'डेडली' गर्तांग गली फिर हो गई है जीवित, चट्टानों पर पठानों की शानदार इंजीनियरिंग का है नमूना

'डेडली' गर्तांग गली फिर हो गई है जीवित, चट्टानों पर पठानों की शानदार इंजीनियरिंग का है नमूना

NEWSMAN DESK

रोमांच के शौकीन पर्यटकों के लिए खुशखबरी है। उत्तराखंड सरकार ने उत्तरकाशी जिले में तकरीबन 300 साल पहले निर्मित गर्तांग गली को आखिरकार दुरुस्त कर लिया है। रोमांच के साथ ही गर्तांग गली की सैर इतिहास की गलियों में लौटने का भी जरिया बनेगी। चट्टानों के बीच 250 से 300 मीटर गहरी खाई के ऊपर बना लकड़ी का यह रास्ता नेलांग घाटी में जाने वाले पर्यटकों को आकर्षित करता रहा है और अब भारत-तिब्बत व्यापार का यह पुराना मार्ग पर्यटकों के लिए खोल दिया गया है। गर्तांग गली न केवल एक दौर का इतिहास समेटे हुए हैं, बल्कि उच्च हिमालयी क्षेत्र में दुनिया के खतरनाक रास्तों में से भी एक है। 

पहाड़ों पर इंजीनियरिंग का नायाब नमूना गर्तांग गली की सीढ़ियां बीते कई सालों से क्षतिग्रस्त थी। कुछ वक्त पहले ही भारत सरकार ने इस इलाके में जाने के लिए इनरलाइन पास की अनिवार्यता को खत्म कर दिया था। इसके बाद उत्तराखंड सरकार ने इस रास्ते के जीर्णोद्धार का फैसला लिया था, जिसके बाद लोक निर्माण विभाग को 135 मीटर लंबे इस मार्ग को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी दी गई थी। तकरीबन 64 लाख रुपये खर्च कर सरकार ने अब इस रास्ते को तैयार करवा लिया है। बुधवार को उत्तरकाशी के डीएम मयूर दीक्षित ने गंगोत्री नेशनल पार्क के उप निदेशक व जिला पर्यटन विकास अधिकारी को गर्तांग गली को पर्यटकों के लिए खोलने के निर्देश दे दिए हैं।

इतिहास में झांकने का रास्ता भी है गर्तांग गली
गर्तांग गली एक दौर में भारत-तिब्बत के बीच व्यापारिक रिश्तों का अहम मार्ग होता था और इसके जरिए मसाले, ऊन और अन्य वस्तुओं को लेकर हिमालय के इस हिस्से के व्यापारी तिब्बत की ज्ञानिमा और ताकलाकोट मंडियों तक पहुंचते थे। 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध से पूर्व सीमांत क्षेत्र जादूंग और नेलांग के बाशिंदे इसी मार्ग के जरिए हर्षिल क्षेत्र तक पहुंचते थे। हालांकि, 1962 की जंग के बाद से ही ये दोनों गांव खाली करवा दिए गए थे।

17वीं शताब्दी (लगभग 300 साल पहले) पेशावर के पठानों की मदद से समुद्रतल से 11 हजार फीट की ऊंचाई पर उत्तरकाशी जिले की नेलांग घाटी में हिमालय की खड़ी चट्टानों को काटकर दुनिया का सबसे खतरनाक रास्ता तैयार किया गया था। नेलांग-जाडुंग के जाड़ समुदाय के एक सेठ ने व्यापारियों की मांग पर पेशावर के पठानों की मदद से गरतांग गली से एक सुगम मार्ग बनवाया था।

इस ट्रैक पर भैरोंघाटी के निकट खड़ी चट्टान वाले हिस्से में पेशावर के पठानों ने जाड़ गंगा के ऊपर चट्टान पर लकड़ी बिछाकर इस रास्ते को तैयार किया था। कई जगहों पर यह रास्ता इतना संकरा था कि इसका निर्माण चौंकाता है। तिब्बत के व्यापारी तथा सीमावर्ती नेलांग एवं जाढ़ूंग गांव के ग्रामीण इसी रास्ते से होकर आवाजाही करते थे। 1962 की लड़ाई के बाद तिब्बत के साथ व्यापार बंद होने के बाद से ही गर्तांग गली उपयोग से बाहर हो गई थी। बीते करीब छह दशक से उपयोग में न आने और देखरेख के अभाव में यह जर्जर हो चुकी थी।

साल 1962 से पूर्व भारत-तिब्बत के व्यापारी याक, घोड़ा-खच्चर एवं भेड़-बकरियों पर सामान लादकर इसी रास्ते से आते-जाते थे। गर्तांग गली हिमालय का सबसे पुराने व्यापारिक मार्ग में से एक है। 1962 में भारत-चीन युद्ध के दौरान गर्तांग गली ने सेना को भारत-तिब्बत सीमा तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाई थी। नेलांग घाटी सामरिक दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र है। वाइल्डलाइफ के लिहाज से भी ये जगह काफी मुफीद है।

साल 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद बने हालात के मद्देनजर भारत सरकार ने उत्तरकाशी के इनर लाइन क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था। साल 2015 में भारत के आम लोगों को नेलांग घाटी तक जाने की इजाजत भारत सरकार ने दी और तब से ही गर्तांग गली के साथ ही नेलांग वैली में भी पर्यटन की संभावनाओं को पंख लगने शुरू हुए थे। हालांकि, अब भी विदेशी सैलानी इस इलाके में नहीं जा सकते हैं।

नेलांग और जादुंग घाटियां बेशुमार खूबसूरती को समेटे हुई हैं। भारत-तिब्बत सीमा से लगा हुआ यह इलाका अपनी विशिष्ट भौगौलिक बनावट और उच्च हिमालयी बसावटों को करीब से देखने का अनुभव देता है। इस इलाके में पर्यटन गतिविधियों को बढ़ावा देकर उत्तराखंड सरकार एक शानदार डेस्टिनेशन को डेवलप करने की जद्दोजहद कर रही है, हालांकि अभी इस इलाके में कम ही टूरिस्ट पहुंचते हैं।

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