अरुणाचल की 'पगली नदियां' और लुम्मर दाई का संसार

उत्तर-पूर्वअरुणाचल की 'पगली नदियां' और लुम्मर दाई का संसार

डॉ. राजीव रंजन प्रसाद

डॉ. राजीव रंजन प्रसाद बीएचयू से फंक्शनल हिंदी पत्रकारिता से पोस्ट ग्रेजुएट हैं। भाषा, साइकोलॉजी, सिनेमा और पत्रकारिता लेखन में गहरी रुचि रखने के चलते राजीव के लेख, राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशित होते रहे हैं। फिलवक्त वह राजीव गांधी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। अरुणाचली लोक-साहित्य और मीडिया पर वह अपने कॉलम 'उत्तर-पूर्व' के जरिये वह 'हिलांश' पर नियमित तौर पर लिखेंगे!

(भाग-3) हमारी यात्रा अब तक पासीघाट से 25 किलोमीटर आगे आ चुकी है। सिलुक बस्ती के पास गाड़ी रूकती है। यह पूरा इलाका आदी जनजाति का है। अरुणाचल प्रदेश की मुख्य जनजातियों में आदी जाति एक प्रमुख नाम हैं। इनकी कई उप-जनजातियां हैं। जैसे-मिनियोङ, पासी, पादाम, बोरि, बोकार, सिमोङ, पाङी, पायीलीबो, रामो, मिलाङ इत्यादि। यह जनजाति मुख्यतया ईस्ट सियाङ, वेस्ट सियाङ, अपर सियाङ, सियाङ, सी युमी एवं दीबाङ वैली में बसी है।

यहां सियाङ, दिबाङ, युमी, यामने, सिसरी, सियोम, सिमाङ आदि नदियों का सौन्दर्य देखते ही बनता है। उनके विस्तृत पाट को निहारते हुए अरुणाचल प्रदेश की आंतरिक शक्ति और उनके गहराई का पता चलता है। कितना फर्क है, ऊपर-ऊपर देखने और डूब जाने में। अभी हम पासीघाट से रोइङ के रास्ते में हैं, जो दिबाङ वैली जिले में आता है और इसका जिला मुख्यालय रोइङ है।

आदी जनजाति लोक-साहित्य में जीती है। उनकी लोककथाओं या लोकगीत में प्रकृति सर्वोपरि है। आदी जनजाति प्रकृति सापेक्ष आचार-व्यवहार करने में विश्वास रखती है। यहां के लोकगीत अवसर-विशेष पर अलग-अलग होते हैं। मसलन- कृषि से सम्बन्धित लोकगीत ‘बेसुङ-नाई/बोईङ नेरो’ है, तो बच्चों की देखभाल से सम्बन्धित गीत- 'नुनु पीपी'। हमारे साथ यात्रा में नानू ताली हैं, वह बताती हैं- 'मां बहन के पीछे पीठ पर बच्चे को बिठाकर उस पर कपड़ा डालती है, फिर उसे प्यार से थपथपाते हुए गाती है।' इसी तरह जानवरों, पशु-पक्षियों के लिए आदी जनजाति का प्यार अनूठा और लगाव जबर्दस्त है।

आज ही एक घटना घटी। सुबह नानू ताली को लेने उनके घर पहुंचे तो वह पूरी तरह निकलने के लिए तैयार थीं, पर ‘क्वीन’ नहीं दिख रही थी। वह उसे बेचैनी के साथ तलाश रही थीं। मुझे लगा कि उनकी मदद की जाए, लेकिन मुझे नहीं पता था कि क्वीन आखिर कौन है! हालांकि, इतना अंदाज हो गया था कि उनका प्रिय पालतु पशु है।

हैरान-परेशान हुई नानू को हमारी भी चिंता थी और क्वीन को लेकर तड़प भी। वह हमसे आकर बोली कि चलते हैं, क्वीन आ जाएगी। यहीं-कहीं होगी। बहुत देर में मालूम चला कि क्वीन उनकी प्यारी बिल्ली का नाम है। नानू अपने क्वीन को बेइंतहा चाहती हैं। मैंने उन्हें कहा- 'आप देख लो। कोई बात नहीं।' आखिरकार प्रयास सफल रहा और क्वीन उन्हें दिख गई। नानू बार-बार हमसे आज के लिए माफी मांग रही थी, जबकि हम शुक्रगुजार थे कि हमारी एक विद्यार्थी जीव-जंतु या पशु-पक्षी को लेकर कितनी संवेदनशील है, कितनी मुहब्बत है। नानू ने बताया कि आदी लोकगीत पशु-पक्षी पर अलग से हैं, जिनमें ‘बेसुङ नेरो/नाई’ महत्त्वपूर्ण लोकगीत है। यह लोकगीत खास है जिसका कई बार नाट्य रूप में मंचन और अभिनय भी देखने को मिलता है। आदी जनजाति में इस लोकगीत का ऐतिहासिक महत्त्व है जिसमें मनुष्य के वानर प्रजाति से मानव जाति में बदलने की कथा सुनाई जाती है।

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यह कितना रोचक है कि अरुणाचल प्रदेश का आदी जनसमाज अपनी वंशावली की वैज्ञानिक व्याख्या करता दिखता है। अपनी लोक-स्मृति में यह जनजाति सृष्टि के उत्त्पत्ति से लेकर हर जीव-जंतु, पेड़-पौधे, प्राकृतिक संपदा-संसाधन इत्यादि के बनने या उनके निर्माण की कहानी कहता है। आधुनिक समाज जिस पश्चिमी शिक्षा या पाश्चात्य दृष्टि पर कुहराम मचाता है, उसे अपने ही ज्ञान-स्रोतों की पुख्ता जानकारी नहीं है। खासकर आदिवासी समाज के बारे में अपने ही देश के लोगों की जानकारी या कि ज्ञान बेहद कम ठहरता है।

राजू भैया गाड़ी चलाने के उस्ताद हैं। इन जगहों से पूरी तरह वाकिफ़। वह बीच-बीच में यहां के बारे में बताते चल रहे हैं। उन्होंने बताया कि कुछ नदियों को यहां के लोग ‘पगली नदी’ कहते हैं, और ऐसा इस वजह से है क्योंकि इन नदियों का कोई ठिकाना नहीं होता कि कब अचानक से इन नदियों में पानी की मात्रा कितनी बढ़ जाए या एकदम से घट जाए। राजू भैया से हमारी टीम के सब लोग प्रसन्न हैं। विशेषकर तिङकाई वाङपन और जाॅन डारी। ..और अब पासीघाट से शामिल हुई नानू ताली भी।

नानू ताली ने राजीव गांधी विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग से एम.ए. पूरा कर लिया है। यह संयोग था कि राजू भैया के साथ यह पूरी यात्रा तय करनी है। उनका प्रसन्नचित स्वभाव बेहद लुभाता है। वे कहते हैं- 'सर, आपको हम कुछ दिन में आदी बोलना सिखा देगा।' हमारी टीम चकित है। एक नेपाली आदमी यहां की मातृभाषा आदी को क्या कितना अच्छा बोल सकता है? नानू ताली के साथ बात होती है। वह हमें लीड कर रही हैं। वह आदी लड़की हैं और हमारी विद्यार्थी। उनके मुंह से सहसा निकलता है- 'अइय्या...आप तो सब जानता है। हमारा भाषा, बोली कितना अच्छे से बोल ले रहा है।'

तिङकाई वाङपन जिन्हें मैं तिङस कहता हूँ, ने कहा- 'अरे् तब तो हमारा राजीव सर पक्का आदी सीख लेगा। वह नानू आपसे आदी में बात करेगा।' सब हंस पड़ते हैं। मेरे चेहरे पर बल पड़ता है। मेरे लिए नई भाषा सीखना मुश्किल है, सो मैं चुप हो जाता हूं। सबकी हंसी और मेरी खामोंशी इस यात्रा को बेहद खुशरंग बना दे रहे हैं।

नानू ताली बताती हैं कि यह गांव पिछले साल सबसे स्वच्छ बस्ती के रूप में पुरस्कृत हुआ है। इससे बड़ी बात वह यह बताती हैं कि यह गांव लुम्मर दाई की जन्मस्थली है। अरुणाचल प्रदेश के अग्रणी साहित्यकार जिनकी लेखनी ने समूचे अरुणाचल प्रदेश की पहचान को मुकम्मल बनाया; वह शख्सियत हैं- लुम्मर दाई। वह सिलुक बस्ती के ही हैं। यह जानकारी मेरे लिए नई थी। पर हम चाहकर भी नहीं रूक सकते थे। मन कचोट गया। समादरणीय लुम्मर दाई की जन्मस्थली के निकट आकर भी हम उनके स्मारक का दर्शन नहीं कर पा रहे थे।

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गाड़ी आगे चल पड़ी थी। मैं यात्रा में साथ चल रहे तिङकाई वाङपन, जाॅन डारी और नानू ताली के साथ लुम्मर दाई के बारे में डिस्कस करने लगा। वे भी जानने को इच्छुक थे। मैं कुछ बातें बताता हूं, जो उनके बारे में मैंने भी पढ़ ही रखी हैं। लुम्मर दाई का जन्म इस बस्ती में 1 जून, 1940 ई. में हुआ। अरुणाचल प्रदेश में उनको साहित्य का पुरोधा माना जाता है। ममाङ दाई और येशे दोरजी थोङछी पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित अरुणाचल के प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं। दोनों उन्हें साहित्य का अग्रदूत मानते हैं। उनकी असमिया में लिखित कृति ‘पहारोर हिले हिले’ काफी लोकप्रिय हुआ। उनकी अन्य कई कृतियां हैं- 'पृथ्वीर हानि', 'मौन अरु मौन', 'कन्यार मूल्य', 'उपर महल' इत्यादि। अरुणाचली लोककथाओं का उनका एक संग्रह महत्त्वपूर्ण हैं- 'उदयाचलर साधु'। ल्युमर दाई का असमिया भाषा पर अधिकार था। वह इस भाषा में सारा लेखन करते रहे।

मेरी जानकारी की सीमाएं थी, सो आगे चुप होना लाजमी थी। गाड़ी अपने स्पीड में थी और गुजरते दृश्यों की आवाजाही लगातार हमें आनंदित कर रही थी। पहाड़, नदी और नारंगी गाछ के अलावे बहुत कुछ एक साथ दिखाई पड़ते और एक झटके में ओझल होते चले जाते थे।

किसी भी सच को टुकड़े में नहीं जाना जा सकता है। ओंस की बूंद भी जिस पत्ते पर जगह छेंकती है, उसका आयतन, घनत्व, वजन, भार, बल आदि उस पत्ते को ही पता होता है, आकाश को नहीं। इस सच को यात्रा के दौरान मैं शिद्दत से महसूस कर रहा था। नानू ताली साथ में थी तो कई चीजें वह भी बता रही थीं। वह पासीघाट में रहकर डीएलएड कर रही हैं। इससे पूर्व वह यूनिवर्सिटी में हमारी विद्यार्थी रहीं। जब यहां आना हुआ, तो उन्हें साथ में ले लिया। स्वभाव से बेहद अच्छी और मददगार हैं। आगे बढ़ कर स्थानीय लोगों से बतियाती ह्रैं। मेरे लिए हिंदी में अनुवाद करती हैं। यह सच है कि अरुणाचल प्रदेश में हिन्दी भाषा सम्पर्क भाषा कही जाती है, लेकिन कुछ जगह ऐसी भी हैं जहां के रहवासी हिन्दी नहीं समझते हैं। ऐसे में नानू दुभाषिया का काम करती हैं।

नानू ताली आदी जनजाति से हैं। आदी जनजाति मुख्यतः सियाङ नदी के घाटी क्षेत्रों में रहते हैं। दिबाङ वैली भी आदी जनजाति का रहवास क्षेत्र है। दाम्बुक, बोमजिर, रोइङ जहां हम अपनी यात्रा के पड़ाव में पहुंचने वाले हैं, दिबाङ वैली के अन्तर्गत आते हैं।

अरुणाचल प्रदेश में मातृभाषाएं और मातृबोलियां तो हैं, लेकिन लिपि के न होने से ऐसा बहुत कुछ है जो समय के साथ खो रहा है, लुप्त होता जा रहा है या कि नई पीढ़ी उन चीजों के महत्त्व को नहीं समझ पा रही है। यह भी है कि जो अपनी जनभाषाओं को लेकर चिंतित या संवेदनशील हैं, उनकी अपनी सीमाएं हैं। हमारी यात्रा उन सीमाओं की दीवार लांघने का है।

आईसीएसएसआर के जिस प्रोजेक्ट के सिलसिले में हम लगातार आगे की यात्रा में हैं, वह है- 'अरुणाचली लोक-साहित्य और मीडिया'। जल्द ही हमारी टीम सिसिर पुल के समीप थी। वातावरण पूरे रंग में हमारे साथ खिलखिला रहा था। हम उतरे, तो राजू भैया ने इस पुल-निर्माण की कथा सुनाया। नामकरण को लेकर दिलचस्प बातें साझा कीं। कुछ कहानियां या कि घटनाएं बिल्कुल स्थानीय होती हैं- 'प्योरली लोकल'। अक्सर दूर से आए अजनबी दृष्टांत देते हैं या कि देखे का वर्णन करते हैं, लेकिन कई चीजें अदृश्य या अनदेखी होती हैं। इस पुल का उद्घाटन भारत के रक्षामंत्री ने किया है। हमारे देश में उद्घाटन और शिलान्यास की भी अपनी राजनीति है।

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खैर! इस घड़ी सांसों की आवाजाही में सिसिर बस्ती की महक थी। मेबो और सिलुक के बाद यह ठिकाना था- जहां हम कुछ पल ठहरे। फोटो वगैरह हुआ। मुझे लाइव रिकार्डिंग करनी थी। फेसबुक पर बोलना था। जाॅन डारी ने काॅलर माइक ठीक किया। ओके का संकेत किया और मैं बोलने लगा। दरअसल, कुछ तथ्यों को जुटा लेना और फटाफट उनके आधार पर कुछ कह अथवा सुना डालना आसान हो सकता है, लेकिन जब उन जगहों या स्थानों से आपके ताल्लुकात निकट के या करीबी हो जाते हैं, तो सबकुछ जानते हुए भी बोलना नहीं हो पाता है।

साहित्य में हिन्दी के यशस्वी रचनाकार अज्ञेय ने ठीक ही कहा है- 'मौन भी/एक अभिव्यंजना है/उतना ही कहो/जितना तुम्हारा सच है।' हम आगे दाम्बुक और बोमजिर की ओर बढ़ चले, लेकिन सिसिर या सिसरी पुल के दृश्य अभी भी हम सबके दिमाग में बने हुए थे। दाम्बुक के बारे में राजू भैया कुछ बता रहे थे - 'ऑरेंज फेस्टिवल' क्यों और कैसे शुरु हुआ। हम उनको सुनने के लिए एकदम शांत हो चुके थे!

जारी है...

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