गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
(भाग-6) हरिराम के उस लकड़ी के घर पर जब सुबह हमारी नींद खुली, तब तक परिवार का हर सदस्य अपने हिस्से के काम का एक बड़ा हिस्सा निपटा चुका था। परिवार के बच्चे खेतों से कई चक्कर मारकर घास के ढेर अब तक ढोकर घर के सुरक्षित हिस्से में पहुंचा चुके थे। घर की महिलाएं जंगल से लकड़ियों का ढेर ले आई थी और खुद हरिराम अपनी दुकान का चक्कर लगाने के अलावा पूरे परिवार का खाना तैयार कर चुका था।
हमारे कमरे में चहलकदमी होते ही हरिराम एक जग में भरकर चाय लेकर हाजिर हो गया। हरिराम ने हमें बताया कि हमारा गाइड लायबर हमारे उठने के इंतजार में दो दफा चक्कर मारकर अब तक जा चुका है। चाय बंट ही रही थी कि गुलाबी गालों वाला लायबर दूर से ही चिल्लाता हुआ हाजिर हो गया। 'क्या सरजी... अब तक सो रहे हैं!' उसने सवाल उठाया तो आंखे मिंचमिचाते हुये मैंने जवाब उछाल दिया- 'इस जगह पर आकर भी हड़बड़ी ही करनी थी तो हम यहां आते क्यों!' वो मुस्कुरा दिया। उसने पूरे दिन का हिसाब पहले से तय कर लिया था। लायबर हमें जल्दी तैयार होने की हिदायत देकर सुबह के नाश्ते का इंतजाम करने चल दिया।
मैं, अपने चाय का प्याला लिये हुये हरिराम के पीछे-पीछे उसकी रसोई में दाखिल हो गया। रसोई में सुबह से आग जल रही थी, लिहाजा वो कमरा गर्म था। चूल्हें के पास ही एक औरत अपने दुधमुंहे बच्चे को दूध पिला रही थी। उस महिला ने खुद को कई परत कपड़ों से ढका हुआ था, गोयाकि कि उसने हाल ही में एक बेटी को जन्म दिया था। बातों-बातों में पता चला कि वो महिला हरिराम के बेटे की पत्नी है, जिसे वो भगाकर पास के ही गांव से ले आया था!
अब हरिराम का बेटा फौज में भर्ती हो गया है और वो जल्द छुट्टियां लेकर अपनी पत्नी और बच्चे से मिलने लौटने वाला है। हरिराम ने जब ये बात बताई तो मेरे लिये चौंकने की पर्याप्त वजहें थी। उसने इतने सामान्य ढंग से अपने बेटे की पत्नी को मुझसे मुखातिब करवाया था कि मैं एक पल के लिये झेंप गया, लेकिन अगले ही पल उस इलाके में महिलाओं की समाज में भूमिका और जीवनसाथी चुनने की आजादी को लेकर सोचने लगा। कितनी अच्छी बात थी कि हरिराम ने इस रिश्ते को न केवल स्वीकारा था, बल्कि वो जल्द अपने बेटे के लौटने पर अपने रिश्तेदारों को शादी की दावत देने की बात भी कह रहा था। वो शादी, जो अब तक तो नहीं हुई थी।
हिमालयी इलाकों में शादी की अलग-अलग परंपराएं मौजूद हैं। मसलन कई इलाकों में एक जमाने में दुल्हन को बचपन में ही चुन लिया जाता था और दुल्हन वर के वयस्क होने के बाद ही अपने ससुराल आती थी या फिर थोड़ा और पीछे जाएं जब घी शादी का महत्वपूर्ण हिस्सा था या फिर वो परंपराएं जब दूल्हे के बजाय उसके परिवार के पांच-सात सयाने लोग दुल्हन को घर लेकर पहुंचते थे... या वो इलाका जहां दूल्हे का परिवार अपनी शादी के खर्चे का आधा हिस्सा वहन करता था और शादी के दिन के लिये बकरों का इंतजाम दूल्हें के परिवार को करना होता था, ताकि शादी के दिन बारातियों को परोसे जाने वाले गोश्त का भार दुल्हन के बाप को न उठाना पड़े।
अलग-अलग हिस्सों में अपने-अपने ढंग की परंपराएं जो अवशेषरूप में अब भी जिंदा हैं। खैर, हरिराम व्यापारी है। उसकी तालुका में ही एक छोटी सी दुकान है, जहां वो सबकुछ मिलता है जो ऐसे इलाकों में जीवनयापन के लिये चाहिए। राशन से लेकर सब्बल और जूता, सब हरिराम की दुकान पर मिलता है। चाय, खत्म भी नहीं हुई थी कि लायबर रास्ते और सुबह के नाश्ते के लिये परांठे पैक कर हाजिर था। अब निकलने का वक्त था। हरिराम से हमने लौटते हुये रुकने का वायदा किया और हर की दून के लिये बढ़ गए।
हरिराम के घर से करीब 500 मीटर हमें सीधे नदी की ओर ढाल पर उतरना था और इसके बाद नदी के समानांतर करीब एक-डेढ़ किलोमीटर चलने के बाद चढ़ाई चढ़नी थी। सफेद-धवल सुपिन का पानी जब हरापन ली हुई नदी से अलग होकर उछलता, तो एक अलग जादुई खूबसूरती पूरी नदी पर तारी हो जाती। सुपिन के किनारे खेतों में लोग घास ढोते हुये नजर आ रहे थे। हमारे सामने दो विकल्प थे। पहला डाटमीर गांव से होकर गुजरने का, जिसकी बनावट पहाड़ी पारंपरिक शैली में अब भी जिंदा है और दूसरा सीधे जंगल का रास्ता लेते हुये सीमा पहुंचना, जिससे हम तकरीबन 1200 मीटर की खड़ी चढ़ाई चढ़ने से बच जाते।
हमने जंगल का रास्ता चुना, गोयाकि पारंपरिक पहाड़ी शैली की बसावट को करीब से देखने का मौका हमें ओसला में भी मिलने जा रहा था। इन विकल्प में से किसी एक को चुनने से पहले हम सुपिन के किनारे ही एक छोटे से तप्पड़ (घास का ऊबड़-खाबड़ मैदान) पर पसर गये। दो किलोमीटर की पैदल यात्रा ने ही हमें थकाना शुरू कर दिया था। ये लंबे वक्त से पैदल न चलने का नतीजा था। अभी हमें अगले 12 किलोमीटर सुपिन के साथ-साथ ही पहाड़ी पर ऊबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरना था, जहां चढ़ाई हमारा हौसला तोड़ने के लिये तैयार थी और प्रकृति चौंकाने को मौजूद।
सुपिन और रुपिन नदी टोंस की सहायक नदिया हैं और 148 किलोमीटर का सफर तय करने वाली टोंस नदी यमुना की सबसे बड़ी सहायक नदी है। टोंस हिमाचल और उत्तराखंड में बहते हुए सरहद भी तय करती है। इसे ही कुछ जगहों पर तमसा नदी भी कहते हैं।
हम काफी देर तक उसी तप्पड़ पर पसरे रहे जब तक कि लायबर ने हमसे चलने के लिये नहीं कह दिया। उसने लगभग खीझते हुये कहा कि मैं आप लोगों का गाइड हूं और आपको मुझे सुनना होगा, तभी हम समय से तय जगहों पर पड़ाव डालने के लिये पहुंच सकेंगे। हर एक किलोमीटर गुजरने के बाद हम लायबर से पूछते- 'अब और कितना रह गया है!' कंधे बोझ से टूट रहे थे और पांव आधा रास्ता गुजरने से पहले ही वजनी लगने लगे थे। इस दौरान रास्ते में चरवाहे मिले, एक बंगाली लड़कों का समूह मिला और जंगल के बीचों-बीच मैगी-चाय बेचकर गुजारा चलाने वाला वो दुकानदार भी मिला, जिसने एक राहगीर से खुद के लिये पटाखे मांग लिये। हालांकि, वो उस शख्स को पहचानता था।
दस-दस रुपये वाले दो मुर्गा छाप के पैकेट, तीन सुतली बम और एक रॉकेट.. उस साल तो कम से कम उस दुकानदार ने सिर्फ इतने ही पटाखे फोड़े, जिसमें से एक सुतली बम उसने टेस्टिंग के नाम पर वहीं उड़ा दिया था। जंगल में एक जोर का धमाका हुआ और फिर लगभग चहकते हुये दुकानदार ने उस शख्स से कहा- 'बाबा रे! धमाका तो ठीक ही कर रहा है!' चलने को हुये तो मुझे ध्यान आया कि मेरा ट्रायपॉड नजर नहीं आ रहा है। वो लायबर के पास था और हम पिछली दफा रास्ते में जहां कुछ देर के लिये ठहरे थे, ट्रायपॉड वहीं छूट गया था। करीब दो किलोमीटर पीछे। फोन से सिग्नल गायब थे। अब हम ऐसे इलाके में थे जिसे असल में सरकारी दस्तावेजों में दुर्गम कहा जाता है।
(लायबर... क्या उसे पहचानना मुश्किल है!)
लायबर ने बेहद शर्मिंदा होकर वापस उसी दिशा में दौड़ लगा दी और हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ने की नसीहत दी। अब हम जहां हमारा मन करता, वहीं पसर जाते और 200-200 मीटर के पैच कवर करते। करीब 30 मिनट बाद लायबर वापस लौट आया था। उदासी और शर्मिंदगी का भाव लिये हुये उसने कहा कि मैं वापस सांकरी चला जाता हूं। वो बेहद मायूस था, मानों कि उससे बड़ी भूल हो गई हो। वो अपनी इस गलती को बस किसी तरह सुधार लेना चाहता था। हमने उससे शर्मिंदा न होने की बात कही और ट्रायपॉड को भूलकर आगे बढ़ने को कहा।
वो अगले लंबे वक्त तक चुपचाप आगे-आगे चलता रहा और जब हम उससे कुछ पूछते तब वो जवाब दे देता। क्या मालूम वो क्या सोच रहा होगा! शायद ये कि उसने पहली ही दफा गलती कर दी? या फिर शायद ये कि कहीं हम उसके पैसे ना काट लें? न जाने वो चुप क्यों हो गया था... बड़ी मशक्कत से हम उसके गुलाबी गालों पर हंसीं को वापस तैराने में कामयाब हो सके। उसने फिर एक ऊंची चोटी से आवाज लगाई- 'सरजी, जल्दी करो यार आप लोग, अभी हमें 4 किलोमीटर और चलना है। रात हो गई तो दिक्कत होगी।' असल में रात बस होने ही वाली थी और हम अब भी अपनी मंजिल से बहुत पीछे थे। हम गंगवार के आस-पास पहुंचे थे।
ये वो इलाका था जहां सिर्फ नदी का शोर था। दूर-दूर तक सिर्फ ऊंचे बर्फीले पहाड़ों के आगोश में सन्नाटा पसरा हुआ था। हम चुपचाप थकते, गिरते-पड़ते अपनी मंजिल के करीब एक-एक कदम जमाकर आगे बढ़ रहे थे। जैसे-जैसे धूप ढल रही थी, हवा का तीखापन भी बढ़ रहा था। हमने बहुत सारा वक्त तस्वीरें उतारने में खफा दिया था और इस बात में भी कि सरकार यहां उडनखटोले क्यों नहीं लगवा देती!
मैं नदिंयों की कल्पना जब भी करूंगा, मेरे जेहन में सुपिन का ख्याल हमेशा रहेगा... जो साफ भी है और एक खूबसूरत घाटी का निर्माण भी करती है। देर शाम आखिरकार हम सीमा गांव पहुंच गये। वो दीपावली का दिन था। 7 नवंबर। दीपावली की उस रात दुनिया में कितना शोर शराबा हुआ हम नहीं जानते, असल में हमारी दीपावली सुपिन नदी के किनारे बसे सीमा गांव में मनी, जहां सिवाय सन्नाटे और बर्फीली हवाओं के शोर के और कुछ नहीं था।
दीपावली शायद इसी स्वरूप में पहली दफा मनी होगी... शांति और उल्लास से, जिसे हमने आज फूहड़ता और बेजा शोर में तब्दील कर दिया है। अंधेरे में चमकते असंख्य तारों, चार टंग्सटन वाले पुराने पीले बल्ब और दोनों ओर पसरे विशालकाय पहाड़ों के बीच एक नदी का गीत था सिर्फ वहां। देवदार के पेड़ उन विशालकाय पहाड़ों पर झूम रहे थे। पर्यटक अपने तंबुओं में दुबके हुए थे। वो शायद इसी खुशनुमा शाम का जिक्र कर रहे होंगे, जिसका जिक्र हम देर रात करते रहे।
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