गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
यमुना के किनारे-किनारे लगभग रेंगती हुई रफ्तार से अब हम नौगांव पहुंच गए थे। दोपहर के 12 बजे चुके थे और हमने करीब 7 घंटों में कुल 115 किमी का सफर ही तय किया था। दिन चढ़ चुका था, हमारी रफ्तार सुस्त थी, लेकिन घूमने में हड़बड़ी का भी तो कोई रोल नहीं रह जाता! हम जहां जा रहे थे, वहां टेंपरेचर माइनस में मिलने वाला था, लिहाजा हमने नौगांव में सबसे पहला काम रम खरीदने का किया, जिसकी हमें बर्फीली पहाड़ों पर सबसे ज्यादा जरूरत पड़ने वाली थी। आप शराब नहीं पीते अच्छी बात है, लेकिन आप बर्फ से लकदक पहाड़ों पर रम को मना करते हैं, तो आप बेवकूफ हैं और अपने शरीर को गैरजरूरी कष्ट दे रहे हैं। ओल्ड मॉन्क... आह! ये दवा है, पहाड़ों पर तो कम से कम जब आप माइनस 6 या 10 डिग्री पर सोने की जद्दोजहद कर रहे हों, तब ये आपके शरीर को गर्म रखने में मददगार होती है। नौगांव में हमने अपने लिए करीब 3 ओल्ड मॉन्क की बोतलें भी जरूरी सामान की सूची में शामिल कर ली और इसके बाद हम सीधे पास ही बह रही यमुना नदी में उतर गए।
सड़क यहां पर तकरीबन यमुना के समानांतर ही आ जाती है। यहां एक ओर पुरोला के लिए सड़क मुड़ जाती है और दूसरी ओर लाखामंडल का रहस्य छिपा हुआ है! वहां मैं आपको वापसी में ले चलूंगा, फिलहाल आइए एक डुबकी लगाएं। पिघली हुई बर्फ की नदी में, जो बमुश्किलन यहां तक पहुंचने में 80 किमी का सफर तय करती है। यमुना नदी की कल्पना आप जिस तरह से दिल्ली में करते हैं, यहां नदी ठीक उसके उलट साफ नजर आती है। यहां यमुना किनारे खड़े होकर आप नदियों की इकोलॉजी की तबाही का आंकलन कर सकते हैं, गर आपने दिल्ली में बदबूदार यमुना को करीब से देखा हो या फिर ताजमहल के पीछे मृत हालत में बहती हुई यमुना को ही आपने देखा है तो फिर ये जगह आपको प्रकृति के और करीब ले जाएगी।
खैर, मैं हमेशा की तरह पहले संभावनाएं तलाशता रहा कि पानी उतरने लायक है या नहीं... नदी के नीचे पत्थर चमक रहे थे। धूप छन-छन कर पानी के भीतर उतर रही थी, जिसमें पीलापन लिए हुए पत्थर किसी पेंटिंग सरीखे नजर आ रहे थे। जब तक मैं नदी को निहार रहा था, उतनी देर में पारिजात यमुना में डुबकी लगा चुका था... 20 सेकेंड के बाद ही पारिजात कंपकपाते शरीर को संभालकर नदी से बाहर निकल आया। उसके गीले बदन और कंपकंपाहट ने मुझे ठंडेपन का अहसास करवा दिया था। पानी वाकई जमा देने वाला था। पारिजात गर्म पत्थरों पर पसर गया और फिर जोश भरकर हमें पानी में उतरने के लिए कहने लगा।
कुक्कू और शीतल को नदी में उतरने में कोई दिलचस्पी नहीं थी और राणा ने नदी में उतरने के ख्याल को अपने डर के चलते छोड़ दिया। उसने कैमरा थामा और मैंने बहुत सोच विचार करने के बाद कपड़े उतारने शुरू किए। थुलथुल पेट पर हवाएं सुई की तरह चुभ रही थी और जींस उतारते ही सिहरन बढ़ गई। चटख धूप के बावजूद ठंड का अहसास होने लगा था। ये नवंबर का महीना था, लिहाजा पहाड़ों पर ठंड नहीं होगी, यह सोचना ही निरा मूर्खता थी। मैंने करीब 10 मिनट का वक्त और लिया और तब तक नदी में छलांग नहीं लगाई, जब तक कि पारिजात ने बहुत उकसाने और नदी में पत्थर मारकर मुझ पर छींटों की बरसात नहीं कर दी।
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अब मेरे पास सिवाय डुबकी लगाने के और नदी में तैरने की अपनी असीम इच्छाओं की पूर्ति करने के सिवाय कोई और चारा नहीं रह गया था। मैंने पूरी ताकत अपने डर को काबू में करने में खपाकर उस साफ बर्फीली यमुना नदी में छलांग लगा दी... मैं पानी के भीतर तेजी से हाथ मार रहा था और अगले 25-30 सेकेंड के भीतर ही किनारे निकल आया था। भयानक ठंड पूरे शरीर से गुजरकर मानों एक जगह सिमट गई हो। मैं जल्दी से बाहर निकला और नदी किनारे गर्म पत्थरों पर लेट गया। मुझे याद नहीं है इससे पहले कब मैंने सर्दियों में किसी नदी में डुबकी लगाई है!
खैर ये एक शानदार डाइव थी, जो मुझे मेरे बचपन के दिनों में ले गई। अब मजा आने लगा था, लेकिन पानी इतना ठंडा था कि दो दफा और डुबकी लगाने के बाद मैंने हाथ खड़े कर दिए... ठंड में मैं ज्यादा देर नहीं तैर सकता... ये अच्छा ख्याल नहीं है। ज्यादा ठंड बुरी तरह से बीमार कर सकती थी। हमारा सफर शुरू ही हुआ था और मैं तैरने का आनंद लेने के चक्कर में बीमार नहीं पड़ना चाहता था। पारिजात और मैं दोनों ही तैराक हैं। हम तैर लेते हैं... खतरा बहुत ज्यादा नजर न आए तब। पहाड़ी नदियों में उतरने से पहले उसे भांपना होता है कि ये हमें कितना बहा सकती है और हम किस हद तक निकलने का हुनर रखते हैं।
हालांकि, यमुना नदी में बहाव तो था, लेकिन गहराई बहुत ज्यादा नहीं थी। हम पानी से निकलने के बाद सुस्ताते रहे... करीब 90 मिनट बाद हम वापस अपनी गाड़ी में सवार हो चुके थे। हमने फैसला किया कि हम महाभारत कालीन मिथकों से भरे हुये लाखामंडल वापसी में जाएंगे और फिलहाल हमें आगे बढ़ जाना चाहिए। दोपहर के दो बजने वाले थे और अभी भी हमें पहाड़ों पर करीब 71 किमी का सफर तय करना था। हवाएं धीरे-धीरे सर्द होती जा रही थी और नदी में तैरने के बाद जोरों की भूख लग रही थी।
संकरी सड़कों पर धीरे-धीरे रेंगते हुए हम पुरोला पहुंचे। पुरोला बेहद खूबसूरत जगह है। पुरोला घाटी खेती के लिहाज से बेहद उपजाऊ घाटी है। नौगांव से थोड़ा आगे बढ़ते ही नदी के दोनों और बसे हुये खूबसूरत गांव और दूर तक फैले हुये खेत, इस इलाके की समृद्धि को बयां करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि पहाड़ों के बाकी हिस्सों की तरह इस इलाके में खेत बंजर नजर नहीं आते। चारों ओर पहाड़ों के बीच इस खुली घाटी का अपना आकर्षण है। एक और दिलचस्प बात जो मैंने इस घाटी में मैंने जो नोटिस की, वो थी यहां की सामुदायिक सहभागिता। असल में जिस वक्त हम इस इलाके से गुजर रहे थे, ठीक उसी दौरान एक शव यात्रा गुजर रही थी। इस शवयात्रा में 500 से भी ज्यादा लोग थे, जो इलाके में कम्युनिटी लाइफ की मजबूती को बयां कर रही थी। मैंने पहाड़ों पर कई शवयात्राएं देखी हैं, लेकिन जो हुजूम इस शवयात्रा में था, ऐसा मैंने पहले कभी नहीं देखा। ढोल-दमाऊ की थाप पर ये अंतिम यात्रा अपने आप में भव्यता समेटे हुई थी।
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पहाड़ों के कई हिस्सों में शवयात्रा को गाजे-बाजे के साथ ले जाने का चलन है, लेकिन यह तभी होता है जब किसी इलाके का कोई नामी शख्स अपनी पूरी जिंदगी गुजारने के बाद अपनी देह छोड़ता है। मुझे लगा कि पुरोला में जो शवयात्रा गुजर रही है, वह कुछ ऐसी ही होगी। शायद इलाके का कोई मशहूर शख्स गुजर गया होगा, लेकिन मैं गलत था। ये शवयात्रा एक आम ग्रामीण की थी। मैंने जब इस बात की पुरूष्ट के लिये एक जवान लड़के से पूछा तो उसने कहा- 'यहां अंतिम यात्रा इसी तरह की होती है। सारे लोग जुटते हैं और मरने वाले शख्स को अंतिम विदाई दी जाती है।'
इस शवयात्रा का हुजूम इतना बड़ा था कि इसका एक हिस्सा नदी किनारे पहुंच गया था, जबकि दूसरे हिस्से के लोग अब भी नदी से 200 मीटर ऊपर सड़क पर ही थे। ये अपने आप में कमाल की बात थी। इस तरह की सहभागिता किसी भी समाज के मजबूत रिश्तों को दिखाती है और ये पहाड़ का वो हिस्सा था, जो सरकारी फाइलों में पिछड़ेपन का दाग लिये हुए है। उस शवयात्रा में शामिल होने वाले लोगों का कारंवा लगातार बढ़ता ही जा रहा था। हम धीरे-धीरे उस कारवां को पीछे छोड़ पुरोला शहर से बाहर निकलकर इस शहर के ऊपरी हिस्से में चीड़ के खूबसूरत जंगल में दाखिल होने लगे थे।
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