डॉ. राजीव रंजन प्रसाद बीएचयू से फंक्शनल हिंदी पत्रकारिता से पोस्ट ग्रेजुएट हैं। भाषा, साइकोलॉजी, सिनेमा और पत्रकारिता लेखन में गहरी रुचि रखने के चलते राजीव के लेख, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित होते रहे हैं। फिलवक्त वह राजीव गांधी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। अरुणाचली लोक-साहित्य और मीडिया पर वह अपने कॉलम 'उत्तर-पूर्व' के जरिये वह 'हिलांश' पर नियमित तौर पर लिखेंगे!
(भाग-2) रात को बारिश थी। हवा में असर अब तक कायम था। पहाड़ी इलाके में वाहन की गति धीमी होती है, लेकिन सड़क अच्छी होने पर चालक अपने आपे में बहुत तेज चलाते हैं। बारिश के बाद अरुणाचल प्रदेश की खूबसूरती में चार चांद लग जाते हैं। प्रकृति और उसकी हरीतिमा हिलोरें मारने लगती हैं। कई बार मौसम के सुहावने होने का असर मेरी जीभ तक पर होता है। अक्सर मुझे चाय की तलब रहती है। इस समय ठंड के नाते जीभ के इरादे और ‘डिमांडिंग’ दिखे। एक जगह पूछ लिया। लाल चाय मिल रही थी। हम रूके। फोटू-सोटू हुआ। आंख की तस्वीर कैमरे के लेंस पर नहीं उकेरी जा सकती है। अरुणाचल प्रदेश में तो हरगिज़ नहीं।
यह राज्य बरसाती दिनों में पहाड़ी बादलों से घिरा होता है। सड़क-मार्ग से चलिए, तो मेघ सैलाब बन तैरते नज़र आएंगे। इन नज़रों का गवाह होना आनंददायक होता है, लेकिन यहां यह रोज की बात है। बारिश हुई नहीं, थमी नहीं कि घने बादलों का कारंवा उग आता है। जोराम यालाम अरुणाचल प्रदेश की हिन्दी में लिखने वाली लेखिका हैं। वह कहती हैं- 'बढ़ाए कोई हाथ बादलों से, कि गिर न जाऊं मैं कहीं/उग आए पंख कोई कंधो पर, तैर जाऊं बादलों के पार...'। जोराम यालाम कमाल का लिखती हैं।
जोराम की आवाज में खनक हैं और वह लिखती भी गजब हैं। उनका एक उपन्यास है- 'जंगली फूल'। अरुणाचल कभी आएं, तो इस किताब को साथ लाएं। यात्रा भी करते रहें और संग-साथ पढ़े भी। आप अचरज करेंगे। यह उपन्यास सवाल बो देती है आपके दिमाग में और ऐसे में इन सवालों के पकने तक यात्री अरुणाचल प्रदेश से फ़ारिग या फुरसत नहीं पा पाता है।
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मैं पूरे होशोहवाश में यात्रा पर निकला हूं। अरुणाचल प्रदेश के सबसे पुराने शहर पासीघाट में कल ठहरे थे। आज सुबह-सुबह निकलना हुआ। आगे दाम्बुक और बोमजिर होते हुए रोइंग जाना है। यह यात्रा बेमकसद नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि इन दिनों दाम्बुक में विश्वप्रसिद्ध ‘नारंगी फेस्टीवल’ मनाया जा रहा है और उसमें हमें शामिल होना है। मौका तो ‘आरान’ त्योहार का भी नहीं है कि आप तरह-तरह के मांसाहारी आहार का स्वाद चखें।
'आरान' आदी जनजाति का ‘हंटिंग फेस्टिवल’ है। यह प्रायः मार्च महीने में मनाया जाता है। इस त्योहार में तरह-तरह के मांसाहारी व्यंजन बनाए जाते हैं, जिसका जायका के बारे में वही बता सकता है जो कभी इस अवसर में सहभागी बना है। फिर क्यों कर हम यात्रा में? दिमाग में जोराम यालाम के ‘जंगली फूल’ की पंक्तियां दिमाग के सिराहने आ बैठती हैं- 'अपने को तलाशने के लिए भी तो कुछ करना होगा। चलकर तो देखना होगा न! लेकिन कहां चले? कैसे चले? किसको पाने चले? अपने को पाना क्या होता है? यह खालीपन क्या कभी खत्म होगा? उसके बाद फिर क्या होगा?'
यह और की तलाश अरुणाचल प्रदेश का लोक-साहित्य है, जो बहुलांश ओझल हैं, दृष्टि से गायब। कोई चीज अज्ञात हो, तो मामला समझ में आता है। पर ये तो विराजमान हैं। सोलह आना मौजूद है। ये अरुणाचली लोक-साहित्य अपनी राग- रागनियों के साथ इस प्रदेश की शोभा बढ़ाती हैं। यहां की आदिम भाषाई संस्कृति में लोक-साहित्य की असीम उपलब्धता है। समय के साथ बदलाव के मुहाने पर खड़ा याकि उसकी मार झेल रहा वर्तमान समाज लोक-साहित्य से दूर होता जा रहा है। पुरानी पीढ़ियां जिनके वाचिक संसार में पुरखों की अमूल्य ज्ञान-सम्पदा है, अब उनकी मृत्यु के साथ ही मटियामेट हो जा रही हैं। ऐसे में इनके बचाव और सुरक्षा के उपाय क्या हो, सोचा जा रहा है।
हम अपनी यात्रा में इस उद्देश्य को साथ लिए चल रहे हैं कि ‘उत्तर-पूर्व’ का यह प्रदेश अपने लोक-साहित्य को यदि बचा सकता है या कि उसे संरक्षित कर सकता है, तो आखिर कौन-कौन आदर्श विकल्प उसके सामने है। यह बात जनवरी की है। पासीघाट से आगे दस दिन की यात्रा थी। हमारा ध्येय है कि अरुणाचली लोक-साहित्य सबकी निगाहबानी में आए। राष्ट्रीय मीडिया अरुणाचल प्रदेश की जनजातीय परम्परा, संस्कृति, समाज, आस्था, विश्वास, कला, शिल्प, दस्तकारी, औषधी, स्थापत्य, लोक-साहित्य आदि से पूरे देश को परिचित करा सके। लोगबाग रूचि जगे और इस प्रदेश की मान-प्रतिष्ठा हर एक भारतवासी की नज़रों में बढ़े, जिसे लेकर मन में कोई ग्रंथि तो नहीं लेकिन एक चिंता अवश्य रहती है।
आपको बता दें कि पासीघाट अरुणाचल प्रदेश का सबसे पुराना शहर है। 1911 ई. में इसकी खोज हुई यानी असम से यहां आवाजाही आरंभ हुई। यह समय भारतीय इतिहास में ‘आबोर-आंग्लो युद्ध’ का है। अरुणाचल प्रदेश के शूरवीर स्वतन्त्रता-सेनानी मातमुर जामोह ने एक ब्रिटिश अधिकारी सहित 44 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। मातमुर जामोह ऐतिहासिक औपन्यासिक पात्र हैं। इस बारे में अरुणाचल प्रदेश के पहले हिन्दी लेखक जुमसी सिराम ने लिखा है। जुमसी सिराम ‘नीनो’ के उपन्यास का शीर्षक ही है- 'मातमुर जामोह'।
उत्तर-पूर्व के तत्कालीन भूगोल, राजनीतिक स्थिति और आदिवासी चेतना की वस्तुस्थिति और मुखर अभिव्यक्ति इस उपन्यास में दर्ज है। यह पठनीय उपन्यास है जिसे अरुणाचल प्रदेश के आदिम इतिहास-बोध को जानने-समझने की दृष्टि से अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
पासीघाट का क्षेत्र आदी जनजाति का है। यह ईस्ट सियाङ जिले का मुख्यालय है। आगे आलो जाना है। आलो वेस्ट सियाङ जिले का हेडक्वार्टर है। यहां मुख्य रूप से गालो जनजाति निवास करती हैं। ये दोनों जनजातियां ‘तानी’ पुरखा-वंश यानी क्लान से आती हैं। इस क्लान से मुख्यतः पांच जनजातियों की उत्पत्ति मानी गई है- न्यीशी, आदी, गालो, तागिन और आपातानी। इन जातियों में त्योहार कृषि आधारित अधिक हैं। त्योहार के दिनों में अरुणाचल प्रदेश का वातावरण देखते बनता है। यहां के लोगों में उत्सवधर्मी सामूहिकता जबर्दस्त है। त्योहार के दौरान सामूहिक भोज की परम्परा है।
इस दौरान अरुणाचल प्रदेश की लोक-संस्कृति का अद्भुत दर्शन होता है। यदि आपकी लोक-साहित्य में रुचि हो या अरुणाचली लोक-साहित्य का आस्वाद लेना चाहते हैं, तो यहां त्योहार के दिनों में आना और यहां ठहरना फायदेमंद हो सकता है। फरवरी महीने में न्योकुम त्योहार मनाए जाते हैं। यह न्यीशी जनजाति का त्योहार है। मोपिन गालो जनजाति का त्योहार है जो अप्रैल महीने में मनाए जाते हैं। इसी तरह आदी जनजाति का मुख्य त्योहार सोलुङ है जो सितम्बर महीने में मनाया जाता है। इन त्योहारों में प्रकृति की उपासना होती है। चूंकि कृषि यहां के लोगों की मुख्य पेशा है, इसलिए अधिसंख्य त्योहारों का सीधा-सम्बन्ध खेती-बारी से है।
अरुणाचल प्रदेश में धान खेती मुख्य उपज है। यहां के खेत हर जगह पहाड़ी हैं, ऐसा भी नहीं है। कई पहाड़ी-घाटियों के बीच खूब विस्तृत सपाट जमीन होते हैं। ऐसे जगहों पर अरुणाचली किसान पानी खेती करते हैं। दूसरे प्रकार की खेती है- झूम खेती। यह सीढ़ीनुमा जगहों पर या जंगलों को साफ कर उनके ढाल पर की जाती हैं। मार्च से मई महीने में अरुणाचल का रंग सुनहरा हो जाते हैं, जो देखते बनता है।
अरुणाचल प्रदेश का एक स्थानीय त्योहार है- न्योकुम। इस त्योहार में ‘रिकमपादा’ गीत सुनाई पड़ते हैं। संगीत के साथ न्यीशी स्त्रियां सामूहिक ढंग से गाती हैं, तो उनकी पंक्तियों में ओज-नाद-लय देखते बनता है। ‘रिकाम वो, पादा ङो, आइङो जा.... रिनियाम ङो, यामी वो, आइङो जा...’ न्यीशी स्त्री का यह स्वर अनुपम है। यहां शील-संकोच सामाजिक नहीं, बल्कि आत्मिक है। आदिवासी लोकगीत समूह में गाए जाते हैं। इस घड़ी आप गाते ही थिरकने लगते हैं। पूरी टोली की हरकत करती देहभाषा में इस गीत का स्वरमान लाजवाब मालूम देता है।
इन गीतों में गहरी संवेदना है। परम्परा की पुरखाई स्मृतियां हैं। भविष्य की शुभकामना है, तो वर्तमान के प्रति उत्साह और उमंग अप्रतिम। न्योकुम त्योहार में ‘रिकमपादा’ गीत जरूर सुनने को मिलते हैं। इसे स्त्री और पुरुष दोनों गाते हैं। वैसे तो दोनों के लिए गीत की अलग-अलग पंक्तियां होती हैं, लेकिन जब वे संग-साथ मिलजुल कर गाते और नृत्य करते हैं, तो समां बंध जाती है। देखने और सुनने वाले मुग्ध हो जाते हैं।
‘रिकमपादा’ गीत के बोल मीठे और सुनने में अतिशय मधुर हैं। साथ में स्त्रियों और पुरुषों की टोली हो तो क्या ही कहने! लय खुद-ब-खुद जम जाता है। स्वर अपने आप फूट पड़ते हैं। प्रकृति संग-संग गाने लगती है। मानुष स्वर और प्रकृति सहकार भाव से एकाकार हो लेते हैं। सुध-बुध खोने जैसी बात नहीं है, लेकिन इन गीतों में आनंद बहुत है। साहित्य में शायद इसे ही ‘रस-निष्पत्ति’ कहते हैं।
फिलहाल हम आस्वाद से घिरे हैं। पासीघाट से निकलते ही सियाङ नदी है। यहां ‘आई लव पासीघाट’ लिखा मिलेगा। हम रूकते नहीं। पासीघाट हमारे आवाजाही के केन्द्र में है। तय हुआ वापसी के दिन यानी पासीघाट छोड़ते समय इस जगह से भेंटवार्ता होगी! बाकी साथियों ने कहा- 'होगा, क..क..'। यहां हुंकारी या हामी में ये स्वर अधिक सुनने को मिलते हैं। यहां की कुछ शब्दावली दिलचस्प है। जैसे कोई ‘नामो’ कहे, तो नरेन्द्र मोदी समझ लेना ग़लत होगा। यहां ‘नामो’ मतलब नीचे उतरना होता है। इसी तरह ‘बैठ’ शब्द का संगत अर्थ रहना अथवा बसना होता है। हर भाषा की अपनी खूबसूरती है।
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उनके प्रयोग-व्यवहार के तौर-तरीके हैं। जल्द ही नदियों का झुंड दिखा। अचरज से पूछा-वही नदी है? जवाब मिला, नहीं! देखते-देखते संतरे के बागान आगे-पीछे होने लगते हैं। कोई पहरेदार नहीं, सिर्फ नारंगी से भरे पड़े हैं। साथी बताते हैं कि आगे दाम्बुक पहुंचने पर वहां के संतरे के स्वाद आप चखेंगे, तो मानेंगे कि स्वाद असल में क्या चीज होती है!
इसी क्षण जमुना बीनी जो कि यहाँ की चर्चित कवयित्री और लेखिका हैं, उनका काव्य-संग्रह ‘जब आदिवासी गाता है’ मेरे जेहन में कौंध उठता है- 'तो जब/आदिवासी गाता है/तो मन में/सिहरन क्योंकर पैदा होता है/उन अस्फुट/ध्वनियों को सुन/क्यों रोना आता है/क्यों अतीत/वर्तमान हो जाता है/और/वर्तमान अतीत।/जब आदिवासी/गाता है/तो नदी गाती है/पेड़ गाता है/पक्षी गाती है/सूरज गाता है/चन्द्रमा गाती है/मेघ गाता है/वर्षा गाती है/प्रकृति का/कोना-कोना गाती है।'
हम यात्रा में आगे बढ़ रहे हैं। नदियों का कारवां दृष्टि के कैनवस में उकेरता जा रहा है। पृष्ठभूमि में पहाड़ों की कलाकृतियां है, तो वन-सम्पदा का जबर्दस्त कोठार। बीच-बीच में अरुणाचली बस्तियों का अपना लोक-संसार है, जिसमें सबकुछ सहज और साधारण है, लेकिन अन्दर से अभूतपूर्व और अविस्मरणीय। इस यात्री की आंख में अरुणाचल की अपनी जीवंत स्मृतियां चमक उठी है। मन संवेदित हैं जिसकी पुकार हर एक अरुणाचली के जन-मन की अभिव्यक्ति है, उनके अंतस का सच है।
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