गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
पुरोला कस्बा पीछे छूटता है और हम चीड़ के खूबसूरत जंगल में दाखिल होते हैं। एक खास बात और जो मुझे इस इलाके में नजर आई वो था औरतों का पहनावा। यहां औरतें घाघरा नुमा आउटफिट पहनती हैं, जबकि गढ़वाल के बाकी हिस्सों में औरतें साड़ियां या फिर सूट पहनती हैं। वो बेहद रंगीन घाघरों को पहनकर चल रहा औरतों का एक झुंड था, जिससे मुझे इन इलाकों के अलग पहनावे का अहसास हुआ। उन्होंने सिर पर भी एक खास किस्म का रंगीन कपड़ा बांधा हुआ था और वो सब पास में ही लगे हुए एक मेले से वापस लौट रही थी। हां, नीति और माणा घाटी में जरूर भेड़ की ऊन से बना हुआ 'पाखला' पहने हुए मैंने कई औरतों को देखा है। ऐसा वो ठंड से बचने के लिये करती हैं। मर्द इन इलाकों में भेड़ की ऊन से ही बने जैकेट और मोटी पैंट पहने हुए घूमते हुए नजर आ जाते हैं। ये पहाड़ों के ठंडे इलाकों में आमतौर पर नजर आ जाता है।
रास्ते में जगह-जगह हमें गड़रिये अपनी सैकड़ों भेड़ों के झुंड और शानदार शिकारी कुत्तों के साथ नजर आने लगे थे। वो एक खास किस्म की सीटी बजाकर अपनी भेड़ों को नियंत्रित करते और जब कोई भेड़ झुंड से दाएं या बाएं खिसकने की कोशिश करती, तब उनके कुत्ते अपने काम में जुट जाते। वो झुंड से अलग चल रही भेड़ को अपने मालिक के इशारों पर वापस खींच लाते। ये कमाल का मैनेजमेंट है। सर्दियों में गड़रिये मैदानों की ओर अपनी भेड़ों को लेकर बढ़ते चले जाते हैं और गर्मियों की दस्तक के साथ ही वो उच्च हिमालयी इलाकों में गुग्यालों का रुख करते हैं। बुग्याल घास के मखमली पहाड़ों को कहते हैं। इस बीच कई महीने गड़रिये जंगलों में ही गुजार देते हैं। इनमें से अधिकतर मामूली तनख्वाह पाने वाले होते हैं, जो इलाके के किसी अमीर शख्स के लिये यह काम कर रहे होते हैं।
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पुरोला के आसपास बिखरा हुआ चीड़ का जंगल शानदार है। मैंने चीड़ के ऐसे जंगल बहुत कम जगहों पर देखें हैं, जहां तरतीब से पेड़ दम साधे खड़े नजर आते हैं। सर्पीली सड़कों पर रेंगते हुए हम आगे बढ़ ही रहे थे कि एक मोड़ पर आकर हमारी कार अटक गई। तेज आवाज के साथ बीच सड़क पर गाड़ी रुक गई थी। यहां सड़क टूटी हुई थी और ये एक तीखा चढ़ाई वाला मोड़ था, जहां पारिजात को आखिरकार ड्राइविंग सीट छोड़नी पड़ी। वो हंस रहा था... उसने स्टेयरिंग से हाथ हटा लिये थे, जिसका मतलब था कि अब वो यहां पर कार को आगे नहीं बढ़ा सकेगा!
यहां से स्टेयरिंग को राणा ने थाम लिया था। राणा अच्छा ड्राइवर है, लेकिन उसकी स्पीड मुझे आतंकित कर रही थी। वो इतनी तेजी से सर्पीली सड़कों पर गाड़ी दौड़ा रहा था कि मुझे पारिजात पर प्यार आने लगा था। पुरोला से शुरू हुआ चीड़ का ये जंगल अगले 30 किमी तक हमारे साथ रहा। खूबसूरत पुरोला घाटी चीड़ के गुजरते जंगल के नीचे नजर आ रही थी और कुछ ही देर बाद ये घाटी पीछे छूट गई। अब हम मोरी की ओर ढाल पर उतर रहे थे। राणा ने थोड़े ही समय में गाड़ी मोरी पहुंचा दी, जहां हमने करीब 4 बजे दिन का खाना खाया। ये एक छोटा सा कस्बा है। यहां से एक ओर को सड़क सांकरी की ओर जाती है और दूसरी ओर सड़क त्यूणी घाटी में टोंस नदी के समानांतर चलती चली जाती है। दोनों ही घाटियों की बुनावट अलग है।
खैर, गर्म तवे की रोटियां और मोटा चावल, ये एक उम्दा लंच था। 20 मिनट के बाद हम दोबारा चल पड़े थे और अब हम टोंस नदी के किनारे-किनारे पतली सी सड़क पर सांकरी की ओर बढ़ रहे थे। टोंस नदी मेरी स्मृतियों में सबसे खूबसूरत नदियों में शामिल रहेगी। रुपिन और सुपिन दो हिमालयी धाराएं टोंस नदी को विस्तार देती हैं। अफसोस कि इस खूबसूरत नदी पर भी एक बांध बन रहा है जो पहाड़ों को किसी उधड़ी हुई किताब की शक्ल देता है। क्यों... आखिर क्यों हर खूबसूरत नदी को सरकार खत्म कर देना चाहती है। ये सवाल विकास के दावों के आगे बेदम हो जाता है। बेतरतीब बांध प्रोजेक्ट्स को उत्तराखंड में मंजूरी मिलने से तकरीबन सारी नदियों की उन्मुक्तता खत्म करने पर सरकारें आमादा हैं।
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हम देवदार और चीड़ के जंगलों से होते हुए अब सांकरी की ओर चढ़ रहे थे। हम रवांई के उस दुर्गम हिस्से में थे जो मेरी कल्पनाओं से परे था। खूबसूरत बिखरे हुए खेत और लकड़ी के बने हुए घर। खालिस पहाड़ी अंचल जो देहरादून से अलग उत्तराखंड का निर्माण करता है। रवांई अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और प्रकृति की नेमतों के लिए मशहूर है। इस घाटी में एक से बढ़कर एक सुंदर घर हैं, जो दूर से किसी कॉटेज का अहसास करवाते हैं।
अब यहां राजमा और सेब की खेती जोर पकड़ रही है। सेब की आवक यहां पड़ोसी राज्य हिमाचल से हुई, जहां रवांई घाटी के लोगों की रिश्तेदारी भी है। हिमाचल की सरहद से लगा हुआ ये इलाका वहां के सरहदी जिलों की सामाजिक बुनावट से भी काफी समानता रखता है। एक मशहूर किस्सा है जो मैंने बचपन में सुना था और वह यह कि जौनसार-रवांई की औरतें जादू कर देती हैं! ये अब मुझे हास्यास्पद लगता है... गढ़वाल के एक हिस्से में ये बातें प्रचलन में हैं कि जौनसार-रवांई जाने वाले मर्द लौटकर नहीं आते वो यहीं के होकर रह जाते हैं। असल में यहां कि महिलाएं बला सी खूबसूरत हैं और संभवतः यही वजह रही हो जिससे ये धारणाएं फैलती चली गई कि वो जादू जानती हैं।
इसके उलट समृद्धि भी शायद एक वजह रही हो। उस दौर में जब खेती ही समृद्धि का पैमाना थी, तब शायद इस तरह की कहावतों या मिथकों ने जोर पकड़ा होगा। ये वो इलाके हैं, जहां खेती के बंटवारे को रोकने के लिए एक ही महिला से चार या पांच भाईयों के शादी करने के किस्से आज भी सुनाई दे जाते हैं। ये इलाका महाभारतकालीन मिथकों से भरा हुआ है और कई हिस्सों में कर्ण और दुर्योधन की पूजा भी होती है। शायद बहुपति प्रथा इसके चलते भी यहां आई हो। इस मसले पर मैंने कभी शोध करने की जहमत नहीं उठाई, ये एक पुरातन कुरीति है जो महिलाओं की आजादी के खिलाफ है।
हम मोरी से आगे लगातार टोंस के किनारे सांकरी की ओर बढ़ रहे थे। टोंस को कर्ण की ही नदी माना जाता है और इसका पानी इन इलाकों में नहीं पिया जाता है। इसे ग्रामीण शापित नदी मानते हैं। स्थानीय लोगों से जब मैंने टोंस या रुपिन का पानी ना पीने की वजहें पूछी तो उनका जवाब था कि उन्होंने अपने पुरखों की सीख को ही आगे बढ़ाया है। उन्होंने अपने पुरखों से सुना था कि इस नदी के पानी को पीने से कोढ़ जैसी बीमारी होने लगती है। बहरहाल, ये एक जांच का विषय हो सकता है कि क्या वास्तव में टोंस का पानी चर्म रोगों में इजाफा करता है या फिर ये महज एक और मिथक भर है। इस इलाके में जलनिग को टोंस से एक पेयजल योजना शुरू करने की कवायद एक दफा भारी पड़ गई थी और उन्हें स्थानीय लोगों के विश्वास के आगे इस योजना को ही रद्द करना पड़ा था। कई दफा स्थानीय मान्यताएं बहुत हलचल पैदा कर देते हैं, ये कुछ वैसा ही था। बाद में जलनिगम ने किसी दूसरी रिवर स्ट्रीम से इस इलाके में पेयजल लाइन बिछाई और तब जाकर कहीं मामला शांत हो सका।
मैं कार में बैठकर सोच रहा था कि भोले लोगों के प्यारे तर्क और मन का रचा हुआ संसार कितना रंगीन है। कितना जानना-समझना है अपनी इस प्यारी जमीन के बारे में हमें। कितनी विविधता समेटे हुए है ये जमीन! मेहनती और खुशदिल लोगों की जमीन...महासू देवता की जमीन, जहां घाटियों में कर्ण की भी पूजा होती है। एक योद्धा जिसे छल से मार दिया गया, भले ही वो मिथकीय कहानी हो, लेकिन उसे धोखे से मारा गया था। टोंस घाटी के बाशिंदे क्यों कर्ण को पूजने लगे इसका मेरे पास कोई ठोस कारण नहीं है। मिथकों में कर्ण एक शानदार योद्धा था और ये योद्धाओं की जमीन है। धरती के योद्धा जो आज भी अपने जीवन को कठिन परिस्थितियों में हंस कर जी रहे हैं... वो आजादी के ख्वाबों और विकास के दावों से परे चुपचाप इस जमीन को जिंदा लोगों की जमीन बनाये हुए हैं।
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