अंटार्कटिका में लॉकडाउन और 224 घंटों की वीरान डरावनी जिंदगी

अंटार्कटिकाअंटार्कटिका में लॉकडाउन और 224 घंटों की वीरान डरावनी जिंदगी

गोविंद पंत राजू

गोविंद पंत राजू साहब की पत्रकारिता की यात्रा 25 से भी ज्यादा साल पुरानी है। उनके लेखन का सफर पहाड़ों से मैदानों तक रहा है। साल 1991-92 के ग्यारहवें भारतीय अंटार्कटिका अभियान दल में उन्हें कला और मानविकी के क्षेत्र से शामिल होने और अंटार्कटिका की यात्रा करने का मौका मिला। इस उपलब्धि के साथ वो भारत की ओर से अंटार्कटिका की यात्रा करने वाले पहले भारतीय पत्रकार भी बन गये। राजू साहब ने लंबे समय तक 'आज तक' के साथ काम किया है।‘ ‘हिलांश’ पर उनकी श्रृंखला ‘अंटार्कटिका’ को पेश करते हुए हमें खुशी हो रही है।

हमारे कानों में पड़ रही हजारों मधुमक्खियों के एक साथ गुनगुनाने की सी आवाजें लगातार तेज होती जा रहीं थीं, लेकिन उनसे हमें आनंद के बजाय भय की अनुभूति हो रही थी। न जाने क्यों हमें यह अंदेशा होने लगा था कि क्रमशः तीखी होती जा रही यह गूंज हमारे लिए किसी बड़ी मुश्किल की चेतावनी लेकर आ रही है।

लगभग 140 लाख वर्ग किमी क्षेत्रफल में फैले, सबसे ठन्डे, बर्फ से ढंके पृथ्वी के सातवें महाद्वीप अंटार्कटिका के एक अनजान से कोने में लगभग डेढ़ मीटर चौड़े, तीन मीटर लम्बे और डेढ़ मीटर ऊँचे धातु के एक बख्तरबंद से पोर्टा कंबिन में किसी तरह सिकुड़ कर अटाये हम तीनों के चेहरों पर उस डरावने ठन्डे तूफ़ान की छाया साफ़ देखी जा सकती थी, जो हमारे हमारे इर्दगिर्द कई सौ किलोमीटर के इलाके को बुरी तरह झकझोर रहा था। हम उस वक़्त जिस जगह पर थे वहां से पचासों किलोमीटर तक इंसान या किसी अन्य प्राणी का कोई नामोनिशान तक नहीं था। चारों तरफ शुष्क बर्फ का जबर्दस्त बवंडर था और उस बवंडर के बीच भारत के पहले अंटार्कटिक अनुसन्धान केंद्र दक्षिण गंगोत्री अथवा डी जी के बिलकुल करीब हम, आने वाली कठिन परिस्थितियों बेखबर मौजूदा तूफ़ान की भयावहता से मुकाबला करने के लिए अपने अपने मन में खुद को तैयार कर रहे थे।

तब हम ‘लॉकडाउन’ या ‘क्वारेन्टीन’ जैसे शब्दों से तो परिचित नहीं थे, मगर जब आज पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है कि अंटार्कटिका के भीषण एकांत और नीरवता के बीच प्रचंड हिम तूफ़ान से लड़ते हुए जो लगभग 224 घण्टे हमने बिताये थे वो किसी घनघोर लॉकडाउन से भी कई गुना त्रासद और जानलेवा थे। इन 224 घंटों में हर पल हमने मृत्यु को बहुत निकट से देखा और भोगा था और सबसे अलग-थलग पड़ जाने की पीड़ा का भी बहुत गहराई से अनुभव किया था।

साल 1991-92 के ग्यारहवें भारतीय अंटार्कटिका अभियान दल में कला और मानविकी के क्षेत्र से पहले व्यक्ति के रूप में चयनित होने के कारण, मैं उस वक्त दक्षिण गंगोत्री के निकट बनाये गए अस्थाई केंद्र में मौजूद था। यह अस्थाई केंद्र अंटार्कटिका के एक क्षेत्र विशेष के भू-चुंबकीय अध्ययन के लिए बना था। इस अध्ययन में उस समय अंटार्कटिका की इण्डिया बे में खड़े भारतीय अभियान दल को अंटार्कटिका ले जाने वाले विशेष प्रकार के जलयान एमवी थुलेलैंड, भारत के मुख्य केंद्र मैत्री और दक्षिण गंगोत्री केंद्र के बीच के त्रिभुजाकार क्षेत्र की भू-चुम्कीय गतिविधियों को मापा जाना था। लेकिन दक्षिण गंगोत्री केंद्र को असुरक्षित मानकर फरवरी 1989 में हमेशा के लिए छोड़ दिया गया था। इसलिए उसके निकट हमारे लिए अस्थाई केंद्र बनाया गया था। मेरे पर्वतारोहण के अनुभव को देखते हुए अभियान के नेता डाॅ. शरदीन्दु मुखर्जी ने मुझे उस केंद्र का लीडर मनोनीत किया था, हालांकि मेरे साथ वहां भारतीय भू-चुंबकत्व संस्थान के एक ही वैज्ञानिक को रहना था।

हमारे पास भू-चुंबकीय अंकन के लिए एक विशेष उपकरण था, उसे चलाने के लिए ख़ास तरह की बैटरी और उनको चार्ज करने के लिए एक छोटा ग्रीन जेनेरेटर, मैत्री या शिप से संपर्क स्थापित करने के लिए एक एचएफ और एक वीएचएफ उपकरण, कुछ ईंधन और कुछ खाद्य सामग्री भी थी। हमारा केंद्र तीन अलग-अलग माॅड्यूल्स या धातु के ख़ास तरह के केबिनों से मिल कर बना था। एक पोर्टा केबिन हमारे रहने और संचार उपकरणों के लिए था। उससे करीब 15 मीटर दूरी पर एक बड़ा केबिन था जिसके बाहर अच्छी तरह से बाँध कर जेनेरेटर रखा गया था। इस केबिन के अंदर कुछ ईंधन, एक छोटी किचन टेबल, भू-चुंबकत्व मापने वाला उपकरण, कुछ खाद्य सामग्री और एक ख़ास तरह का स्टोव रखा था। ये दोनों केबिन बर्फ की सतह से करीब डेढ़ मीटर की ऊंचाई पर बड़े बेलनाकार ड्रमनुमा आधारों पर स्थापित थे।

तीसरा केबिन हमारा टॉयलेट मॉड्यूइल था। चूंकि अंटार्कटिका में शौच करने के कुछ विशेष नियम हैं और वहां मानव मल मूत्र ऐसे ही छोड़ा नहीं जा सकता, इस लिए हमारा यह टॉयलेट मॉड्यूइल उसी हिसाब से डिजाइन किया गया था। ये हमारे पोर्टा केबिन से दूसरी ओर करीब बीस मीटर पर स्थापित किया गया था।

अंटार्कटिका में आने वाले बर्फ के तूफानों और उड़ती बर्फ के कारण पैदा हो जाने वाली दृष्टि शून्यता (जीरो विजिबिलिटी) की स्थिति में एक केबिन से दूसरे केबिन तक सुरक्षित आने-जाने के लिए इन तीनों केबिनों के बीच रस्सियों से एक सुरक्षित मार्ग सा बना दिया गया था। हमारे इस अस्थाई केंद्र के एक ओर एक बर्फ की सपाट सी पहाड़ी थी जिस पर शिप और मैत्री के बीच आने जाने वाले हेलीकाॅप्टर हमारी जरुरत का सामान लाने ले जाने के लिए उतरा करते थे। हमारे दूसरी तरफ एक लम्बी ऐंटिना नुमा आकृति थी जो हर समय लगातार हिलती रहती थी।

यह भारत के पहले अंटार्कटिक केंद्र दक्षिण गंगोत्री की निशानी थी। दरसल दक्षिण गंगोत्री का निर्माण शेल्फ आइस में हुआ था। आइस शेल्फ में समुद्र की ओर से लगातार उड़कर आने वाली ड्रिफ्ट आइस जमा होती रहती है। इसके कारण डी जी केंद्र हर वर्ष बर्फ की तीन से चार मीटर मोटी सतह से दब जाता था। कुछ वर्षों तक इसके मुख्य दार की बर्फ को बुलडोजरों की सहायता से हटा कर आने जाने का रास्ता बनाया जाता रहा मगर जब मुख्य द्वार लगभग 15 मीटर बर्फ से दब गया, तब ऊपर की ओर से बर्फ में एक वर्ग मीटर चौड़ी सुरंगनुमा आकृति बना कर पैदल आने जाने के लिए लकड़ी की सीढ़ियां बना दी गयीं। समस्या यहीं ख्त्म नहीं हुई बल्कि ऊपर की ओर से बनी सीढियां भी जब दस मीटर से अधिक गहरी हो गयीं तब 1989 में डी जी केंद्र को असुरक्षित घोषित कर दिया गया और वह जिस स्थिति में था उसे उसी स्थिति में हमेशा के लिए छोड़ दिया गया। हालांकि जिस डक्ट से सीढ़ियां बनायी गयी थीं उसे पनडुब्बियों के जैसे एक गोल दरवाजे से बंद कर दिया गया था ताकि बर्फ उसके अंदर भर न सके।

इसके बाद हर वर्ष उस मुहाने के आसपास जितनी बर्फ जमती यानी करीब तीन चार मीटर की एक गर्दननुमा डक्ट बना कर ढक्कन को और ऊपर उठा दिया जाता था और प्रवेश द्वार की पहचान बताने के लिए वहां पर एक ख़ास तरह का लंबा ऐंटिना लगा दिया गया था।

जारी है...

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