गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
(भाग-7) उस रात हमारा पड़ाव सीमा, असीम शांति से भरा हुआ था। सुपिन के किनारे इस छोटी सी बसावट में दो बड़े भवन सरकारी है। इनमें गढ़वाल मंडल विकास निगम का रेस्ट हाउस और फॉरेस्ट का गेस्ट हाउस शामिल है। हम फॉरेस्ट के गेस्ट हाउस में ठहरे थे। ये एक शानदार चार कमरो वाला ब्रिटिशकालीन बंगला है। बाकी एक-दो छोटे कमरे ओसला के स्थानीय लोगों के हैं। बाहर बर्फीली हवा बह रही थी और ऊपर पहाड़ के समतल से एकरूप हुए गांव से रोशनी और मद्धम संगीत की आवाजें जुगनुओं के आसमान में तैर रही थी।
साफ आसमान पर कहीं भी बादल का धब्बा मौजूद नहीं था। सितारे पूरी रोशनी बिखेरते प्रतीत हो रहे थे और उनमें से कईयों की पहचान करना आसान था। मैं गहरे अफसोस से भर गया। मेरा ट्रायपॉड गुम हो चुका था। मैं उस तस्वीर को नहीं उतार सकता था, जिसका सपना मैं अब भी देखता हूं। वो शानदार पल था और उस वक्त मैं सिवाय दु:ख और अपनी लापरवाही को याद करने के कुछ नहीं कर सकता था। वो खूबसूरत लम्हा मेरी आंखों के आगे से गुजर रहा था।
भीतर महफिल जमी हुई थी। कमरे के भीतर ही चिमनी में हमने आग सुलगा ली थी। संयोग से हमें एक लकड़ी की बड़ी गांठ मिल गई थी। इसके लिए हमने अच्छी-खासी कीमत चुकाई थी। असल में हमने कुछ सूखी लकड़ियों का इंतजाम कर लिया था, जिसे हमने कमरे के भीतर बने फायर प्लेस में सुलगा लिया। कमरा गर्म हो रहा था...! स्थानीय लोग बरसात के वक्त नदी में बहती लकड़ियों को जमा कर लेते हैं, जो सर्दियों में बड़ी राहत के काम आती है। हमारा कमरा कुछ ही देर में गर्म हो गया था। हमने अपनी कुछ तस्वीरें उतारी। ये अद्भुत वक्त था। दीपावली पर हम ऐसी जगह थे, जहां सिर्फ खुशनुमा आवाजें थी।
इस बीच मैं और शीतल एक दफा बाहर का जायजा लेने भी आए, लेकिन फिर तेजी से गेस्ट हाउस के अपने कमरे में दाखिल हो गए। बाहर ज्यादा देर तक खड़े रहना मुश्किल था। हवाएं सुईयों की तरह बदन को चीर रही थी। हम घाटी में थे, बावजूद इसके हवाएं इतनी तीखी थी कि पूरी तरह से गर्म कपड़ों से लदे हुए होने के बावजूद वो जिस्म को भेदने को आतुर थी।
हम वन विभाग के जिस गेस्ट हाउस में ठहरे थे, वो ब्रिटिश पीरियड का एक बंगला था। उस गेस्ट हाउस का चौकीदार ओसला गांव का ही बाशिंदा है। असल में ये इलाके इतने दुर्गम हैं कि कभी इन इलाकों में कोई अपनी तैनाती नहीं चाहता था। ऐसे में छोटे सरकारी पदों पर स्थानीय निवासियों को ही नौकरी मिल जाती थी। पहले-पहल वो ठेके पर काम करने लगे और फिर लंबी सेवाओं के बाद नियमित होने लगे। हालांकि, अब स्थितियां बदल रही हैं। बेरोजगारों की लंबी फौज सरकार के लिए बड़ी चुनौती है, लेकिन बावजूद इसके सरकार उदासीन ही ज्यादा नजर आती है।
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चौकीदार ने कमरे खुलवाने और बाकी व्यवस्थाओं के लिए अपने 12-13 साल के बेटे को उस शाम सीमा भेजा था। वो खुद दीपावली की तैयारियों में मशगूल था। बच्चा हमारे सुपुर्द कमरों को ठीक करने के बाद जल्दी वापस लौट जाना चाहता था, ताकि वो गांव में आज की रात होने वाले जश्न का हिस्सा बन सके। गांवों में दीवापली आज भी पारंपरिक ढंग से ही मनाई जाती है, जिसमें बहुत कम पटाखों का शोर अब शामिल होने लगा है। गढ़वाल के अलग-अलग हिस्सों में दीपावली को अलग-अलग ढंग से मनाया जाता है।
सीमा गांव घाटी में है, जिसके दोनों ओर पहाड़ हैं। ओसला गांव में रोशनी के साथ गांववालों के पारंपरिक गीतों की आवाजें आ रही थी। उत्सव लोगों के शोर से भरें न हों तो उत्सव सरीखे नहीं लगते, सिवाय एक आम दिन के.... ये रात हमारे लिए भी एक आम रात ही थी, जिसे दुनिया तब दीपों की रोशनी में अपनों के बीच मना रही होगी। दीपावली हमारे नींद के आगोश में जाते ही बीत गई... और जब अगली सुबह हम उठे तो सर्द हवाओं और लायबर का शोर था। लायबर वही उत्साही लड़का जो हमारे इस सफर का सारथी था।
सुबह उस चाय की दुकान पर दीपावली के जश्न के किस्से थे, जो गांव वालों के मार्फत हम सुन रहे थे। सुबह तकरीबन 6 बजे लायबर ने सबको जगा दिया। सुबह 7 बजे तक हम सभी तैयार हो चुके थे। हमने रास्ते के लिए परांठों का इंतजाम कर लिया था। पहले दिन करीब 17 किलोमीटर हम पैदल चले थे और इसका असर सब पर दिख रहा था। मैंने और शीतल ने तय किया कि हम अपना लगेज थोड़ा हल्का करेंगे और गैरजरूरी कपड़ों को सीमा में ही छोड़कर आगे बढ़ेंगे... इस फैसले से शीतल का बोझ तो हल्का हो गया, लेकिन मेरे बैग में कुछ किलो वजन अतिरिक्त बढ़ गया। दोस्त ने भी अपनी बेटी का सामान अपने बैग में भर लिया और कुछ सामान सीमा में ही छोड़ने का फैसला लिया.... ये सामान हमें वापसी में उठाना था।
हम हर की दून के लिए सुबह 7 बजे चल पड़े। सीमा से थोड़ी ही दूर चलकर हमें सुपिन नदी को पार करना था और फिर यहां से तकरीबन एक किलोमीटर की सीधी खड़ी चढ़ाई चलने के बाद करीब ढाई किलोमीटर ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलकर हमें कलकत्ता धार की चढ़ाई चढ़नी शुरू करनी थी। नमी युक्त एक शानदार सुबह उस रोज हम हर की दून की ओर बढ़ रहे थे। लोग अपने रोजमर्रा के एक तिहाही काम निपटा चुके थे। छोटे बच्चे जंगलों से घास और लकड़ी लेकर गांव की ओर लौट रहे थे।
मवेशी जंगलों में पहुंच चुके थे। सुपिन धूप में चमक रही थी और पहाड़ सुनहरे हो रहे थे। मुझे नहीं मालूम इस जगह का नाम कलकत्ता धार कैसे पड़ गया। धार के मायने यहां पहाड़ी से है, जबकि कलकत्ता नाम किसी बंगाली पर्यटक के चलते शायद पड़ा हो! हर-की-दून के सफर पर निकलने से पहले ही हम लायबर के जरिए कलकत्ता धार की चढ़ाई के बारे में कई दफा सुन चुके थे।
हमें लगा था कि ये कोई खतरनाक चोटी की ओर चढ़ने वाली चढ़ाई होगी, लेकिन ये एक खूबसूरत बुग्याल है। ये एक लंबा पैच था, जिसमें हमें लगातार पहाड़ पर चढ़ाई चढ़नी थी, लेकिन रास्ता धीरे-धीरे ऊपर की ओर बढ़ रहा था ना कि तीखा। इसके अलावा भी कई छोटे-छोटे पैच बीच में मिलते हैं, जहां या तो आप सीधे उतर रहे होते हैं या फिर आप चढ़ाई चढ़ रहे होते हैं। खैर कलकत्ता धार से पहले हमारे लिए एक किलोमीटर की वो चढ़ाई ज्यादा परेशान करने वाली थी, जो आज हमें अपनी यात्रा के शुरूआत में ही पड़ गई। धीरे-धीरे हम सब आगे बढ़ रहे थे। शीतल और पारिजात के पांवों में दर्द हो रहा था, लेकिन बावजूद इसके वो दोनों चढ़ रहे थे। कुक्कू भी धीरे-धीरे इस सफर पर बढ़ रही थी।
अमित और कुक्कू धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, जबकि लायबर हम सब से काफी आगे निकल गया था। मैं लगातार अपने कैमरे से कुदरत के उन नजारों को कैद करने में मशगूल था, जो हर पल चौंकाने वाले लैंडस्केप बना रहे थे। मेरा बैग भी मुझे परेशान कर रहा था। ट्रैकिंग पर निकलने से पहले अपने सामान को सही से चेक करना बेहद जरूरी होता है, जो कि मैंने नहीं किया। इसका खामियाजा मैं अब भुगत रहा था। बर्फ से ढकी हुई चोटियां लगातार करीब आती जा रही थी। जंगल अब पीछे छूट चुका था। हम धीरे-धीरे चलते हुए करीब तीन घंटे बाद आखिरकार उस जगह पहुंच गए, जहां से हमें कलकत्ता धार की चढ़ाई चढ़नी थी। इस बीच हमें कई ग्रामीण मिलते चले गए। वो हमसे कुछ देर मुखातिब होते और फिर तेजी से आगे बढ़ जाते। हम सब लोग यहां पहुंचने से पहले ही पस्त हो गए थे और हमने अपना सामान उतारकर अलसाने का फैसला लिया।
हम एक खुले तप्पड़ (पहाड़ी पर चौड़ी समतल खुली जगह) में पसर गए। धूप आनंदित कर रही थी। हमारे ठीक दाईं ओर सुपिन नदी के पार बाली ग्लेशियर के लिए जाने वाला रास्ता था। पूरा पहाड़ बर्फ से ढंका हुआ था और बिना पत्तों का जंगल किसी खूबसूरत पेंटिंग सरीखा लग रहा था। इन्ही पहाड़ों में कहीं जगमोहन गुम हो गया था। जगमोहन डाटमीर का वो गाइड था, जिसके भरोसे हम यहां आए थे। जगमोहन की मौत दरअसल एक एवलांच में फंसने के चलते हो गई थी। वो एक कुशल गाइड था और उसकी मौत की खबर से हम सब सन्न थे। पहाड़ों पर जिंदगी दुश्वारियां लिए हुए है... और मौत बेहद सस्ती। हादसों में जितने लोग पहाड़ों पर जान गंवा बैठते हैं, उसका यदि डेटा बनाया जाए तो वो चौंकाने वाला होगा। त्रासदियां पहाड़ों की पहचान सी बन गई हैं।
(भाग-3) 'वो सिर्फ एक लाश नहीं थी, विदाई में उमड़े एक पूरे समाज के बनने की कहानी थी'
बातों-बातों में हमने लायबर से बाली ग्लेशियर के बारे में भी जानकारियां जुटाई। बाली ग्लेशियर का ट्रैक हर-की-दून से बहुत ज्यादा मुश्किल और दुर्गम है। करीब 10 दिनों के इस ट्रैक को मैं पूरा करना चाहूंगा। शायद मैं एक रोज बाली ग्लेशियर के ट्रैक पर निकलूं... शायद, अगर मेरे पांवों में इतनी जान रही। बहरहाल, हम अभी कलकत्ता धार के नीचे उस तप्पड़ में अलसा ही रहे थे कि लायबर ने चलने का हुक्म सुना दिया। इस दफा हम में से लगभग सभी ने लायबर से थोड़ी और मोहलत मांग ली। जहां हम रुके थे वहीं गड़रियों के कुत्ते भी आ गए। शानदार कुत्ते, जो दोस्ताना होते हैं। कुछ देर यहीं ठहरकर हमने वापस कलकत्ता धार की चढ़ाई शुरू कर दी। ये जानलेवा चढ़ाई थी। पहाड़ी पर हमें अब बस सिर्फ चढना ही था।
इस बीच हम धीरे-धीरे चलते हुए कलकत्ता धार की पहाड़ी हांफते हुए लांघ रहे थे... आंखों के सामने प्रकृति की नेमतें बिखरी हुई थी... जिन्हें कैमरे में कैद करने का मोह नहीं छोड़ा जा सकता था। नतीजतन मैंने इस पूरे ट्रैक में तकरीबन 1200 तस्वीरें खींची... कुछ अपनी, कुछ दोस्तों की और बाकी प्रकृति की... जो लगातार चौंका रही थी। यहां पहाड़ियां एक लंबी घाटी का निर्माण कर रही थी। कलकत्ता धार एक खूबसूरत बुग्याल है.... जिसके दोनों ओर बर्फ ही बर्फ नजर आ रही थी। थकान के बावजूद हम उस जगह का लुत्फ ले रहे थे।
जारी है...
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