दिल्ली की सरहद पर बैठे लोक का देश!

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NEWSMAN DESK

जब हम इस खबर को लिखने बैठे हैं, तब किसान आंदोलन अपनी ऐतिहासिक समयावधि में प्रवेश कर रहा है। जल्द किसान आंदोलन 150 दिन दिल्ली की सरहद पर गुजारने जा रहा है। किसान आंदोलन अपने आप में इतिहास लिख चुका है, लेकिन अब जबकि देश में कोरोना का कहर फिर से बरप रहा है, तब हरियाणा सरकार ने किसानों को धरना स्थलों से उठाने की बात की है। मनोहर लाल खट्टर के ऑपरेशन क्लीन के बयान पर किसान नेताओं ने तीखी प्रतिक्रिया दी है और पूछा है कि चुनावी रैलियों में बीजेपी नेताओं को महामारी का होश क्यों नहीं है! किसान नेताओं का कहना है कि  सरकार अगर बिना कानूनों को रद्द किये हुए आंदोलन को बलपूर्वक ख़त्म करती है, तब इसका खामियाज़ा उसे भुगतना होगा।      

दिल्ली की टीकरी, सिंघु और गाजीपुर बॉर्डर पर आप इन दिनों जाएंगे तो आपको लगेगा मानों पूरा एक अलग देश यहां बैठा हुआ है। धरना स्थलों पर वॉलिंटियर्स ने कमाल की जिम्मेदारी संभाली हुई है। आंदोलन स्थलों पर अस्पताल से लेकर स्कूल और मिनी मार्ट तक हैं, जहां जरूरत के मुताबिक कोई भी आंदोलनकारी किसान पहुंच सकता है। ये दौर इतिहास से सबक लेने और उसे लगातार सही दिशा देते रहने का दौर भी है, कम से कम गाजीपुर बॉर्डर पर आशीष से हुई हमारी मुलाकात के बाद तो हमें यही लगा।

आशीष पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली इलाके से ताल्लुक रखते हैं। आशीश युवा हैं और खेती किसानी के अलावा किसानों के मुद्दों पर भी नजर रखते हैं। आशीष और उनके साथी लगातार किसान आंदोलन में देशभर से आ रहे किसानों को उन तीन कृषि कानूनों के बारे में बता रहे हैं, जिनके खिलाफ पूरे देश खासकर पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश के किसान गुस्से में हैं। 

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली से प्रकाशित होने वाली 'किसान पत्रिका' ने भी अलग से कृषि से जुड़े तीनों कानूनों पर एक एक पुस्तिका जारी की है, जिसका नाम है- 'तीन नए कृषि कानून: मुनाफाखोर दैत्याकार कंपनियों के हवाले खेती- किसानी'। इस पुस्तिका में विस्तार से तीनों बिलों पर बात रखी गई है। हमने इस पुस्तिका को प्रकाशित करने वाले शख्स आशीष कुमार से बात की, जो खुद भी पेशे से किसान हैं। आशीष का कहना है कि किसानों को तीनों कृषि कानूनों को बारीकी से समझाने के लिए उन्होंने इस पुस्तिका को प्रकाशित करने का फैसला लिया। महज पांच रुपये कीमत वाली इस पुस्तिका को किसानों ने हाथों हाथ लिया और बेहद कम संसाधनों में ही आशीष और उनकी टीम अब तक 20 हजार से ज्यादा प्रतियों को किसानों तक पहुंचा चुके हैं।

आशीष बताते हैं- 'जून में सरकार ने खेती से जुड़े तीन अध्यादेश जारी किये थे। सितम्बर में इन्हें कानून बना दिया गया। अब देश में किसानों की खेती और जनता की रोटी इन्हीं कानूनों से नियंत्रित होगी। किसान ऐसा होने नहीं देंगे और सरकारों को उन्हें बेवकूफ समझना बंद कर देना चाहिए।' पुस्तिका में तीनों कृष बिल के बारे में गहनता से विश्लेषण किया गया था। यह पुस्तिका सरकार की मंशा और किसानों की चिंता दोनों को एक जगह लाकर रख देती है। क्या है पुस्तिका में, वो हम आगे हूबहू लिख रहे हैं!

1– कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य 
  (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम: 2020 

2– मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान 
  (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता अधिनियम: 2020  

3– आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम: 2020

इन तीनों कानूनों से अब खेती-किसानी मुनाफाखोर दैत्याकार कम्पनियों के हवाले कर दी गयी है, जो हर कीमत पर किसानों को निचोड़कर अपनी तिजोरी भरेंगी। जबकि सरकार दावा कर रही है कि ये तीनों कानून खेती-किसानी की तमाम परेशानियों की रामबाण दवा हैं। इावा ये भी है कि इनके लागू हो जाने से किसान पूरे देश में अपनी फसल महंगे दाम पर कहीं भी, किसी को भी बेचने के लिए आजाद होगा। किसान को मण्डियों के जाल और आढ़तियों, बिचौलियों की गुलामी से आजादी मिलेगी। तमाम बिचौलिये खत्म हो जाएंगे और जनता को किसान के खेत से पैदा उपज सीधे और सस्ते दाम पर मिलेगी। जनता की भी मौज हो जाएगी।

अखबार, टीवी चैनल और इन्टरनेट पर इन कानूनों के पक्ष में प्रचार की आंधी चल रही है। हद तो तब हो गयी, जब इनका विरोध कर रहे किसानों को विद्रोही और आतंकवादी तक कहा गया। सरकार के कुछ दावे समझ से परे हैं, सरकार यह भी कहती है कि मण्डियां किसानों को ठगती हैं और यह भी कहती है कि हम मण्डियों को बन्द नहीं करेंगे। अगर सरकार कोे लगता है कि मण्डी और आढ़ती किसानों को ठगते हैं तो मण्डी बन्द करके आढ़तियों को जेल क्यों नहीं भेजती? एक ओर सरकार कहती है कि निजी कम्पनियां महंगे दामों पर उपज खरीदेंगी, तो दूसरी ओर वह इन कम्पनियों पर ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) का बन्धन भी नहीं लगाना चाहती, जिसकी मांग किसान हमेशा से ही करते रहे हैं।

किसान हित के तमाम सरकारी दावों के बावजूद देशभर के किसान इन कानूनों का भारी विरोध कर रहे हैं। सभी किसान संगठन, यहां तक कि भाजपा का किसान संघ भी इन कानूनों के खिलाफ है। खेती-किसानी के जानकार बड़े-बड़े विद्वान भी इन कानूनों के खिलाफ हैं। जून के महीने से ही देश के कई राज्यों पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, तमिलनाडु आदि के किसान इन कानूनों के विरोध में प्रदर्शन कर रहे हैं। इन सभी का कहना है कि किसानों ने कभी भी ऐसे कानूनों की मांग नहीं की थी। यह मांग देशी-विदेशी कम्पनियों की है, तो जाहिर सी बात है कि ये कानून किसानों को नहीं बल्कि कम्पनियों को फायदा पहुचाएंगे और किसानों को जमीन से उजाड़कर इन्हीं कम्पनियों के मजदूर में बदल देंगे।

इन कानूनों ने कम्पनियों के रास्ते से एमएसपी की बाधा हटा दी है। वे किसान से मनमाने भाव पर उपज खरीदेंगी और जमाखोरी करेंगे। कम्पनियों ने बड़े-बड़े भीमकाय गोदाम तैयार कर रखे हैं और सरकार ने उन्हें अब जमाखोरी की छूट भी दे दी है। इसके चलते जल्द ही वे किसान को तो क्या, सारी जनता को भी रोटी-दाल का मुहताज बना देंगी। इसका नतीजा यही होगा कि किसान के खेत से जरूरतमन्द की थाली तक भोजन पहुंचाने तक की जंजीर की सारी कड़ियां कुछ मुट्ठीभर देशी–विदेशी उद्योगपतियों के कब्जे में आ जाएंगी।

किसानों और कृषि विशेषज्ञों के अलावा कई राज्यों की सरकारें और कानून–संविधान के जानकार भी इन कृषि कानूनों का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि संविधान में केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों की जिम्मेदारियों और अधिकारों का साफ-साफ बंटवारा किया गया है। खेती राज्यों के हिस्से में आती है। राज्य सरकार के इस अधिकार का उल्लंघन कर ही केन्द्र सरकार तीनों कृषि कानून लायी है, जबकि 22 नवम्बर 2019 को राज्यसभा में कृषि मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर से पूछा गया था कि किसान की परिभाषा क्या है? जवाब में कृषि मंत्री ने कहा कि परिभाषा मैं क्या बताऊं, खेती राज्यों का मामला है, परिभाषा वे ही बताएं। इसके सात महीने बाद ही केन्द्र सरकार ने किसी भी राज्य के कृषि मंत्री से सलाह किये बिना पूरी खेती को नियंत्रित करने वाले कानून बना दिये। यह पूरी तरह संविधान के खिलाफ है। यह राज्यों के हक पर भी डाका डालने वाली बात है।

इसके अलावा इन कानूनों में यह प्रावधान है कि किसानों और कम्पनियों के बीच विवाद की सुनवाई किसी अदालत में नहीं होगी। यह न्यायपालिका को हाशिये पर फेंक देने जैसा है। यह खुली हिटलरशाही नहीं तो और क्या है? जीएसटी कानून बनाकर केन्द्र सरकार ने राज्यों की आमदनी का बड़ा हिस्सा पहले ही हड़प लिया है, नतीजा यह है कि अब केन्द्र सरकार राज्यों को उनके हिस्से के एक-एक पैसे के लिए तरसा रही है और जो राज्य केन्द्र के इशारे पर नहीं नाचता या जहां दूसरी पार्टियों की सरकारें हैं, उन्हें 'भिखमंगा' बना दिया गया है। नये कानून में केन्द्र सरकार ने फसल व्यापार में सभी निजी कम्पनियों को कर-मुक्त करके राज्यों की बची–खुची आमदनी भी खत्म कर दी है।

आशीष कहते हैं- अगर हम एक-एक कानून पर सरसरी तौर पर भी ध्यान दें, तो साफ हो जाता है कि इन तीनों कानूनों का विरोध कर रहे तमाम लोगों की चिन्ता बिल्कुल जायज है और हर मेहनतकश तथा इन्साफ पसंद इनसान को इन कानूनों का विरोध करना चाहिए।

1– कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम–2020 या नया मण्डी कानून 

यह कानून अगर लागू हो गया तो सरकारी मण्डियां तथा ‘कृषि उपज एवं पशुधन बाजार समिति’ (एपीएमसी) अपनी मौत खुद मर जायेंगी। इस कानून से सरकार ने निजी कम्पनियों को मण्डी से बाहर अपना खरीद केन्द्र खोलने, अपनी निजी मण्डी बनाने या देशभर में कहीं के भी किसान से सीधे खरीद करने की छूट दे दी गई है। इसके साथ ही खरीद-बिक्री पर टैक्स पूरी तरह खत्म कर दिया गया है। कम्पनियों को कहीं से भी खरीदी गयी उपज को देश के किसी भी कोने में बेरोकटोक बेचने का अधिकार भी दिया गया है। इसके लिए किसी राज्य या केन्द्र से कोई लाइसेन्स या परमिट लेने की भी जरूरत नहीं होगी।

यह सच है कि सरकार ने पुरानी सरकारी मण्डियों को बन्द करने का कोई आदेश नहीं दिया है, लेकिन यह आधा सच है, पूरा सच यह है कि सरकार ने मण्डियों को अपनी मौत मरने का इन्तजाम कर दिया है।

कानून के हिसाब से सारी मण्डियां किसान की उपज को उसके न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के लिए बाध्य होती हैं। यह भी कानून है कि आढ़ती अपना कमीशन सरकार द्वारा तय सीमा से ज्यादा नहीं रख सकता। इसमें कोई शक नहीं है कि मण्डियों में आढ़तिये सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर किसानों का शोषण भी करते हैं। जिन फसलों का समर्थन मूल्य सरकार तय नहीं करती, वे आमतौर पर उन फसलों के मामले में किसानों को ठगते हैं। वे सरकार और प्रशासन के निकम्मेपन, रिश्वतखोरी और मण्डी कानून में खामियों का फायदा उठाते हैं। ज्यादातर व्यवस्था पोषक विद्धान मानते हैं कि अगर सरकार मण्डी कानून में किसानों के हित में थोड़े बदलाव कर दे और प्रशासन चुस्त हो तो इस समस्या का समाधान किया जा सकता है, लेकिन किसानों के शोषण पर टिकी मौजूदा व्यवस्था में ऐसा होना सम्भव नहीं।

सरकार केवल 22 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है, जबकि देश में सैकड़ों किस्म की फसलों की खरीद–बिक्री होती है। अगर सरकार ने सभी फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय नहीं किया है तो मण्डियों में उनके कम दाम पर खरीद की असली दोषी सरकार है। खेती की कुल उपज में बागवानी का हिस्सा लगभग एक तिहाई से ज्यादा है, लेकिन बागवानी की किसी फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित नहीं होता। बागवानी की कुल उपज का 40 फीसदी से ज्यादा, यानी लगभग 63 हजार करोड़ रुपये की उपज सही समय पर खरीद और भण्डारण के अभाव में खराब हो जाती है। 

अशोक दलवाई कमिटी की रिपोर्ट बताती है कि इससे थोड़ी ज्यादा रकम (70 हजार करोड़ रुपये) एक बार खर्च करके सरकार हर साल होने वाली इस बर्बादी को रोक सकती है। इससे सरकार को भी भारी लाभ होगा और करोड़ों किसानों की माली हालत में भी सुधार होगा। सरकार सब कुछ निजी कम्पनियों को तो बेच देगी, लेकिन खुद इतना छोटा सा काम नहीं कर सकती।

सरकार दावा कर रही है कि नये कानूनों से किसान, मण्डी के बन्धन से मुक्त हो जाएंगे। यह दावा सरासर झूठा है। देश में कुल 2477 मण्डियां ही हैं। स्वामीनाथन कमीशन के सुझाव के मुताबिक देश में हर 80 वर्ग किमी में एक मण्डी होनी चाहिए, जबकि आज 487 वर्ग किमी पर एक मण्डी है। किसान मण्डियों को बढ़ाने की मांग लम्बे समय से कर रहे हैं। देश की कुल कृषि उपज का केवल 6 फीसदी मण्डियों में जाता है, बाकी का 94 फीसदी खुले बाजार में ही बिकता है। अगर मण्डियों में फसल बेचना किसानों के लिए घाटे का सौदा है तो मण्डियों में उपज न बेचने वाले 94 फीसदी किसान तो खुशहाल होने चाहिए थे। लेकिन क्या ऐसा है? सच्चाई इससे उलट है। जहां मण्डी की व्यवस्था अच्छी नहीं है, वहाँ के किसान सबसे ज्यादा बदहाल हैं।

बिहार का उदाहरण सबके सामने है। बिहार सरकार ने 2006 में मण्डियां खत्म कर दी थीं। उस समय दावा किया गया था कि मण्डियों से आजाद होने के बाद बिहार के किसानों की तकदीर बदल जाएगी। वे खेती के नये दौर की अगुआई करेंगे और जल्दी ही पंजाब के किसानों को पीछे छोड़ देंगे। हकीकत में मण्डियां खत्म होने के 14 साल बाद बिहार के किसानों की माली हालत और भी ज्यादा खराब है और उनमें बहुत से पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के यहां खेत मजदूरी करने को मजबूर हैं।

सरकार का यह दावा भी झूठा है कि पुराने मण्डी कानून में किसान अपनी फसल मण्डी या राज्य से बाहर नहीं बेच सकता था। पुराने कानून में किसान पर इस तरह की कोई बन्दिश नहीं थी। हां, व्यापारियों पर देश में किसी भी राज्य के किसानों से औने-पौने दाम पर फसल खरीदने की पाबन्दी जरूर थी। इस तरह नये मण्डी कानून में केन्द्र सरकार ने व्यापारियों और कम्पनियों को किसी भी राज्य में, किसी भी दाम पर, बिना लाइसेंस लिये और बिना टैक्स दिये फसल खरीदने की छूट देकर केवल इन्हीं का फायदा किया है और इसमें किसानों का नुकसान ही नुकसान है।

इसी पुस्तिका में आगे लिखा गया है- 'किसानों को बरगलाने के मामले में प्रधानमंत्री सारी हदें पार कर चुके हैं। 14 अप्रैल 2016 को देश की मण्डियों को इन्टरनेट से जोड़ने वाली योजना ई-नाम का उद्घाटन करते हुए उन्होंने मण्डियों की नयी व्यवस्था की तारीफ के पुल बांधे थे। इसे किसान, बिचौलिये और उपभोक्ता तीनों के लिए लाभकारी बताया था। चार साल बाद अचानक उनको क्या इलहाम हुआ कि मण्डियां बेकार लगने लगीं। तब उन्होंने कहा था कि यह भारत के किसानों के लिए एक सुनहरा मोड़ (टर्निंग पॉइंट) है। ई-नाम से किसानों को अपनी फसल देश के किसी भी कोने में बेचने की आजादी मिल गयी है। अब प्रधानमंत्री यह नहीं बता रहे हैं कि जो आजादी उन्होंने किसानों को लगभग दो साल पहले ही दे दी थी, उससे किसानों को क्या फायदा हुआ। क्या उनकी फसल एमएसपी से ज्यादा दाम पर बिकी? और जो आजादी दो साल पहले दे दी गयी हो, क्या उसे दुबारा-तिबारा भी दिया जा सकता है?'  बता दें कि केंद्र सरकार द्वारा अप्रैल 2016 में ई-नाम (eNAM) नामक पोर्टल की शुरुआत की गई थी। ई-नाम एक पैन इंडिया ई-व्यापार प्लेटफॉर्म है। 

2016 में मण्डियों को ई-नाम से जोड़ने की शुरुआत हुई थी। पिछले साढ़े चार साल में कुल मण्डियों का सातवां हिस्सा भी ई-नाम से नहीं जुड़ पाया, जबकि यह बहुत मामूली काम था। अगर प्रधानमंत्री दिल से चाहते तो कुछ ही महीने में सारी मण्डियों को ई-नाम से जोड़ी जा सकती हैं। इसके लिए निजी कम्पनियों को बिना लाइसेंस खरीद की छूट देने की क्या जरूरत है?

पुस्तिका में आगे लिखा गया है- 'किसानों से छल का एक नमूना और देखिये, जब नये कानून के विरोध में किसान सड़कों पर आ गये तो सरकार दावा कर रही है कि मण्डियां चालू रहेंगी। 11 नवम्बर 2019 को ग्रामीण और कृषि वित्त पर विश्व कांग्रेस में देशी–विदेशी पूंजीपतियों के सामने भाषण देते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा था कि मण्डियों की उम्र पूरी हो चुकी है, अब उन्हें खत्म हो जाना चाहिए। गौर कीजिए कि यह बात उन्होंने किसानों की पंचायत में नहीं, बल्कि पूंजीपतियों के सामने उन्हें आश्वस्त करने के लिए कही थी। इसका किसानों की बेहतरी से कोई वास्ता नहीं हो सकता।' 

इसमें शक की कोई गुंजाइश नहीं है कि सरकार किसानों के फायदे के लिए नहीं, बल्कि पूंजीपतियों के फायदे के लिए मण्डियों को खत्म करना चाहती है। सरकार सीधे मण्डियों पर ताला तो नहीं जड़ सकती, लेकिन दोहरे कानून बनाकर उन्हें अपनी मौत मरने के लिए छोड़ तो सकती है। समस्या की असली जड़ मण्डियां और उनमें न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद की कानूनी मजबूरी है। इसके साथ ही मण्डियां सबसे ज्यादा संख्या में उन इलाकों में हैं जहां खेती का बुनियादी ढांचा सबसे उन्नत है। पंजाब और हरियाणा में हर खेत तक सड़क की सुविधा है। लगभग सारी खेती योग्य भूमि सिंचित है। ये इलाके रेल और हाईवे के जरिये पूरे देश से जुड़े हैं। कृषि उद्योग उन्नत है। अच्छी खासी संख्या में किसान साधन-सम्पन्न हैं।

गाँव–गाँव तक बैंक और बीमा कम्पनियों की पहुंच है। भूमि सुधार और चकबन्दी का काम काफी हद तक हुआ है। यहां तक कि पूरे देश की तुलना में सबसे अच्छा हुआ है। ये सारे बुनियादी काम आम जनता के संघर्षों और उनकी मेहनत की कमाई से हुए हैं। ...लेकिन नए कानूनों से अरबों–खरबों की कीमत का यह पूरा बुनियादी ढांचा और भूमि सुधार का अनमोल लाभ कम्पनियों को बिल्कुल मुफ्त में मिल जाएगा। हम पहले ही बता चुके हैं कि देश के 94 फीसदी किसान मण्डियों से नहीं जुड़े हैं। 

किसानों के मुद्दे को मजबूती से रखकर आगे कहा गया है- 'कम्पनियां पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड जैसे राज्यों में अपनी मण्डियां क्यों नहीं खोल लेती। इन राज्यों में जायें, वहां बुनियादी ढांचा तैयार करें, बहुत ऊंची कीमत पर न सही, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही किसानों की फसल खरीदें, जिन फसलों का समर्थन मूल्य नहीं है उनका समर्थन मूल्य स्वामीनाथन कमिटी के फॉर्मूले से सरकार से घोषित करवायें। फिर आराम से पीढ़ियों तक खूब मुनाफा कमाएं, उन्हें कौन रोक रहा है! सरकार उनकी अपनी है। लेकिन ये ऐसा नहीं करेंगी, उन्हें अनमोल बुनियादी ढांचा मुफ्त में चाहिए, वैसे ही, जैसे अम्बानी को जियो के लिए बीएसएनएल का ढांचा मुहैया करवाया गया।' 

एक बात और गौर करने लायक है, मण्डियों में किसानों की जो 6 फीसदी उपज आती है वह आम तौर पर गेहूँ, चावल, दलहन, जैसे जिन्दगी के लिए लाजिमी खाद्यान्न है। मण्डियां टूट जाने का लाजिमी नतीजा यही होगा कि किसान की फसल के साथ-साथ जनता के भोजन की कीमतों पर भी कम्पनियों की मोनोपॉली कायम हो जाएगी, जो कि कम्पनियां चाहती हैं।

2– मूल्य आश्वासन और कृषि सेवाओं पर किसान (सशक्तिकरण और सुरक्षा) समझौता अधिनियम: 2020

इस कानून के तहत किसान और उसकी फसलों या पशुओं के खरीदार के बीच फसल या पशु के तैयार होने से पहले ही करार हो जाएगा। यह करार एक फसल तैयार होने के समय से लेकर अधिकतम 5 साल तक और पशु के मामले में पशु की पूरी उम्र तक के लिए किया जा सकता है। खरीदार कोई कृषि कम्पनी, निगम, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, थोक व्यापारी या निर्यातक हो सकता है। इसके बारे में बात करने से पहले यह साफ करना जरूरी है कि किसान और खरीदार कम्पनी के बीच जो भी करार होगा उसमें सरकार या किसी अदालत को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होगा। इन दोनों पक्षों के बीच विवाद की सुनवाई किसी भी अदालत में नहीं होगी। करार पर हुए विवाद के बारे में किसान को कम्पनी के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने का कोई अधिकार नहीं होगा। इस कानून में किसान और खरीदार के बीच दो तरह के करार हो सकते हैं- व्यापार करार और उत्पाद करार। 

(क) व्यापार करार
इस करार में किसान फसल या पशु का मालिक होगा। फसल के बोने से पहले ही किसान और खरीदार के बीच फसल की मात्रा, फसल की गुणवत्ता और भाव के बारे में समझौता हो जाएगा। पशु के बारे में भी ऐसा ही होगा।

सरकार इसी करार का ढिंढोरा पीटते हुए कह रही है कि किसान को अपनी फसल का भाव पहले ही पता रहेगा, यह एक ऐतिहासिक फैसला है। लेकिन सरकार का कोई भी नुमाइन्दा यह बताने के लिए तैयार नहीं है कि किसान को फसल का भाव पहले से पता होने से क्या फायदा होगा? 

गन्ना किसानों को पहले से ही अपनी फसल का भाव पता रहता है। इससे उनकी जिन्दगी में कौन सी खुशहाली आ गयी? सारे किसान जानते हैं कि अगर गन्ने की खेती के साथ-साथ नौकरी या आमदनी का कोई दूसरा जरिया न हो तो साधारण किसान गन्ने की खेती से परिवार का पेट भी ढंग से नहीं भर सकता। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने गन्ने के अलावा दूसरी फसलें भी उगाने की कोशिशें कीं, लेकिन उनमें गन्ने से भी ज्यादा घाटा उठाना पड़ा। थक-हारकर वे घाटा होने के बावजूद फिर से गन्ना बोने के लिए मजबूर हैं।

आशीष कहते हैं- 'किसी सयाने ने कहा है कि व्यापार में फायदे की डण्डी हमेशा ताकतवर की ओर झुकती है। किसान और कम्पनियों के बीच चाहे जैसा भी करार हो मुनाफा हमेशा कम्पनी को ही होगा।'

आगे किसान पुस्तिका में लिखा गया है- 'मण्डियां खत्म हो जाने से कम्पनियों और बड़े व्यापारियों से होड़ करने वाला कोई नहीं होगा और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीदने की मजबूरी होगी। ये गिनती के थैलीशाह इतने मूर्ख नहीं है कि आपस में होड़ करके किसानों को फायदा पहुंचायें। ये आपस में एका करके पहले से ही फैसला कर लेंगे कि किसान के साथ किस फसल के लिए किस भाव पर करार करना है। 94 फीसदी किसानों के लिए तो मण्डियां हैं ही नहीं, वे तो आसानी से व्यापारियों और कम्पनियों के जाल में फंस जायेंगे। जिन इलाकों में मण्डियां हैं, वहां न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भाव पर किसानों के साथ करार नहीं किया जा सकता।' 

पुस्तिका में इस बात पर भी चिंता जाहिर की गई है कि दो–चार साल तक ज्यादा भाव देकर निजी कम्पनियां और बड़े व्यापारी आसानी से मण्डियों को और उनके साथ ही न्यूनतम समर्थन मूल्य की बाधा को खत्म कर सकते हैं और तीन नये कानूनों में किसान की फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने की कोई बंदिश नहीं है। मण्डियों की बाधा हट जाने के बाद कम्पनियां आजाद हैं, वे चाहे जिस भाव पर किसानों के साथ उनकी फसल खरीद का करार करें। उन्हें कौन रोकने वाला है? जब किसानों के सामने कम्पनियों को फसल बेचने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं होगा, तो वे करार में भाव पहले ही खोल दें या न खोलें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

इस करार में किसानों के लिए दूसरी आफत यह है कि फसल की गुणवत्ता कौन तय करेगा और किस पैमाने पर करेगा? यह काम खरीदार कम्पनी ही करती है और जिस पैमाने पर करती है उसे समझना किसान तो क्या कृषि वैज्ञानिकों के लिए भी मुश्किल है। हम मण्डियों में भी गुणवत्ता के बारे में किसानों को छला जाते हुए देखते हैं। आढ़ती धान हथेली पर रखकर किसानों से कहते हैं कि इसमें नमी ज्यादा है, इसमें चमक कम है, ये तो डाउन ग्रेड का है, रेट कम लगेगा। पता नहीं उनके हाथ में कौन सा मीटर होता है? जब छोटे–छोटे आढ़ती जिनसे किसान का रोज का वास्ता है, वे उसे गुणवत्ता के चक्कर में फंसाये रखते हैं तो कोई भी अन्दाजा लगा सकता है कि कम्पनियां किसानों को कैसा नाच-नचाएंगी। केवल धान की गुणवत्ता तय करने के पैमाने पर एक पूरी किताब है। किसान जब अस्पताल में मरीज को भर्ती करवाने जाता है तो डॉक्टर इलाज से पहले एक पर्चे पर दस्तखत करवाता है। किसान जब उसे ही नहीं पढ़ते, तो वे गुणवत्ता तय करने वाली अंग्रेजी में लिखी किताबों को कैसे पढ़ पायेंगे? सीधी बात यह है, कम्पनियों को खुली छूट है कि वे करार में तो सौ का भाव तय करें और गुणवत्ता खराब बताकर दो का भी भाव न दें।

अगर कम्पनी ऐन वक्त पर किसान की फसल खरीदने से इनकार कर दे या करार से जुड़ा कोई दूसरा विवाद हो तो उसका निपटारा कैसे होगा? इसके बारे में एक अन्यायपूर्ण और संविधान विरोधी तरीका इजाद किया गया है। इस पर बात करने से पहले हम किसान और खरीदार कम्पनी के बीच फसल और पशु के करार की दूसरी किस्म “उत्पाद करार” या फसल करार पर बात करेंगे।

(ख) उत्पाद करार 
इस तरह के करार में किसान का अपनी फसल या पशु पर कोई अधिकार नहीं होगा। वह केवल इसे तैयार करने वाले मजदूर का काम करेगा। हम इसे एक उदाहरण से समझ सकते हैं। मान लीजिये कि कोई किसान पेप्सिको कम्पनी के साथ टमाटर की पैदावार का करार करता है। किसान जो टमाटर पैदा करेगा उस पर किसान का कोई हक नहीं होगा। इस फसल के लिए खाद, बीज, कीटनाशक, खरपतवारनाशक जैसी तमाम लागत पेप्सिको कम्पनी या इसकी सहयोगी कम्पनियाँ ही देंगी। कम्पनी के आदमी समय-समय पर आकर किसान को बतायेंगे कि खेत में कब क्या करना है। अगर किसान इनके मुताबिक काम नहीं करेगा तो कम्पनी उसके खिलाफ दावा कर सकती है या उसकी फसल खरीदने से इनकार कर सकती है। इसका सीधा मतलब है कि कम्पनी ने किसान और उसकी जमीन को ठेके पर ले लिया है, वह उसके साथ जैसा चाहे सलूक करे।

सरकार दावा कर रही है कि इस कानून से बिचैलिये खत्म हो जायेंगे। फसल किसान से सीधे उपभोक्ता तक पहुँचेगी, यह सरासर झूठ है। ठेका कानून के मुताबिक कम्पनी के साथ करार करने के लिए किसानों को तैयार करने का काम कम्पनी के एजेण्ट करेंगे। इन्हें कानून में “कृषि सेवा प्रदाता” कहा गया है। ये गाँव के ही दलाल होंगे जिनको हर किसान को फँसाने पर कमीशन मिलेगा, यह है पहला बिचैलिया। इसके बाद किसान को बीज, खाद, कीटनाशक जैसी तमाम लागतें मुहैया कराने वाले बिचैलिये, फसल की निगरानी रखने वाले और किसान को सलाह देने वाले बिचैलिये और फिर फसल को सर्टिफिकेट देने वाले “प्रमाणीकरण सेवा प्रदाता” इन तमाम लोगों की बहाली तय तो कम्पनियां करेंगी, लेकिन भुगतान किसान करेगा और वह भी कम्पनी द्वारा तय रेट पर। यानी किसान की छाती पर बिचौलियों की पूरी फौज आकर खड़ी हो जाएगी।

यह कानून कहता है कि आँधी, बारिश, ओला, पाला जैसी किसी भी कुदरती आफत से अगर फसल खराब हो गयी तो कम्पनी की कोई जिम्मेदारी नहीं होगी। ऐसी हालत में भी किसान को सभी बिचैलियों का भुगतान करना होगा और कम्पनी तय ग्रेड से नीचे की फसल नहीं खरीदेगी। ऐसी हालत में किसान के घाटे की भरपाई करने की जिम्मेदारी बीमा कम्पनी पर छोड़ दी गयी है। हमारे यहाँ सालों से बैंक जबरदस्ती फसल बीमा कर रहे हैं। जबरदस्ती किसानों के खाते से प्रीमियम का पैसा काट लेते हैं, लेकिन बीमा कम्पनी ने किसानों को आसानी से और पूरा भुगतान कर दिया हो, ऐसा हमने कभी नहीं देखा।

विवाद का निपटारा
ठेका खेती के इस नये कानून में सरकार ने साफ-साफ लिखा है कि किसान और कम्पनी के बीच करार हो जाने के बाद इस पर राज्य सरकार का कोई कानून लागू नहीं होगा। यहाँ तक कि इनके बीच के विवाद में देश की किसी अदालत को भी हस्तक्षेप करने का हक नहीं होगा। इसका मतलब है कि सरकार को अदालतों पर भरोसा नहीं है, इसीलिए उसने न्यायपालिका की ताकत छीनकर अधिकारियों के हाथ में दे दी है। यह एक फासीवादी कदम है।

ऐसे विवाद निपटाने के लिए एक सुलह बोर्ड बनाया जाएगा। अगर सुलह बोर्ड फैसला नहीं कर पाता है तो एसडीएम सुलह करवाने की कोशिश करेगा। अगर एसडीएम भी असफल रहा तो डीएम फैसला करेगा। आप कल्पना कीजिए कि एक तरफ लाखों रुपये की फीस लेनेवाली दैत्याकार कम्पनियों के वकील खड़े होंगे तो दूसरी तरफ तमाम पदसोपान के बीच खड़ा कोई ऐसा किसान भी हो सकता है, जिसको दो वक्त ढंग की रोटी खाने का ब्योत नहीं हो, वह लाखों की फीस लेने वाले वकील का मुकाबला कैसे करेगा?

ऐसे एसडीएम और डीएम या अन्य अधिकारी जो इलाके के दबंगों और नेताओं के आगे नतमस्तक रहते हैं, क्या उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मोदी और अमित शाह के साथ रोज फोटो खिंचवाने वाले पूंजीपतियों के खिलाफ कोई फैसला दे देंगे? इस देश का सर्वाेच्च न्यायालय सालों की मशक्कत के बाद आज तक उन पूंजीपतियों के नाम भी सार्वजनिक नहीं करा पाया जिन्होंने बैंको का हजारों करोड़ रुपया मार रखा है। ऐसे में डीएम और एसडीएम अडानी, अम्बानी जैसे देश के शीर्ष पूंजीपतियों के खिलाफ फैसला दे देंगे, यह सोचना निरी मूर्खता के अलावा कुछ नहीं है।

आज वैश्वीकरण के दौर में सारी दुनिया के कृषि बाजार आपस में जुड़े हुए हैं। पूंजीपतियों को किसी भी देश से फसल खरीदकर कहीं भी बेचने की छूट मिली हुई है। खेती के व्यापार से जुड़ी कम्पनियों के सौ-सौ देशों में कारोबार फैले हुए हैं। मान लीजिए कि अम्बानी की कम्पनी रिलायंस एग्रो ने भारत में अलग-अलग जगह के हजारों किसानों के साथ आलू की एक लाख टन फसल 10 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से खरीदने का करार कर रखा है और भारत में आलू का भाव पिट गया (जैसा अक्सर होता रहता है) और खुले बाजार में अच्छे आलू का भाव 5 रुपये किलोग्राम हो गया तब अगर रिलायंस एग्रो किसानों से करार तोड़कर खुले बाजार से आलू खरीद ले तो उसे 50 करोड़ का फायदा हो जाएगा। इतने मुनाफे के लिए वह आलू की गुणवत्ता पर सवाल उठाकर आराम से किसानों के साथ किया गया करार तोड़ सकती है। वह 5-7 करोड़ रुपये में नेताओं, अधिकारियों को खरीदकर आसानी से फैसला भी अपने हक में करा लेगी। यह कोई अनहोनी घटना नहीं होगी।

भारत के किसान दुनिया के सबसे गरीब किसानों में से हैं। यहां 86 फीसदी किसानों के पास 2 हेक्टेयर से भी कम जमीन है। जिन कम्पनियों के साथ उनसे करार करवाया जा रहा है, उनकी हैसियत दुनिया के अधिकतर देशों की सरकारों से भी ज्यादा है। इन दैत्याकार कम्पनियों को उनके साथ सीधे करार करने की छूट देने का मतलब है, शेर और बकरी को एक ही खूंटे से बांध देना। ऐसा करने पर बकरी का जो अंजाम होगा, वही किसानों का होना तय है।

3 – आवश्यक वस्तु संशोधन अधिनियम: 2020
यह कानून 1955 में बने एक कानून में फेरबदल करके बनाया गया है। इसमें गेहूं-चावल जैसे अनाज, दाल, तिलहन, आलू और प्याज जैसी भोजन के लिए अनिवार्य चीजों को आवश्यक वस्तु में रखा गया था और किसी को भी इनकी जमाखोरी और कालाबाजारी करने की इजाजत नहीं थी। अब इन्हें इस दायरे से बाहर करके इनकी जमाखोरी करने की छूट दे दी गयी है। केवल युद्ध या आपदा जैसे हालात में ही सरकार इनकी जमाखोरी पर रोक लगा सकती है। सरकार कह रही है कि उसने जमाखोरी की छूट नहीं दी है। यह केवल सरकार विरोधियों का दुष्प्रचार है। आइये कानून में लिखे उन शब्दों को ही पढ़ लें जिन्हें जमाखोरी रोकने में सबसे कारगर बताया जा रहा है। कानून कहता है- “जमाखोरी पर लगाम लगाने वाले आदेश किसी भी उपज का प्रसंस्करण करने वाले या उसमें मूल्य योगदान करने वाली प्रक्रिया में भागीदार व्यक्ति पर लागू नहीं होंगे, अगर उनके पास जमा भण्डार, प्रसंस्करण इकाई की क्षमता से ज्यादा न हो और निर्यातक के मामले में निर्यात की माँग से ज्यादा न हो।” 

सरकार को लगता है कि आज भी देश में ऐसे जमाखोर हैं जैसे 60 के दशक की फिल्मों में दिखाये जाते थे, जिनमें कोई लाला अनाज की 500, 700 बोरियां किसी गोदाम में छिपाकर रखता था। आज ऐसे जमाखोर चिराग लेकर ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। आज के जमाखोर तमाम देशों में खेती का कारोबार करने वाली कम्पनियां हैं या आलू से चिप्स बनाने वाली पेप्सिको जैसी दैत्याकार खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियां।

दुनिया के अधिकतर देशों में यह अलग-अलग नामों से और अपनी ही सहायक कम्पनियों या दूसरी कम्पनियों के साथ मिलकर कारोबार करती हैं। वे सरकार को निर्यात का कागज दिखाकर या अपने ही उद्योग में खपत का फर्जी हिसाब बताकर अपने गोदाम में सैकड़ों बोरी जमा अनाज को आसानी से जायज ठहरा देंगी और जमाखोरी के किसी भी आरोप से बच जाएंगी।

1955 में जब जमाखोरी के खिलाफ यह कानून बनाया गया तो इसका मकसद था- महंगाई पर लगाम लगाना, ताकि देश के मजदूरों को सस्ते दाम पर भोजन का इन्तजाम किया जा सके और देश के पूंजीवादी विकास को गति दी जा सके। अंग्रेजी राज के तजुर्बे से सरकार ने देखा था कि व्यापारी और कम्पनियां रोजमर्रा के भोजन के लिए जरूरी चीजों की जमाखोरी करके नकली तरीके से बाजार में उनकी कमी पैदा कर देती थीं। कमी के चलते कीमतें बढ़ जाती हैं, फिर व्यापारी अपना माल महंगी कीमतों पर बेचकर भारी मुनाफा कमाते थे। इससे आबादी का काफी बड़ा हिस्सा भुखमरी का शिकार हो जाता था। ऐसा भी होता था कि व्यापारी अनाजों की जमाखोरी करके उसे दूसरे देशों में महंगे दामों पर बेच देते थे और देश में अनाज का अकाल पड़ जाता था। बंगाल का अकाल इसी तरह की कालाबाजारी का नतीजा था।

आज की कम्पनियां उस समय के व्यापारियों और कम्पनियों से सैकड़ों गुना बड़ी और ताकतवर हैं। इनकी अनाज भण्डारण की और उसे विदेशों में भेजने की क्षमता भी बहुत ज्यादा है। देश के चोटी के पूंजीपति इस धन्धे में घुसे हुए हैं। हरियाणा, पंजाब जैसे राज्यों के हाईवे से गुजरते हुए इनके नीले-नीले छतों वाले भीमकाय और ऑटोमेटिक गोदामों की कतारें सभी देख सकते हैं। मण्डी समिति कानून और ठेका खेती कानून से कम्पनियों को सस्ते दामों पर गेहूँ, चावल, तिलहन, दलहन जैसी फसलें भारी मात्रा में खरीदने की छूट मिल गयी और भण्डारण कानून में बदलाव से इफरात जमाखोरी करने की। अगर इन्हें विदेशों में ज्यादा भाव मिलेगा तो लाजिमी तौर पर वे अनाजों का निर्यात करेंगे।

इससे देश में अनाज महंगा होगा जिसकी कीमत जनता चुकाएगी। इसी तरह अगर इसका उल्टा भी हो, यानी अगर इन्हें विदेशों से सस्ता अनाज मिलता है तो वहाँ से भारी मात्रा में आयात करके देश में अनाजों के दाम गिरा देंगे जिसकी कीमत किसानों को चुकानी पड़ेगी।

सरकार तर्क दे रही है कि 1955 में जब यह कानून बना था तब से अब तक गेहूँ का उत्पादन 10 गुना, चावल का उत्पादन 4 गुना और दालों का उत्पादन ढाई गुना बढ़ चुका है। इसलिए अब इनके भण्डारण को नियंत्रित करने की आवश्यकता नहीं है। इसमें कोई शक नहीं कि किसानों ने खाद्यान्न के मामले में देश को न केवल आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि इनका निर्यात करने की भी स्थिति में ला दिया। असली समस्या यह है कि सरकार की सरमायापरस्त नीतियों के चलते इसका लाभ देश की जनता और किसानों को मिलने के बजाय सरमायादारों को मिला।

इसी का नतीजा है कि किसानों द्वारा खाद्यान्न का बम्पर उत्पादन करने के बावजूद देश में प्रति व्यक्ति अन्न की उपलब्धता लगातार घट रही है। संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट बताती है कि भारत में पैदा होने वाले 47 फीसदी बच्चों का वजन सामान्य से कम होता है और हर साल 20 लाख बच्चे कुपोषण से मर जाते हैं। 30 फीसदी सबसे गरीब आबादी को न्यूनतम खुराक भी नहीं मिल पाती जबकि वे अपनी आमदनी का 70 फीसदी भोजन पर खर्च करते हैं।

जिस देश में बम्पर अन्न उत्पादन के बावजूद भुखमरी और कुपोषण के हालात इतने भयावह हों, तो वहाँ की सरकार का क्या फर्ज बनता है? वह निर्यात और खाद्य प्रसंस्करण के नाम पर जमाखोरी या कालाबाजारी की छूट दे या देश की गरीब मेहनतकश जनता को सस्ता भोजन मुहैया कराये?

जब किसान की फसल बाजार में आती है तो दाम जमीन चाटने लगते हैं और किसान की फसल निकल जाने के बाद दाम आसमान छूने लगते हैं। पिछले दसियों साल से यही चक्र चल रहा है। किसान की फसल के समय खेती में सट्टेबाजी करनेवाली, निर्यात करनेवाली और खाद्य प्रसंस्करण करने वाली कम्पनियाँ बाजार पर अपनी जबरदस्त पकड़ के चलते दाम गिरा देती हैं। जब उनके गोदाम लबालब भर जाते हैं तो दाम फिर से चढ़ने लगते हैं। इस तरह सटोरियों को वायदा कारोबार (फ्यूचर ट्रेडिंग) के लिए और निर्यात करने वाली कम्पनियों को विदेशों में महंगे दामों पर बेचने के लिए सस्ते माल मिल जाते हैं और साथ ही खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियों को मंहगे तैयार माल के लिए सस्ता कच्चा माल।

जमाखोरी के खिलाफ सख्त कानून के बावजूद कम्पनियाँ सरकार और प्रशासन पर अपनी पकड़ और पैसे की ताकत के दम पर यह सब पहले भी कर लेती थीं, लेकिन अब उन्हें कानून की इस बाधा का भी सामना नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि सरकार ने जमाखोरी को कानूनी जामा पहनाकर किसान और जनता की दुश्मन इन कम्पनियों के मन की मुराद पूरी कर दी है। अब ये कम्पनियां बेखौफ हो खुलकर खेल सकेंगी।

आखिर इन कृषि कानूनों से किसे फायदा है?
झूठ का खेल इतना बड़ा है कि जिस सरकार ने अपने तीन काले कानूनों से किसानों पर नया धोखे भरा ऐतिहासिक हमला किया है, वह कई सालों से किसानों की आमदनी दोगुनी करने का झाँसा दे रही थी। इन्हीं फरेबियों ने किसानों की आय दोगुनी करने के बारे में एक समिति बनायी थी, जिससे सौ कृषि विद्वान जुड़े थे। जैसा कि तय था कि इस समिति ने भी खेती को कम्पनियों के हवाले करने की ही सिफारिश की, लेकिन उसकी ही जांच-पड़ताल में खेती-किसानी की दुर्दशा के कई मामले सामने आ गये।

इस समिति की रिपोर्ट बताती है कि छोटे किसान भारी संख्या में खेती छोड़ रहे हैं। जैसे-जैसे किसानों की जोत का आकार घटता जाता है, उनके खेती छोड़ने की दर बढ़ती जाती है। 2 हेक्टेयर से छोटी जोत वाले 86 फीसदी छोटे किसान भारी संख्या में खेती छोड़ रहे हैं, इनमें भी भूमिहीन किसानों के खेती छोड़ने की दर सबसे ज्यादा है। औसतन हर साल 22 लाख भूमिहीन किसान खेती छोड़ देते हैं। यही रिपोर्ट बताती है कि एक किसान की वास्तविक मासिक आमदनी केवल 7 रुपये है। रिलायंस एग्रो कम्पनी का चेयरमैन मुकेश अम्बानी एक घण्टे में 90 करोड़ रुपये और हर महीने 64,800 करोड़ रुपये कमाता है। सरकार कह रही है कि 7 रुपया कमाने वाला किसान सीधे अम्बानी के साथ व्यापार समझौता करके मुनाफा कमा लेगा।

इन तीनों नये कृषि कानूनों को अलग-अलग नहीं, बल्कि एक साथ जोड़कर देखने की जरूरत है क्योंकि ये सभी एक ही मंसूबे को पूरा करने की साजिश का हिस्सा हैं। ये कानून पहले से ही तबाह और बर्बाद हो चुके देश के 86 फीसदी छोटे किसानों को दिहाड़ी मजदूरों में तब्दील कर देने की साजिश है। इन्हें एक साथ जोड़कर देखने से साफ हो जाता है कि इनके जरिये न सिर्फ किसानों की फसल और जमीन के साथ-साथ उनकी मेहनत-मशक्कत पर भी कम्पनियों का कब्जा जमवाने की ही साजिश की गयी है, बल्कि देश की मेहनतकश जनता की रोटी पर भी कब्जा करने का भी फरमान जारी कर दिया गया है। ये तीनों कानून देश के पूरे खाद्य सुरक्षा चक्र को अडानी-अम्बानी जैसे देशी पूंजीपतियों और वालमार्ट-मोनसेंटो जैसी विदेशी कम्पनियों के हवाले कर देने की साजिश है। जब गेहूँ, चावल, दाल, आलू जैसी रोजमर्रा के लिए जरूरी फसलों पर दो-चार कम्पनियों का कब्जा हो जाएगा तो वे इन्हें दुनिया के बाजार में मनचाही बोली लगाकर बेचेंगी। 

इन तीनों कानूनों पर सरसरी निगाह डालने से स्पष्ट है कि इन्हें किसानों को आजाद और खुशहाल करने के लिए नहीं बनाया गया है बल्कि वॉलमार्ट, रिलायंस, मोनसेंटो, कारगिल जैसी बहुराष्ट्रीय निगमों और पेप्सिको, कोक, आईटीसी जैसी खाद्य प्रसंस्करण कम्पनियों को मालामाल करने के लिए बनाया गया है। सालों से ये दैत्याकार कम्पनियां देश के कृषि बाजार और पूरी खाद्यान्न प्रणाली पर कब्जा जमाने का सपना देख रही थीं।

गेहूँ व चावल जैसे प्रमुख अनाजों की बड़े पैमानों पर खरीद करने वाली मण्डी समितियां, एफसीआई तथा न्यूनतम समर्थन मूल्य और जमाखोरी के खिलाफ कानून इनके रास्ते की बाधाएँ बन रहे थे। जब इन नये कानूनों में ये सभी बाधाएँ हट गयीं तो कम्पनियों के मन की मुराद पूरी हो गयी। इसीलिए उद्योगपतियों के सभी संगठनों ने इन कानूनों का बढ़-चढ़कर स्वागत किया है।

तीनों कानूनों को एक साथ जोड़कर देखें तो ये एक ही जंजीर की कड़ियां लगती हैं। मण्डियों के टूट जाने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य की मजबूरी न होने के चलते कम्पनियां औने-पौने दामों पर किसानों की फसल खरीदेंगी। जमाखोरी पर रोक ना होने के चलते भारी मात्रा में फसलों को गोदामों में भरेंगी। उन्हें देश में कहीं भी बेरोकटोक महंगे दामों पर बेचेंगी या विदेशों में निर्यात करेंगी। दो-चार सालों तक लगातार अच्छी कीमत न मिलने से किसान फसल की कीमत की गारण्टी के लिए कम्पनियों के साथ करार करके उनके बंधुआ मजदूर बन जाने के लिए मजबूर हो जाएँगे।

यहां एक बात ध्यान देने वाली है कि मुनाफे की हवस में अन्धी इन देशी-विदेशी कम्पनियों के लिए जरूरी नहीं कि वे किसानों से गेहूँ ही पैदा करवायें। अगर उन्हें सफेद मूसली, जट्रोफा, स्ट्रॉबेरी पैदा करवाकर ज्यादा मुनाफा मिलेगा तो उसकी पैदावार करवायेंगी। कंगाल हो चुके किसान अपनी परम्परागत खेती छोड़कर उनके लिए सस्ते से सस्ती कीमत पर भी काम करने के लिए तैयार हो जायेंगे।

यहां यह भी साफ हो जाना चाहिए कि ये कानून देश के तमाम किसानों पर एक साथ और एक जैसा असर नहीं डालेंगे। 10 हेक्टेयर से ज्यादा जमीन वाले बड़े किसानों और 4 से 10 हेक्टेयर वाले मध्यम किसानों को इन कानूनों से कुछ फायदा भी हो सकता है। ये देश के कुल किसानों का लगभग 14 फीसदी हैं। इनकी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक हैसियत मजबूत है। कुछ हद तक सत्ता पर इनकी पकड़ भी है। ये गांवों में कम्पनियों के एजेंट, सप्लायर्स, सलाहकार बनकर कुछ फायदा उठाने की स्थिति में होंगे।

लागत की कीमतों में बेतहाशा बढ़ोतरी और कर्ज के बोझ के चलते देश के 86 फीसदी छोटे, सीमान्त और भूमिहीन किसानों के लिए खेती पहले ही घाटे का सौदा बनी हुई है। ये खेती के साथ पशुपालन या मजदूरी करके किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर की मण्डी तक भी पहुंच नहीं है। ये बुरी तरह कर्ज के जाल में फंसे हुए हैं। अगर कोई ढंग की नौकरी मिल जाये तो ये खेती छोड़ने में जरा भी देर नहीं लगाएँगे। न तो इनकी खास सामाजिक हैसियत है न ही राजनीति में दबदबा। ये कम्पनियों के सबसे पहले और सबसे आसान शिकार बनेंगे।

विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के आगे सरकार का समर्पण
किसानों को तबाह करने का यह खेल नया नहीं है, यह 1994 से ही चल रहा है, जब भारत के शासकों ने गैट समझौते के तहत डंकल प्रस्ताव की नीतियों को स्वीकार किया था और विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के आगे समर्पण कर दिया था। ऐसा नहीं है कि उससे पहले भारत के किसानों की हालत बहुत बढ़िया थी, लेकिन ऐसा भी नहीं था कि वे कर्ज के मकड़जाल में फंसे थे, आत्महत्या करने और खेती छोड़ने के लिए मजबूर थे। गेहूँ, चावल, दलहन, तिलहन जैसी जीवन के लिए लाजिमी फसलों की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकारी संस्था फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया (एफसीआई) कर लेती थी। किसान कम्पनियों के आगे बेबस नहीं थे। 

आशीष कहते हैं- 'एक जमाना था जब भारत खाद्यान्न के लिए दुनिया के सामने हाथ फैलाता था और इसके चलते सिर झुकाकर अमीर देशों की असमान शर्तें मानने को मजबूर होता था। शासकों ने देश के किसानों का आह्वान किया तो उन्होंने हाड़तोड़ मेहनत के दम पर देश को कुछ ही सालों में न केवल आत्मनिर्भर बना दिया, बल्कि भारत खाद्यान्नों का निर्यात करने लगा। 1994 में शासकों द्वारा स्वीकार की गयी डब्ल्यूटीओ की नीतियों ने किसानों को बर्बाद करने के साथ-साथ देश की खाद्यान्न आत्मनिर्भरता और खाद्य सुरक्षा चक्र को भी तहत-नहस कर दिया और अर्थव्यवस्था को भारी नुकसान पहुंचाया है।'

डब्ल्यूटीओ की नीति है कि जो देश जितना खाद्यान्न उत्पन्न करता है उसका 10 फीसदी उसे आयात करना ही पड़ेगा। इसके अलावा डब्ल्यूटीओ के दबाव में देश के शासकों ने खेती में निजी कम्पनियों के घुसने का रास्ता तैयार किया और कृषि उत्पादों के आयात–निर्यात को खुली छूट दे दी। कम्पनियों ने देश के किसानों से सस्ता खाद्यान्न खरीदकर विदेशों में महंगे दामों पर बेचा। इससे देश में खाद्यान्न की कमी हुई, इनके दाम बढ़ने लगे। मजबूरन सरकार को विदेशों से महंगे दाम पर खाद्यान्न का आयात करना पड़ा। इसका नतीजा यह है कि भारत ने 2004 में 30 हजार करोड़ रुपये का खाद्यान्न आयात किया था। केवल 11 साल बाद 2016 में भारत को 1-5 लाख करोड़ रुपये के खाद्यान्न का आयात करना पड़ा।

1994 में जब भारत की खेती विश्व व्यापार संगठन के साथ नत्थी हुई थी, तब भी किसानों की खुशहाली के बड़े-बड़े दावे किये गये थे। बताया गया था कि किसान सीधा विश्व व्यापार से जुड़ जाएगा। कम्पनियां उसे मालामाल कर देंगी, किसानों की फसल पूरी दुनिया में बिकेगी। तब से अब तक 20 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। यह तथ्य हमें बताता है कि वे कितने खुशहाल हुए हैं। किसान का पशु भी मर जाये तो वह जार-जार रोता है। सालों तक नुकसान की भरपाई नहीं कर पाता। 20 लाख किसानों की आत्महत्या का मतलब है- 20 लाख परिवारों, यानी एक करोड़ लोगों की बर्बादी। सरकार की नीतियों ने किसानों को उस हाल में पहुंचा दिया है कि 20 लाख किसानों की आत्महत्या पर ताज्जुब नहीं होता बल्कि बाकियों के जिन्दा रहने पर ताज्जुब होता है। 

डब्ल्यूटीओ के दबाव में जिन नीतियों को सरकार हमारे देश में आज लागू कर रही है, वैसी ही नीतियों को यूरोप और अमरीका में पिछले 60 सालों से लागू किया जा रहा है। इन नीतियों ने बड़ी संख्या में वहां के किसानों को बर्बाद करके कम्पनियों के मजदूर में तब्दील कर दिया है। अमरीका के बाकी बचे किसान आज दुनिया के सबसे ज्यादा कर्जदार किसानों में हैं। उनकी संख्या बहुत कम और जोत का आकार बहुत बड़ा है।

औसतन 160 हेक्टेयर के मालिक होने के बावजूद वे 425 अरब डॉलर के भारी कर्ज में दबे हुए हैं। इन नीतियों की बदौलत भारत के छोटे और भूमिहीन किसानों की तरह ही अमरीका के बड़े किसान/फार्मर भी आत्महत्या करने के लिए मजबूर हैं। वहाँ शहरों के मुकाबले ग्रामीण इलाकों में आत्महत्या की दर 45 फीसदी ज्यादा है। किसानों की यह हालत तब है जब वहाँ का हर किसान औसतन 60 हजार डॉलर की सब्सिडी पाता है। इसकी तुलना में भारत के किसान को हर साल औसतन 200 डॉलर की ही सब्सिडी मिल पाती है जिनमें बड़ा हिस्सा मुट्ठीभर फार्मरों और धनी किसानों के हिस्से में आता है।

अमरीका में वॉलमार्ट जैसी दैत्याकार कम्पनियां कई दशकों से किसानों के साथ करार करके ठेका खेती कर रही हैं। वहां जमाखोरी का कानून भी बहुत पहले खत्म कर दिया गया और मण्डी समितियां भी नहीं हैं। इसके बावजूद वहां के किसान भारी संकट में हैं।

आशीष ने बताया- 'अमरीका के कृषि मंत्रालय के एक प्रमुख अर्थशास्त्री का कहना है कि 1960 के दशक से (जब से वहाँ ऐसी नीतियाँ लागू हुई) किसानों की आमदनी लगातार घट रही है। इस दौरान अमरीका के लगभग आधे किसान खेती छोड़ चुके हैं। जिन नीतियों ने अमरीका के बड़े-बड़े फार्मरों को कम्पनियों का कारिन्दा बना दिया, कर्ज के दलदल में धकेल दिया और आत्महत्या के लिए मजबूर कर दिया, वे नीतियां पहले से ही कंगाली और भुखमरी के शिकार हमारे देश के छोटे–छोटे किसानों का क्या हाल करेंगी इसका हम आसानी से अन्दाजा लगा सकते हैं।'

अमरीकी नवउदारवादी नीतियों के अधीन भारत एक नयी गुलामी की दस्तक
किसी के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि अगर ये नीतियां इतनी किसान विरोधी हैं तो सरकार इन्हें लागू करने पर अमादा क्यों हैं। दरअसल इसकी बुनियाद अब से 30 साल पहले ही रख दी गयी थी। 1990 का दशक पूरी दुनिया के लिए बहुत बड़े बदलावों का दशक था। हमारे देश की आर्थिक हालत भी डांवाडोल थी। सोवियत रूस जैसा उसका मजबूत सहयोगी बिखर गया था। आजादी के बाद से ही किसी मजबूत देश का सहारा लेकर चलने के आदी हमारे देश के शासक बेसहारा हो गये थे। उस वक्त पूरी दुनिया में अमरीका की दादागिरी शुरू हो गयी थी। दुनिया के बहुत से देश उसकी वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों को स्वीकार कर चुके थे। ये नीतियां देश को नयी गुलामी की खाई में धकेल देने वाली साबित हुई। 

देश के शासकों का एक धड़ा आजादी के बाद से ही अमरीका का पिछलग्गू बन जाने का हिमायती था और अमरीका की तरह ही अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र का निजीकरण करना चाहता था। 1990 में उसके मनमाफिक हालात बन गये। हमारे देश का शासक वर्ग जितना कमजोर और मौकापरस्त था, उस हिसाब से वह यही कर सकता था। इसने हालात का मुकाबला करने के बजाय दुनिया की जनता के दुश्मन अमरीकी शासकों की सरपरस्ती मंजूर की और उसके साथ गठजोड़ करके विश्व व्यापार संगठन, विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी साम्राज्यवादी संस्थाओं की बनायी नीतियों पर चलना मंजूर किया।

ये नीतियां देश की मेहनतकश जनता के लिए चाहे कितनी भी खतरनाक हों लेकिन उद्योगपतियों के लिए फायदे का सौदा थी। आजादी के बाद देश में जनता के पैसे से देश में बड़ी-बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियां, निगम, संस्थान और विशालकाय बुनियादी ढांचे खड़े हुए। निजीकरण की नीतियों से इनका उद्योगपतियों के हाथों में जाना तय था। इतनी बड़ी दौलत उनके हाथ लगने वाली थी जिसकी उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। अमरीका की पिछलग्गू सरकार ने देश की तमाम नीतियों को वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के मुताबिक बदल देने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। देश की जनता के लिए यह एक नयी गुलामी की शुरुआत थी। 

उस दौरान खेती पर देश की 50 फीसदी से ज्यादा आबादी निर्भर थी। इसके बावजूद थोड़ी ना-नुकुर के बाद शासकों ने खेती में भी डब्ल्यूटीओ की शर्तों पर बनी नवउदारवादी नीतियों को लागू करने की मन्जूरी दे दी। खेती की नीतियों को तय करने वाले 1500 पेज के डंकल प्रस्ताव पर शासकों ने रातों-रात दस्तखत कर दिये। इसमें खेती के लिए मोटा-मोटी पांच तरह की नीतियाँ तय की गयी थीं, जो इस तरह हैं-

1:  सरकार खेती को आगे बढ़ाने के मद में अपने बजट आवंटन में कटौती करे। यानी खेती के क्षेत्र में चल रहे शोधकार्यों, किसानों को मदद पहुंचाने वाली योजनाओं, सिंचाई परियोजना, गाँवों में बुनियादी ढांचे के विकास की योजना, किसानों की फसल खरीदने के लिए मण्डियां विकसित करने जैसी योजनाओं पर खर्च करना कम करे। इसी का नतीजा है कि खेती का सरकारी खर्च घटकर सकल घरेलू उत्पाद का केवल 2 फीसदी रह गया है, जबकि खेती आज भी देश की आधी से ज्यादा आबादी को रोजगार देने वाली है।

2:  खाद, बिजली, पानी, डीजल, मशीनरी जैसी खेती की लागतों पर किसानों को सब्सिडी देना सरकार तुरन्त बन्द करे। इसी के तहत सरकार ने सब्सिडी लगातार कम की है और उसे देने के तरीके में ऐसे बदलाव किये हैं जिससे इसका बड़ा हिस्सा किसानों के बजाय लागत तैयार करने वाली कम्पनियों की तिजोरियों में चली जाये। 

3: सरकार फसल के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य और फसल की सरकारी खरीद को खत्म करे। यानी सरकार ने भारतीय खाद्य निगम (एफसीआई) के जरिये किसानों की फसल खरीदने और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के जरिये उसे सस्ते दामों पर जनता तक राशन पहुँचाने की जो व्यवस्था तैयार कर रखी थी उसे खत्म करे, ताकि किसानों की फसल खरीदने और उसे जनता तक पहुँचाने के काम को व्यापार में बदल कर इसे निजी पूंजीपतियों के हवाले किया जा सके।

4: सरकार कृषि उपज के आयात-निर्यात की बाधाओं को खत्म करे। डब्ल्यूटीओ की नीतियां स्वीकार करने से पहले देश में फसलों के निजी तौर पर किये जाने वाले आयात–निर्यात पर लगभग पूरी तरह पाबन्दी थी। केवल सरकार ही ऐसा कर सकती थी। इसका मकसद था कि देश के किसानों की सारी फसल ठीक भाव पर बिक जाये और हमारी खेती विश्व बाजार के उतार-चढ़ाव से प्रभावित न हो। डब्ल्यूटीओ समझौते के चलते लगभग 1400 वस्तुओं पर आयात प्रतिबन्ध हटा दिया गया, जिनमें सबसे ज्यादा कृषि और पशुपालन से जुड़े सामान थे। दूसरी ओर निर्यात पर लगे प्रतिबन्ध भी हटा दिये गये। आज देश में बम्पर पैदावार के बावजूद भी प्याज का टोटा है और यह महंगे भाव बिक रही है। कारण यह है कि कम्पनियों ने इसका भारी मात्रा में निर्यात कर दिया है।

5: बैंकों से सस्ते दर पर कर्ज की सहूलियत को खत्म करे। एक समय था जब सरकार ने ग्रामीण बैंक की शाखाएं खोलकर खेती और उससे जुड़े कारोबारों के लिए सस्ती दर पर कर्ज देती थी। डब्ल्यूटीओ के दबाव में सरकार ने 1993 से 2000 के बीच देहातों में बैंकों की 3500 शाखाएं बन्द कर दी थीं। अय्याशी के सामानों के लिए कम ब्याज पर और खेती के लिए ज्यादा ब्याज पर कर्ज मिलने लगा और वह भी बहुत झंझटों के बाद। इसका ही नतीजा है कि किसान निजी सूदखोरों के जाल में फंसकर आत्महत्या करने को मजबूर हुए।

साफ-साफ देख सकते हैं कि नयी गुलामी थोपने वाली इन सारी नीतियों का मकसद खेती को इस हद तक घाटे का सौदा बना देना था ताकि किसान खुद खेती छोड़ दें और देश की पूरी खेती पर निजी कम्पनियों का कब्जा हो जाये। देश में खेती पर निर्भर आबादी और संगठनों के भारी विरोध के चलते डब्ल्यूटीओ की नीतियों को बहुत तेजी से लागू नहीं किया जा सका। लेकिन 1990 के बाद किसी सरकार ने खेती से जुड़ा एक भी ऐसा फैसला नहीं किया जो किसानों के हक में हो। उलटे सभी सरकारों ने पहले से चली आ रही किसानों के हित में बनी नीतियों को पलटने का ही काम किया।

आशीष यहीं नहीं रुके बल्कि उन्होंने आगे कहा- 'सरकार ने जो तीन नये कानून बनाये हैं, वे खेती के निजीकरण की नीतियों को ही आखिरी मंजिल पर पहुंचाने वाले हैं। देश के उद्योगपति और उनके हक में काम करने वाले नेता और अफसर किसानों को बर्बाद किये जाने के पक्ष में हैं, इसलिए रोज इन कानूनों की तारीफों के पुल बांधें जा रहे हैं। वजह बिल्कुल साफ है, सन 2000 से 2017 के बीच के 17 सालों में देशी–विदेशी उद्योगपतियों की कम्पनियों ने किसानों से 45 लाख करोड़ रुपये की लूट की है। अंग्रेजों ने 200 साल गुलाम बनाकर भारत को जितना लूटा, यह लूट उससे भी बड़ी है। देश के चोटी के विद्वानों के संगठन इण्डियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन इण्टरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशंस और ऑर्गेनाइजेशन इकोनॉमिक कॉरपोरेशन ने इस ऐतिहासिक लूट का हिसाब लगाया है।' 

खेती-किसानी का मौजूदा संकट इन्हीं नीतियों की देन है। इन नीतियों से पूरी तरह पिण्ड छुड़ाये बिना संकट से निजात पाना सम्भव नहीं है। यह सही है कि खेती के तबाह होने की और भी वजहें हैं, लेकिन आज खेती में लागू हो रही डब्ल्यूटीओ की नीतियां वह इकलौती गांठ बन गयी है, जिसके खुलने से ही तमाम गुत्थियों के सुलझने की गारण्टी होगी।

पुस्तिका में किसानों के लिए समाधान और चुनौतियों को भी बताया गया है। तर्क और तथ्यों की दृश्टि से देखें तो तो ये किसान पुस्तिका कई सवालों और संशय को खत्म कर देती है। साथ ही सरकार की मंशा पर चोट करने के साथ ही यह पुस्तिका भविष्य की तस्वीर भी साफ कर देती है, जो कि बेहद डरावनी है।

आखिर समाधान क्या है?
कोरोना काल के एक साल के बावजूद इस साल देश में किसानों के 50 से ज्यादा प्रदर्शन हो चुके हैं और अपनी छोटी-छोटी फौरी मांगों से ऊपर उठकर खेती में लागू किये जा रहे तीनों कृषि कानून अब किसान संगठनों के निशाने पर आ गये हैं। ढाई सौ किसान संगठनों ने इन तीनों काले कानूनों के खिलाफ आन्दोलन में हिस्सेदारी की। इन सबका साझा नारा है, “कॉर्पाेरेट भगाओ, देश बचाओ”। सच्चाई यह है कि आज किसान इतिहास के किसी भी दौर से ज्यादा बड़े पैमाने पर आन्दोलन कर रहे हैं, लेकिन उनके संघर्ष की कई चुनौतियाँ भी हैं।

इन आंदोलनों की पहली चुनौती है- किसान आन्दोलन के लिए समग्र “कृषि कार्यक्रम” का अभाव। आज आन्दोलन में शामिल तमाम संगठनों के पास कोई भी ऐसा “कृषि कार्यक्रम” नहीं है, जिसकी रोशनी में डब्ल्यूटीओ की साम्राज्यवादी नीतियों के खिलाफ लम्बा संघर्ष चलाया जा सके और इसके लिए किसानों को गोलबन्द किया जा सके। इन संगठनों में से ज्यादातर उन संसदीय पार्टियों के पिछलग्गू किसान संगठन हैं जो किसान विरोधी डब्ल्यूटीओ की साम्राज्यवादी नीतियों से सहमत हैं। ऐसे में इन किसान संगठनों के नेताओं का उद्देश्य होता है कि संकट के समय आन्दोलन में शामिल होकर किसानों की सहानुभूति हासिल करना और चुनाव में अपनी पार्टी के लिए किसानों का वोट हासिल करना। ऐसी हालत में अगर किसान इन नेताओं की सरपरस्ती में आन्दोलन करते रहे तो उन्हें सिवाय हार के कुछ नहीं हासिल होगा।

दूसरी चुनौती है- किसानों में एकजुटता की कमी। कॉर्पाेरेट और सरकार की मौजूदा ताकत के सामने अभी किसान संगठनों की ताकत कमजोर दिखाई पड़ रही है, क्योंकि किसानों के बीच जाति, धर्म, क्षेत्र जैसे बंटवारों की दरारें हैं, जिससे उनकी एकता कमजोर हो गयी है।

तीसरी चुनौती है- किसानांे में जागरूकता का अभाव। खेती में लागू नीतियों के बारे में किसानों में जागरूकता की भारी कमी है। किसान भाइयों को पूँजीवादी व्यवस्था की समझ हासिल करनी होगी, जो उनके शोषण से कमाये गये मुनाफे पर टिकी है क्योंकि मुनाफे की हवस में अन्धा पूँजीपति ही किसानों का असली दुश्मन है। इसके साथ ही उन्हें डब्ल्यूटीओ की साम्राज्यवादी नीतियों को भी समझना होगा। आज अमरीकी साम्राज्यवाद देश के कृषि बाजार और कच्चे माल पर कब्जा करने के लिए हमारे शासकों के साथ साँठ-गाँठ कर चुका है। सरकार के इन जनविरोधी कदमों का व्यापक स्तर पर पर्दाफाश किये बिना इस लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता।

चौथी चुनौती है- किसान आन्दोलन अभी अपने सच्चे सहयोगियों से भी दूरी बनाये हुए है। आज नवउदारवादी नीतियों की मार छात्रों, बेरोजगार नौजवानों, दलित-शोषित तबकों और मजदूरों पर भी पड़ रही है। ये सभी समुदाय अपने आर्थिक हितों पर हुए हमले से आहत हैं और जन-संघर्षों के जरिये ही इन समुदायों का भला होगा। इसलिए किसान आन्दोलन को इन संघर्षों से एका कायम करना होगा।

पांचवीं चुनौती है- किसानों की व्यापक आबादी की निष्क्रियता और संघर्षों से दूरी बनाये रखना। देश के ज्यादातर किसान बाकी के किसानों की समस्या से अवगत नहीं होते हैं और किसान आन्दोलन का महत्त्व भी नहीं समझते। इसी के चलते किसान आन्दोलन से दूर ही रहते हैं। टीवी और अखबार जैसा मीडिया भी उन्हें किसानों की समस्या से दूर रखता है। जब टीवी चैनलों ने अभिनेता सुशान्त की आत्महत्या का मामला जोर–शोर से उछाला, ठीक उसी समय चुपके से संसद में तीनों काले कानून पास कर दिये गये।

इन्हें राज्य सभा में बिना बहस और वोटिंग कराये ध्वनिमत से पास कर दिया गया, जो संसदीय कार्रवाई पर एक कलंक है। संसद में की जा रही ऐसी साजिशों का खुलासा मीडिया नहीं करता, फिर ऐसी खबरें किसानों के पास कैसे पहुंचे? यह एक अहम सवाल है। क्या तमाम किसान संगठन यह जिम्मेदारी नहीं उठा सकते कि वे किसानों को सही खबरों से परिचित करायें। सही सूचना और जानकारी के अभाव में किसान आन्दोलन एक छोटी सी जीत भी हासिल नहीं कर सकता।

अंत में आशीष से मौजूदा किसान आंदोलन पर उनकी राय पूछी तो उन्होंने कहा- 'जिस ढंग से किसान गोलबंद हो रहे हैं, वह उन्हें नई उम्मीद दिखाता है। उन्हें उम्मीद है कि किसान सरकार के खिलाफ लड़ रहे अपनी लड़ाई को आखिर में जीत लेंगे और किसानों को तबाह करने वाले इन कानूनों को संसद को खत्म करना होगा। किसानों का भला तभी हो सकता है, जब सबसे पहले वे अपनी इन कमजोरियों पर जीत हासिल करें और वे इसे जरूर हासिल कर लेंगे। सच तो यह है कि नवउदारवादी नीतियों के जरिये देश पर जिस नयी गुलामी का शिकंजा कस दिया गया, उसकी जकड़ में देश की 80 फीसदी जनता कराह रही है। इन सबको साथ लिए बिना इस लड़ाई में जीत हासिल करना मुमकिन नहीं। जिस दिन किसान अपनी कमजोरियों पर काबू पा लेंगे और अपने असली दुश्मनों के खिलाफ अपने सच्चे दोस्तों को साथ लेकर लड़ना शुरू कर देंगे, उसी दिन कॉर्पाेरेट का तम्बू भारत की धरती से उखड़ जाएगा। अलग-अलग मुद्दों पर स्थानीय और बिखरे-बिखरे आन्दोलनों को समन्वित करके, उन्हें देशव्यापी और निर्णायक आन्दोलन में बदलकर ही इन जन–विरोधी और देश-विरोधी नीतियों को पलटना सम्भव होगा।'

आशीष ही नहीं बल्कि दिल्ली और देशभर में चल रहे किसान आंदोलन को लेकर तो फिलहाल यही कहा जा सकता है कि किसान बिना कानूनों को रद्द करवाए हुए चैन से नहीं बैठने वाले हैं। किसान नेता लगातार महापंचायतों का आयोजन कर अपने आंदोलन को मजबूत किलेबंदी में बदल रहे हैं, जहां से सरकार के लिए इन तीनों कानूनों को संसद में पास करवाने के बावजूद भी बैकफुट पर जाने के सिवाय कोई चारा फिलवक्त नहीं है।

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