बतौर निर्देशक दो बार नकारे जा चुके थे ऋत्विक घटक, फिर लेकर आये वो फिल्म जो बन गई कल्ट

ऋत्विक घटकबतौर निर्देशक दो बार नकारे जा चुके थे ऋत्विक घटक, फिर लेकर आये वो फिल्म जो बन गई कल्ट

निधि सक्सेना

निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है। 

पुनर्जन्म की कहानी `मधुमती' लिखते हुए उड़ाने वालों ने ना जाने क्या-क्या बातें उड़ाईं कि ऋत्विक अपने पागलपन में ना जाने कैसी कल्पनाएं कर रहे हैं..आदि-आदि, लेकिन फ़िल्म सफल हो जाने के बाद ज़बान पर हमेशा के लिए चुप्पी के ताले जड़ गए। ऋत्विक मुस्कराते हुए कहते थे- 'ये बिमल राय प्रोडक्शंस को बंद कराने की मेरी चाल है!'

इस तरह 1958 में ऋत्विक ने भारतीय और विश्व सिनेमा को दो नए विषय दिए। `मधुमती' के साथ पुनर्जन्म की कहानियों का भी फ़िल्मों में आगाज़ हुआ।

ताकि ना रहे बादलों के पीछे तारा छिपा हुआ
ऋत्विक घटक को दो बार बतौर निर्देशक नकारा जा चुका था, लेकिन ऐसे जुझारू व्यक्तित्व के हौसले कमजोर करना आसान बात नहीं थी। यूं भी, ऋत्विक ने हमेशा चैन-आराम के मुकाबले मुठभेड़ों भरा क्रांतिकारी जीवन ही चुना था। 1960 में वो अपनी एक और फिल्म लेकर दुनिया के सामने हाज़िर थे- मेघे ढाका तारा, जो उनकी सबसे चर्चित फ़िल्म होनी थी।

नायिका नीता अपने कमरे की खामोशियों में एक पत्र पढ़ने में गुम है। भाई शंकर प्यारी बहन को छेड़ते हुए कहता है- इस उम्र में प्रेम पत्र और मुस्कुराते हुए पत्र पढता है। पत्र में लिखा है- तुम बादलों से ढका तारा हो। नीता ये सुन शरमा जाती है।

नीता उस परिवार की बेटी है, जो बांग्लादेश से भारत शरणार्थी बनकर आया है। वर्ड्सवर्थ और यीट्स की कविताओं के मुरीद हैं नीता के पिता। हम उन्हें बांग्ला भद्रलोक के प्रमुख प्रतीक के रूप में पहचान पाते हैं, जिसके लिए सबसे बड़े मूल्यों में से है- ज्ञान, कविता और सुंदरता। हालांकि घर में हर तरफ फैली गरीबी की चादर उस भद्र परिवार के मखमली सपनों को कठोर हकीकत से रू-ब-रू कराती रहती है। 

शंकर घर का बड़ा बेटा है। वैसे, वो हर दिन लोगों से बुरा-भला सुनता है, क्योंकि बड़ा बेटा होने के बाद भी वो कमाता नहीं, बल्कि बहन की कमाई के दम पर ज़िंदगी जी रहा है...हां, नीता ज़रूर उसे भरोसा दिलाती है- एक दिन आपके सारे सपने सच होंगे।

नीता का प्रेमी सनत भौतिकी में शोध कर रहा है और उसे भी जब पैसे की ज़रूरत महसूस होती है, तो वो नीता से ही इसकी मांग करता है। एक दुर्घटना में नीता के पिता टांग से लाचार हो जाते हैं, तो नीता के पास पढ़ाई छोड़ कर नौकरी करने के सिवा और कोई चारा नहीं बचता।

सनत चाहता है- नीता उससे जल्द ही शादी कर ले, पर नीता उसे इंतज़ार करने के लिए कहती है, क्योंकि वो छोटे भाई-बहन को इस तरह नहीं छोड़ सकती। नीता की मां सिर्फ इस डर से कि नीता शादी करके घर ना छोड़ दे, अपनी छोटी बेटी गीता को उकसाती है कि वो बड़ी बहन के प्रेमी को आकर्षित करे। आख़िरकार, यही होता है। सनत शोध अधूरा छोड़कर गीता से शादी कर लेता है।

ये नीता ही है, जो कुछ नहीं कहती। घुटती रहती है, हर आंसू जो उमड़ने की कोशिश करता है, उसे आंख में ही दबा लेती है...सिर्फ शंकर है, जो उसका दुख जानता है, महसूस करता है। अंततः नीता का अपना कुछ भी नहीं बचता। वो पूरे घर के लोगों के लिए महज पैसा कमाने वाली मशीन बनकर रह जाती है। शंकर लगातार दुत्कार झेलने की वज़ह से बुरी तरह टूट जाता है, लेकिन वो भी कुछ नहीं कर पाता। एक दिन वो नीता को पिसता देख कर घर छोड़ कर चला जाता है।

इस बीच नीता को पता चलता है कि उसे तपेदिक हो गया है, लेकिन वो अपनी बीमारी की हालत किससे बयां करे। घर में मुश्किलों का अंबार लगा है। सबसे छोटा भाई काम करते हुए चोटिल हो गया है। उसका इलाज कराने और खून का इंतज़ाम करने की चुनौती है। इस बीच पूर्व प्रेमी सनत को नौकरी और पत्नी, दोनों से असंतुष्टि है। वो चाहता है कि नीता उससे सहानुभूति रखे, लेकिन अब नीता और नहीं सह सकती। वो खुद के पैर पीछे हटा लेती है। 

किसी और को रोग की छूत ना लग जाए, इसके लिए नीता खुद को घर के बाहर, एक प्रसव कोठरी में छुपा लेती है। खांसी में खून आता है, लेकिन ये भी सिर्फ नीता देखती है, बाकी किसी की नज़र उसकी तकलीफ़ पर नहीं पड़ती। इस बीच शंकर बंबई में बतौर गायक सफल हो जाता है। मशहूर होकर घर लौटने पर शंकर के आसपास भारी भीड़ जमा है। सबकी अपनी-अपनी आरज़ू है। किसी को मोती का हार चाहिये और किसी को दो मंज़िला मकान, लेकिन शंकर की आंखें नीता को तलाश रही हैं। वो नीता को तलाशते हुए बाहर की कोठरी में पहुंचता है। नीता तकिए के नीचे कुछ छिपा रही है। शंकर हंसता है- तुम्हारी अब भी अपने प्रेम पत्र छुपाने की आदत नहीं गई और आगे बढ़ कर तकिये के नीचे से कपड़ा खींच लेता है, लेकिन वहां मोहब्बत की इबारत नहीं है...खून के धब्बे लगे हैं।

शंकर स्तब्ध है। शंकर नीता को शिलॉन्ग के एक सेनिटोरियम में उपचार के लिए दाखिल कराता है। एक दिन शंकर बहन से मिलने आता है। बहन बाहर बैठी पहाड़ों को देख रही है। उसके हाथ में वही पुरानी सनत की चिट्ठी है। भाई को देख कर नीता चिट्ठी फाड़ देती है, मुझे बादलों के पीछे छुपा तारा नहीं बनना, मैं जीना चाहती हूं, मैं जीना चाहती हूं...कह कर भाई से लिपट जाती है और वो सुन्दर पहाड़ पूरी प्रकृति और दर्शक संपूर्ण मनोव्यथा से चीख-चीख के रो उठते हैं। इस क्रंदन के कंपन सदा गूंजते रहते हैं और मैं कई बार दोहराती- मुझे मेघे ढाका तारा नहीं होना।

पूरी फ़िल्म आंखें नम रखती है, लेकिन ये क्षण उद्वेलन के चरम पर ले आते हैं। इतना निरीह, निराश, मजबूर कर देते हैं। मन करता है- काश! स्त्रियों की किस्मत ये न होती। काश! हम बादलों में छिपा तारा नहीं, चमकते सूरज होते, लेकिन ये भारतीय स्त्रियों का सच है। भारतीय स्त्री को मां के पद पर बिठा उससे बहुत कुछ छीना गया, क्योंकि मां तो बलिदान और त्याग ही की मूरत होती है। उसे अपने लिए तो कुछ चाहिए नहीं, तो उसे पूरी तरह निचोड़ लें। यहां अगर नीता स्त्री की जगह पुरुष होती, तब उसके शादी करने से परिवार को वो डर नहीं रहता कि यदि ये चली गई तो घर का कमाऊ सहयोगी हाथ से निकल जाएगा। `मेघे ढाका तारा' के ज़रिए स्त्री के मन के बंद चिट्ठे को ऋत्विक घटक ने खूबसूरत कविता की तरह दुनिया के सामने पढ़ा था। एक बार नीता के हाल पर तरस खाते सनत से नीता कहती है- 'ये मेरे ही पापों का फल है' और सनत हैरानगी से जानना चाहता है कि नीता ने क्या पाप किया है। नीता दृढ़ता से कहती है- 'मैंने विरोध नहीं किया। '

स्त्री की अपनी दुनिया का लेखा-जोखा 
मां और स्त्रियां सत्यजीत रे की समकालीन फ़िल्म पाथेर पंचाली में भी थीं और चर्चित भी बहुत थीं- दुर्गा, दादी, लेकिन वहां पूरे एक परिवार की बात थी। महिला की सामाजिक हैसियत और स्त्री की अपनी अंदरूनी दुनिया का कोई लेखा-जोखा 'मेघे ढाका तारा' से पहले की किसी फ़िल्म में नहीं मिलता।

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