90 के बीच बिरसा मुंडा सरदारों के आंदोलन से जुड़ गए। इस आंदोलन ने उनके मन पर गहरा प्रभाव छोड़ा और वे अंग्रेज हुकूमत के खिलाफ होने वाले कार्यक्रमों का हिस्सा बनते चले गए। 12 साल के बिरसा पर सरदारों के आंदोलन ने अपना गहरा असर छोड़ा था। बिरसा मुंडा ने अपने संघर्ष के दौरान दो मोर्चों पर लड़ाई लड़ी। पहला, अपने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जादू-टोना, भूत-प्रेत समेत अनेक सामाजिक कुप्रथाओं से मुक्ति और दूसरा अंग्रेजों के पिट्ठू जमींदार, साहूकार के खिलाफ अपने राजनीतिक-सांस्कृतिक अस्तित्व के लिए संघर्ष। इन्ही व्यवस्थाओं से उलगुलान को जन्म मिला और बिरसा मुंडा भगवान बन गया। दरअसल बिरसा मुंडा ने ही उलगुलान की शुरुआत की। उलगुलान का अर्थ होता है, ‘असीम कोलाहल’। ये वो विद्रोह था जिसमें आदिवासियों ने अपने जल, जंगल और ज़मीन पर अपनी दावेदारी के लिए विद्रोह शुरू किया।
...और फिर अकाल से व्यथित हुए बिरसा ने छेड़ दी लड़ाई
बिरसा गुलाम भारत में बड़ा हो रहा था। साल 1894 में खराब मानसून के चलते छोटा नागपुर पठार के इलाकों में भयंकर अकाल और महामारी फैल गई। ये बिरसा के उत्थान का वक्त था। एक सााधाराण आदिवासी लोगों को इकट्ठा कर लंबी लड़ाई की रूपरेखा बना रहा था, लेकिन गरीबी भी दूसरी ओर बाधाएं खड़ी कर रही थी।
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एक लंबे अरसे से इस इलाके में सूखा पड़ रहा था। अंग्रेजी हुकूमत के आने के पहले भी सूखा पड़ता था, लेकिन तब लोग जंगल से शिकार, पेड़ों के फल, महुआ, बीज, मधु, कंद-मूल, कई प्रकार की वनस्पति आदि से अनाज की कमी पूरी कर लेते थे और ग्राम समाज की सामूहिक व्यवस्था किसी को मरने नहीं देती थी। जंगल का अधिकार छिन जाने के बाद अंग्रेजी राज में लोगों के हाथों से जंगल छिनने लगे। भारत के अलग-अलग हिस्सों में उस दौर में जंगलों को बचाने के लिए छोटी-छोटी लड़ाइयां अपना स्वरूप ले रही थी।
दलाल महाजनों ने जीना मुहाल किया हुआ था। इसी दौरान एक दिन गांव की एक गर्भवती महिला भूख से मर गई। लोगों ने उसे दफनाया, तो उसके साथ उस महिला के गहने और कुछ सिक्के भी रखे गए। ये एक किस्म की परंपरा है। यह झारखंड क्षेत्र के अवर्ण लोगों के बीच फैल रहे वर्णवादी लोगों के पौराणिक मिथकों का ही असर था कि लोग जीवितों को मरने से भले ही न बचा पा रहे थे, किंतु स्वर्ग में उनके भूखे रह जाने की चिंता से ग्रसित थे। बिरसा दफनाने वालों की बातें खामोश सुनते रहे, किंतु उनके हृदय का विद्रोह खामोश न रह सका।
भूख पर भारी मिथक
श्मशान से लौटने के बाद भी बिरसा के मस्तिष्क में द्वंद्व मचा रहा। इस बात से बिरसा मुंडा क्षुब्ध थे कि लोग भूखों मर रहे हैं, फिर भी रूढ़ियों और अंधविश्वासों ने उन्हें इतना जकड़ रखा है कि उनमें विवेक शून्यता आ गई है। खुद बिरसा के परिवार ने एक लंबे अरसे तक घास के बीजों को उबालकर 'घाटो' खाकर जीवन-यापन किया। उन्होंने चावल के दाने तक देखने को नहीं मिल रहे थे। सोच में डूबे बिरसा ने रात में उस महिला की कब्र खोदकर गहने और पैसे निकाल लिए और दोबारा कब्र को पहले की तरह ढंक दिया। बिरसा ने अपने मन के द्वंद पर जीत पाकर, सदियों की रूढीवादी सोच को लात मार दी थी।
..मां के गुस्से ने पैदा किए सवाल
दूसरे दिन बीरबांकी हाट में बिरसा उन गहनों को बेचकर चावल घर ले आया। उस रोज बिरसा उत्साही था कि आज उसका परिवार बहुत दिनों के बाद भात खाएगा। उसने अपनी मां को भात पकाने के लिए कहा और नहाने के लिए नदी की ओर दौड़ पड़ा। मां चावलों को देखकर हैरत में थी। उसे समझ नहीं आ रहा था कि बिरसा चावल कहां से लेकर आया। बिरसा इस सबसे बेपरवाह उस दिन नदी में दूर तक तैरता हुआ निकल गया। अब उसे यकीन हो चला था कि खाना तैयार होगा, तो वो नदी मे दूसरी छोर से सरसराता हुआ तैरकर वापस लौट आया।
उसके पिता भी जंगल से उस दिन कोई शिकार लेकर आए थे। बिरसा नदी से नहाकर जब लौटा, तब तक उसकी मां ने खाना तैयार कर दिया था। बिरसा ने घर के बाहर से ही आवज लगाई- ‘मां भात दो, बहुत भूख लगी है’! मां ने जल्दी-जल्दी अपने भूखे बेटे के लिए खाना परोस दिया। खाने में शिकार (मांस) भी देखकर बिरसा के चेहरे पर मुस्कान तैर गई। इधर उसकी मां के मन में अब भी एक सवाल अटका था कि आखिर इतना चावल बिरसा को कहां से मिल गया!
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बिरसा खाने बैठा ही था कि मां ने उससे पूछ लिया। बिरसा ने मां को बिना कुछ छिपाए सारी बातें सच-सच बता दीं। मृतात्मा और बोंगाओं के कोप के भय, क्षोभ और चरम क्रोध से बिफरी मां ने सर्वनाश की आशंका में खुद अपने हाथों अपने बेटे के उत्साह का सर्वनाश कर दिया। मां ने भात खा रहे बिरसा की थाली में लात मार दी। आंगन में सारा खाना बिखर चुका था। क्रोध में फुफकारती रोती मां ने भात की हांडी भी घर से बाहर दूर ले जाकर फेंक दी। यह बात आग की तरह पूरे गांव में फैल गई और समाज के लोगों ने बिरसा को बिरादरी से भी बहिष्कृत कर दिया। बिरसा को घर छोड़ना पड़ा, लेकिन रूढ़ीवादी सोच और अंधविश्वासों को समाप्त करने के खिलाफ बिरसा मुंडा के मन में नींव पड़ चुकी थी। बिरसा ने लोगों के बीच जाकर काम करना शुरू कर दिया।
आदिवासियों के हालात देखकर बिरसा ने आदिवासियों को इकठ्ठा करना शुरू कर दिया और 1 अक्टूबर 1894 से अंग्रजों से लगान (कर) माफ़ी के खिलाफ आंदोलन छेड़ दियां 1895 में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया गया और हजारी बाग़ सेन्ट्रल जेल में दो साल के लिए कैद में रखा गया। सजा पूरी होने के बाद बिरसा मुंडा ने अंग्रजों के खिलाफ अपने संघर्ष को और तेज कर दिया। बिहार से बंगाल तक आदिवासियों ने इस दौरान अंग्रेजों के सैन्य ठिकानों पर कई दफा छापामार कार्रवाई की। ये लैटिन अमरीका के गुरिल्ला वॉर सरीखा ही था।
1895 में, तमाड़ के चलकड़ गांव में, बिरसा मुंडा ने ईसाई धर्म त्याग दिया। तमाड़ और चलकड़ दोनों अब रांची का हिस्सा हैं। बिरसा ने खुद को ईश्वर का ऐसा पैगंबर घोषित किया जो अपने लोगों की खोई हुई सत्ता और सम्मान को वापस लाने वाले थे। उन्होंने लोगों से कहा कि महारानी विक्टोरिया का शासन समाप्त हो गया है और मुंडा राज शुरू हो गया है। उन्होंने नारा दिया- ‘अबुआ राज एते जाना, महारानी राज टुंडू जाना।’ यानी, रानी का ख़त्म करो और अपना राज स्थापित करो। उन्होंने रैयतों (किरायेदार किसानों) को लगान न देने का आदेश दिया। इस सबके चलते उन्हें 24 अगस्त, 1895 को गिरफ़्तार कर लिया गया और दो साल की कैद की सजा सुना दी गई। 28 जनवरी, 1898 को जेल से रिहा होने के बाद, वो फिर से उन्हीं पुराने सामाजिक कार्यों में जुट गए। 28 जून, 1898 को सामाजिक बराबरी के लिए उन्होंने ‘चुटिया के मंदिर’ का अभियान शुरू किया।
साल 1899 में दिसंबर का महीना था। लगभग 7,000 लोग उलगुलान की शुरुआत करने के लिए इकट्ठे हुए। ‘अबुआ दिसुन’ यानी स्वराज्य कायम होने की घोषणा कर दी गई थी। खुले तौर पर कहा गया कि असली दुश्मन ब्रिटिशर्स थे न कि ईसाई मुंडा। ये एक कमाल की रणनीति थी। कई आदिवासी, ईसाई धर्म अपना चुके थे। इसलिए बिरसा के खाते में आदिवासी संस्कृति को पुनर्जीवित करने का भी श्रेय जाता हैं उन्होंने चर्च और उसकी प्रथाओं जैसे टैक्स और धर्मांतरण का खुलकर विरोध कियां इस हद तक कि वो एक आदिवासी धर्म के प्रतिनिधि और प्रचारक बन गए। जल्द ही उन्होंने एक चमत्कारी उपदेशक की प्रतिष्ठा बना ली। मुंडा, उरांव और खारिया उन्हें देखने और आशीर्वाद पाने भर के लिए मीलों की यात्रा करके आते थे। वह आदिवासी लोगों के लिए एक संत, एक गुरु, एक ईश्वर बन गए थे। आज भी ढेरों लोकगीतों में बिरसा का अपने लोगों और अपने क्षेत्र पर जबरदस्त प्रभाव साफ़ झलकता है।
अंग्रेजों की नाक में इतना दम किया कि बन गए 'भगवान'
बिरसा मुंडा के अथक संघर्ष को देखते हुए आदिवासी समाज का उन पर भरोसा बढ़ने लगा और उनकी मुहिम में कई लोग जुड़ते चले गए। अंग्रेजों से जंगलों को बचाने की यह लड़ाई कई मोर्चों पर आदिवासियों के पक्ष में निर्णायक साबित हुई। लोग उन्हें पूजने लगे, मानो उनके बीच स्वयं भगवान उतर आए हों। जनभावनाओं से इतर बिरसा अपने काम में जुटे रहे। वो लोगों की चेतना के स्तर को सुधारने के साथ ही सशस्त्र लड़ाइयां भी लड़ रहे थे। 1897 से 1900 के बीच मुंडा आदिवासियों और अंग्रेजों के बीच लगातार छोटी-छोटी लड़ाइयां चलती रही। मुंडा आदिवासियों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था। अगस्त 1897 में बिरसा मुंडा और उनके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमान से लैस होकर खूंटी थाने पर हमला बोल दिया, जिसमें उनकी जीत हुई।
5 जनवरी, 1900 को बिरसा के साथियों ने खूंटी के एटकेडीह गांव में दो पुलिस कांस्टेबलों की हत्या कर दी। दो दिन बाद उन्होंने खूंटी पुलिस स्टेशन पर हमला कर एक और कांस्टेबल की हत्या कर दी। इन घटनाओं के बाद बिरसा के सिर पर 500 रुपये का इनाम रख दिया गया था। बढ़ते विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों की 150 सैनिकों की टुकड़ी खूंटी पहुंच गई। सैनिकों ने डुम्बारी हिल में शरण लिए इन क्रांतिकारियों पर हमला कर दिया। डुम्बारी पहाड़ी पर कत्लेआम मच गया। भगदड़ में लोगों का वीभत्स हुजूम एक-दूसरे को रौंद रहा था। सैकड़ों लोग मारे गए। पहाड़ी पर लाशें छितरी हुई थीं। इस जनसंहार के बाद लाशों को खाई में फेंक दिया गयां बहुत से लोगों को जिंदा जला दिया गया। इस झड़प में क्रांतिकारी हार गए थे, लेकिन मुंडा बच निकलने में सफल रहे। उन्होंने सिंहभूम की पहाड़ियों में शरण ले ली। लोग कहते हैं कि बिरसा शायद इसके बाद कभी पकड़ में न आते, लेकिन बिरसा के एक क़रीबी के लिए शायद 500 रुपए का लालच, अपने नेता से ज्यादा था। मात्र 500 रुपये के लिए उस शख्स ने खबरची का काम किया और उन्हें पकड़वा दिया।
उस जगह बिरसा अपनी जनसभा को सम्बोधित कर रहे थे। वो गर्व से चीखते- 'अबुआ दिशोम रे अबुआ राज' तो जवाब में सैकड़ों हाथ हवा में लहरा उठते। शायद बिरसा को उस वक्त चावल के फूले हुए दानों की खुशबू तक पर जमींदार का कब्जा याद आ जाता होगा। बाद में बिरसा के कुछ साथियों की गिरफ़्तारियां भी हुईं।
..और फिर आखिरकार वो वक्त भी आया जब 25 साल के बिरसा के खिलाफ मानों पूरी ब्रिटिश हुकूमत जंगलों में उतर आई हो। बिरसा जंगलों में जगह-जगह आदिवासियों के समूह तैयार कर रहे थे। 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर के जमकोपाई के घने जंगल से अंग्रेजों ने बिरसा को गिरफ़्तार कर लिया। पूरे जंगल में ये बात आग की तरह फैल गई। ये पूरी कार्रवाई जंगी माहौल और इतनी तैयारी से हुई थी कि बिरसा के चाहने वाले उन तक पहुंच ही नहीं सके। बिरसा को सलाखों के पीछे डाल दिया गया। उनकी गिरफ्तारी का किस्सा महाश्वेता देवी ने अपनी किताब अरण्येर अधिकार (जंगल के दावेदार) में बताया है..
‘बिरसा के हाथों में हथकड़ियां थीं; दोनों ओर दो सिपाही थे. बिरसा के सिर पर पगड़ी थी, धोती पहने था। बदन पर और कुछ नहीं था- इसी से हवा और धूप एक साथ चमड़ी को छेद कर रहे थे। राह के दोनों ओर लोग खड़े थे. सभी मुंडा थे। औरतें छाती पीट रही थीं, आकाश की ओर हाथ उड़ा रही थीं। आदमी कह रहे थे: जिन्होनें तुम्हें पकड़वाया है वे माघ महीना भी पूरा होते न देख पायेंगे। वे अगर जाल फैलाये रहते हैं तो उस जाल में पकड़े शिकार को उन्हें घर नहीं ले जाने दिया जायेगा।’
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लंबी यातनाओं और जेल की कालकोठरी में बिरसा को हैजा हो गया, जिसके चलते गिरफ़्तारी के चार महीनों के भीतर 9 जून 1900 को रांची जेल में उनकी मौत हो गई। बिरसा ने शरीर जरूर छोड़ा था, लेकिन जिस विचार का बीज वो बो गए थे, उसका असर अब दिखने लगा है। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुण्डा को भगवान की तरह पूजा जाता है। बिरसा के विचार अमर हो गए।
बिरसा उस शख्स पर खफ़ा नहीं थे, जिसने उनकी मुखबीरी की थी, बल्कि जैसा महाश्वेता ने लिखा बिरसा ने कहा- ‘पकड़वा दिया; क्यों न पकड़वा देते ? डिप्टी - कमिश्नर ने उन्हें गिनकर पांच सौ रुपये नहीं दिये क्या ! पांच सौ रुपये बहुत होते हैं ! किसी भी मुंडा के पास तो पांच सौ रुपये कभी नहीं हुए; नहीं होते. मुंडा अगर रात में सोते-सोते सपना भी देखता है, तो सपने में बहुत होता है तो वह महारानी मार्का दस रुपये देख पाता है। उन्हें पांच सौ रुपये मिले हैं- क्यों न बिरसा को पकड़वा देते?’
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