निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
'अजांत्रिक' मानव और मशीन के संबंधों की एक अनोखी कहानी थी। बच्चे होते हैं ना जो अपनी दुनिया खिलौनों से बनाते हैं, गुड़िया को सहेली समझते हैं, उनकी आंखों से तो खिलौनों में भी जान होती है। कोई परिपक्व क्या किसी निर्जीव को अपना हमजोली समझ पाएगा। लेकिन ऐसा हुआ ऋत्विक की इस फ़िल्म में।
फ़िल्में प्रेम, मोह, माया, लगाव, चाह, स्नेह जैसे मानवीय रिश्तों या संवेदनाओं को ही प्रायः बयां करती रही हैं। मां-बाप से प्यार है, भाई-बहन से स्नेह, दोस्तों से लगाव है, बच्चों की चाहत...लेकिन कभी सुना है- कोई अपनी गाड़ी से दीवानगी की हद तक प्यार करने लगे। जी हां, ऋत्विक घटक की फ़िल्म 'अजांत्रिक' का नायक विमल, एक लोहे के ढेर से ऐसा प्यार कि जीना भी उसके लिए और मौत भी उसी की ख़ातिर।
बिहार का टैक्सी ड्राइवर है विमल...उसके इर्द-गिर्द ही बयां की गई है ऋत्विक की 'अजांत्रिक' (1958) की कहानी। गरीब विमल के पास रहने का ठिकाना नहीं, सो वो बस स्टैंड में ही रात गुज़ारता है। रोज़ी कमाने का सहारा है एक पुरानी और खटारा पड़ चुकी टैक्सी...1920 मॉडल सेवरोलेट जैलोपी और विमल ने उसे प्यार भरा एक नाम भी दे दिया है- जगद्दल। विमल जगद्दल का दीवाना है। जगद्दल से उसे इस कदर मोहब्बत है कि वो लोहे के भारी—भरकम वाहन को ज़िंदा इंसान की तरह समझता है।
एक पढ़े-लिखे आदमी के सवाल का जवाब विमल कुछ यूं देता है- 'मैं मशीन हूं'...'मुझे पेट्रोल की ख़ुशबू अच्छी लगती है..यह ख़ुशबू मुझे ऊंचाई तक ले जाती है'...। अब दिक्कत बस वहां पैदा होती है, जब विमल के मुताबिक, 'लोग नहीं समझ पा रहे हैं कि जगद्दल भी एक इंसान है...इसके अंदर भी हमारे आपके तरह आत्मा है, भावनाएं हैं'।
कहते हैं, किसी से प्यार हो जाए, तो ज़िंदगी ख़ुशगवार लगने लगती है, मुश्किलें सुलझ जाती हैं, रास्ते आसान बन जाते हैं...जगद्दल से ज़िंदादिली भरी दोस्ती, बेपनाह मोहब्बत और जुड़ाव विमल को भी लगातार प्रोत्साहित करता है। पंद्रह बरस से विमल और जगद्दल एक-दूसरे के साथी हैं। इस लंबे अरसे में विमल के दोस्त बार-बार गाड़ियां बदलते हैं। तरह-तरह की डिजाइनर और लग्ज़री गाड़ियां उन्हें भाने लगती हैं, लेकिन विमल और जगद्दल एक-दूसरे का साथ निभाते रहते हैं। विमल दोस्तों के ताने भी सुनता है और उन्हें जवाब देता है- मेरे जगद्दल को कभी छींक नहीं आती है, न ही कभी उसका पेट दर्द करता है।
पर कुछ ताने दिल में चुभ जाते हैं। आख़िरकार, एक दिन बाज़ी लग जाती है। नए पुर्जों से लैस जगद्दल को अग्निपरीक्षा के लिए तैयार किया गया। अंतिम और निर्णायक इम्तिहान... इसमें जगद्दल की मज़बूती और उसके सजीव होने की सार्थकता जांची जानी थी। परीक्षा के लिए विमल जगद्दल के ऊपर कई भारी-भरकम पत्थर के बोल्डर लाद देता है। हैरत की बात ये कि इससे पहले कभी इतना ज्यादा बोझ विमल जगद्दल पर नहीं रखता। वो जगद्दल को प्यार से चेताता है- 'मैंने तुम्हें बहुत लाड़-प्यार से पाला है...आज की परीक्षा तुम्हारे अपने जीवन के लिए निर्णायक है...तुम्हारे होने को ही चुनौती है...मुझे निराश मत करना...।'
लेकिन अफ़सोस...जगद्दल खुद पर रखे भार से जद्दोज़हद करते हुए ढह जाता है, या यूं कहें एक विश्वास...एक साथ ही मर जाता है। विमल रो पड़ता है...उसकी आंखों से आंसू छलकने लगते हैं। स्टियरिंग पर बैठकर वो विंड स्क्रीन के टुकड़े-टुकड़े कर देता है। बाद में जगद्दल को कबाड़ी वाले को बेच दिया जाता है। विमल की आंखों के सामने ही जगद्दल को स्टील के छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। जगद्दल का अंतिम संस्कार है ये।
फ़िल्म के गाने भी जीवन के चक्र को दर्शाते हैं-जन्म, संघर्ष, विवाह, मृत्यु और फिर से जन्म। कहानी कई सवाल भी छोड़ जाती है...आख़िरकार, एक कबाड़ से ये कैसा जुड़ाव? अफ़सोस ये है कि इस महान फ़िल्म को अपने समय में ख्याति के बजाय उलाहने मिले। इसे एक बचकाना मेलोड्रामा कहकर ज्ञानियों की संगत से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। कुछ ऐसा ही फ़िल्म के निर्देशक ऋत्विक घटक के साथ भी हुआ, लेकिन जब फ्रांसीसी फ़िल्मकार जॉर्ज सादुअल ने इसे सिने इतिहास में मील का पत्थर कहकर 'अजांत्रिक' की सराहना की, तब शायद भारतीय सिने आलोचकों की भी चेतना जगी। फ्रांस अर्काइव्ज में इसकी एक प्रति रखी गई। आज तो न जाने कितनी फ़िल्में इस विषय पर रोज़ बन रही हैं, लेकिन ये तथ्य सामने आ चुका है कि अजांत्रिक मानव और मशीन संबंधों पर बनी दुनिया की पहली फ़िल्म है।
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