अरविंद शेखर ने पत्रकारिता की शुरुआत फ्रीलांस जनपक्षधर कार्टूनिस्ट व पत्रकार के रूप में की। बीते ढाई दशक में वह अमर उजाला, दैनिक जागरण, हिंदुस्तान और राष्ट्रीय सहारा में विभिन्न पदों पर रहे हैं। खुद को मूल रूप से कार्टूनिस्ट मानने वाले अरविंद शेखर ने कुछ अरसा हिमाचल टाइम्स, बद्री विशाल, युगवाणी को भी सहयोग दिया। हालांकि, वह अधिकांश वक्त रिपोर्टिंग में व्यस्त रहे हैं, मगर बीच-बीच में कार्टून के जरिए राजनीतिक-सामाजिक विद्रूपताओं पर निशाना भी साधते रहे हैं।
हाल ही में एक निजी टीवी चैनल ने अपने कार्टूनिस्ट मंजुल को नौकरी से हटा दिया। मंजुल ने कोरोना की दूसरी लहर में केंद्र सरकार की नाकामी पर ऐसे तीखे कार्टून बनाए कि उनके कार्टूनों से खफा केंद्र सरकार ने उनके सोशल मीडिया प्रोफाइल को ही देश के कानूनों के खिलाफ बताते हुए उन पर कार्रवाई के लिए ट्विटर को पत्र लिखा । हैरत इस बात की है कि सरकार ने यह नहीं बताया कि मंजुल का कौन सा कार्टून देश के कानून के खिलाफ है।
ट्विटर ने मंजुल को नोटिस भेजा मगर किया कुछ नहीं। पर चैनल ने मंजुल को नौकरी से ही हटा दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट के वकील और जाने माने सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत भूषण द्वारा बैंकों की सरकारी लूट पर सतीश आचार्य का कार्टून ट्विटर पर साझा करना केंद्र सरकार को इतना नागवार गुजरा कि उसने ट्विटर पर दबाल डाल कर उन्हें नोटिस भिजवा दिया। ये हमारे समय के ही कार्टून होते जाने की ताजा मिसाल हैं।
देश में कार्टून से खौफ खाने वाले सत्ताधारी बीते कुछ दशकों में बहुत बढ़ गए हैं। पर पहले भी ऐसे सत्ताधारियों की कमी नहीं रही है। हालांकि तब वे उंगलियों पर गिने जाने लायक होते थे। अटल सरकार के समय 1999 में आउटलुक के कार्टूनिस्ट इरफान हुसैन की अपहरण के बाद हत्या कर दी गई थी। वह भी तीखे राजनीतिक कार्टून बनाते थे। उन्हें राजनीतिक लोगो से धमकियां भी मिलीं थीं। कार्टूनिस्ट अपनी तरह से इतिहास को दर्ज करता है और इतिहास में खलनायक के रूप मे दर्ज हो जाने के डर से सत्ता पर बैठे छोटे दिल के नेता उसकी कूची को तोड़ देना चाहते हैं। हालांकि इसके पंडित जवाहर लाल नेहरू जैसे अपवाद भी हैं।
कार्टूनिस्ट शंकर ने जब पंडित नेहरू को गधे के रूप मे दर्शाया तो पंडित नेहरू ने उन्हें फोन कर कहा-“क्या आप एक गधे के साथ शाम की चाय पीना पसंद करेंगे।” शंकर वहां गए। चाय पी और हल्के माहौल में खूब गप-शप हुई। शंकर की पत्रिका शंकर्स वीकली के लोकार्पण के मौके पर पंडित नेहरू ने उनसे कहा था- “मुझे भी अपने निशाने पर रखना शंकर।” क्या आप आजकल के किसी नेता से ऐसी उम्मीद कर सकते हैं।
कार्टून से तो शायद अंग्रेज भी इतना नहीं डरते थे जितना कि आज के काले अंग्रेज। शंकर ने कई वायसरायों पर भी कार्टून बनाए। उन्हें हिंदुस्तान टाइम्स में नौकरी शुरू किए चार महीने ही हुए थे कि उनका उस समय के वायसरॉय लॉर्ड विलिंगटन पर बनाया एक कार्टून पहले पेज पर प्रकाशित हुआ। शाम को वायसरॉय का बुलावा आ गया। शंकर घबरा गए। सारी रात उन्हें नींद नहीं आई। अगले दिन सुबह जब शंकर उनसे मिलने पहुंचे तो वायसरॉय ने उन्हें गले लगा लिया। उनके साथ चाय पीते हुए कहा- “आई एन्जॉय योर कार्टून, माय ब्वॉय ।”
शंकर ने लॉर्ड लिनलिथगो का भी एक कार्टून बनाया था जिसमें उन्हें श्मशान में शव पर खड़ी देवी भद्रकाली के रूप में दिखाया था। शंकर को भी बाद में लगा कि उन्हें यह कार्टून नहीं बनाना चाहिए था। अगले दिन 11 बजे वायसरॉय के मिलिट्री सेक्रेटरी का फोन आ गया। वायसरॉन ने उन्हें बुलाया था। शंकर ने समझा कि उनके करियर का बस अंत हो गया। डरे- सहमे हुए शंकर वायसरॉय के पास पहुंचे। उम्मीद थी झाड़ पड़ेगी, धमकी मिलेगी। पर मुस्कराते हुए लॉर्ड लिनलिथगो ने उनसे कहा- “शंकर माय ब्वॉय यू हैव ड्रॉन ए वंडरफुल कार्टून, आई वांट यू टू सेंड मी द ऑरिजनरल इमिडिएटली।” आजादी से पहले द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने वायसराय कौंसिल के सदस्य सर मोहम्मद उस्मान पर एक कार्टून बनाया।
कार्टून में एक बहुत बड़ा सा गुब्बारा गवनर्मेंट हाउस के ऊपर रखा हुआ था। कार्टून के नीचे लिखा था- भारत सुरक्षित है। हम दिल्ली में सुरक्षित हैं, हमारे पास समुचित रक्षा का प्रबंध है। कार्टून देख गुस्से में पागल उस्मान वायसराय के पास भागे-भागे गए और चिल्ला कर बोले-शंकर को कैद कर लेना चाहिए। इसी तरह वायसराय की एक्जीक्यूयिव कौंसिल के सदस्य ज्योति स्वरूप श्रीवास्तव भी शंकर से खफा होकर उन पर कार्रवाई कराना चाहते थे पर वायसरॉय ने कोई कार्रवाई नहीं की। हिंदुस्तान टाइम्स में छपने वाले इन तीखे कार्टूनों के कारण शंकर को दिल्ली का शैतान कहा जाता था।
भारत में राजनैतिक कार्टून बनाने की परंपरा 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के काफी समय बाद शुरू हुई। बीसवीं सदी के पहले दशक में मुबंई के हिंदी पंच के नवरोज जी के अलावा एक और कार्टूनिस्ट एचए तलचेरकर थे जिन्होंने लॉर्ड कर्जन के शासनकाल में कई प्रमुख व्यक्तियों के कैरीकैचर और कार्टून बनाकर काफी मकबूलियत पाई थी। पहले विश्वयुद्ध से पहले एमए शर्मा शर्माज पोर्टफोलियो ऑफ ड्राइंग नाम से हास्य व्यंग्य चित्रों की पत्रिका निकालते थे। मॉन्टेग्यू चेम्स फोर्ड सुधारों पर शर्मा के कार्टूनों ने ऐसा तहलका मचाया कि रवींद्र नाथ टैगोर ने उन्हें बधाई देते हुए लिखा-“आपने जो विषय चुने हैं वे बड़े वैविध्यपूर्ण और दिलचस्प हैं।”
सत्तर के दशक में जब देश में कांग्रेस का निष्कंटक राज था तब सुधीर दर ने कांग्रेसी दिग्गज विद्याचरण शुक्ला पर एक तीखा कार्टून बनाया तो उन्हें फोन पर धमकी दी गई पर बात आगे नहीं बढ़ी।
अस्सी के दशक में यानी 29 मार्च 1987 को तमिल पत्रिका आनंद विगलन में एक कार्टून छपा। इस कार्टून में एक व्यक्ति दो नेताओं की ओर इशारा करते हुए कह रहा है-वो जो जेबकतरा सा दिखता है, विधायक है और जो चोर सा दिखता है मंत्री है। इस कार्टून को लेकर तमिलनाडु विधानसभा में ही नहीं देश भर में बवाल हुआ। मामला संसद तक पहुंचा। कार्टूनिस्ट पर विधायिका का अपमान करने का इलजाम लगाया गया। एक तरफ पूरी प्रेस थी तो दूसरी तरफ संसदीय संस्थाएं। बाद में कुछ अक्लमंद नेताओं के दखल के बाद मामला शांत हुआ।
सच दिखाने की कीमत कार्टूनिस्टों ने देश निकाला और अपनी जान देकर चुकाई
ब्रिटिश कलाकार 'विलियम-होगार्थ' (1697-1764) को यूरोप में सामान्यतः पहला व्यंग्य-चित्रकार माना जाता है। ब्रिटेन में होगार्थ ने ही व्यक्तियों के कैरीकेचर से आगे बढ़कर राजनीति को चित्रित करना शुरू किया। जबकि पहले कार्टून के नाम पर केवल व्यक्तियों के विरूपित चित्र बनाए जाते थे, जो इटली में शुरू हुए थे। इस तरह होगार्थ ही वह पहला ज्ञात कार्टूनिस्ट था जिसने कार्टून को राजनैतिक रंग दिया था।
दरअसल, व्यंग्य चित्र कला अपने मूल में ही प्रतिरोध की संस्कृति को समोए हुए है। पंद्रहवीं सदी में जब यूरोप कैथोलिक चर्च की जकड़न में फँसा था। राजनीति धार्मिक कठमुल्लाओं की दासी थी। समाज की कोई भी गतिविधि बिना चर्च की अनुमति के सम्पन्न नहीं हो सकती थी। इसी वक्त में यूरोप में चर्च ने सम्पत्तिशाली वर्ग को धन के बदले पापमोचन पत्र बेचकर पापमुक्त करना शुरू कर दिया था, यहाँ तक कि लोगों को ऊँचे दामों पर स्वर्ग का टिकट भी बेचना शुरू कर दिया था। तब जर्मनी में पाप मोचन पत्रों की बिक्री के खिलाफ पादरी मार्टिन लूथर के आंदोलन की खबर चार हफ्ते में ही सारे ईसाई जगत में फैल गई, जर्मनी के पीछे-पीछे दूसरे यूरोपीय देशों में भी धर्मसुधार आंदोलन शुरू हो गया। सभी जगह कैथोलिक चर्च का प्रभाव घटने लगा। लोग कैथोलिक पादरियों और धर्माधिकारियों की खिल्ली उड़ाने लगे।
पोप और धर्माधिकारियों को लेकर व्यंग्यचित्र बनने और सामने आने लगे। गधे के रूप में पोप नामक एक कार्टून सामने आया जिसके नीचे लिखा गया- "पोप बाइबिल की उससे बेहतर व्याख्या नहीं करता, जैसा गधा बांसुरी बजाता है या संगीत की स्वरलिपि को समझता है। विरोध की इससे बेहतर कलात्मक अभिव्यक्ति और क्या हो सकती है। इसी तरह स्पेन में गोया (1746-1828) ने खुद को एक प्रखर व्यंग्य-चित्रकार के रूप में स्थापित किया था। उसने तत्कालीन स्पेन नरेश फर्नेण्डो VII के कुछ ऐसे चित्र बनाए कि राजा उसका दुश्मन हो गया राजा के बार-बार उत्पीड़न के चलते वह स्पेन छोड़कर फ्रांस चला गया। जहाँ निर्वासन में उसकी मृत्यु हो गई। फ्रांस में ही एक कार्टूनिस्ट को लुई चौदहवें को उसकी रखैल के साथ चित्रित करने के कारण जिन्दा जला दिया गया था।
फ्रांस में 'ओनोर दौमिया' ने व्यंग्य चित्रकला को ललित कला की ऊँचाई दी थी, उसके द्वारा फ्रांस के राजा लुईस फिलिप को खून से सना एक नर-पशु चित्रित करने से राजा उससे नाखुश हो गया और दौमिया को जेल जाना पड़ा। जेल की सजा होने के बाद भी दौमिया लगातार अपने राजनैतिक व सामाजिक कार्टूनों के जरिए व्यवस्था पर प्रहार करते रहे। सख्त सेंसरशिप भी दौमिया को अपने समय की सच्चाई को तीखे कार्टूनों के रुप में पेश करने से रोक नहीं पाई। आज 'दौमिया' को राजनैतिक व्यंग्यचित्र कला का 'संरक्षक-संत' माना जाता है। समय बहुत आगे बढ़ गया है पर कार्टूनों से अपनी पोल खुल जाने से खौफजदा सत्ताएं उन्हें डराने के नए-नए तरीके इजाद कर रही हैं। पर कार्टूनिस्ट डरा नहीं है।
कार्टून के तंज को बर्दाश्त न कर सकने वाली नेताओं की पीढ़ी भी शायद आज एक वजह है कि अखबारों, खासकर हिंदी अखबारों से कार्टून गायब हो रहा है। अब जब सोशल मीडिया और वेबसाइटें कार्टून को वैकल्पिक मंच दे रही हैं तो वे भी सत्ता शक्तियों के निशाने पर हैं। कार्टून एक ऐसा चित्र है जिसे देखते ही रह व्यक्ति समझ जाता है कि उसमें क्या अभिव्यक्त किया गया है। फिर चाहे देखने वाला पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़। \
सत्ताएं हमेशा कलाओं और कलाकारों को अपना चारण-भाट बना देना चाहती है जो केवल उनका गुणगान करें। लेकिन जिस कार्टून कला का जन्म ही प्रतिरोध के एक औजार के रूप में हुआ हो वह सत्ता का वंदन तो नहीं कर सकती। अपने समय को दिल में उतर जाने वाले व्यंग्य चित्र के रुप में अभिव्यक्त करना ही तो कार्टून कला की आत्मा है। भला अपनी आत्मा को मारकर कार्टून कैसे जिंदा रह सकता है।
क्या प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक बाल्जाक की यह बात फिर से मौजूं नहीं हो गई है- "हमसे सुंदर चित्रों की माँग की जाती है, किन्तु उनके प्रेरणा इस समाज में है कहाँ? आपके घिनौने वस्त्र, आपकी अपरिपक्व क्रांतियाँ, आपका बातूनी बुर्जुआ, आपका मृत धर्म, आपकी निकृष्ट शक्ति, बिना सिंहासन के आपके बादशाह, ये क्या इतने काव्यात्मक हैं कि इनका चित्रण किया जाए? हम अधिक से अधिक इसका मखौल उड़ा सकते हैं।"
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