कैलाश की गोद में हिलोरे मारती मानसरोवर की लहरों को कैसे कैद कर लाती!  

कैलाश-मानसरोवरकैलाश की गोद में हिलोरे मारती मानसरोवर की लहरों को कैसे कैद कर लाती!  

अलका कौशिक

अलका कौशिक भारत की चर्चित ट्रेवल जर्नलिस्ट हैं। अलका भारत के कई हिस्सों के साथ ही कई अलग-अलग मुल्कों के अपने दिलचस्प यात्रा वृतांत को जनसत्ता, द ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और द बैटर इंडिया जैसे प्लेटफॉर्म के जरिये पाठकों के बीच रख चुकी हैं। कुल मिलाकर अलका घुमक्कड़ों की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है। हाल ही में उनकी एक किताब भी पब्लिश हुई है, 'घुमक्कड़ी दिल से'।

(भाग-4) दूसरे दिन सुबह 5 बजे घोड़ों की सवारी सज चुकी थी। हमें आज डिरापुक से 27 किलोमीटर की दूरी नापनी थी। दूरी के साथ-साथ सबसे अधिक ऊंचाई (डोल्मा-ला 18,600 फुट) पर भी पहुंचना है। कैलाश परिक्रमा की अब तक की यात्रा का यह सबसे कठिन भाग है। डिरापुक से संकरी चढ़ाई पर बढ़ना शुरू किया, लेकिन नज़रें सिर्फ कैलाश पर टिकी रही। यहां के बाद अगले दो रोज़ कैलाश के दर्शन नहीं होंगे। इस बीच, पूरब से सूर्य रथ भी बढ़ा चला आ रहा है, कैलाश के शीर्ष ने अब सुनहरा होना शुरू कर दिया है। यह जादुई पल की तरह है, रजत-धवल कैलाश धीरे-धीरे स्वर्णिम आभा में घिरने लगा है। रुककर इस चमत्कारी पल को देखना चाहती हूं, लेकिन पोनीवाला तेजी से आगे बढ़ा चला जा रहा है। रास्ता लंबा है। दुश्वारियों से भरा हुआ और चाल का औसत बिगड़ने से अगले पड़ाव पर पहुंचने का समय गड़बड़ा सकता है। इसलिए बिना कुछ बोले घोड़े की पीठ पर लदी हुई आगे बढ़ी चली जा रही हूं।

पैदल यात्रियों को एक-एक कर पीछे छोड़ दिया है। मन ही मन उनकी हिम्मत को सलाम किया, जो पहले ही दिन से पैदल दूरियों को नापते आ रहे हैं। सामने का रास्ता देखकर सिहरन की एक लकीर पूरे शरीर में दौड़ गई है। दूर-दूर तक ऊंचे पहाड़ी विस्तार पर टेढ़े-मेढ़े पत्थरों को लांघते-टापते घोड़े ने कई बार खुद को और मुझको लुढ़कने से बचाया है। सामने की पहाड़ी यहां इतनी ऊंची हो गई है कि लगता है, आकाश से जा मिली है! साल के इस समय बर्फ पिघल जाने से पहाड़ों की भूरी रंगत ही दिखायी दे रही है। कुछ आगे जाने पर तिब्बती पताकाओं के रंगों ने उस भूरेपन की एकरूपता को तोड़ा है।

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तिब्बती पोनीवाला मुझसे पहली बार मुखातिब हुआ है। डोल्मा-ला की पवित्रता इतनी अभिभूत कर देने वाली थी, कि संवादहीनता की इस स्थिति में भी उस वीराने में उसे अपने भीतर के उल्लास को मुझसे साझा करना पड़ा है। यहीं शिव स्थल है, जिस पर से गुजरने वाले यात्री अपने पुराने कपड़े फेंककर जाते हैं। आगे डोल्मा (तारादेवी) की शिला है, दर्रा बेहद संकरा हो गया है और ढेरों यात्रियों के यहां रुककर पूजा-अर्चना करने के लिए होने की वजह से बहुत सघन भी। तिब्बती तीर्थयात्री छोटे-छोटे झुंड बनाकर नीचे ही बैठ गए हैं और नाश्ता कर रहे हैं। याक के मक्खन कुछ शिलाओं पर लगे हैं। कुछ दीये हैं जो टिमटिमा रहे हैं और अगरबत्तियों से एक पूरा कोना महक रहा है। मैंने अपनी पीठ पर बंधे बैग से दारचेन से खरीदा प्रार्थना ध्वज निकाल लिया है। स्थानीय आस्था के मुताबिक डोल्मा-ला पर बंधी सैकड़ों पताकाओं में एक मेरी पताका भी इसमें जुड़ गई। मन में एक अजब शांति-सुकून का भाव महसूस किया। आस्था का यह कौन-सा आयाम होगा, यह मेरी समझ से परे है।

(पार्वती कुंड)
 
डोल्मा-ला पर कुछ देर रुककर आगे बढ़ चली हूं। इस बीच, मेरे ग्रुप के कुछ और यात्री भी आ मिले हैं और हम सब साथ ही नीचे उतरने लगे। बस दो-एक मोड़ काटते ही 18,400 फुट की ऊंचाई पर गौरी-कुंड है। कुंड का पानी बिल्कुल हरा है, उसकी ढलानों पर कहीं-कहीं बर्फ की हल्की-फुल्की निशानियां अब भी बाकी हैं। कुंड साल के इस समय दो-तीन भागों में बंटा हुआ था। कुछ यात्रियों ने अपने पोर्टर नीचे भेजे हैं, गौरी-कुंड से जल लाने के लिए। रास्ता इतना संकरा है कि उस पर देर तक रुकना मुनासिब नहीं लगा, लिहाजा हम पत्थरों से पटे उस रास्ते से उतरकर आगे बढ़ गए। ग्लेशियरों के पिघल जाने के निशान आगे की ढलानों पर अभी भी मौजूद हैं। उनकी वजह से ही रास्ता फिसलन भरा, टेढ़ा-मेढ़ा और खतरनाक भी है। आसपास बिखरे बड़े पत्थरों पर तिब्बती मंत्र उकेरे हुए थे जो हमारी समझ से बेशक परे थे, लेकिन उस वातावरण को पवित्रता से भर रहे थे। अब ढलान और तीखी हो रही थी। लगभग 90 डिग्री तक और जमीन भी ठोस के बजाय रेतीली, जो कंकड़ों से पटी हुई थी और पैर फिसलने का खतरा बढ़ गया था। यानी बर्फ हटी तो फिसलन भरी ढलान हमारी मुसीबत बढ़ाने के लिए मौजूद थी।

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जैसे-तैसे कर इस ढलान को पार किया और सामने एक टैंट को देखकर उम्मीद बंधी कि शायद आराम करने की कोई जगह है। वो चीनी पुलिस का अस्थायी ठिकाना था। यानी हमारे रुकने की कोई सूरत वहां भी नहीं थी। किनारे खड़ी चट्टानों पर अपने साथी यात्रियों को बैठे देखकर, मैं भी वहीं कहीं टिक गई हूं। कुछ दूर हमारे घोड़े भी रुके दिखे। यहां दोनों तरफ कुछ हरियाली दिखी है, घास है, कुछ फूलों के पौधे हैं और नज़दीक ही एक नदी की धार भी है।

चरैवेति-चरैवेति का स्वर कहीं भीतर गूंजता है और हम अगले ठिकाने जुटुलपुक (16,200 फुट) की तरफ बढ़ जाते हैं। हालांकि रास्ते की भयावहता अब खत्म हो चुकी है, तो भी दूरियों को तो नापना ही है। किसी तरह दोपहर तक इस ठिकाने पर पहुंच जाते हैं। ज्यादातर यात्रियों ने पैदल इस दूरी को नापा है, कुछेक ने अपनी आस्था के सहारे तो कुछ ने घोड़ों और घोड़े वालों के आतंक से त्रस्त होकर। 

जुटुलपुक से दारचेन
पिछले मार्गों की तुलना में अब पैदल परिक्रमा ज़रा भी चुनौतीपूर्ण नहीं बची। चौड़ी घाटियों से गुजरते मार्ग अब लगभग सपाट मैदान के हैं, जिन पर आसानी से टहलकर यात्री पार हो गए हैं। यही कोई पांच किलोमीटर चलने के बाद जुनझुइप से बसें लेने आ गयी हैं और फिर वही फर्राटा हाइवे पर बसों की सवारी ने हमें दारचेन पहुंचा दिया है। यहां आज रुकना नहीं है, सीधे कुगू पहुंचना है। वहीं जहां मानसरोवर हिलोरे मारते हुये हमारे इंतजार में सदियों से शांत रुका हुआ है। मानसरोवर के तट पर ही हमारे अगले दो दिन गुजरने वाले हैं। अब मन में कोई बेचैनी बाकी नहीं है, सभी के चेहरों पर संतोष और उपलब्धि का भाव है।
 
मानस की लहरों में ठिठके वो 48 घंटे 
बरखा के विशाल मैदान को पार कर हम मानसरोवर झील के इलाके में पहुंचे हैं। झील की 88 किलोमीटर की परिक्रमा बस से पूरी कर ट्रुगो मठ में रहने आए हैं। मठ शायद कभी पारंपरिक रहा होगा, अब तो किसी शानदार होटल की तरह है। कमरे की खिड़की से मानस की लहरों का उल्लास और उसके उस पार कैलाश का उजास अगले 48 घंटे हमारी आंखों के सामने लगातार टिका रहा। मैं मानसरोवर के किनारे सूर्यास्त तक बैठी रही, उसकी लहरों का उन्माद उठने ही नहीं देता।

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शाम घिर आने पर अचानक ठंड बढ़ गई और मुझे उस जगह को मन मारकर छोड़ना पड़ा। मानस के दूसरे किनारे के उस पार कैलाश की भव्य उपस्थिति लगातार बनी हुई है। हमारे पीछे गुरला पर्वत, सामने मानस और दूर हिमाच्छादित कैलाश पर्वत। मानस का जल कई-कई रंग दिन भर में बदलता रहता है, कभी शांत और कभी लहरों का प्रचंड शोर बरबस अपनी तरफ आकर्षित करता है। प्रकृति के इस विराट सौंदर्य को कैमराबद्ध नहीं किया जा सकता, उस अनन्य सौंदर्य को अपने मन में समेटकर लौट आयी हूं।

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