अलका कौशिक भारत की चर्चित ट्रेवल जर्नलिस्ट हैं। अलका भारत के कई हिस्सों के साथ ही कई अलग-अलग मुल्कों के अपने दिलचस्प यात्रा वृतांत को जनसत्ता, द ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और द बैटर इंडिया जैसे प्लेटफॉर्म के जरिये पाठकों के बीच रख चुकी हैं। कुल मिलाकर अलका घुमक्कड़ों की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है। हाल ही में उनकी एक किताब भी पब्लिश हुई है, 'घुमक्कड़ी दिल से'।
(भाग-1) आज का सफर और दिनों से बहुत अलग होने वाला है, ब्रह्ममुहूर्त में कैंप छोड़ दिया है और सवेरे 6-7 बजे तक लिपु दर्रे पर हर हाल में पहुंच जाना है। सुना है कि उस ऊंचे दर्रे पर 8 बजे के बाद तूफानी हवाएं चलने लगती हैं और देखते ही देखते सांय-सांय इतनी बढ़ जाती है कि फिर उस बुलंदी पर से गुजरना नामुमकिन हो जाता है। सदियों से यात्री दर्रों को पार करने के लिए आधी रात से यात्राएं शुरू करते आए हैं ताकि सवेरे की रोशनी बिखरने तक बेरहम ऊंचाइयों से पार पहुंच जाएं। हमें भी आईटीबीपी ने इसी गणित को समझाकर सवेरे 3 बजे कैंप से बाहर निकलवा ही दिया।
मेरे आगे 40-45 यात्रियों का कारवां है, उस गहरे अंधकार में जैसे रोषनियों का एक लंबा सिलसिला मेरे सामने चला जा रहा है, हरेक के पास टाॅर्च या हैडलैंप की रोशनी है, साथ चल रहे पोर्टर और पोनीवाले के टाॅर्च की रोशनी भी सामने के रास्ते पर लगातार गिर रही है। लगता है जैसे हम नहीं रोशनी का कोई कारवां आगे बढ़ा जा रहा है। उस अंधेरे में पूरी चुप्पी को भंग कर रही थी घोड़ों की पदचाप या दायीं ओर से लगातार सुनायी दे रहा पानी की धारा का शोर। घोड़ों के गले में लटकी घंटियां भी गुनगुना रही थीं। हम सबकी जुबान पर जैसे ताले लटके थे, जैसे हम ध्यानमग्न हो गए थे, सिर्फ चलना ही था, चलते ही जाना था...
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एकाएक कारवां रुक गया। अब यात्री और घोड़े अलग-अलग खड़े थे। 'मैडम जी, यहां उतरो ... कुछ देर रुककर चलेंगे। वरना हम जल्दी पहुंच जाएंगे लिपु पर .... और वहां रुकने जैसा कुछ नहीं होता ....' घोड़ेवाले की ताकीद पर उतरना ही था। उस स्तब्ध कर देने वाले सुनसान को भंग करती नदी की धारा का शोर अब और भी साफ सुनाई देने लगा था, बायीं तरफ एक टूटी-फूटी इमारत है, ठंड से बचने के लिए मैं तेजी से उसकी तरफ लपक ली हूं। इतनी ऊंचाई पर अब कोहरे ने ओस की बूंदों के रूप में बरसना शुरू कर दिया, ऐसे में बाहर खड़े रहकर खुद को भिगोने की बजाय अंदर घुसने में ही भलाई थी।
यह ज़ीरो प्वाइंट था, कभी आईटीबीपी का ठिकाना रहा होगा, लेकिन अब हमारे जैसे ठंड से ठिठुरते यात्रियों के लिए एक अदद छत बनकर रह गया है। घोड़े की पीठ से उतरने पर चैन मिला था या ठंडी हवाओं से कुछ बचाव मिलने पर आयी गर्मी का अहसास कि मैं कुछ ही देर में ऊंघने लगी। बिना यह परवाह किए कि मैं कहां हूं, मेरे आस-पास कौन लोग हैं और वो कैसे हैं। बहरहाल, ये सवाल बेमायने थे उस रोज़।
अब यात्रियों में खुसर-पुसर बढ़ गई है, सभी को लग रहा है कि अगर यहां रुकवाना ही था तब कैंप में ही रहने देते हमें! कम-से-कम वहां ऐसी तकलीफ तो नहीं थी, लेकिन आईटीबीपी का भी अपना हिसाब-किताब है। उन्हें हर हाल में हमें सवेरे छह-सात बजे तक लिपु टाॅप पर पहुंचाना है, तभी कैलाश परिक्रमा कर तीर्थयात्रियों का पिछला दल तिब्बत से लौट रहा होगा। दर्रे पर उनके इस ओर आते-आते हमें उस ओर उतरना शुरू कर देना है। ठीक उसी समय चीनी इमीग्रेशन अधिकारी भी दर्रे पर आते हैं, इधर से जाने वाले यात्रियों के पासपोर्ट देखकर तिब्बत में दाखिल होने की इजाज़त ये लोग ही देते हैं। यानी यह पूरी प्रक्रिया एक निष्चित समय के अंदर पूरी कर लेनी होती है, क्योंकि फिर चीनी अधिकारी लौट जाते हैं और उधर टाॅप पर जंगली हवाओं का दबदबा बढ़ने लगता है।
एक बार फिर हम घोड़ों की पीठ पर लटक चुके हैं, रोशनी का सफर फिर शुरू हो गया है। पहाड़ी ऊंचाइयों-ढलानों पर ऊपर-नीचे पड़ रही हैडलैंप की रोशनी ने जैसे कोई राग सुनाया हो। इस बीच, इस रुकने और रुककर चलने से एक तस्वीर जो बदली वो यह कि हम कारवां में काफी आगे हो गए हैं, हमारा घोड़ेवाला युवक बहुत फुर्तीला है, वो तेजी से घोड़े को हांककर ऐसे ले जा रहा है, जैसे अब बची हुई दूरी उड़कर पार करने का कोई करार कर चुका है। कितने ही दूसरे घोड़ों को पछाड़कर हम बहुत आगे निकल आए हैं।
एकाएक पीछे मुड़कर अपने साथियों को देखने की कोशिश में हूं, अंधेरे में आंखे गढ़ाकर देखने का भी कोई फायदा नहीं हुआ। अलबत्ता, अब रोशनियों का सिलसिला दूर पीछे पहाड़ी के मोड़ तक दिखाई दे रहा है, ऊपर-नीचे हिचकोले खाती, तैरती, उठती-गिरती रोशनी ... यही नज़ारा सामने भी है। एक कतार है रोशनी की जो बढ़ी चली जा रही है, अंधेरे को चीरती, पता नहीं किससे-कहां मिलने को आतुर .... और बीच-बीच में उस सन्नाटे को तोड़ती घोड़े के मालिकों की आवाज।
(लिपुलेख दर्रे को पार करते यात्री)
हम बड़ी देर से बायीं ओर की पहाड़ी से सटकर चले आ रहे हैं, फिर पत्थरों पर से गुजरती धार को मोड़ पर पार करने के बाद कुछ चौड़े रास्ते पर आ पहुंचे हैं। अब चट्टानी पत्थरों पर बीच-बीच में चांदनी के गुच्छे से बिखरे दिखने लगे हैं। कुछ छोटे-छोटे फूल भी खिले हैं मगर चांदी की उस घास को देखकर मैं हैरत में हूं। अगले एकाध किलोमीटर तक उन चांदी की लकीरों को देखकर धीरे-धीरे अचरज भी खत्म होने लगा है, पोर्टर से पूछती हूं उसके बारे में। 'यह राक्षस घास है' और इतना कहते-कहते उसने अपने पर्स में रखी वैसी ही घास का एक टुकड़ा मुझे पकड़ा दिया है। 'हम पहाड़ों के लोग हमेशा इस घास को अपने पास रखते हैं, जेब में, पर्स में, झोले में ......... यह हमें बुरी आत्माओं से बचाती है। भूत-प्रेत नहीं लगते उन्हें जिनके पास यह होती है ....'
पहाड़ के सीधे-सरल, भोले-भाले विश्वास को इतने करीब से देखना सुखद अहसास से भर जाता है। बायीं ओर दूर एक हल्की रोशनी की टिमटिमाहट दिखने लगी है। दायीं ओर अभी भी गहरा अंधेरा ही है और कहीं दूर से आती पानी की रवानी का शोर बता रहा है कि नीचे गहरा खड्ड या खाई है। कलाई पर घड़ी बंधी है मगर उस तक पहुंचने के लिए मुझे एक-एक कर कपड़ों की पूरी छह परतों को हटाना पड़ेगा, और दाएं हाथ को इस काम के लिए खाली करना भी क्या किसी चुनौती से कम था!
पोनीवाले को घोड़े की रफ्तार धीमी करने को कहा है ताकि बिना किसी डर के तसल्ली से समय देख सकूं! सवेरे के पांच बज चुके हैं, और बायीं ओर का उजाला उस रोज़ के सूरज के उग आने की मुनादी पीट रहा है। दूर जैसे अंधेरे की चादर धीमे-धीमे सिमटने लगी और उजाले ने हाथ बढ़ाकर हमारी नज़दीकी पहाड़ी को भी छू लिया है।
अब रास्ता भी साफ दिखायी देने लगा है। अभी तक रास्ते का अनुमान सिर्फ कानों से लगाते आए हैं, लेकिन अब मालूम हुआ कि जिस पगडंडी पर हम बेखौफ बढ़े चले जा रहे हैं वो मुश्किल से दो फुट चौड़ी भी नहीं है! उसी पर घोड़ा, घोड़े को हांकने वाला। उस संकरे पथरीले रास्ते पर दायीं तरफ एक तीखी ढलान है जो अगर ज़रा भी चूक हुई तो नीचे खाई में बह रही धार में ले जाकर सीधे पटकेगी। नज़रें फेर ली हैं मैंने इस तरफ से, घोड़े की पीठ पर और कसकर बैठ गई हूं ... घबराहट की उस घड़ी में कोई मंत्र भी याद नहीं आया, जिसके सहारे उस खतरे को पार करती। अब सिर्फ सूर्योदय का ही सहारा है, मगर पता नहीं किस पहाड़ी की किस ओट में सूरज की सवारी अटक गई है, पूरे आकाश में सलेटीपन दिख रहा है, वो गुलाबी आकाश या लाली यहां नहीं है, जिसे हम अपने आकाश में देखने के आदी हैं।
कुछ देर में इस राज़ पर से भी परदा उठ गया है .... आसमान पर बादलों की मोटी परत चढ़ी है। सूरज दिखे भी तो कहां से? ओह, कहीं बरसात न होने लगे अब, दर्रे के नज़दीक पहुंच रहे हैं हम, यही कोई एक किलोमीटर दूर होंगे अपनी मंज़िल से। और अगर बारिश ने अपना रंग दिखाया तो?
पहाड़ों में और वो भी दर्रों के आसपास एक किलोमीटर कब सचमुच का एक किलोमीटर होता है? अभी इस दूरी को नापने में भी एक घंटा लगेगा, या कुछ ज्यादा भी लग सकता है, क्योंकि जितनी हिम्मत बटोरकर सवेरे निकले थे वो कभी की निपट चुकी है, अब तो पोनीवाले और पोर्टर की मदद का सहारा है। आईटीबीपी के जवानों की हौंसला अफज़ाई है वरना खुद का तो हाल पूरी तरह बेहाल है! फेफड़ों ने भी अपनी पूरी जान लगा दी है, लेकिन सांस है कि कहीं अटक-अटक जाती है। ठंड से हौसले पस्त हैं, किसी से कुछ बोलते नहीं बन रहा। लगता है जैसे किसी सम्मोहनवश हम आगे बढ़ रहे थे, किसी और ही शक्ति से खिंचे चले जा रहे थे, किसी और ही के आकर्षण से हमारे पैर उठ रहे थे।
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साढ़े छह बजते-बजते हम दर्रे पर पहुंच चुके थे। यहां बोलने की रही-सही ताकत भी जाती रही थी, बदन पर जितनी भी परतों को लादकर यहां तक आए थे, वो नाकाम लग रही थीं। ठंड से किटकिटाते दांत, अकड़ता बदन, हिलते हाथ-पैर और उस पर कंपा देने वाली उस सर्द बुलंदी पर बिना किसी छत-दीवार के जाने कब तक खड़े रहने की मजबूरी बहुत उबाऊ थी। जब तक चीनी तरफ से नीचे से भारतीय यात्रियों का दल नहीं लौटेगा तब तक हमें दर्रे की इस खतरनाक ऊंचाई पर यों ही इंतज़ार करना होगा। धीरे-धीरे हिम्मत जुटाकर दूसरे यात्रियों का हाल-चाल मालूम करने आगे बढ़ती हूं।
हैरत में हूं कि हर किसी का हाल कमोबेश मुझ जैसा ही है, किसी-किसी महिला यात्री को तो रोते भी देखा, आंसुओं से ज़ार-ज़ार... जैसे खुद से खुद ही शिकायत कर रही हो कि क्यों यहां आ गयी? ठंड से हलकान जानकी की हालत औरों से ज्यादा खराब है, शायद उसने गरम कपड़ों से खुद को ढकने में थोड़ी ढिलाई की है। बहरहाल, आईटीबीपी के डाॅक्टर उसके हाथ-पैर रगड़कर उसकी देखभाल में जुटे हैं। उसे कितना सुकून मिला मालूम नहीं, मगर आईटीबीपी की मुस्तैदी पर मैं सिर्फ नतमस्तक हूं।
जारी है...
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