गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
दुनिया के नक्शे पर भारत एक कमाल का मुल्क है! बतौर नागरिक मैं यदि अपने देश की सरकार से इस वक्त कुछ सीखना चाहूं, तो शायद मैं सीखूंगा- 'एक तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी'! ये एक कमाल का मुहावरा है, जिसे पढ़ाते हुए शायद मेरे शिक्षकों ने भी नहीं सोचा होगा कि एक दिन मुझे इस मुहावरे का प्रयोग अपने ही पेशे की 'दुर्दशा' को बयां करने के लिए करना होगा, न मैंने ही तब सोचा होगा। क्या सोचा होगा! शायद नहीं...
खैर, मैं यहां भारत में प्रेस फ्रीडम को लेकर एक अमेरिकी रिपोर्ट का जिक्र कर रहा हूं, जिसमें कहा गया है कि भारत सरकार के खिलाफ खबरें लिखने वाले मीडिया का दमन किया जा रहा है। इसके जवाब में भारत सरकार ने भी दो टूक कह दिया कि ये रिपोर्ट 'भ्रामक' है! चलिए होगी ये बात सरकार के लिए भ्रामक, लेकिन जब हम इसे तथ्यों की चाशनी में डुबोकर देखते हैं, तब ये बयान 'क्रिस्टल क्लियर' हो जाता है, जैसे कि वो दूसरा लोकप्रिय मुहावरा कहता है- 'दूध का दूध, पानी का पानी'।
असल में अमेरिका की ‘2020 कंट्री रिपोर्ट्स ऑन ह्यूमन राइट्स प्रेक्टिसेस’ रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में सरकार को लेकर आलोचनात्मक खबरें लिखने वाले मीडिया को सरकार या इसके नुमाइंदों द्वारा प्रताड़ित किया जा रहा है। इस रिपोर्ट में भारत के संबंध में लिखे गए कुल 68 पेज के चैप्टर में कहा गया है कि आम तौर पर भारत सरकार ने प्रेस फ्रीडम की जरूरत का समर्थन किया है, लेकिन ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहां सरकार या सरकार के करीबी लोगों ने ऑनलाइन ट्रोलिंग समेत विभिन्न तरीकों से आलोचनात्मक खबरें लिखने वाली मीडिया के दमन की कोशिशें की हैं।
इतना ही नहीं रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि प्रशासन ने मीडिया की आवाज को दबाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा, मानहानि, राजद्रोह, हेट स्पीच जैसे कानूनों को लादने के अलावा अदालत की अवमानना जैसे कानूनों का भी सहारा लिया है।
रिपोर्ट में सिद्धार्थ वरदराजन समेत गुजराती समाचार पोर्टल ‘फेस ऑफ द नेशन’ के संपादक धवल पटेल, स्क्रॉल.इन की कार्यकारी संपादक सुप्रिया शर्मा और दिल्ली दंगे को लेकर रिपोर्टिंग कर रहे कारवां पत्रिका के तीन पत्रकारों पर हुए हमले का भी जिक्र किया गया है। बता दें कि धवल पटेल ने पिछले साल गुजरात में बढ़ते कोरोना वायरस मामलों की आलोचना के कारण गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन का सुझाव देने वाली एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी और इसके लिए पिछले साल 11 मई को उनके खिलाफ राजद्रोह का मामला दर्ज किया गया था।
ऐसे ही सुप्रिया शर्मा के खिलाफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र में लॉकडाउन की स्थिति पर रिपोर्ट पब्लिश करने के लिए केस दर्ज किया गया था। हालांकि इस मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने पत्रकार को तत्काल राहत दे दी थी, लेकिन मामले में जांच करने की भी इजाजत दी।
अमेरिकी विदेश विभाग ने अपनी रिपोर्ट में भारत में एक दर्जन से अधिक मानवाधिकारों से जुड़े अहम मुद्दों को भी सूचीबद्ध किया है, जिनमें पुलिस द्वारा गैर न्यायिक हत्याओं समेत अवैध कत्ल, कुछ पुलिस और जेल अधिकारियों द्वारा प्रताड़ित करना, क्रूरता, अमानवीयता या अपमानजनक व्यवहार या सजा के मामले, सरकारी अधिकारियों द्वारा मनमानी गिरफ्तारियां और कुछ राज्यों में राजनीतिक कैदी प्रमुख हैं।
अब जैसे ही ये रिपोर्ट प्रकाशित हुई भारत की ओर से भी इस पर जवाब दिया गया और इस रिपोर्ट को ‘भ्रामक, गलत और अनुचित’ करार देकर इतिश्री कर ली गई। मेरे दिमाग में उथल-पुथल यहीं से शुरू हुई। इस रिपोर्ट में क्या भ्रामक है यह तो सरकार और उसके नुमांइदे ही बेहतर बता सकेंगे, लेकिन मेरे जेहन में ऐसे कई मामले कौंध गए, जब पत्रकारों को गलत ढंग से पुलिस उठा ले गई या फिर उन पर मुकदमे लाद दिए गए। हाल ही में कारवां से जुड़े पत्रकार मनदीप पूनिया का मामला, कुछ ऐसा ही है।
किसान आंदोलन की कवरेज के दौरान पिछले दिनों मनदीप को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था और इसकी सूचना तक मीडिया और मनदीप के परिवार, दोनों को काफी वक्त गुजरने के बाद मिल सकी। इस मामले में सरकार की खूब फजीहत भी हुई। इस फेहरिस्त में अकेले मनदीप ही नहीं हैं, बल्कि कई अन्य नाम जुड़ते चले जाते हैं। 26 जनवरी के दिन दिल्ली में किसान आंदोलन के दौरान हुई हिंसा के बाद आठ पत्रकारों के खिलाफ भी आपराधिक मुकदमे दर्ज किए गए थे। इनमें 'द वायर' के एडिटर-इन-चीफ सिद्धार्थ वरदराजन, 'कारवां' के एडिटर विनोद के जोश और राजदीप सरदेसाई जैसे नामी पत्रकार भी थे। ये वो नाम हैं, जिन्हें व्यापक चर्चा मिल सकी। अब आप अंदाजा लगाइए कि भारत के दूर-दूराज के इलाकों में काम कर रहे पत्रकारों की क्या स्थिति होगी! ये चौंकाने वाला तथ्य भी नहीं है कि जो पत्रकार लंबे समय से भारत में विश्वसनीय पत्रकारिता का चेहरा हैं, उन्हें सरकार ने निशाना बनाया है, बल्कि चौंकाने वाला तथ्य यह है कि प्रेस फ्रीडम को लेकर सरकार की मंशा और सवाल उठाने वाली रिपोर्ट्स को ही 'भ्रामक' बता दिया गया! एकदम 'खुल्ला खेल फर्रुखाबादी' वाला मसला यहां नजर आता है।
बीबीसी को दिए अपने बयान में तब सिद्धार्थ वरदराजन ने सवाल उठाते हुए कहा था- "क्या किसी मृत व्यक्ति के रिश्तेदार, अगर वे मौत के कारण, पोस्टमार्टम या पुलिस के बयान पर सवाल उठाते हैं, तब उनके बयानों को रिपोर्ट करना क्या मीडिया के लिए अपराध है?" इस बयान को पत्रकारों के खिलाफ दर्ज हुए मुकदमों के संदर्भ में देखें तो जवाब होगा, हां।
पत्रकारों को गायब करने की धमकी
चलिए एक पल के लिए ही सही हम अपनी सरकार पर आंख मूंदकर भरोसा भी कर लें, तब भी हम झूठे ही साबित होंगे। हाल ही में असम सरकार के एक मंत्री ने अलग-अलग समाचार चैनलों के दो पत्रकारों को ‘गायब’ करने की कथित तौर पर धमकी दी है, जिन्होंने मंत्री की पत्नी के विवादास्पद चुनावी भाषण की रिपोर्टिंग की थी। इसके तुरंत बाद कांग्रेस ने मांग की कि विधानसभा चुनाव के लिए उनकी उम्मीदवारी रद्द की जाए। ये शख्स भाजपा से ताल्लुक रखते हैं।
पुलिस के अनुसार, उनमें से एक पत्रकार ने मोरीगांव जिले के जगीरोड थाने में प्रदेश के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण राज्य मंत्री पीयूष हजारिका के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है, लेकिन इस घटना के अगले दिन तक भी प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई थी। असल में असमी समाचार चैनल 'प्रतिदिन टाइम्स' ने एक ऑडियो क्लिप प्रसारित किया था, जिसमें कथित तौर पर हजारिका को पत्रकार नजरूल इस्लाम से बातचीत करते सुना जा सकता है। इस बातचीत के दौरान मंत्री ने नजरूल और एक अन्य पत्रकार तुलसी को उनके घरों से घसीट कर बाहर निकालने और ‘गायब’ करने की धमकी दी थी।
ये कोई अकेला या पहला मामला भी नहीं है, बल्कि भारत में पत्रकारिता पर हमले लगातार बढ़ रहे हैं। ऐसे समय में अमेरिका का विदेश विभाग यदि प्रेस फ्रीडम को लेकर रिपोर्ट प्रकाशित कर चिंता जाहिर करता है, तो इसमें चौंकने वाली बात भी नहीं रह जाती। कायदे से इस मामले में किसी 'अच्छे लोकतांत्रिक मुल्क' का जवाब होना चाहिए था कि हम इस मामले की गंभीरता से जांच करेंगे और दोषियों पर कार्रवाई करेंगे! लेकिन ऐसा 'आदर्श स्टेट' कहीं होगा, ये भी मैं नहीं जानता। मेरी अपनी सीमाएं हैं, ख्वाबों को बुनने की भी।
इन तमाम मामलों को देंखे तो ऐसे में सवाल तो जरूर उठेंगे कि आखिर सरकार के लिए भारत में 'प्रेस फ्रीडम' का सवाल 'भ्रामक' क्यों रह जाता है! बहरहाल मैं इस महान मुल्क के नए-नए महान बनने की 'जुगत' में लगे नेता नरेन्द्र मोदी के उस बयान को याद कर राहत ही ले लेता हूं, जिसमें उन्होंने कहा था- 'यदि हम अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी नहीं दे सकते तो लोकतंत्र कायम नहीं रहेगा'। ये बयान उन्होंने 2014 में प्रधानमंत्री कार्यालय संभालने के तुरंत एक महीने बाद ही दिया था।
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