चीनी सैन्य चौकियों को हमें नजरअंदाज करने के निर्देश थे, आजादी मानों भाप बनकर गायब हो गई

कैलाश-मानसरोवरचीनी सैन्य चौकियों को हमें नजरअंदाज करने के निर्देश थे, आजादी मानों भाप बनकर गायब हो गई

अलका कौशिक

अलका कौशिक भारत की चर्चित ट्रेवल जर्नलिस्ट हैं। अलका भारत के कई हिस्सों के साथ ही कई अलग-अलग मुल्कों के अपने दिलचस्प यात्रा वृतांत को जनसत्ता, द ट्रिब्यून, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण और द बैटर इंडिया जैसे प्लेटफॉर्म के जरिये पाठकों के बीच रख चुकी हैं। कुल मिलाकर अलका घुमक्कड़ों की दुनिया का जाना-पहचाना नाम है। हाल ही में उनकी एक किताब भी पब्लिश हुई है, 'घुमक्कड़ी दिल से'।

(भाग-2) हिंदू मान्यताओं के मुताबिक मानसरोवर में स्नान करने देवतागण स्वयं उतरते हैं। ब्रह्ममुहूर्त में आसमान से तारों के पुंज सरोवर में उतरने देखे जा सकते हैं, और ऐसा लगता है कि मानो तारों का ये पुंज सरोवर के जल में डुबकी लगाकर फिर वापस अपनी राह पकड़ता हो।

यूं तो कैलाश हिंदुओं के अलावा अन्य धर्मालंबियों के लिये भी पूजनीय जगह है, लेकिन हिंदू धर्म के आस्थावानों को तो कैलाश के ललाट पर अपने देवता शंकर और पार्वती की छवि ही नजर आती है। यही आस्था है, पहाड़ पर भगवान की छवि। ऐसे ही किस्से-कहानियों को सुनते-सुनाते, दुर्गम हिमालयी पहाड़ियों और दर्रों, नदियों, गधेरों, नालों और बीहड़ों को पार कर पंद्रह अगस्त की सुबह हमने तिब्बत के तकलाकोट में हाजिरी दी। लिपुलेख दर्रे पर बिछे जाने कितने ही अनगढ़ पत्थरों को पार करते हुए हम यहां तक पहुंचे हैं। आगे बढ़ते हर कदम के साथ हवा लगातार पतली हो रही थी, लगता था सांस लेने से बड़ा उपक्रम जीवन में और कोई नहीं है और तब भी धमनियों को पूरी आॅक्सीजन कहां मिल पा रही थी!

हथेली में बंधी कपूर की नन्ही पोटली को सूंघकर किसी तरह उखड़ती सांसों को काबू में रखने का प्रयास जारी था। पैरों में जैसे पत्थर बंध गए थे और अपनी ही काया को ढोना नागवार लग रहा था। कैलाश दर्शन की आस कुछ पल के लिए कहीं किसी कोने में दुबक गई थी। तन और मन की पूरी शक्ति सिर्फ उस दर्रे को किसी तरह से पार कर लेने में लगी थी।

मेरी खस्ताहाल चाल देखकर सामने की तरफ से ऊपर बढ़ी चली आ रही चीनी गाइड डाॅल्मा ने मेरे कंधे पर लटका कैमरा बैग मुझसे ले लिया, कोहनी के पास से मेरी बांह पकड़ी और आगे बढ़ा ले गई। पांच मिनट ही बीते होंगे और हमें लेने आयी जीपें खड़ी मिली, अपनी थकेहाल काया को किसी तरह जीप की सीट पर लादा और दर्रे से नीचे उतरने की यात्रा शुरू हुई। पूरे सप्ताह भर के बाद किसी गाड़ी को देखा था, बीते छह दिन भारत के उत्तरी प्रांत उत्तराखंड के उच्च हिमालयी बियाबानों को लांघते-पार करते हुए इस धुर कोने तक हम पहुंचे थे।

पिथौरागढ़-तिब्बत सीमा का प्रवेश द्वार- लिपुलेख
16 हजार 730 फुट की ऊंचाई पर यह दर्रा कैलाश यात्रियों की कड़ी परीक्षा लेता है। वो तो हम खुशकिस्मत थे कि उस रोज़ न बारिश थी, न आंधियां, न बर्फबारी और न सांय-सांय चिंघाड़ती हवाओं का रौद्र गान! भारतीय सीमा में 13,926 फुट की ऊंचाई पर स्थित नाभिढांग से लिपुलेख की इस ऊंचाई पर पहुंचने में हमने 2,804 फुट की ऊंचाई महज़ पांच घंटे में हासिल की थी।

(तकलाकोट)

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तीन किलोमीटर जीप के सफर के बाद आगे तकलाकोट तक करीब 19 किलोमीटर की दूरी बस से नापनी है। तिब्बत में तीर्थयात्रा का मार्ग भारतीय सीमा के भीतर दुर्गम ट्रैकिंग रूट से एकदम 180 डिग्री उलट था। तराई के इस इलाके में वनस्पति नदारद है, फर्राटा दौड़ते हाइवे हैं और सड़कों के दोनों तरफ दूर-दूर तक सिर्फ रेगिस्तानी बियाबान है। कुछ आगे बढ़ने पर ल्हासा जाने वाला हाइवे दिखता है, जो हिंदुस्तान से आए हम यात्रियों को हतप्रभ करता है। चीन ने तिब्बत के इस दुर्गम इलाके में भी सड़कों का जाल बिछा दिया है और पुराने व्यापारिक कस्बे तकलाकोट (पुरंग) में भी पुराने के नाम पर अब कुछ नहीं दिखता। तकलाकोट में चकाचौंध है। रोशनी में नहाया हुआ तकलाकोट पिछले बीहड़ रास्तों को भुला देता है।

तेजी से दौड़ती बस ने अचानक ब्रेक लगा दी है, हमारे तिब्बती गाइड ने हमें नीचे उतरने को कहा है। उसने कहा- 'आगे करनाली पर पुल कमज़ोर है, हमें चलकर उसे पार करना होगा'। तिब्बती इलाके में हिंदी में दिया यह निर्देष अच्छा लगता है। करनाली ही क्या आसपास हर जगह निर्माण होता दिखता है, विकास है, नयापन है और कहीं-कहीं एक्सप्रेस-वे जैसी अत्याधुनिक सड़कें भी हैं। कुछ देर के लिए हम भूल ही जाते हैं कि हम कैलाश-मानसरोवर के प्राचीन तीर्थयात्रा मार्ग पर से गुजर रहे हैं। भारत के पाले में जहां यात्रा मार्ग वैसा ही पुराना कायम है जैसा दशकों पहले था, वहीं तिब्बत में सब कुछ बदला जा चुका है। चीन ने भयानक ढंग से इस इलाके में विकास कार्यों को रफ्तार दी है।

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करीब घंटे भर के सफर के बाद हम इमीग्रेशन दफ्तर में थे। हमारे सामान के साथ-साथ हमें भी जांच पैनलों से गुजरना होगा, तेज-तर्रार चीनी इमीग्रेशन अधिकारियों की मौजूदगी से माहौल में तनाव था, हालांकि यह ठीक वैसा ही था जैसे दुनिया के किसी भी एयरपोर्ट पर इमीग्रेशन या कस्टम अधिकारियों से सामना होने पर होता है। इस औपचारिकता को पूरा करने में घंटा भर लगा होगा। अब थकान और भूख हम पर हावी होने लगी थी। बस में बैठते ही सेब और फ्रूट ड्रिंक से तिब्बती गाइडों ने हमारा स्वागत किया था, लेकिन पिछली रात 1 बजे से उठे हमारे बदन अब अकड़ने लगे थे। थकान लाज़िम थी। हालांकि अब हम उतरकर 12,930 फुट पर आ चुके थे और लिपुलेख के मुकाबले यहां थोड़ी राहत भी थी।

तकलाकोट में दो दिन
बस एक बार फिर चल दी है, करीब आधा किलोमीटर दूर पुलान होटल में हमें लाया गया। यहां दो दिन ठहरना है, कल तक हमारे पासपोर्ट जंचकर आएंगे और तभी शुरू होगी हमारी आगे की यात्रा। हर कोई जल्दी-जल्दी नहा-धोकर, खा-पीकर आज आराम फरमाने के मूड में है। उठकर तकलाकोट शहर से भी मिलना है। इस बीच, गाइड एक बार फिर हमसे मुखातिब थे। तकलाकोट बेशक, पुराना व्यापारिक कस्बा रहा है, लेकिन अब चीनी सेना और पुलिस का अड्डा ज्यादा दिखता है। जगह-जगह चीनी सैनिक और सीसीटीवी कैमरों की निगहबान आंखों से हम घिरे हुये हैं। हमें सैनिक ठिकानों, पुलिस चैकियों जैसी संवेदनशील इमारतों वगैरह की फोटो नहीं लेने के बारे में हिदायतें दी जा रही हैं।

यों तीर्थयात्रियों को सेना-वेना से क्या काम, तो भी कहीं हम अनजाने में संवेदनशील जगहों को कैमराबंद न कर लें, इस गरज से हमें एक लंबा-चौड़ा लैक्चर सुनाया गया। बेशक, हमें तिब्बत में आधुनिक सुविधाएं रास आ रही थीं, मगर चीनी तेवर कुछ असहज बना रहे थे। ..और ठीक उस पल हम खुद को अपने देश और परदेश के हालातों की तुलना करने से नहीं रोक पाए। अपने देश में बेशक शारीरिक तकलीफ थी, मगर आत्मा की गहराइयों तक आजादी का अहसास था और यहां, वो अहसास जैसे तिब्बत की तीखी धूप में भाप का गोला बनकर आसमान में कहीं गुम हो चुका था!

जारी है...

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