केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।
(भाग-5) पूरी शाम मैं जोहार के जादू के ख्याल में ही डूबा रहा। वो कितना खुशनुमा दौर रहा होगा, जब जोहार के सैकड़ों यात्री अपनी हजारों भेड़ों और याक पर हिमालय की बर्फीली ढलानों पर माल लादे हुए घाटी के गांवों की ओर लौट रहे होते होंगे। पीछे छूटे हुए उनके परिवार, दूर पहाड़ों से आती जानवरों की घंटियों की आवाज सुनकर ही दौड़ पड़ते होंगे... पहली दफा अपने पुत्र के साथ यात्रा पर निकला पिता लौटकर क्या सोचता होगा? क्या वो अपनी विरासत संभलने वाले के आ जाने पर मन ही मन मुस्कुराता होगा... सब कुछ बदल जाता होगा तब तक। जमीन अपना रंग बदल लेती होगी और खेतों में फसलें कट चुकी होती होंगी... रास्ते में कभी तो बर्फवारी भी होती होगी... पहाड़ों पर मौसम घिरता होगा!
क्या सारे लोग इन दुरूह हिमालयी यात्राओं से सकुशल लौट पाते होंगे... उनकी माल से लदी हुई भेड़ें दर्रों को कैसे लांघ जाती होंगी... क्या उन भेड़ों का भी इतिहास लिखा जाएगा, जिन्होंने हिमालय के बर्फीले पहाड़ों पर टंगे हुए गांवों में बसावट को सालों-साल जिंदा रखा होगा। घाटियां अपने लोगों के जाने और लौटने पर, कितनी ताकतवर भावनाओं का प्रदर्शन कर रही होती होंगी... ओह! मेरे सामने भेड़ की गर्म ऊन के वस्त्रों में लिपटे हुए लोगों की आकर्षक तस्वीरें कौंध गई। मसालों की खुशबू जब घाटी की चोटी पर तैरकर पहुंचती होगी, तब उन्हें लगता होगा कि हम इस दफा फिर से घर लौट आए।
ये वो घाटियां हैं, जहां के बाशिंदे सालों तक मुनस्यारी को ही आधा संसार मानते रहे और कहावत ने जन्म लिया- 'आधा संसार, आधा मुनस्यार'। पंडित नैन सिंह ने इस इलाके के बारे में लिखा है- 'पूर्व काल में तिब्बत के लोग ही नमक लेकर जोहार आते और बदले में अनाज लेकर तिब्बत जाते थे। 'र्हा-ल्हम' (अज-पथ) का अपभ्रंश वर्तमान का एक जिंदा गांव 'रालम' ही तिब्बतियों के जोहार आने का रास्ता था। इन इलकों के लोग उत्तर में तिब्बत और दक्षिण में कत्यूर घाटी तक व्यापार करते थे। 1962 तक ये व्यापार बदस्तूर चलता रहा और फिर, चीन की बदलती नीतियों और भारत-पाक युद्ध के बाद ये इलाके बेनूर होने लगे। व्यापारियों के हाथ में जब काम नहीं रहा, तब वो 'भाबर' की ढलानों में उतर आए और सबसे शानदार ओहदों तक पहुंचे।
हम लोग कमरे में पहुंचे तो हमारा साथी और गाइड मनोज किसी बुजुर्ग से गप्पों में मशगूल था। उनकी गप्पें दिलचस्प थी, लिहाजा हम भी शरीक हो गए। हमने उनसे जोहार के कुछ किस्से सुनाने की बात कही, तो वो झट्ट से अंदर की ओर गए और ‘राजुला-मालूशाही’ की जर्द लगी किताब से धूल झाड़ते, आते हुए दिखे। ‘राजुला-मालूशाही’ पहाड़ों की शानदार प्रेम कथाओं में एक है। इसका किस्सा फिर कभी। उन्होंने कहा- ‘जोहार घाटी के भी कुछ किस्से हैं इसमें...हमारे दादा सुनाया करते थे... सुनोगे।’ हमने हामी भरी, तो वो किस्सा सुनाने लगे।
वो बुजुर्ग जोहार के सबसे दिलचस्प किस्सें को बांचना शुरू कर चुके थे। उनकी आंखों में उस तिलिस्मी कहानी को सुनाते हुए गजब का आकर्षण पैदा हो गया था। उन्होंने कहना शुरू किया- ‘मल्ला जोहार में सदियों पहले दो गिरोह रहते थे। एक गिरोह का नेता था हल्दुवा और दूसरे गिरोह का नेता पिंगलुवा। मल्ला जोहार इन दोनों नेताओं में आधा-आधा बंटा हुआ था। मापा के ऊपर हल्दुवा का राज था और मापा से नीचे लस्पा तक पिंगलुवा की सल्तनत चलती थी। दोनों में अपने इलाके से बाहर न निकलने की एक अघोषित संधि थी। ये वो दौर था जब जोहार दर्रे के बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं था। तब वो खुला नहीं था और ना ही पहाड़ों के उस पार व्यापार होता था। एक रोज जोहार में एक अनोखी घटना हुई। गोरी नदी के उद्गम स्थान के पहाड़ पर न जाने कैसे एक विशाल पक्षी पैदा हुआ। ऐसा पक्षी जिसे जोहार के लोगों ने पहले कभी नहीं देखा था। उसके पंख इतने लंबे थे कि वो कभी भी लसपा गांव के नीचे मापांग-दापांग की तंग घाटी से आगे नहीं आ पाया। उसके पंख पहाड़ों में अटक जाते थे और वो वापस ऊपर की ओर लौट जाता।'
उस बुजुर्ग ने एक गहरी सांस ली, तो उसकी झुर्रियों में उभरी सिहरन साफ उभर आई। मानों वो अब इस कथा के सबसे रोमांचक हिस्से की ओर बढ़ रहे हों। उन्होंने कहना जारी रखा- 'वो भयानक पक्षी अपने पंजों से जोहार के लोगों को उठाकर ले जाता। लोग उसका खाना बनने लगे। पहले वो हल्दुवा के लिए आया और फिर पिंगलुवा के लिए। जब उसे आसान शिकार मिलना बंद हो गया तब वो दोनों को ले गया। उस भयानक दैत्याकार पक्षी ने पहाड़ों पर बसावट को तहस-नहस कर दिया था। चारों ओर सिर्फ उजड़ने के निशान बाकी थे और जो बचे हुए थे वो अपनी खैर मना रहे थे। लोगों की निगाहें हर वक्त पहाड़ी के उस हिस्से पर टिकी रहने लगी, जहां से वो दैत्य आता था। जोहार बदरंग होने लगा था। लोग घाटी को छोड़ने लगे।'
उस बुजुर्ग ने वापस से गहरी सांस ली और इस दफा उम्मीदों से सरोबोर आवाज में किस्से को आगे सरकाया- 'उस जमाने में जोहार के उस पार हूंणदेश की लपथेल गुफा में एक लामा रहता था। उसको लोग शकिया लामा के नाम से जानते थे। वो दिन भर भगवान का भजन करता था और शाम को गुफा में लौट जाता। हर वक्त उसकी खिदमत में एक शख्स रहता। जोहार में उजड़ रही जिंदगी की खबर लामा तक भी पहुंची और फिर एक रोज लामा ने अपने सेवक से प्रसन्न होकर उसे दैवीय अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित कर उसे जोहार के लोगों को, उस दैत्याकार पक्षी से मुक्ति दिलवाने के लिए भेज दिया। साथ में उसे इलाके को आबाद करने का हुक्म भी लामा ने दिया और उसकी मदद के लिए अपने एक दूसरे शिष्य को साथ भेजा। जोहार तक आने का रास्ता यही शिष्य जानता था।'
उनकी आंखों की चमक बढ़ती जा रही थी और किस्सा रोमांचक होता जा रहा था। उन्होंने कहा- 'लपथेल से थोड़ी दूर चलने के बाद वह शिष्य 'कुत्ता' बन गया और उस जगह का नाम रखा गया खिंगरू। कुछ दूर चलने पर उसने फिर से भेष बदला और वह दोलथांग (बारहसिंगा) बन गया। उस जगह का नाम पड़ा दोलथांग। वो कुछ ही दूर दोलथांग बनकर चला और फिर से उसने अपना भेष बदल लिया। इस दफा वो टोपीढूं (भालू) बन गया और उस जगह का नाम पड़ा टोपीढूंगा। फिर वो कुछ ही देर टीपीढूं बनकर चला और आगे बढ़कर ऊंट बन गया। इस जगह का नाम पड़ा ऊंटाधुरा। आगे वो दुङ (बाघ) बन गया और सबसे आखिर में हल्दुवा-पिंगलुवा के इलाके में पहुंचते ही वो समगांऊ (खरगोश) में तब्दील हो गया। आज भी ये इलाके इन्हीं नामों से पहचाने जाते हैं। उसकी चमत्कारी शक्तियों ने उसे अब तक उस दैत्याकार पक्षी से जिंदा रखा था।'
ये लोककथा प्रकृति के विराट स्वरूप के करीब जाकर अपने सबसे दिलचस्प हिस्से की ओर बढ़ रही थी, जहां उजड़ने की नहीं बसने और जीतने का सार है। बुजुर्ग ने हमारी ओर इस भाव से नजर दौड़ाई कि हम कथा में दिलचस्पी ले रहे हैं या नहीं और फिर हमारी दिलचस्पी को लेकर आश्वस्त होते ही, उन्होंने कथा के बाकी हिस्से की ओर बढ़ते हुए कहा- 'घाटी में उस सेवक ने उजाड़ घरों और मानव कंकालों को देखा तो वो विचलित हो उठाा और इधर-उधर घूमने लगा। ठीक इसी वक्त उसे एक बुढ़िया मिली। बुढ़िया ने बताया कि आज दैत्याकार का भोजन बनने की बारी उसकी है और कल उसके ही दूसरे संबंधी की है। लामा का भेजा हुआ योद्धा करूणा से भर उठा। तब उस योद्धा ने अपना दांव चला। उसने बड़े-बड़े पत्थरों को आग में गरम कर अपने गादे (पहनने वाला लंबा लबादा) में छिपा लिया। अब उसे उस दैत्याकार पक्षी का इंतजार था। वो घड़ी भी आई जब दोपहर की अलसाई गुनगुनी धूप में उसके डैनों की छाया गांव पर मंडराई। योद्धा तैयार था। पक्षी ने नजर दौड़ाई और जैसे ही वो योद्धा की ओर लपका, ज्यों ही मुंह खोला, उस योद्धा ने अपने वजूद को सार्थक सिद्ध करते हुए, उस दैत्याकार पक्षी के मुंह में सारे गरम पत्थर उड़ेल दिए। एक लंबी चीत्कार जोहार के सारे गांवों में तैर गई। लोग खौफजदा हो गए कि अब पक्षी कहर ढाएगा, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उस योद्धा की तरकीब काम कर गई और पक्षी पत्थरों को आहार समझकर निगलता चला गया। उसके पेट में इतने गर्म पत्थर भर गए, कि उसका पेट ही फूट गया।'
फिर उन्हेंने एक और गहरी सांस ली और कहा- 'वो पत्थर आज भी मिलम में ही हैं। उस दैत्याकार पक्षी से जोहार को मुक्ति दिलवाने के बाद उस योद्धा ने आग जलाकर लोगों को बसाने का काम शुरू कर दिया। बसावट की प्रक्रिया में उसे सबसे ज्यादा दिक्कत नमक की हुई। जोहार में उसने मसाले उगवाए, लेकिन नमक के बिना खाना बेस्वाद थ। वो वापस लामा के पास लौटा और नमक मांगा। लामा ने अपनी शक्ति से लपथेल में नमक पैदा कर दिया। जोहार की थाली में स्वाद भर गया, लेकिन कहते हैं कि नमक पैदा करने की शक्ति का प्रयोग करने के बाद वह लामा शक्तिहीन हो गया और फिर कभी गुफा से बाहर नही आया। वापस आने के बाद उस योद्धा ने जोहार को आबाद करने का काम जारी रखा। योद्धा ने गांववालों को शकिया लामा की पूजा करने के लिए कहा और तभी से इस क्षेत्र के लोगों को 'शौका' कहा जाने लगा। आज भी लपथेल में नमकीन चट्टाने मिलती हैं।'
इन्हीं शौकाओं की संतान सुनपति शौका ने आगे चलकर मंदाकिनी के तटवर्ती इलाकों को बसा कर तिजारती घाटों को खुलवाया। हांलाकि, उसकी कोई संतान नहीं रही लेकिन सुनपति शौका और उसकी वीरतापूर्ण कहानियां इस क्षेत्र में आज भी सुनाई जाती हैं। सुनपति शौका की बेटी राजुला की ही प्रेम गाथा है- ‘राजूला-मालूशाही’। उन्होंने अपने हाथ में थामी हुई किताब को बंद कर दिया और कहा- 'आगे फिर लंबी कहानी हुई। यहां का काफी वर्णन है उस प्रेम कथा में।’ हम राजूला-मालूशाही की महान प्रेम-कथा को भी सुनना चाहते थे, लेकिन रात काफी गहरा गई थी।
सुबह हम नाश्ता करने के बाद अपने अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। हमारा अगला पड़ाव 4040 मीटर की उंचाई पर मौजूद दुंग था। हमें लगभग 12 किमी दुर्गम हिमालयी रास्ते पर आज दिनभर चलना है। रास्ता धीरे-धीरे उंचाई ले रहा है। अब यहां गोरी नदी से हमें बिछड़ना होगा। इस रास्ते में तिब्बत से आ रही ग्वाङ्ख नदी के साथ-साथ ऊपर-नीचे चलते हुए रास्ता बना हुआ है। तिब्बत की सरहद की परवाह किए बिना, ये नदी मस्तानी चाल में अब भी बह रही है। इस नदी को यहां के लोग गनसूखा गाढ़ भी कहते हैं।
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