केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।
(एपिसोड - 2) सितंबर की उस खुशनुमा सुबह मुनस्यारी में मौसम थोड़ी देर के लिए खुला तो सामने पंचाचूली की भव्य चोटियां देख हम सभी चहक उठे। बस छूने भर की दूरी पर हिमालय की ये आकर्षित करने वाली चोटियां अचानक अपने मोह से उस वक्त छोड़ती हैं, जब यह अहसास होता है कि चोटियां नजर जरूर नजदीक ही आ रही हैं, लेकिन उन्हें छूना इतना आसान भी नहीं। पंचाचूली की चोटियां मुनस्यारी से बेहद खूबसूरत दिखती हैं। किसी चिमनी सरीखी पांच भव्य चोटियां और उनका बर्फ से ढका विशाल ढलवा आंगन, किसी को भी मोह ले।
हिमालय के इस बेहद पुराने ठंडे कस्बे मुनस्यारी में पंचाचूली से जुड़ा एक महाभारतकालीन मिथ भी खूब प्रचलित है। इसे आप लोक कथाओं के फैलाव की सरहद भी कह सकते हैं। एक लोक कहावत है कि पांडव जब स्वर्ग की ओर जा रहे थे, तब उन्होंने यहीं पंचाचूली में ही आखरी बार भोजन बनाया था! एक स्थानीय गाइड ने जब हमसे यह बात कही तो हमें लगा कि अब भला यह कैसे संभव हो सकता है! हिमालय के ओर-छोर तक महाभारतकालीन किस्सों की भरमार सुनाई देती है जो लोककथाओं और लोकगीतों के स्वरूप में अब भी मौजूद हैं।
पहले के मुकाबले अब मुनस्यारी अपने मूल से काफी दूर तक फैल गया है। सड़कों की पहुंच और गाड़ियों की रेलमपेल के बीच इधर भी लोग पहुंचने लगे हैं। मुनस्यारी से नीचे दूर पहाड़ की जड़ में बहती गोरी गंगा की आवाज अपने होने का एहसास दूर से ही करवा देती है। मुनस्यारी से मिलम, रालम, नामिक समेत कई और ग्लेशियरों व बुग्यालों के लिए जाने वाले रास्ते खुलते हैं। इसे जोहार घाटी का प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। जोहार घाटी के दोनों ओर बीहड़ इलाकों में कई छोटे-बड़े गांव बसे हैं।
मुनस्यारी से होते हुए तिब्बत जाने का पुराना रास्ता अब भी मौजूद है। उस दौर में जब तिब्बत से व्यापार होता था, तब मुनस्यारी को व्यापारी अपने अहम पड़ाव और गोदामों के लिए प्रयोग करते थे। भारत की ओर से तब नमक का व्यापार ज्यादा होता था। 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद हिमालय के इस हिस्से की गुलजार यात्रा बंद पड़ गई। तिब्बत के साथ व्यापार बंद होने से जोहार घाटी में बसे गांव के गांव सुनसान होते चले गए। कुछ सालों के लिए तो ऐसा लगने लगा था कि घाटी से समृद्धि ही चली गई है, लेकिन जल्द अगली पीढ़ी के लोगों ने इसे बचा लिया। हालांकि, शौका समुदाय के लोग आजीविका के लिए अन्य जगहों में तो बसे, लेकिन उन्होंने गांवों को भी अपने जेहन में रखा।
इसी घाटी में एक छोटा सा गांव है दरकोट। मुनस्यारी से 6 किमी दूर इस गांव में सौ साल पुराने मकान अब भी देखने को मिल जाते हैं। इन मकानों की खिड़कियां व दरवाजों में नक्काशी देखते ही बनते ही। भवनों की भव्यता इस घाटी की समृद्धि बयां करने के लिए पर्याप्त है। इस गांव में हाथ से बुने हुए पश्मीना व अंगूरा के शॉल मिलते हैं। इसके अलावा भेड़ की ऊन के बने कंबल भी मिलते हैं। मुनस्यारी में ही तिकसेन गांव के मास्टरजी डॉ. एसएस पांगती के घर में बनाया गया एक अनोखा म्यूजियम भी है। इस म्यूजियम में घाटी की संस्कृति और कला की झलक दिखाई देती है। म्यूजियम में तिब्बत व जोहार के व्यापार के दौर के कई कागजात भी सुरक्षित रखे गए हैं।
(पंचाचूली की भव्य चोटियां)
कहने को मुनस्यारी उच्च हिमालयी इलाके का एक सुदूर कस्बा भर है, लेकि प्रकृति की नेमतें इस इलाके में इस कदर बरसी हैं कि जो यहां एक दफा पहुंचता है, वो दोबारा यहां पहुंचना चाहेगा। 2200 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद मुनस्यारी में टीआरसी के साथ ही बारह लॉज भी 2007 तक मौजूद थे। अब इस संख्या और सुविधाओं दोनों में इजाफा हो गया है। पर्यटकों की यहां सालभर ही खूब आवाजाही रहती है।
जोहार घाटी के गांवों से व्यापार चौपट हुआ तो सरकारी सेवाओं और निजी क्षेत्रों में काम करने के लिए निकले घाटी के शौकाओं ने मुनस्यारी के आस-पास भी अपने आसियाने बना लिए हैं। ज्यादातर वक्त मौसम के मामले में मुनस्यारी में सुबह-शाम हल्की ठंड रहती ही है, जबकि जाड़ों के दिनों में बर्फ की सफेद चादर घाटी समेत आस-पास चारों ओर बिछी रहती है। जाड़ों में बर्फ गिरने पर बैटूली धार व मुनस्यारी से मात्र सात किमी की दूरी पर मौजूद खूबसूरत खलिया टॉप की बुग्याली ढालों में स्कींइग भी होती है, जो कि इसे साहसिक पर्यटकों के लिए भी मुफीद डेटिनेशन में बदल देती है। खलिश टॉप का इलाका बर्ड वॉचिंग के लिहाज से भी काफी माकूल है और मोनाल के लिए ये इलाका मशहूर है।
पूरा दिन हमने मुनस्यारी और आस-पास के इलाकों में टहलते हुए ही गुजार दिया था। शाम होते-होते फिर से मेघ बरसने लगे थे। हम सभी अगले दिन की की तैयारी में जुटे ही थे कि तभी हमारा पुराना मित्र वीरू बुग्याल मिलने के लिए पहुंच गया। वीरू का मुनस्यारी में ही एक रेस्त्रां है और वो टूर आपरेटिंग का भी काम करता है। वीरू प्रशासन व आईटीबीपी के द्वारा पर्यटकों को परेशान करने की कारगुजारी से बहुत ही खिन्न था। वीरू ने गुस्से में बताया- ‘लीलम गांव को जाने वाला पैदल रास्ता तो धापा से आगे सड़क बनने के चलते खत्म हो गया है। घोड़े भी एक साल से जोहार घाटी में ही हैं। पर्यटन तो खत्म ही समझो। मुनस्यारी में तहसील प्रशासन और आईटीबीपी की कारगुजारी ऐसी है कि यहां पर्यटक दोबारा आने से कतराने लगा है। पासपोर्ट होने के बावजूद भी पर्यटकों को परेशान किया जाता है। मिलम तक जाने के लिए जो परमिट बनता है, उससे ज्यादा आसान तो पासपोर्ट बनाना है।’ वीरू काफी देर तक चरमराए पर्यटन पर दुखड़ा रोता रहा और फिर खीझ कर कहा- 'ये सब तो चलता ही रहेगा, ये बताओ तुम्हारी तैयारी कैसी है!' तब तक हम अपना सामान पैक कर अगली सुबह चलने की तैयारी कर चुके थे।
अगली सुबह जब हम निकलना था तो एक नई मुसीबत हमारे सामने थी। सुबह से ही तेज बारिश हो रही थी। बारिश रुकने के इंतजार में ही हमारा कीमती वक्त निकल रहा था। हमारे कमरे के बगल वाले कमरे में ही लखनऊ से आई हुई जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया की टीम भी रूकी हुई थी। दो माह मिलम ग्लेशियर में शोध करने के बाद वो नीचे उतरे थे और अगले ही कुछ दिनों बाद वो मार्ताेली जाने की तैयारियों में उलझे थे।
कुछ देर बाद ही बारिश हल्की पड़ने लगी। बारिश के रुकने से पहले ही हम निकल पड़े। हमने धापा से आगे चिलम धार तक के लिए जीप कर ली थी। यहां सड़क को काट कर भारी भरकम बोल्डर व मिट्टी को नीचे फेंकने से मुख्य पैदल रास्ता बंद हो गया था। बोल्डरों के मलबे के बीच जो रास्ता लोगो के चलने से बना था, वो इस ट्रैक पर एक तरह से शुरुआत में ही इम्तेहान लेने जैसा था। गोरी नदी के किनारे-किनारे चलते हुए जिमघाट तक पहुंचने के लिए बोल्डरों में फिसलने की मार, कीचड़ व जोंक के हमले से बचने के लिए शरीर के जो नाना प्रकार के आसन बनाने पड़े वो अद्भुत थे। पास ही हमें एक दुकान नजर आई।
(भाग- 2) : ‘हमारे उपकरणों ने सिग्नल देना बंद कर दिया, केबिन के चारों ओर बर्फ की दीवार जम गई’
ये गंगा सिंह टोलिया की दुकान थी, जो जिमीघाट गाड़ व गौरी नदी के संगम तट पर बनी है। पहले उनकी दुकान शंभू गाड़ के पास थी। पैदल रास्ता बंद होने के चलते उन्हें अब अपना नया ठिकाना यहां बनाना पड़ा था। दुकान पर रुकते ही हमने सबसे पहला काम अपने शरीर से चिपकी जोंक हटाने का किया। जिमीघाट नदी पर बने पुल की हालत काफी खस्ताहाल थी जो भारत के सुदूर इलाकों में विकास की कहानी बयां करती है। टोलिया साहब ने हमें बताया कि इस गाड़ का उद्गम लगभग आठ किमी दूर क्वीरी जिमिया में है और सालभर इस छोटी से नदी में पानी का अच्छा-खासा प्रवाह बना रहता है।
दुकान से विदा लेकर हम आगे के लिए बढ़ गए। 1716 मीटर की ऊंचाई पर बसे लीलम गांव तक पहुंचने से पहले जिमीघाट से हल्की चढ़ाई शुरू हो जाती है। खैर, जैसे-तैसे जब हम लीलम गांव पहुंचे तो गांव का नजारा हमें सूना-सूना सा दिखा। सुविधाओं के अभाव ने ग्रामीणों को गांव छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। इस गांव के ज्यादातर लोग अब धापा व मुनस्यारी में बस गए हैं। गांव की सीमा शुरू होते ही सबसे पहले हमें हरमल सिंह घनघरिया की कंट्रोल की दुकान नजर आती है। यहां थोड़ी चहल-पहल नजर आई। उम्र के चौथे पड़ाव में चल रहे हरमलज अब गांव को छोड़ कहीं और जाने को तैयार नहीं हैं। हरमल ने अपने यहां पर्यटकों के ठहरने की भी व्यवस्था की हुई है। गांव के शीर्ष हिस्से से मिलम के लिए सड़क बन रही है। इस सड़क को ग्रिफ बनवा रही थी।
हालांकि, हरमल ग्रिफ के काम से खिन्न हैं। वो कहते हैं- ‘ग्रिफ ने हरे-भरे पहाढ़ काट कर हमारे सदियों पुराने पैतृक रास्तों को तबाह कर दिया है। ना जाने कब ये रोड बनेगी। अभी ना जाने पहाढ़ों का ये कितना विनाश करेंगे।’ गांव के बारे उन्होंने बताया- ‘यहां गांव में 15 परिवार के करीब थे, लेकिन अब सब नीचे बस गए हैं।' कम्युनिकेशन के लिए बचे-खुचे गांव वाले मोबाइल टावर के काम ना करने पर हरमन के डब्लूएलएल फोन के भरोसे रहते हैं, जो अक्सर खराब रहता है।
ये इकाला साल 2007 तक भी सुविधाओं से किस कदर महरूम था, इसका अंदाजा गांव में बिजली न पहुंचने से लगाया जा सकता है। लीलम गांव में बिजली के खड़े पोल में तार झूलते दिखे, लेकिन तब तक भी वहां बिजली नहीं पहुंची थी। आईटीबीपी की लीलम चौक पोस्ट में हाजरी देने के बाद हमने रास्ते के किनारे ही नेत्र सिंह की दुकान में दोपहर का भोजन किया। सादगी से भरी हुई विशुद्ध पहाड़ी थाली। यहां कुछ देर सुस्ताने के बाद हम आगे को बढ़ गए। अभी हमारा सफर लंबा था। इस रास्ते में रूपसिया बगड़ में भी रूकने के लिए हट बनी हुई है, लेकिन यहां का सौंदर्य ना जाने क्यों हमें आतंकित करता हुआ ही ज्यादा लग रहा था। एक अजीब किस्म की डरावनी खामोशी तारी थी।
रास्ते में जगह-जगह से गिरते झरने नीचे गहरी घाटी में बहती गोरी से मिलने के लिए आतुर से दिखे। इस बीच रास्ते में मिले अनगिनत झरनों में मालछेयूब झरना ही खूबसूरती में बाकी सब के मुकाबले बाजी मार गया। ये खूबसूरत झरना है। कुछ देर इस झरने को निहारने के बाद हम आगे बढ़ चले। छोटे-छोटे पड़ाव के बाद हमें पंचपाल उडियार पहुंचते-पहुंचते शाम हो गई थी। जब तक चोटियों पर धूप सिमटती रही हम चलते रहे और फिर आखिरकार पंचपाल उडियार के पास ही हमें उस रात डेरा डालना पड़ा।
गरम पानी का स्रोत होने से इसे गरमपानी पडाव के नाम से भी बुलाते हैं। यहां पर भी राहगीरों के लिए एक हट बनी हुई है, जहां हमने अपनी गुजारी। ये बेहद डरावनी रात थी। हमारे ठीक ऊपर चट्टान से लगातार पानी रिस रहा था। ये जगह बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं थी, लेकिन बावजूद इसके रात तो गुजारनी ही थी... धीरे-धीरे काले आसमान पर सितारे टिमटिमाने लगे और रात के शोर में गोरी का आवेग और जोर से सुनाई देने लगा। सन्नाटे को चीरती गोरी की लहरे और सिर के ऊपर खुला आसमान, हम घर के बिस्तरों से दूर भी नींद की आगोश में जाने लगे थे...
जारी है...
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