कलकत्ता में गालिब की हो गई थी ट्रोलिंग, मुशायरे में खारिज करने की हुई कोशिश

कलकत्ता में गालिब की हो गई थी ट्रोलिंग, मुशायरे में खारिज करने की हुई कोशिश

उबैद अख़्तर

उबैद अख्तर साहब की पैदाइश हिन्दुस्तान के आजाद होने के एक दशक बाद मुल्क के सबसे जीवंत शहर बनारस में हुई। 1986 में वो पत्रकारिता के पेशे से जुड़े और ताउम्र इसी के होकर रह गए। इस बीच कथा-कहानी में भी हाथ मारा, लेकिन बकौल उबैद साहब ग़म-ए-रोज़गार यानी कि अखबारों की नौकरियों ने उनके अंदर आकार ले रहे कहानीकार को क़लम उठाने की फुरसत ही नहीं दी। उन्होंने दैनिक जागरण, स्वतंत्र चेतना, संध्या प्रहरी, अमर उजाला, हरिभूमि और राष्ट्रीय सहारा जैसे संस्थानों में काम किया है।

...तो जनाब किस्सा यह है कि मिर्ज़ा नौशा की हज़ार ख्वाहिशों में से एक अरमान कलकत्ता में बस जाने का था। मगर ये हो न सका। हुआ कुछ यूं कि ब्रिटिश सरकार ने किसी बात से चिढ़कर ग़ालिब के वज़ीफे पर रोक लगा दी। मिर्ज़ा ने पहले दिल्ली में भाग-दौड़ की, लेकिन काम नहीं बना। किसी ने कहा-कलकत्ता जाओ और भारत के कार्यवाहक गवर्नर जनरल चार्ल्स मेटकाफ से मिलो। नवंबर 1826 को ग़ालिब ने राजधानी कलकत्ता (ब्रिटिश इंडिया) की तरफ कूच किया। कहां बल्लीमारान के  आराम-ओ-आज़ाइश वाले दिन-रात और कहां छकड़ों, इक्कों, ऊँटों, घोड़ों और कश्ती की थका देने वाली निरंतर यात्रा।

ख़ैर कई शहरों का पानी चखते ग़ालिब 1826 के फरवरी महीने में कलकत्ता पहुंचे थे। रामदुलाल स्ट्रीट पर एक किराये के कमरे का जुगाड़ हो गया। ग़ालिब साल भर वहां रहे। वह कलकत्ता में एक और मकान में बतौर किरायेदार रहे, मगर उसका सटीक विवरण उपलब्ध नहीं है। मेटकाफ कहीं दक्षिण में बिजी थे, ग़ालिब दूसरे अफसरान से मिलते रहे, लेकिन पेंशन बहाल न हुई। इस दौरान कलकत्ता के एक मुशायरे में उनकी शायरी को ख़ारिज करने की भी कोशिश की गई। बिल्कुल आज के ट्रोलिंग वाले अंदाज़ में उनके खिलाफ पोस्टर चस्पा किए गए।

बहरहाल, मालदा आम के मज़े लेते और कुछ कलाम कहते ज़िन्दगी कट रही थी। मेटकाफ लौटा और ग़ालिब को पेंशन देने से इनकार कर दिया। अब ग़ालिब के पास वापस दिल्ली लौटने के सिवा कोई चारा भी नहीं था।

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इधर गालिब की रुखसती के कई सालों बाद उसी जमीन पर तकरीबन आठ साल पहले एपीजे कोलकाता लिटरेरी फेस्टिवल के तहत 'लब आजाद हैं ' सेशन में मशहूर एक्टर नसीरुद्दीन शाह ने ग़ालिब को याद करते हुए ग़ालिब की ज़बान में जो कुछ कहा था, उसे ज्यों का त्यों लिख रहा हूं...

"बंगाल कमल की जगह है। यहां की खाकनशीनी (ज़मीन से जुड़ाव), यहां की हुक्मरानी से बेहतर है। ये बंगाली सौ साल आगे भी जीते हैं और सौ साल पीछे भी और कलकत्ते जैसा शहर तो रू-ए-ज़मीन पे नहीं। अगर मैं मुजर्रिद (कुंवारा ) होता और खानादारी (परिवार) की ज़िम्मेवारियां मुझ पर हायल (लागू ) न होतीं तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर यहीं का हो जाता।"

"कलकत्ते का जो ज़िक्र किया तू ने हम-नशीं 
इक तीर मेरे सीने में मारा कि हाय-हाय .."
- मिर्ज़ा नौशा 

ग़ालिब सही कह गए हैं- बंगाल कमाल की जगह है। बंगाली वाक़ई अपनी अस्मिता, कला, साहित्य और संस्कृति को संभालना जानते हैं। यक़ीन न हो तो खाली वहां के मेट्रो स्टेशनों के नाम देख लें। मैं यहां इलाक़ाई नामों को छोड़ कर बंगाल की महान विभूतियों के नाम वाले मेट्रो स्टेशनों का ज़िक्र कर रहा हूं। जैसे कवि सुभाष, शहीद खुदीराम, कवि नज़रुल, गीतांजलि, मास्टरदा सूर्यसेन, नेता जी,  महानायक उत्तम कुमार, रबिन्द्र सरोबर, जतिनदास पार्क, नेताजी भवन, रबिन्द्र सदन, महात्मा गाँधी रोड, गिरीश पार्क आदि। ये स्टेशन महान नेताओं, कलाकारों, कवियों के नाम भर नहीं हैं। मेट्रो स्टेशन की दीवारों पर पेंटिंग के माध्यम से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को शानदार ढंग से उकेरा गया है।

इस काम को नामी तूलिकाकारों के अलावा स्कूली बच्चों ने भी अंजाम दिया है। बंगाल ने सिर्फ अपनी विभूतियों को सर आंखों पर नहीं बिठाया, उसने मेहमान शायर ग़ालिब को भी अक़ीदत से नवाज़ा। 

मिर्ज़ा ग़ालिब की 221वीं जयंती के मौके पर कलकत्ता इलेक्ट्रिक सप्लाई कंपनी ने पार्क स्ट्रीट इलाके स्थित मिर्ज़ा ग़ालिब स्ट्रीट में बिजली के वितरण बाक्सों पर गालिब की शेरो-शायरी उकेर कर इसे एक जीवंत संग्रहालय में बदल दिया था। ये बंगाल ही कर सकता है।

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