सुभाष तराण अपने परिचय में लिखते हैं, एथलीट, छुट्टा विचारक, घूमंतू कथाकार, प्रशिक्षित पर्वतारोही और सडक छाप कवि! अब आपको तय करना है कि आप सुभाष के किस जादू से रूबरू हुये। खाने-कमाने की जुगत उन्हें पहाड़ों से खींचकर दिल्ली ले गयी, लेकिन आत्मा उन्हें बार-बार पहाड़ों पर ला पटकती है।
उस दिन पहाड़ों पर लगातार तीन दिनों तक चलते हुए हम लोग बेस कैंप पहुंचे थे। पिछले तीनों दिन से हम लोग सुबह आठ बजे नाश्ता करने के बाद अपने षाम के पड़ाव के लिए चल पड़ते। सुबह की इस यात्रा के दौरान ही हम दिन का खाना साथ बांधते और अपना अपना पिट्ठू लादे शाम होने तक चलकर अपने अगले पड़ाव पर डेरा डालकर खाना-पीना करते। हमारे साथ बेस कैंप तक जो पोर्टर राशन लेकर आए थे, वो बेस कैंप से ही वापस लौट गये थे। एक दिन के आराम के बाद हमे अगले कैंप पर जाना था।
आमतौर पर बेस कैंप का मौसम खुशगवार होता है, जबकि इसके ठीक उलट किसी चोटी की तरफ बढ़ते हुए मौसम निर्मम और निर्दयी होने लगता है। बेस कैंप पर देह को सुकून पहुंचाने वाली हवा ऊंचाई बढने के साथ ही और ज्यादा घातक होने लगती है। ये इतनी तेज होने लगती है कि जब-तब आपके इर्द-गिर्द विष कन्या की तरह फुफकारने लगती है। सड़क छोड़ने के बाद वो हमारा 16 वां दिन था, जिस दिन हमें कैंप 3 के लिए लोड फेरी करनी थी। रोप फिक्स हो चुकी थी। अपने जरूरी सामान के अलावा बूते भर का सामान पीठ पर लादे हम लोग अगले कैंप की ओर बढ रहे थे।
बेहद ठंडी सुबह के मुंह अंधेरे जब हमने अपना सफर शुरू किया, तब आसमान बिलकुल साफ था। बर्फ और चट्टानों के गठजोड़ के ऊपर लटकी रस्सियों में हम लोग नटों की तरह संतुलन बनाते हुए बहुत सावधानी के साथ कैंप 3 की ओर बढे़ चले जा रहे थे।
इस सफेद बियाबान में आसमान से सूरज ऐसी तीखी धूप बरसा रहा था, जो बर्फ की परत से टकरा कर दूने वेग से हमारी आखों को अंधा और त्वचा को भस्म करने के मंसूबे से हमारी तरफ बढ़ी जाती थी। अगर आंखों पर चश्मा और शरीर पर हवा और पानी रोधी कपड़ों की परत न होती तो सूरज की वह किरणें हमे अंधा कर, हमारी देह से चमड़ी उधेड़ कर रख देती। इसके अलावा गाहे-ब-गाहे बर्फीली हवाएं भी आकर हमारी पसीने से तर बतर थकी देह के भीतर गुंथे कंकाल और मांस पेशियों को कंपकपाती रहती। हम लोग जब कैंप 3 पर पहुंचे, तो दोपहर गुजरने को थी।
Read Also : PERMANENCY IS A MYTH
हम लोग लोड फेरी मे जो सामान लाये थे, उसे रखने के लिए बर्फ की परत पर टेंट पिच कर ही रहे थे कि तभी साफ सुथरे आसमान पर बादलों ने हवा के मार्फत धावा बोल दिया। अभी कुछ मिनट पहले जो आसमान नीलापन लिए बर्फ के उस समुद्र पर सूरज की किरणें बिजली की तरह बरसा रहा था, अचानक उसने स्याह रंगत से भरी गंभीरता ओढ ली। तीर की तरह चुभती हवा के साथ बर्फ के फाहे बरसने लगे। इतनी ऊंचाई पर मौसम का यह मिजाज अक्सर देखने को मिलता है, लिहाजा हम लोग बिना किसी घबराहट के अपना सामान-पत्तर लेकर टेंट्स के भीतर दुबक गये।
हमारे साथ जो अनुभवी साथी थे, उनका यह मानना था कि बर्फ का यह तूफान थोडी देर का है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। बर्फ के फाहों और हवा की रफ्तार गुजरते समय के साथ और तेज होने लगी। स्थिति यह हो गयी कि घंटे भर के अंतराल में तंबूओं पर से बर्फ की उस परत को बेलचे की मदद से झाड़ हटाना पड रहा था, जो हमे दफ्न करने की फिराक में आसमान से बस गिरे ही जा रही थी।
यह भी पढ़ें : हिमालय में रूह तलाशता एक जिन्न!
शाम हो गयी थी। शुक्र इस बात का था कि हम सभी के पास अपने-अपने स्लीपिंग बेग थे। चिंता इस बात की थी कि हमारे शरीर उस दिन चढ़ी गयी लगभग साढे सात सौ मीटर की ऊंचाई के अभ्यस्त नहीं हुए थे। एक झटके मे हासिल की गयी ऊंचाई पर हवा के दबाव और ऑक्सिजन के स्तर में गिरावट ने हमारे फेफडों पर बोझ बढा दिया, जिसके चलते हममें से बहुत से लोग हांफने लगे। हांफने वालों की फेहरिस्त में मैं भी शामिल था... धड़कने तेज रफ!तार से उथलपुथल मचाये हुई थी।
भयानक रूप से दहाड़ रही हवा और बर्फवारी के बीच ज्यों-ज्यों रात गहरा रही थी, मेरे दिल में डर के साथ-साथ नकारात्मता हावी होती जा रही थी। पर्वतारोहण के दौरान पढ़ाए गये पाठयक्रमों में शिखर अभियानों मे होने वाली जितनी भी दुर्घटनाओं के बारे में बताया गया था, वो सब रह रह कर मेरे जेहन में उभर कर आ रही थी। टेंट के भीतर पसरे अंधेरे में खांसते बड़बड़ाते साथियों ने माहौल को और ज्यादा डरावना बना दिया था। स्लीपिंग बेग के भीतर दुबका मैं जैसे ही आंखें बंद करता, सुने-पढे़ जा चुके मरहूम दुर्घटनाग्रस्त पर्वतारोहियों के टूटे-फूटे, गले और कड़े हुए क्षत-विक्षत शव मेरी बंद आंखों के सामने तांडव करने लगते।
ऐसा महसूस होता, मानो छाती पर किसी ने भारी वजन रख दिया हो। बैचेनी की हालत में उखडती हुई सांसों को संभालते हुए मैं खुद को सामान्य बनाने की कोशिश करता रहा और अपने जेहन में औचक से आई इस आफत के समाधान को टटोलने में जुट गया। मुझे किसी तकलीफ या दुर्घटना की सूरत में डॉक्टर और अस्पताल याद आ रहे थे, जबकि हम लोग तो लगातार चलने के बाद रोड हेड तक ही तकरीबन हफ्ते भर में पहुंच पाते। उसके लिए भी मौसम का साफ होना पहली शर्त था, जबकि यहां तो रात गुजारनी ही भारी हो रही थी।
आधे से ज्यादा रात गुजर चुकी थी। मौसम का मिजाज अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ था। एक लंबी और गहरी सांस लेते हुए मैंने खुद को सामान्य रखने की एक जोरदार कोशिश की और खुद को इस नतीजे पर स्थापित कर दिया कि जिस हौसले और हिम्मत ने हमे यहां तक पहुंचाया है, अब वही हमें इस बर्फीली तूफानी रात के पार पहुंचाएंगा।
यह भी पढ़ें : धर्म और देवताओं का यहां है हाल अलग, हनुमान पर हर शख्स को है गुस्सा!
कुछ देर पहले हटाई जा चुकी बर्फ की परत हमारे टेंट पर फिर से काबिज हो गयी थी। हमारा एक वरिष्ठ और अनुभवी साथी ज्यों ही टेंट पर मोटी होती जा रही बर्फ की परत को हटाने के लिए बाहर निकलने लगा, मैने अपनी बहक रही सांसों पर काबू पाते हुए सर पर लगी हेड लाइट जलाई और उनसे कहा कि इस बार बर्फ साफ करने मुझे जाने दिया जाए। मनहूस से माहौल में वरिष्ठ साथी मुस्कुरा दिए और टेंट के दरवाजे से पीछे हट गये। मैने अपने कपडे़, टोपी, दस्ताने और जूते दुरूस्त किए और टेंट के दरवाजे की चेन खोलकर बाहर निकल आया। अंधेरी रात बर्फ की रोशनी से जगमगा रही थी। दूर तक सिर्फ सन्नाटा और बर्फ बपरी हुई थी।
बाहर निकलते ही हवा के तीर की तरह तीखे झोंके ने मेरा स्वागत किया। मैं अचानक ठंडे पानी से भीगे किसी निरीह प्राणी की तरह कांप उठा, लेकिन इच्छाशक्ति तो इससे भी बडे मंसूबे बांधे हुए थी। बाहर का मंजर बहुत भयानक नजर आ रहा था। हमारा टेंट बर्फ की सतह से लगभग डेढ़ फुट के आसपास ही ऊंपर नजर आ रहा था।
मैंने अपनी आइस एक्स ली और बर्फ में आधे से ज्यादा डूब चुके बेलचे का हत्था थाम लिया। मैं उस सर्द रात में टेंट की ढलानों पर मोटी होती जा रही बर्फ की परत पर पिल पड़ा।
बत्तख के पंखों की नरम परत से बने स्लीपिंग बेग की गर्माहट जो काम नही कर पा रही थी, वह काम कुछ देर पहले बटोरी गयी हिम्मत ने कर दिया। टेंट पर से बर्फ की परत साफ हो चुकी थी। जब मैं टेंट के भीतर आया तो शरीर मे एक नयी ताजगी भर चुकी थी। नाक और आंखों से पानी बह रहा था, लेकिन मन अब बर्फीले तूफान से निपटने के इरादे पाल चुका था। ठंड के मारे हाथ की उंगलियां सुन्न होने को थी, लेकिन टेंट की छत पर फिर से जमने वाली बर्फ की परत को कैसे साफ करना है, इस बारे में दिमाग ने अभी से योजना बनानी शुरू कर दी थी। सांसे भले ही पहले से तेज चल रही थी, लेकिन वे इस बात को लेकर आश्वस्त थी कि कम ऑक्सिजन में भी वह खून में अपनी हिस्सेदारी बराबर बनाए रखेगी।
यह भी पढ़ें : दुनिया जितनी ऊंचाई पर परचम फहराती है, उतने में तो पहाड़ की औरतें घास काटने जाती हैं !
कोरोना के इस वीभत्स दौर में फेफडों के संक्रमण से जूझते हुए लोगों के संघर्ष के बारे में देख सुनकर, मुझे आज उस बर्फीले बियाबान में गुजारी वो रात याद आ गयी है। जीवन में ऐसा अनेकों बार होता है जब हम मृत्यु के बहुत करीब होते हैं, लेकिन तब हमारी इच्छा शक्ति हमसे वो करवा लेती है, जो किसी करामात से कम नही होता। चाहे कोई समुद्री तूफानों में भटका जहाजी हो, चाहे कोई रेगिस्तान में भटका हुआ राहगीर हो, चाहे कोई हिम शिखरों के तीखे ढलानों पर आने वाले ब्लिजार्ड में फंसा पर्वतारोही या फिर किसी रोग से लड़ता हुआ कोई रोगी, इच्छा शक्ति के दम पर वह मृत्यु को कुछ समय के लिए गच्चा तो दे ही सकता है और यही वह समय है जब हमारा मन और शरीर उस मुश्किल घड़ी को पार पाकर फिर से जीवन को बतौर ईनाम पा लेता है। मैं फिर कभी अपनी उखड़ती सांसों पर विजय पाने के लिए बर्फ के उस बियाबान में चला जाऊंगा... वो शायद फिर से जीत का मंत्र दे जाए।
Leave your comment