'रात के ढ़ाई बजे मैं कैलाश के माथे पर टंगे चांद को देख रही थी, तारे जमीन पर बिखरे हुये थे!'

कैलाश-मानसरोवर'रात के ढ़ाई बजे मैं कैलाश के माथे पर टंगे चांद को देख रही थी, तारे जमीन पर बिखरे हुये थे!'

अलका कौशिक

अलका कौशिक भारत की चर्चित ट्रेवल जर्नलिस्ट हैं। अलका भारत के कई हिस्सों के साथ ही कई अलग-अलग मुल्कों के अपने दिलचस्प यात्रा वृतांत को जनसत्ता, द ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और द बैटर इंडिया जैसे प्लेटफॉर्म के जरिये पाठकों के बीच रख चुकी हैं। कुल मिलाकर अलका घुमक्कड़ों की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है। हाल ही में उनकी एक किताब भी पब्लिश हुई है, 'घुमक्कड़ी दिल से'।

(भाग-3)  हम तकलाकोट में ठहरे हुए हैं। भारत से दूर चीन की जमीन पर। अगले दिन हमारे पासपोर्ट लौट आए थे, उन पर कोई मुहर चस्पा नहीं थी, क्योंकि पूरे बैच को ग्रुप वीज़ा दिया गया था। अब अगले दिन से यात्रा का वो हिस्सा शुरू होने वाला था, जिसके लिए हम पिछले ग्यारह दिनों से सफर में थे। आज बारहवें दिन हमें कैलाश के दर्शन होने हैं, नहाने-धोने से निपटकर सुबह सात बजे ही हम बसों में लद गए। यहां से हमें दारचेन जाना है। ये जगह ठीक पवित्र कैलाश की जड़ में है। तकलाकोट से दारचेन तक के रास्ते में तिब्बती, नेपाली तीर्थयात्री दिखने लगे हैं। हमें मालूम है यह चीनी 'हाॅर्स ईयर' यानी अश्व वर्ष है। हर बारह साल में एक बार आने वाले अश्व वर्ष में तिब्बत में कैलाश कुंभ होता है और तिब्बती धर्मग्रंथों के अनुसार इस वर्ष कैलाश और मानसरोवर की एक परिक्रमा ही अन्य वर्षों में की गई कुल तेरह परिक्रमाओं जितनी फलदायी होती है। भक्त इस बात से उत्साहित हैं। हम संयोगवश इस वक्त पर कैलाश में मौजूद हैं।

ज्यों-ज्यों हम कैलाश के नजदीक जा रहे थे, मन कई किस्म के ख्यालों से भरा हुआ था। चीन की जमीन पर गुजरती बस से कुछ देर में हाइवे से एक नीली झिलमिलाहट दिखायी देने लगी। अचानक एक साथ यात्रियों की चीख गूंजी- कैलाश का धवल विस्तार उस नीली झील के पार अपनी पूरी आभा के साथ उपस्थित था। बस दाएं-बाएं मुड़ रही है और उसी के हिसाब से कैलाश के दर्शन भी कभी दायीं तो कभी बायीं तरफ की खिड़की से हो रहे हैं। उत्साह में मैं अपनी सीट से उठकर बस के अगले भाग तक दौड़ गई हूं, सामने की विंडस्क्रीन से कैलाश के पूरे दर्शन हो रहे हैं। इस बीच, बस रुक चुकी है।

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नीली झील का विस्तार सामने पसरा हुआ है, उसके नीलेपन में एक भी लहर नहीं उठ रही, बिल्कुल शांत, निस्तब्ध, स्थिर! यह राक्षसताल या रावणहृद है। मिथकों में वही झील जिसके किनारे कभी लंकापति रावण ने कैलाशवासी शिव को प्रसन्न करने के लिए वर्षों तपस्या की थी। माइथोलॉजी में वर्णित किरदारों के जादुई किस्से की जमीन, जो भारतीयों के जीवन में रची-बसी हैं।

(रावणताल)

यह झील काफी नीचे है। तिब्बत के उस पठार पर हम सांसों को संभालना अभी सीख भर रहे हैं, इसलिए नीचे ढलान पर उतरने से खुद को किसी तरह रोक लिया है। झील के किनारे जगह-जगह याक के सींग ज़मीन में गड़े हुए हैं। तिब्बती में 'ओम मणि पद्मे हुम्म' के संदेश इन सींगों पर खोदे जाते हैं और रंग-बिरंगे रेशमी स्कार्फों से इन सींगों को सजाया जाता है। लाल पथरीली जमीन पर चारों तरफ सिर्फ ऐसे ही सींग हैं और उनको घेरे परम शांति है। सम्मोहक कैलाश सामने है। मैं अटल कैलाश को देख रही हूं। आंखें अब तक लबालब भर चुकी हैं, इतनी कि सामने का दृष्य धुंधलाने लगा है... मेरी दायीं तरफ छिंदवाड़ा से आए कैलाश अग्रवाल खड़े हैं। हाथ जोड़े, आंखें मूंदे और उनके गालों पर भी अविरल धार बहती देख रही हूं। पूरे 48 तीर्थयात्रियों का आस्थामय समूह मेरे इर्द-गिर्द है, अपने-अपने आस्था के कैलाश को निहारते हुए, ये वो लोग हैं जो भारत और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से यहां पहुंचे हुये हैं।

रावणताल के बाद अगली मंजिल दारचेन है। आज हमें वहीं पड़ाव डालना है। हम तकलाकोट से दारचेन तक पूरे 102 किलोमीटर का फासला तय कर पहुंचे हैं। इस वक्त हम लोग 15320 फुट की ऊंचाई पर हैं। लगता है जैसे कैलाश के आंगन में पहुंच चुके हैं।

दारचेन से कैलास परिक्रमा (तीन दिन, 52 किलोमीटर)
अगले दिन दारचेन से बस में 5 किलोमीटर की दूरी तय कर हम यम द्वार पहुंचते हैं। यहां से आगे लगभग 52 किलोमीटर का कैलाश परिक्रमा पथ शुरू होता है। यम द्वार की जैसी मेहराबदार तस्वीरें देखी थीं, वैसी वहां नहीं है। बल्कि रंग-बिरंगे प्रार्थना ध्वजों से यम द्वार ढका हुआ था। मान्यता है इस तोरणद्वार से गुजरकर जाने वाले यात्रियों को मृत्यु का भय नहीं रह जाता। प्रकृति के इतनी करीब, इस बियाबान में पहुंचकर भला मौत का डर पीछे छोड़ ही तो हम लोग पहुंचे थे!

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हम किसी तरह तिब्बती आस्था प्रतीक उन ध्वजों के बीच से यम द्वार की राह तलाशते हैं। एक छोटी-सी कोठरीनुमा जगह है, जहां पुराने कपड़े, सींग, सिक्के बिखरे पड़े थे। तिब्बती तीर्थयात्रियों का एक रेला मेरे आगे से गुजर जाता है। चुपचाप, हाथ में मनकों की माला लिए बुदबुदाते होंठों पर प्रार्थनाओं को सजाए ये लोग उस ताकतवर पहाड़ की परिक्रमा पहुंचे हैं जो हिंदुओं के अलावा अन्य धर्मों में भी पूजनीय है। उस तोरणद्वार से निकलकर कुछ यात्रियों ने यमद्वार की भी परिक्रमा की और आगे बढ़ गए। 

हमें अभी कुछ इंतज़ार करना है, तिब्बती घोड़े और पोर्टर यहीं से हमारे साथ होंगे। हमारा समूह बड़ा है, लिहाजा हरेक के साथ जाने वाले घोड़े और पोर्टर के चुनाव में समय ज्यादा लगना स्वाभाविक ही था। हरेक यात्री द्वारा पोर्टर के लिए 450 युआन (1 युआन लगभग 10/रु) और पोनी हैंडलर के लिए 1390 युआन का भुगतान एडवांस ही किया जा चुका है। तिब्बती पोर्टर भारी सामान उठाने में आना-कानी करते दिखे तो लाटरी से हरेक का नाम निकाला गया।

मैंने जो पर्ची उठायी उसमें दर्ज लिखावट मेरी समझ से परे थी, हमारे तिब्बती गाइड गुरु ने न्यंगमा का नाम पुकारा और एक दुबली-पतली, चुस्त युवती मेरे नज़दीक आ गयी। उसने आते ही मेरी तरफ हाथ बढ़ाया, अगले तीन दिन निभने वाले रिश्ते की दोस्ताना शुरुआत ने मुझे चौंका दिया था। लिपुलेख के इस तरफ महिला पोर्टरों को देखकर चौंकना बनता था। कुछेक औरतें तो पोनी हैंडलर की भूमिका में भी थी।

(यमद्वार)

इस बीच, पैदल परिक्रमा करने वाले यात्री निकल पड़े हैं। कुछ देर में हम घुड़सवार यात्रियों ने भी आगे बढ़ना शुरू किया। हम दायीं ओर से परिक्रमा करते हैं, यानी परिक्रमा के वक्त हमारा दायां भाग कैलास की तरफ होता है। क्लाॅकवाइज़, जबकि सामने से आ रहे बोनपा बायीं ओर से परिक्रमा करते दिखे। इस परिक्रमा पथ पर भीड़ न सही, लेकिन एकांत भी नहीं है। बराबर कोई न कोई हमसे आगे निकल रहा है या सामने से लौटता हुआ मिल रहा है। कैलाश कुंभ का नज़ारा यहां साफ दिखता है। रास्ता चारों तरफ से ऊंची बलुई चट्टानों से घिरा है। कुछ आगे कैलाश की दिशा से एक पतला झरना नीचे आ रहा है और दूर बायीं ओर की चट्टानों पर चुकू गोम्फा है। इसी रास्ते पर कुछ भोटिया चेहरे भी आते-जाते दिखते हैं, जो यात्री जैसे नहीं लगते। शायद गोम्फा में रहते हैं। लगभग यहीं से ल्हाछू नदी की धार को पार कर आगे बढ़ना है।

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घोड़े पर अकड़े बदन को सुस्ताने के लिए अब हम पैदल चलते हैं। पहला पड़ाव 19 किलोमीटर दूर डिरापुक में है। पैदल चलना आसान है, रास्ता कमोबेश समतल है और फिर पिछले कई दिनों से पहाड़ी रास्तों पर चढ़ते-बढ़ते हमारे तन इसके लिये एक्लीमेटाइज़ भी हो चुके हैं। 

डिरापुक (16,600 फुट) में चीनी सरकार ने यात्रियों के ठहरने के लिए कैंप बना रखा है, हालांकि उस कैंप के अंदर कोई रुकना नहीं चाहता। दरअसल, यहां कैलाश की स्थिति ऐसी है कि लगता है मानो हाथ बढ़ाकर ही उसे छुआ जा सकता है। कुछ यात्री पहले से बाहर बैठे हैं, मैं भी अपने लिए एक पत्थर का ठौर तलाशकर कैलाश को ताकने लगी हूं। कैलाश को घंटों देखकर भी मन नहीं भरता है। न ही ऐसा करना थकाता है। मौसम एकदम साफ है, बादलों की एक लकीर भी आसमान में नहीं है, ऐसे में कैलाश को देखते चले जाने का मोह संवरण मैं नहीं कर पाती हूं। सोच में पड़ गई हूं कि आखिर वो कौन-सा आकर्षण है, जो इस पर्वत तक मुझे खींच लाया है!

(यमद्वार से आगे कैलास परिक्रमा पथ)

आधी रात को आंख खुली तो खिड़की के बाहर का दृष्य देख चौंककर बैठ गई। लगा आसमान के सारे सितारे नीचे जमीन पर उतर आए हैं। ऊंचे पहाड़ी इलाकों में अक्सर यह भ्रम हो जाता है कि आसमान नीचे उतर आया है, लेकिन डिरापुक में तो सचमुच लगा कि सितारों की बारात गुजर रही है। दरवाज़ा खोलकर बाहर आयी, कैलाश को रात की विराट चुप्पी में देखना कैसा अनुभव होगा?

आधी रोटी जैसा चांद आसमान पर टंगा था, कैलाश रजत चांदनी को ओढ़े चुपचाप खड़ा था। पल भर को भ्रम हुआ कि कैलाश अब दिन से भी ज्यादा नज़दीक आ गया है, और नीचे उतर आया है, जैसे हाथ बढ़ाकर उसकी काया पर बिखरी चांदनी को मुट्ठी में भर सकती हूं! अभिभूत हूं, रात के ढाई बजे ऐसा साक्षात्कार, शिव से, शिवधाम में ... स्तब्ध हूं, ठिठककर सिर्फ एकटक कैलाश को देख रही हूं। ये अद्भुत क्षण है... ये वो क्षण है, जहां सबकुछ समेटा हुआ कहीं पीछे धूमिल पड़ गया है। प्रकृति और उस ईश्वर के करीब, जिसके किस्से भर ही हमने बचपन से सुने हैं।

जारी है...

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