हिमांशु जोशी पत्रकारिता शोध छात्र हैं और स्वतंत्र पत्रकारिता करते हैं।
'इसी साल 9 जनवरी का दिन था जब सुंदर लाल बहुगुणा के जन्मदिन पर मैं उनसे पहली और आखिरी बार मिला। नैनीताल समाचार और गांधीवादी सर्वोदयी सेवकों से जुड़े होने की समानता के कारण मेरा उनसे मिलना सम्भव हुआ था, पर सुंदर लाल बहुगुणा के तेज़ की वज़ह से मेरी उनसे हाथ जोड़ने के सिवा कुछ कहने की हिम्मत नही हुई। उनकी धर्मपत्नी विमला बहुगुणा मुझसे बहुत ही आत्मीयता से मिली और उन्होंने मुझसे गांधीवादी अनिरुद्ध जडेजा से लेकर नैनीताल समाचार तक सबकी कुशलक्षेम पूछी।'
आज सुंदर लाल बहुगुणा के चले जाने पर मुझे पदमश्री भारतीय इतिहासकार शेखर पाठक का वर्ष 1977 में नैनीताल समाचार के लिए लिखा आलेख 'सुंदर लाल बहुगुणा यात्रा जारी है' याद आता है। शेखर पाठक लिखते हैं कि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनकी नियति चलते रहना होती है। चाहे अकेले या फिर साथ में..पूरा कारंवा लेकर। कहीं पर भी ठहरना उनके लिए सम्भव नही होता है। यदि वे कहीं ठहरते भी हैं तो यह उनका ठहरना नही, निरंतर चलते रहने की प्रक्रिया का अंग होता है।
वास्तव में वे संक्षिप्त पहाड़ हैं। उनके माध्यम से पहाड़ बोलता है और पहाड़ी जनता की आवाज़ मुखर होती है। फिर वह चाहे कुमाऊं गढ़वाल के बीच की दरार कम करने पर हो, पेड़ काटने पर आवाज़ उठाने के लिए हो या शराब बंदी पर।
शेखर पाठक के सुंदरलाल बहुगुणा से बहुत ही आत्मीय सम्बन्ध रहे, उन्हीं की प्रेरणा से शेखर पाठक ने अपने साथियों शमशेर सिंह बिष्ट, कुंवर प्रसून और प्रताप शेखर के साथ वर्ष 1974 में अपना जीवन बदलने वाली अस्कोट-आराकोट यात्रा शुरू की, यह यात्रा तब से हमेशा हर दस साल में होती है। सुंदर लाल बहुगुणा ने इन सब से कहा था कि यात्रा के दौरान तुम बिना पैसों के रहोगे, पहाड़ में ऐसी कोई जगह नही है, जहां तुम्हें पैसा न होने पर खाना न मिले।
आज प्रोफेसर शेखर पाठक से सुंदर लाल बहुगुणा के जाने पर कुछ सवाल पूछना बहुत मुश्किल था। 'सुंदर लाल बहुगुणा का जाना उत्तराखंड और भारत के किए कितनी बड़ी क्षति है' इस सवाल पर उनका जवाब था कि उत्तराखंड ने अपना संग्रामी और समाज सेवक खो दिया और हमारी पीढ़ी ने अपना संरक्षक। हिमालय ने एक जोड़ने वाले को और देश ने एक सच्चे गांधीवादी को खो दिया।
साठ के दशक से सुन्दर लाल बहुगुणा के करीबी रहे धूम सिंह नेगी आज उनकी अंतिम यात्रा में शामिल कुछ लोगों में से एक थे। सुंदर लाल बहुगुणा को याद करते हुए नेगी कहते हैं कि वह 1964-65 में टिहरी के एक जूनियर हाईस्कूल में शिक्षक थे, तब सर्वोदयी विचारधारा वाले लोग विद्यालयों में आते थे। उसी दौरान पहली मर्तबा उनका भी सुंदर लाल बहुगुणा से मिलना हो सका।
सुंदर लाल बहुगुणा के विचारों से प्रभावित होकर वर्ष 1974 में धूम सिंह ने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया और वह भी उनके आंदोलन का हिस्सा बन गये। उन्होंने सुंदर लाल बहुगुणा के साथ बहुत सी पदयात्राएं और जनसभाएं की। चिपको आंदोलन, खनन आंदोलन, टिहरी बचाओ आंदोलन में भी इस दौरान वो सुंदर लाल बहुगुणा के साथ शामिल रहे।
धूम सिंह ने सुंदर लाल बहुगुणा को एक ऐसे इंसान के रूप में देखा जो आम आदमी, खासतौर पर महिलाओं के अधिकारों के लिए बहुत भावुक था। धूम सिंह बताते हैं कि वो पहाड़ से होने वाले पलायन को लेकर दुखी थे और पहाड़ की जवानी और पानी को यहीं रोकना उनके चिंतन का मूल बिंदू था। वो कहते हैं कि गंगा और हिमालय की अच्छी स्थिति को लेकर देखा उनका सपना अधूरा ही रह गया।
सुंदर लाल बहुगुणा कहते थे कि किसी एक व्यक्ति के ऊपर निर्भर रहने की जगह सामूहिक शक्ति के साथ कोई आंदोलन चल सकता है। सुंदर लाल बहुगुणा से उनकी आखिरी मुलाकात पिछले साल नवम्बर में हुई थी। उम्र के साथ स्मृति कम होने के बावजूद वह जब भी उनसे मिलते थे, तो अपने सभी साथियों और उनके परिवारों की कुशलता लेते थे।
उत्तराखंड में रह रहे गांधीवादी अनिरुद्ध जडेजा को सुंदर लाल बहुगुणा के कोरोना की वजह से जाने का दु:ख है। उन्हें याद करते हुए वह कहते हैं कि मेरी कहानी उनके साथ वर्ष 1997 से शुरू हुई, जब सुंदर लाल बहुगुणा ने यह प्रतिज्ञा ली थी कि अगर मैं टिहरी डैम बनने से रोक पाया, तभी पर्वतीय नवजीवन मंडल आश्रम सिलियारा लौटूंगा।
अनिरुद्ध जब सुंदर लाल बहुगुणा के पास पहली बार गए तो उन्होंने अनिरुद्ध से कहा कि मेरे आश्रम की हालत बहुत खस्ता है, उसमें मेरे प्राण बसते हैं। तुम उसे संभालो। अनिरुद्ध जब भुवन पाठक के साथ आश्रम में पंहुचे, तो उन्होंने वहां की गौशाला ठीक कर दी और बंजर खेतों में सब्जी उगाई। जब वह पहली बार वहां की सब्जी लेकर सुंदर लाल बहुगुणा के पास पहुंचे, तब वह गंगा किनारे खड़े होकर उस टोकरी को अपने सर पर लेकर झूमने लगे।
सुंदर लाल बहुगुणा ने सिलियारा के लोगों के लिए घराट भी बनवाई थी, जिसके लिए वह ग्रामीणों से कोई पैसे नही लेते थे। इसके बदले वो आश्रम के लिए बस एक मुट्ठी आटा ले लिया करते थे। उन्होंने उस आश्रम में एक लाइब्रेरी भी बनवाई थी, जिसमें बहुत अच्छी किताबों को संग्रहित किया गया था।
इसके बाद सुंदर लाल बहुगुणा अनिरुद्ध के शादी के निमंत्रण पर विमला बहुगुणा के साथ गुजरात भी गए। वहां उन्होंने कई जगह टिहरी डैम हटाओ, हिमालय बचाओ पर भाषण भी दिए, जिसे वहां के लोग आज भी याद करते हैं। राजपूतों की शादी में पहने जाना वाला साफा पहने सुन्दर लाल बहुगुणा अनिरुद्ध की शादी के मुख्य आकर्षण थे।
(अनिरुद्ध जडेजा के विवाह में बहुगुणा दम्पत्ति)
अनिरुद्ध आश्चर्य जताते हुए कहते हैं कि बहुगुणा इतने वर्षों तक टिहरी में गंगा किनारे एक कुटिया में ठंड, गर्मी और बारिश हर प्रकार के मौसम में कैसे रहे होंगे, यह समझना मुश्किल है। विमला बहुगुणा का उनके जीवन में बहुत बड़ा योगदान रहा, वह उस कुटिया में आने वाले बड़े से बड़े अतिथियों के लिए वहीं बने एक छोटे से चूल्हें में खाना बनाती थी। उन अतिथियों में तब के भारतीय प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा भी शामिल थे।
सरला बहन की शिष्या सर्वोदयी विमला बहुगुणा ने राजनीति छोड़ समाजसेवा करने की शर्त पर ही सुन्दर लाल बहुगुणा से विवाह किया था। अनिरुद्ध वर्ष 2017-18 में आखिरी बार सुंदर लाल बहुगुणा से टिहरी में मिले थे। वह कहते हैं कि सुंदर लाल बहुगुणा मेरे लिए पिता ही थे, क्योंकि उन्होंने गुजरात से आए एक नवयुवक को एक पिता की तरह सहारा दिया था।
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार, समाजसेवी और नैनीताल समाचार के संपादक राजीव लोचन शाह सुंदर लाल बहुगुणा को याद करते हुए कहते हैं कि प्रोफेसर शेखर पाठक अस्कोट-आराकोट यात्रा में जिन लोगों से मिलते थे, उनके पते को एक डायरी में लिख लेते थे। उन्हीं ठिकानों पर नैनीताल समाचार के अंक जाते थे। इसी यात्रा के दौरान सुंदर लाल बहुगुणा का पता भी हाथ लगा और जब उन तक अखबार का अंक पहुंचा तो वह तुरंत नैनीताल पहुंच गए। उस समय सुंदर लाल बहुगुणा हिंदुस्तान में पत्रकार भी थे, उन्होंने नैनीताल समाचार टीम को अखबार की कमियां बताई। अंक भेजने के नए पते सुझाए और उनकी न्यूज़ एजेंटों से पहचान लगवाई। उन्होंने अखबार के प्रसार में बहुत सहायता की और बहुत से लिखने वालों को नैनीताल समाचार के लिए लिखने को बोला।
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उनके साथ रहते राजीव लोचन शाह ने यह भी जाना कि पेड़ हमारे लिए कितने आवश्यक हैं। इसके बाद सुंदर लाल बहुगुणा की अपनी व्यस्तता हो गई और राजीव लोचन शाह की अपनी व्यस्तताएं। आखिरी बार सुंदर लाल बहुगुणा से उनकी लम्बी मुलाकात वर्ष 2004 में हुई थी, जब सुंदर लाल बहुगुणा नैनीताल हाईकोर्ट आए थे। वहां उन्होंने मुख्य न्यायाधीश से खुद ही टिहरी के लोगों का पक्ष रखने की अनुमति मांगी थी और टिहरी बांध व विस्थापन से जुड़े मुद्दे पर अंग्रेजी में कोर्ट में काफी प्रभावशाली तरीके से लोगों की बात रखी।
मुख्य न्यायाधीश ने उनके कोर्ट में होने की सराहना कर इसे सौभाग्य बताया। उस दिन सुंदर लाल बहुगुणा ने खाना भी राजीव लोचन शाह के घर ही खाया था। उत्तराखंड मुक्त विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर गिरिजा पांडे कहते हैं कि सुंदर लाल बहुगुणा ने हिमालय और पर्यावरण के प्रश्न पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकृष्ट करवाने में अहम भूमिका निभाई।
'प्रकृति से छेड़छाड़ के विरुद्ध हिमालय ने युद्ध छेड़ दिया है'
उत्तराखंड की वर्तमान आपदाओं को देखते हुए सुंदर लाल बहुगुणा की नैनीताल समाचार के लिए लिखी एक रिपोर्ट 'प्रकृति से छेड़छाड़ के विरुद्ध हिमालय ने युद्ध छेड़ दिया है' आज भी उतनी ही सार्थक लगती है। आज अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वालों को आन्दोलनजीवी कहा जा रहा है, तब ऐसे आंदोलनाकारियों को पलटकर याद करने का वक्त है, जिन्होंने हिन्दुस्तान को खूबसूरत बनाने के लिये लंबी लड़ाइयों में अपना सबकुछ खो दिया। सुंदर लाल बहगुणा के जाने से हिमालय और पर्यावरण के किए आवाज़ उठाने वालों में एक शख्सियत कम हो गई है।
अन्ना आंदोलन हो या किसान आंदोलन जब-जब किसी जनांदोलन में राजनीतिक व्यक्तियों का प्रवेश हुआ, वह आंदोलन असफल हो गया। सुंदर लाल बहुगुणा ने कहा था आंदोलनों में जन की भागीदारी आवश्यक है, जन को यह समझना होगा और वही समझ एक मजबूत राष्ट्र और लोकतंत्र का निर्माण कर सकती है।
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