गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
इतना 'हो-हल्ला' मचा है कि कानों में रुई डाल ली जाए, लेकिन इससे भी कहां काम चलेगा! पब्लिक दवा दारू के धक्का-मुक्की में उलझी है, सरकार 'इमेज बिल्डिंग' में फंसी हुई है, राहुल गांधी 'गुंजाइश, सलाहों और गुर्राने' के बीच फंसे हैं...उनके मातहत और कोरोना महामारी के बीच हीरो बनकर उभरे श्रीनिवास बीवी 'सेवा, जुगाड़.. व्यवस्थाओं' से इतर अब सवालों में उलझा दिए गए हैं। यूपी और बिहार की सरकारें गंगा में लाशों को समेटने में उलझी हैं, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इस बात पर हैरान-परेशान हैं कि 'अब मैं आखिर बोलूं तो बोलूं क्या!' ... दक्षिण की सरकारें 'ताऊ ते' से निपटने में उलझी हैं... !
योगी जी इस बात की माथापच्ची में उलझे हैं कि 'डब्लूएचओ ने कर दी यूपी की तारीफ' वाले पोस्टर के बाद अब किसकी तारीफ वाला पोस्टर बनाएं, जिससे जनता आलतू-फालतू में तैर रही लाशों से ध्यान हटाए और किसी तरह 'यूपी मॉडल' का जादू लोगों के सिर चढ़ जाए! अब यही दिक्कत है... लोग गुजरात मॉडल का 'फुस्स' होना देख चुके हैं और यूपी तो हमारे पड़ोस में नजीबाबाद से ही दिख जाता है! ..तो हमारे लिये तो वो कतई मॉडल नहीं हो सकता। मोदी जी सेन्ट्रल विस्टा में उलझे हैं। सेन्ट्रल विस्टा के काम में लगे मजदूर, एक-एक तंबू में आठ-दस उलझे हैं। जहां उलझन कम है, वहां वैक्सीन के ग्लोबल टेंडर के नफा नुकसान में सरकारें उलझी हैं... पूरा देश मानो कहीं न कहीं उलझ गया हो।
इन सबकी उलझन एक तरफ और प्रधानसेवक की उलझन एक तरफ। वो तय ही नहीं कर पा रहे कि इस मुल्क को कैसे बताऊं कि सेन्ट्रल विस्टा की जरूरत इतनी ज्यादा क्यों है! वो कोई अकेले तो वहां बैठेंगे नहीं... कभी अंताक्षरी खेलने का मन हुआ तो विपक्षी भी तो होंगे ना। झूमर-पर्दों की तारीफ-डीलिंग करने वाले बाबू-बिचौलिये भी चाहिए, तो राजशाही फील भी चाहिए। इतने बड़े मुल्क के होनहार नेताओं को उठना-बैठना होना है उधर, तो फिर ये विपक्षी सवाल क्यों दाग रहे हैं! इनसे मोदी जी खैर निपट लेंगे, जैसा कि वो रंग बदलने वाला टीपी रीडर कह रहा है। वही जो पहले रवीश के न्यूजरूम में था और अब अपनी ही तस्वीर का लोगो बनाकर 'पत्तलकारिता' का झंडाबरदार बनने की ओर अग्रसर है।
चूंकि 'हो-हल्ला' ऊंचे दर्जे का कॉलम है, मैं उस नामुराद टीपी रीडर का नाम भी यहां क्यों लूं..! यहां ऊंचे दर्जे के लोगों का ही जिक्र होता है, और मैं उसे ऊंचे दर्जे का आदमी नहीं मानता। आप इधर रहें या उधर, दर्जा ऊंचा रहना चाहिए। लिहाजा मैं उसे और उसकी 'किसानों पर मोदी जी इजरायल जैसी कार्रवाई क्यों नहीं करते!' जैसी निरा मूर्ख टिप्पणी को लात मारकर आगे ऊंचे दर्जे के शख्स पर चलता हूं।
सरकार की फजीहत शुरू हुई तो बहुत ऊंचे दर्जे के आदमी ने आकर हलचल मचा दी। मैं जो अब तक कानों में रुई डाले हिमालय के बदलते शेड्स का गहन निरीक्षण कर रहा था, रुई हटाकर टीवी के आगे बैठ गया। अब मैं इस मुल्क के स्वयंभू दादाजी का डायलॉग सुन रहा हूं, जिसमें उन्होंने कहा- 'जो लोग चले गए वो मुक्त हो गए, अब उनको इस परिस्थिति का सामना नहीं करना है!' ये सुनते ही मुझे शुतुरमुर्ग के कारनामे की मशहूर कहानी याद आ गई... 'वो देखो संकट आया, वक्त रेत में मुंडी डालने का लाया!' जवान लोग अव्यवस्था में मर गये। उन्हें न समय पर दवा मिली न प्राण देने वाली हवा! पर दादाजी इसे मुक्ति बता रहे हैं.. उम्र किसकी थी जाने की और कौन चले गए। लोगों के घरों में कमाने वाले नहीं रह गए... बच्चों को संभालने वाली माएं असमय चली गई। परिवार बिखर गए, लेकिन दादाजी इस अव्यवस्था में भी 'मोक्ष' का रास्ता ढूंढ लाए।
उन्होंने और क्या-क्या कहा! वही जो भाजपा सरकारों के फेल होते ही उनके समर्थक चिल्लाने लगते हैं। पॉजिटिव रहना है! अबे कैसे रहें भाई और इस वक्त कौन पॉजिटिव रहना चाहेगा, जब जिंदगी का सवाल ही नेगिटिव में उलझा है। आपकी सरकारें लोगों को सकारात्मक रहने दें तो लोग रहें। जब लोगों को बचाने के लिये काम करना था, तब बंगाल को पाकिस्तान बने से बचाने की लड़ाई लड़ रहे थे। अरबों रुपये इस नकली खतरे को प्रचारित करने में लगा दिये गए! तब कहां घुसी हुई थी ये पॉजिटिविटी... ये तभी क्यों निकल कर आती है, जब आप या आपके चाण-बाणों की लानत-मलानत शुरू होती है!
और क्या कहा इन स्वयंभू दादाजी ने, तो पढ़िए- ‘यह कठिन समय है, अपने लोग चले गए, उनको ऐसे असमय चले जाना नहीं था.। परंतु अब तो कुछ नहीं कर सकते। अब जो परिस्थिति है उसमें हम हैं और जो चले गए वो एक तरह से मुक्त हो गए, उनको इस परिस्थिति का सामना अब नहीं करना है। हमको करना है। पीछे हम लोग हैं, अपने आपको और अपने सबको सुरक्षित रखना है। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए हमें अपने मन को पॉजिटिव और शरीर को कोरोना निगेटिव रखना है।’ ये वैसा ही है, जैसे आजकल लोग मृतकों के परिजन को सांत्वना दे रहे हैं।
सांत्वना देते लोगों का अपना समाज है, इनकी अपनी मजबूरी है...। सरकार ही नहीं रहेगी तो तब कौन सुनेगा! भारत भर में कार्यक्रमों का लाइव कवरेज तब भला मिल भी सकेगा? मंदिर की भूमि पूजा में 'राष्ट्रीय गार्जन' सरीखे दिखने का मजा तब कहां से मिल सकेगा! आगे-पीछे चलने वाले लाव लश्कर का सुख कहां से हासिल होगा... और जब ये सेन्ट्रल में जाएंगे, तब दरबान सलाम ठोकेगा भी या नहीं... इसकी भी तो चिंता करनी है ना।
ये हिन्दुस्तान के ऐसे दादाजी हैं, जो आते हैं तो कुछ-कुछ ऐसा कह जाते हैं... जो अपच ही पैदा करता है। अव्वल तो मैं इन दादाजी को ज्यादा सुनना पसंद नहीं करता, लेकिन कभी-कभी इनके शब्दों में ऐसा आकर्षण होता है कि मैं सुने बिना रह भी नहीं पाता। जब सुनता हूं तो अपने मनोवैज्ञानिक दोस्त को तलाश करने लगता हूं। कोफ्त, गुस्सा, मायूसी, लाचारगी के भाव एक साथ घेर लेते हैं। ये कभी महिलाओं को घर में बिठा देने जैसी पुरातनपंथी बातों का प्रसार करते हैं, कभी घर वापसी का राग छेड़ देते हैं। इन्होंने कभी मुल्क में अस्पताल बनाने, बेरोजगारों को नौकरियों का हक दिलवाने, महिला सुरक्षा के लिए मजबूत कानूनों की पैरवी करने, कर्मचारियों को समय पर सेलरी दिलवाने, अस्पतालों में डॉक्टर-नर्सेज की भर्ती करवाने, बाल मजदूरी रोकने के लिए अपनी फौज के साथ धरना-प्रदर्शन जैसा कोई लोकतांत्रिक आयोजन किया हो न किया हो, लेकिन अक्सर अंड-बंड प्रयोग इनके गुर्गे जरूर करते रहते हैं। मुल्क को हिंदू राष्ट बनवाने की इनकी बड़ी दिलचस्पी रहती है, मानो उसके बाद सोने की रोटियां सबकी थालियों में होंगी... ये अगर अच्छा स्वस्थ-शिक्षित राष्ट्र बनाने की मुहिम चलाते तो बाय गॉड मैं भी इनके साथ लग जाता। होली वाटर हाथ में लेकर मैं वादा कर देता, लेकिन ऐसा है नहीं..।
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क्या करें! अपना-अपना प्रोफाइल होता है सबका। कोई मेरी तरह पत्रकार होता है, कोई वैज्ञानिक होता है, कोई सिने स्टार होता है, कोई पुलिस सर्विस में होता है.. ये कहते हैं कि हम नेशन सर्विस में हैं। अरे भैया वो तो हम सब हैं, इसमें नया क्या है! ये गंभीरता से सोचने वाली बात है कि इन दादाजी का प्रोफाइल असल में है क्या... ना, वैसे तो बड़े संगठन के मुखिया हैं, पर प्रोडक्टिव काम क्या करते हैं! यहां मैं हमेशा इस सवाल पर उलझ जाता हूं। देश को जरूरत क्या है इनकी... भारी भरकम विमर्श से हटकर मुझे वन लाइनर दैनिक जागरण की उस हेडलाइन की तरह बता दो, जिसमें पीएम ने चार महीने पहले कोरोना से जंग जीत ली थी! मैं चुप बैठ जाउंगा।
मैं वापस कान में रुई डाल पाता फिर से शोर तेज हो गया और मैं इस नये खेल को तल्लीनता से देखने लगा। पहले खबर तैरते हुए आई कि दिल्ली में प्रधानमंत्री की आलोचना वाले पोस्टर लगाने पर 25 लोगों के खिलाफ पुलिस ने कार्रवाई की है। जिन पर इतने बड़े मुल्क की 'मजबूत' सरकार ने कानून की मोटी-मोटी किताबों के सहारे डंडा चलाया है, वो गरीब-गुरबे निकले। इनमें अधिकांश छोटे-मोटे काम करने वाले दैनिक वेतनभोगी हैं। सौ-डेढ़ सौ रुपये दिहाड़ी कमाने वाले। इनमें ड्राइवर और प्रिंटिंग प्रेस चलाने वाले जैसे मामूली भारतीय शामिल हैं, जो अक्सर पैसे लेकर पोस्टर-बैनर लगाने का ही काम करते थे। अब जब इन लोगों पर कार्रवाई हुई तो इस मुल्क की सबसे पॉपुलर ब्रदर-सिस्टर जोड़ी ने उन्हीं पोस्टर्स को अपने ट्विटर पर चस्पा कर छाती के बटन खोल दिए और जांघ पर हाथ मारकर ललकार दिया कि 'आओ करो कार्रवाई!' राहुल गांधी जो कि लगातार मुझे तो कम से कम वाजिब सवाल उठाते हुए इन दिनों नजर आ रहे हैं, उन्होंने इस पोस्टर को चस्पा कर लिख दिया- 'मुझे भी गिरफ्तार करो'।
पोस्टर पर लिखा है- 'मोदीजी, हमारे बच्चों की वैक्सीन विदेश क्यों भेज दिया'.. अब ये बात तो कई दिनों से बहुत से लोग पूछ रहे हैं। इस मुल्क में बवासीर-भंगदर भगाने के झोलाछाप हकीमों के पोस्टर लग सकते हैं तो सवालों के पोस्टर क्यों नहीं लग सकते! पतंजलि की अनाप-शनाप दावों वाले नुस्खों के पोस्टर रोज टीवी पर तैरते ही हैं, तब इस पोस्टर में क्या दिक्कत है। आप भी चिपका देते आकर अपना पोस्टर , इस पोस्टर के नीचे कि 'भैया ऐसा नहीं है! लायबिलिटी होती है... पहले हमने जोश में कह दिया था, मदद कर रहे हैं, अब संकट है तो वही बात तो नहीं कह सकते ना!' ठोक दीजिये आप भी पोस्टर, गरीब-गुरबों का कॉलर पकड़ने में कौन सी वीरता है।
Arrest me too.
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) May 16, 2021
मुझे भी गिरफ़्तार करो। pic.twitter.com/eZWp2NYysZ
राहुल गांधी के पीछे-पीछे कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ओर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को चुनौती दी कि वे उन्हें गिरफ्तार करके दिखाएं। रमेश ने कहा कि वह भी अपने परिसर की दीवार पर ऐसे पोस्टर लगा रहे हैं। उन्होंने कहा, ‘क्या प्रधानमंत्री की आलोचना से जुड़े पोस्टर लगाना अब कोई अपराध है? क्या भारत अब मोदी दंड संहिता से संचालित है? क्या महामारी के बीच दिल्ली पुलिस के पास कोई काम नहीं बचा है?’
फिर अपने बड़े नेताओं के पीछे कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा भी चले आए और बाकायदा संवाददाता सम्मेलन आयोजित कर कहा, ‘मैं आपको चुनौती देता हूं कि मुझे गिरफ्तार करके दिखाइए। मेरा टीका कहां है, मेरी ऑक्सीजन कहां है? हम आपसे प्रश्न पूछना जारी रखेंगे।’ अब भला दिल्ली के किसी दरोगा कि इतनी मजाल कि वो जाकर घसीट लाए इन्हें कि बताता हूं बेटा! आप ऐसा कर दें तो आपके पृष्ठ भाग को बंदर के पृष्ठ भाग से मिलता-जुलता बना दिया जाएगा। खैर, किस-किस की जो सुने इस देश के अभागे नागरिक... वो तो बेचारे अपने लोगों की फुसफुसाहट ही इन दिनों सुन पा रहे हैं... जिन्हें गर्म पानी चाहिए, ताकि गले की खराश कुछ कम हो और खांसती छातियों को कुछ देर के लिये ही सही राहत मिल सके..!
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