तिब्बत पहुंचने वाली पहली विदेशी औरत के लिये आसान नहीं थी ये यात्रा!

डी/35तिब्बत पहुंचने वाली पहली विदेशी औरत के लिये आसान नहीं थी ये यात्रा!

अशोक पांडे

अशोक पांडे साहब सोशल मीडिया पर बड़े चुटीले अंदाज में लिखते हैं और बेहद रोचक किस्से भी सरका देते हैं. किस्से इतने नायाब कि सहेजने की जरूरत महसूस होने लगे. हमारी कोशिश रहेगी हम हिलांश पर उनके किस्सों को बटोर कर ला सकें. उनके किस्सों की सीरीज को हिलांश डी/35 के नाम से ही छापेगा, जो हिमालय के फुटहिल्स पर 'अशोक दा' के घर का पता है.

अपने सौवें जन्मदिन पर जब उसने अपना पासपोर्ट रिन्यू कराने भेजा तो पासपोर्ट दफ्तर ने उसकी आयु का हवाला देते हुए पूछा कि वह ऐसा क्यों करना चाहती हैं. उसने जवाब भेजा – “जस्ट इन केस.”

आज से कोई डेढ़ सौ बरस पहले अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील ने एक असाधारण जीवन जिया और वैसी ही उपलब्धियां हासिल कीं. तिब्बत पहुँचने वाली वह पहली विदेशी औरत थी. याक की पूंछ के बालों की बनी नकली चोटी चिपका और चेहरे पर कालिख पोत कर भिखारिन का रूप धरे इस औरत ने जब छिपते-छिपाते तिब्बत की राजधानी ल्हासा में प्रवेश किया वह छप्पन साल की हो चुकी थी. यह 1924 की बात है. उन दिनों ल्हासा में किसी भी बाहरी व्यक्ति का प्रवेश प्रतिबंधित था.

फ्रांस के एक बुर्जवा परिवार में जन्मी अलेक्जैन्ड्रा बचपन से ही विद्रोही स्वभाव की थी. पन्द्रह साल की आयु में वह पहली बार घर से भाग कर नीदरलैंड चली गयी. उसे लन्दन जाकर अंगरेजी सीखनी थी लेकिन उसके पैसे ख़त्म हो गए. वापस आई. घर पर डांट खाई और थोड़े समय बाद फिर भाग गयी. अठारह की होने तक वह न सिर्फ लन्दन हो आई थी, उसने अपने आप से स्पेन और स्विटजरलैंड भी देख लिया था. लन्दन की थियोसॉफिकल सोसायटी में रहते हुए उसकी दिलचस्पी बौद्ध धर्म में हुई जिसका नतीजा यह हुआ कि इक्कीस साल की होने पर उसने भारत और श्रीलंका की डेढ़ साल लम्बी यात्रा कर डाली. एक संबंधी के मरने बाद उत्तराधिकार में उसे इत्तफाकन एक रकम मिल गयी थी. उसे उसने इस यात्रा पर खर्च किया.

भारत और बौद्ध एशिया का आकर्षण उसे जीवन भर बांधे रहने वाला था, जहाँ उसके जीवन के कई दशक बीते. अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील ने संस्कृत और तिब्बती भाषा सीखी और कई धर्मग्रंथों का फ्रेंच अनुवाद किया. खुद भी कोई तीस किताबें लिखीं जिनमें अनेक यात्रावृत्त शामिल हैं. 1900 की शुरुआत से 1946 तक उसने उच्च हिमालयी इलाकों में लम्बी लम्बी यात्राएं कीं. इन सभी यात्राओं में उसके साथ उसका गोद लिया तिब्बती बेटा योंगदेन, जो खुद एक बौद्ध लामा था, रहा करता.

36 की आयु में उसने एक अमीर रेलवे इंजीनियर से शादी की जरूर लेकिन दोनों बहुत कम साथ रह सके. भारत जाने से पहले उसने अपने पति से कहा था कि वह 19 माह में लौट आएगी. वतन लौटने में उसे चौदह साल लग गए. चौदह साल के इस अलगाव के बाद जब मियाँ-बीवी की मुलाक़ात हुई तो कुछ ही दिनों में दोनों ने तलाक ले लिया. यह अलग बात है कि तलाक के बाद दोनों के बीच चला लंबा और शानदार पत्र-व्यवहार दोनों के एक-दूसरे के प्रति समर्पण और प्रेम का दस्तावेज बन चुका है.

(1924 के इस फोटो में पोटाला महल के सामने भिखारी के भेस में अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील बीच में बैठी हैं जबकि उनके दाएं बालक लामा योंगदेन है जिसे उन्होंने उसी साल गोद ले लिया था.)

 

अठहत्तर साल की आयु में इस स्त्री ने बाकायदा रिटायरमेंट लेकर फ्रांस के एक गाँव में बसने और अपने अनुभवों को किताबों की सूरत देने का फैसला किया. यात्राओं से भरपूर अपने जीवन में अलेक्जैन्ड्रा ने और भी अनेक दिलचस्प काम किये. एक समय उसने ट्यूनीशिया में एक दोस्त के साथ मिलकर कसीनो चलाया तो एक समय हनोई के ओपेरा हाउस में कई साल तक शास्त्रीय गायन किया. लंदन के ब्रिटिश म्यूजियम में महीनों-महीनों शोध कर चुकी अलेक्जैन्ड्रा ने अपने मुखर राजनैतिक विचारों को अभिव्यक्ति देने के लिए कितने ही पैम्फलेट्स भी लिखे. इसके अलावा अपनी जवानी के दिनों में वह पेरिस की मशहूर सोशलाइट के तौर पर पेज थ्री आइकन मानी जाती थी. 

अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील अपने पति और गोद लिए बौद्ध बेटे की मौत के कई बरस बाद तक जीवित रहीं. अदम्य साहस और अथक मेहनत से तराशे गए अपने एक जीवन के भीतर उसने इतने सारे जीवन जिए कि एकबारगी यकीन नहीं होता. दूसरे लोग जिस उम्र में रिटायर होकर बुढ़ाने लगते हैं, यह असंभव औरत हर साल बिलकुल नए मिशन पर निकलती थी.

सत्तासी साल की अलेक्जैन्ड्रा ने फ्रांस छोड़ कर मोनाको में बसने का फैसला किया. पहले उसका इरादा वहां घर बनाने का था लेकिन फिर उसने होटल में रहने का फैसला किया. कभी उसे किसी होटल का खाना पसंद नहीं आता तो किसी का स्टाफ. अगले दो साल तक वह मोनाको के एक होटल से दूसरे होटल में रातें बिताती रही. आखिरकार 1959 के जून में उसकी मुलाक़ात मेरी मेडलीन नाम की एक युवा स्त्री से हुई जिसने उसकी सेक्रेटरी बनना स्वीकार किया.

मेरी मेडलीन ने अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील की मृत्युपर्यंत सेवा की. सेक्रेटरी होने के साथ साथ उसने अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील की बेटी, माँ और शिष्या के रोल भी निबाहे.  1960 का दशक यूरोप और अमेरिका में युवा विद्रोह और हिप्पीवाद का दशक था. बहुत बड़ी तादाद में युवा घर और सुविधाओं का संसार छोड़कर दुनिया को खोजने निकल रहे थे. उस युग के प्रतिनिधि स्वर माने जाने वाले जैक करुआक जैसे बड़े लेखक और बीट जेनेरेशन के खलीफा एलेन गिन्सबर्ग जैसे कवि अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील को अपना रोल मॉडल मानते थे. वह संगीत और कला में के क्षेत्र में भी विद्रोह का दशक था जब जिमी हेंड्रिक्स और बॉब मार्ली जैसे गायकों के कल्ट बन रहे थे. समाज के बनाए सारे नियमों को नकारने वाली और अपनी शर्तों पर अपना जीवन जीने वाली यह पीढ़ी जिस काम को बड़ा साहस समझ रही थी, एक शताब्दी पहले जन्मी अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील उससे भी बड़े कामों को सत्तर साल पहले अंजाम दे चुकी थी और अपना अलग कल्ट तैयार कर चुकी थी.

8 सितम्बर 1969 को जब उनकी मौत हुई उन्हें 101 साल का होने में एक महीना बाकी था. चार साल बाद अलेक्जैन्ड्रा डेविड-नील और उनके गोद लिए बेटे की अस्थियाँ लेकर मेरी मेडलीन भारत आई. जैसा अलेक्जैन्ड्रा ने चाहा था इन अस्थियों को बनारस ले जाकर गंगा में प्रवाहित किया गया.

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