ब्राह्मण की मौत पर झल्लाए बादशाह अकबर ने बैठक में सबकी ऐसी-तैसी कर दी!

Photo Credit: अब्दुल मुजफ्फर जलालुददीन मोहम्मद अकबर बादशाह

अकबर डायरी ब्राह्मण की मौत पर झल्लाए बादशाह अकबर ने बैठक में सबकी ऐसी-तैसी कर दी!

NEWSMAN DESK

'गाइ है सु हिंदू खावो। मुसलमान सूअर खावो। नाजे हुडियार नांजे अैन खावो तो हुडियार कडावि विचि वाहो अर रांधो, जे हुडियार हुंता सूअर होइ तो हिंदू मुसलमान रलि खावो'। 

उस पूनम की चांदनी रात में अब्दुल मुजफ्फर जलालुददीन मोहम्मद अकबर बादशाह चीख रहे थे कि हिंदू  गाय खाये। मुसलमान सूअर खाये। जो नहीं खाये तो हुडियार (नर भेड़) को कड़ाही में चढ़ाओ और जो हुडियार से सूअर हो जाये तो हिंदू-मुसलमान मिलकर खायें। तो कुछ दैवी चमत्कार होगा।  शाजी जमां की ‘अकबर’ इसी द्वंद से शुरू होकर मुगल काल के एस झरोखे से इतिहास का दीदार करवाती है, जहां व्यवस्था और बादशाह दोनों के किस्से हैं।

झेलम नदी के किनारे लगे दरबार में अकबर ने ये फरमान जारी किया तो सिपहसालार से लेकर प्यादे तक सकते में आ गये। फिर उस बैठक में चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, सबके होश बादशाह के गुस्से को देखकर फाख्ता हो गए। कालांतर में कई इतिहासकारों ने अकबर के इस बयान की अपने-अपने तरीके से व्याख्या की है। किसी ने इसे हिंदू और मुसलमानों को साथ रखने की एक कवायद माना, तो किसी ने झल्लाहट में निकला एक शासनादेश। हालांकि इसे ज्यादा तजव्वो भी नहीं मिली।

वहीं कुछ इसे बादशाह का 'बाइपोलर डिसऑर्डर' भी मानते हैं। इस पर इतिहासकार शाजी जमां की किताब 'अकबर' में बहुत विस्तार से लिखा गया है। कई इतिहासकारों ने गहन अध्ययन करने के बाद इसे 'टेंपोरल एपिलेप्सी' भी माना है। टेंपोरल एपिलेप्सी ऐसी अवस्था है, जिसमें इंसान का दिमाग बिल्कुल रोशन हो जाता है और कई अनसुलझे मुद्दे सुलझाने की क्षमता बढ़ जाती है। इस सबके अलावा यह भी सच है कि अकबर को पढ़ने-लिखने में मुश्किल होती थी, जिस से जाहिर है कि उन्हें डिस्लेक्सिया भी था।

जो भी है, मुगल बादशाह जलालुददीन मोहम्मद अकबर पर विभिन्न साहित्य को पढ़कर ये समझा जा सकता है कि उन्होंने हिंदुस्तान पर शासन करते वक्त सभी धर्मो को बराबरी के चश्मे से देखा। इतना ही नहीं, अपने दादा बाबर और पिता हुमायूं की उस रणनीति को और भी पुख्ता जामा पहनाया, जिसमें उन्होंने हिंदुस्तान पर राज करते वक्त भारत की जातीय व्यवस्था को न छेड़ने की ताकीद की हुई थी। 

खैर, एक और उदाहरण देखिये जो इतिहासकार शाजी जमां की किताब 'अकबर' से लिया गया है। बादशाह सलामत अकबर को फतेहपुर सीकरी में एक बड़ा सदमा पहुंचा। मथुरा के काजी ने सल्तनत के शेख अब्दुन्नबी से एक ब्राहमण की शिकायत की- 'ब्राह्मण ने मस्जिद बनाने के लिये रखे गये सामान से एक मंदिर बना लिया है। जब रोका गया तो उस ब्राह्मण ने मुसलमानों को बुरा-भला कहा और पैगंबर की शान में गुस्ताखी की।' शेख अब्दुन्नबी के बुलाने पर भी वो ब्राह्मण नहीं आया तो अकबर ने अपने बेहद करीबी दरबारी राजा बीरबल को उस ब्राह्मण को लाने के लिये भेजा। ब्राह्मण को लाने के बाद शेख अबुल फजल ने बादशाह अकबर को बताया कि बेअदबी का इल्जाम सही है। अब कुछ उलेमा ने जुर्माना लगाने की बात की तो कुछ ने मौत का फरमान सुनाने की दरख्वास्त आगे बढ़ा दी। खुद शेख अब्दुन्नबी ने बादशाह से ब्राहमण को सजा-ए-मौत देने की बार-बार इजाजत मांगी। बादशाह अकबर ने इन तमाम मांगों पर कोई खास गौर किया हो, ऐसा नहीं लगता। अकबर ने ऐसी कोई इजाजत नहीं दी।

कुछ समय बीत जाने के बाद भी शेख अब्दुन्नबी बार-बार मथुरा के ब्राह्मण के लिये मौत की सजा मांगने लगे, तो शाही हरम में बेचैनी फैल गई। बादशाह अकबर की कई बेगम मथुरा के ब्राह्मण की रिहाई की मांग करने लगी। तैमूरी खानदान में हरम की बेगमात की बहुत सुनी जाती थी, लेकिन इस बार फरियाद का किसी अंजाम तक नहीं पहुंच रही थी। बादशाह सलामत शेख अब्दुन्नबी की बहुत इज्जत करते थे और उनकी बात को आसानी से टाल भी नहीं सकते थे। इधर उसकी बात मानना भी अकबर के लिये मुश्किल हो रहा था। आखिर शेख अब्दुन्नबी ने जब बार-बार पूछा, तो अकबर ने टालने के लिए कह दिया- 'हम आपको जवाब दे चुके हैं। आपको पता है। इसका शेख अब्दुन्नबी ने गलत मतलब निकाला और घर पहुंचते ही ब्राह्मण को मौत की सजा सुना दी।' 

ब्राह्मण की मौत से तूफान आ गया। अंदर हरम की बेगमात और बाहर दरबार के हिंदुओं ने कहा, आपने इन मुल्लों (ये ही शब्द दस्तावेजों में है) को इतना सर चढ़ा लिया है कि अब ये आपकी भी नहीं सुनतें और अपनी ताकत दिखाने के लिये आपके हुक्म के बगैर ही लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। इन बातों का बादशाह पर इतना गहरा असर हुआ कि उन्होंने फतेहपुर सीकरी में अनूप तलाव की महफिल में मुफ्तियों और कुछ और लोगों के सामने ये मसला रखा। दरबार में एक मुस्लिम विद्धान ने कहा कि पेश किये गये गवाहों से साबित होता है कि शेख अब्दुन्नबी ने गलत किया।

दरबार में एक और आवाज उठी। अजीब बात यह है कि शेख अब्दुन्नबी तो इमाम अबू हनीफा के खानदान के हैं और हनफी ये मानते हैं कि इस्लामी हुकूमत के मातहत कोई काफिर अगर पैगंबर के बारे में बदजबानी करता है, तो इसका ये मतलब नहीं कि मुसलमान काफिरों की हिफाजत की जिम्मेदारी से बरी हो गये हैं। हनफी फिक्ह की किताबों में इस पर बहुत कुछ लिखा गया है। समझ नहीं आता कि शेख अपने बुजुर्गों की बातों के खिलाफ कैसे गये?

एकाएक बादशाह सलामत ने दूर बैठे मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी को पास बुलाया और पूछा- 'आपने भी ये मसला सुना है कि एक शख्स के कत्ल के लिये निन्यानवे रिवायतें हों और उसकी रिहाई के लिये सिर्फ एक रिवायत हो, तो मुफ्ती को उस एक रिवायत को तरजीह देनी चाहिये।' 

मुल्ला बदायूंनी ने कहा- 'हां, वैसा ही है। अरबी में कहा गया है कि अगर शक शुब्हा हो तो बेशक सजाएं मुआफ हो जानी चाहिये।' मुल्ला बदायूंनी ने बादशाह की सहूलियत के लिये अपनी बात को अरबी के बाद फारसी में भी दोहराया। मुल्ला बदायूंनी बोले- 'इसमें कोई शक नहीं कि शेख एक बडे़ आलिम हैं। इस रिवायत के खिलाफ हुक्म देने के पीछे उनकी नजर में कोई वजह होगी।' बादशाह अकबर ने पूछा- 'क्या मकसद हो सकता है।' मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी ने जवाब दिया- 'आम लोगों के दिलो दिमाग से बगावत को खत्म करना।' मुल्ला बदायूंनी ने इस मामले में दलील के तौर पर काजी अयाज की एक रिवायत को पेश किया तो कुछ मुसलमान विद्वानों ने पलट कर कहा, काजी अयाज तो मालिकी थे। हनफियों के बीच उनके फैसलों का कोई वजन नहीं है। 

अब बादशाह सलामत ने मुल्ला बदायूंनी की तरफ देख कर कहा, क्या कहते हो इस पर? देर तक मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूंनी इस पर बहस करते रहे। अनूप तलाव पर मौजूद लोगों ने देखा कि गुस्से में बादशाह सलामत की मूंछे शेर की बाल की तरह फड़क रही हैं। बादशाह के पीछे से कई लोगों ने मुल्ला बदायूंनी को इशारा भी किया कि बसह छोडें। आखिर मुल्ला बदायूंनी की दलीलों को सुनते-सुनते बादशाह सलामत फट पडे़ और जोर से चिल्लाये 'बकवास कर रहे हो तुम'। सभा में सन्नाटा पसर गया था। जाहिर है बादशाह को ब्राह्मण को मौत के घाट उतारने की अब भी कोई वाजिब वजह नहीं मिली थी और वो इस बात से गुस्से में थे।

जलालुददीन मोहम्मद अकबर जब लौटे तो उनके सीने पर इन मजहबी झगड़ों का बहुत बोझ था। उनका सब्र का बांध टूट रहा था। उन्होंने तानसेन से सलाह मांगी। तानसेन ने बादशाह सलामत को कहा..     

धीरैं धीरैं मन, धीरैं ही सब कछु होय। 
धीरैं राज, धीरैं काज, धीरैं योग, धीरैं ध्यान, धीरैं सुख-समाज जोय।। 
धीरैं तीरथ, धीरैं ब्रत-संयम, धीरैं ही करै सतसंग। 
साधुन में बैठ मन को धीरैं राखौय। 
तानसेन कहैं सुनो साह अकबर, 
ऐती बड़ी बादशाही धीरैं ही तैं पाई सोय ।।

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  1. Kamaal ki kissagohi.... Keep going Manmeet..

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