गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।
हो-हल्ला मचा हुआ है! इस दफा एलीट भी चपेटे में है। नागरिक तो बहुत पहले से ही हर दफा चपेट में रहने के लिए अभिशप्त ही है। किस बात पर मचा है... जानना है तो तसल्ली से बैठ जाइए। थोड़ा लंबा आलेख है। लांग फॉर्म का जमाना है और ये फॉर्म रस के लिए धीरज की बलि मांगती है!
केन्द्र की मोदी सरकार को अपने ही नागरिकों से न जाने किन-किन बातों से डर लगता है! डर ही तो लगता है शायद, तभी तो औसतन हर महीने एक नया कानून हम नागरिकों के लिए बना लाते हैं। हां, इनमें हम अपने रिश्तेदारों की शादियों और फेसबुक पर बिताए वक्त को निकाल दें, तो इधर सरकार नहीं चाहती कि नागरिक चैन से बैठ जाएं। अभी कितने दिन हुए थे, जब हम इस उम्मीद में बैठे थे कि सरकार शायद आज नहीं तो कल किसानों की मांगों को मान लेगी, लेकिन 110 दिन से भी लंबा वक्त गुजरने के बाद भी सरकार बहादुर टस से मस नहीं हुई। इसका असर ये हुआ कि किसान गांवों से निकलकर चुनावी राज्यों में जा पहुंचे। गांव के गांव किसान पंचायतों में उमड़ने लगे और एक नई राजनीतिक समझदारी का माहौल किसानों के जरिए लोगों तक पहुंचने लगा।
इस कानून को खत्म करने के बजाय, सरकार ने तुरंत बैंक कर्मियों को असुरक्षित महसूस करवा दिया। अब हुआ ये कि सरकार बैंकों के निजीकरण पर जिस तेजी से काम कर रही है, उससे बैंककर्मी घबरा से गए हैं। घबराना भी चाहिए! प्राइवेट बैंकों में जिस तेजी से ताले लटके हैं, उससे कोई भी घबरा जाए।
नौ बैंक यूनियनों के समूह यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन के बैनर तले हाल ही में 15 और 16 मार्च को भारत में बैंकों पर ताले जड़ दिए गए। अलग-अलग शहरों के हजारों बैंककर्मी सड़कों पर उतर आए। कर्मियों ने दो दिन बैंक हड़ताल की घोषणा की थी, जिसके समर्थन में बड़ी रैलियां निकालकर सरकार के फैसलों का विरोध किया गया।
बैंक कर्मी सड़कों से वापस लौटे ही थे कि अब एलआईसी के कर्मचारी सड़कों पर आ गए। कर्मचारी एलआईसी के विनिवेश से जुड़े सरकार के प्रस्ताव से आजिज आकर सड़कों पर उतरे थे। ऐसा कोई महीना शायद ही गुजरता हो, जब इस देश के नागरिक को सड़क पर न खड़ा कर दिया जाए! हैरतनाक बात है, सालों से इस देश का आदमी मानो अपने घर ही न लौट पाया हो और जो एक साल पहले शहरों से गांव लौट रहे थे, उनकी हालत देखकर सबने कहा, मत लौटो!
आदत सी लगा दी गई। नागरिक आजिज आकर दो ट्वीट ठेल दे रहा है, जिनकी गले-गले ही आ गई वो सड़कों पर चले आए। ठीक भी है, बिना आए तो लोकतंत्र ही नहीं रह जाएगा! वैसे एक स्वीडिश इंस्टीट्यूट ने हाल ही में अपनी रिसर्च में कहा है कि भारत अब 'चुनावी लोकतंत्र' वैसे भी नहीं रहा, बल्कि 'चुनावी तानाशाही' में तब्दील हो गया है। स्वीडन के गोथेनबर्ग यूनिवर्सिटी के एक स्वतंत्र शोध संस्थान वी-डेम ने भारी भरकम आंकडों का विष्लेशण कर यह रिपोर्ट प्रकाशित करने का दावा किया है। इस पर भारत से भी प्रतिक्रिया गई। जानी ही चाहिए, लेकिन अंदरखाने क्या बात चल रही है... ये सरकार कहां पता चलने देती है। वो नागरिक ही नहीं समझती शायद हम लोगों को। ये वैसे पुराना झगड़ा है। नरेंद्र मोदी सिर्फ मन की बात ही करते हैं, ऐसा नागरिक अब खुलकर बोलते हैं। कम से कम सिंघू, टीकरी और गाजीपुर बॉर्डर पर तो दहाड़कर ही कहा जा रहा है।
हादसे, इस सरकार के साथ ही आए हैं, ऐसा फील सा हो रहा है ब्रो! ब्रो... वो आजकल के लड़के कहते हैं। मैं भी सीख गया। मैं बूढ़े पत्रकारों के साथ रहकर अपनी उम्र ही भुला बैठा था, लिहाजा मैंने ब्रो लोगों के संग जाकर चिल्ल किया। बूढ़े पत्रकारों से याद आया कि कुछ रोज पहले ही देश के कई नामी पत्रकारों के खिलाफ मुकदमें दर्ज हो गए थे।
पत्रकार ही नहीं इनमें मीडिया कारोबारी भी थे। मैं द कारवां के एडिटर विनोद के जोश और मालिक अनंत की बात कर रहा हूं। इनमें राजदीप सरदेसाई जैसे पॉपुलर जर्नलिस्ट भी हैं। 'द वायर', 'एनडीटीवी', 'द क्विंट' 'न्यूज क्लिक' और न जाने कहां-कहां, कब-कब अव्वल दर्जे के खोजी अधिकारी भिजवाए जा चुके हैं। अब तो याद भी नहीं रहता। इन झटकों की तीव्रता इतनी है कि नागरिक उभर ही नहीं पा रहा है। कथा बांचने में ही कई घंटे गुजर जाएं।
...और कथाएं भी ऐसी-ऐसी हैं कि कितने ही अलग ढंग से लिख लीजिए, मजा मारक ही मिलेगा! बस किसानों के मामले में ये जो मारक मजा है, वो उल्टा पड़ गया! उल्टा क्या पड़ गया जी, ये समझ लीजिए कि गले की हड्डी बन गया। कई दांव सरकार चल चुकी है। कई सूरमा उतारे जा चुके हैं। कई तमाशे रोज दिखाए जा रहे हैं। बदनाम करने, देशविरोधी बताने, छोटा किसान-बड़ा किसान करवाने, बिजली-पानी बंद करने और न जाने क्या-क्या गुजर चुका है, लेकिन दिल्ली की सरहद पर डटे हुए किसानों ने इस 'सरकारी ढीटता' को तोड़ने की मानो चुनौती ही ले ली हो। वो अलमस्त उसी सड़क पर लेट गए, जो दिल्ली की ओर जाती हैं।
अब नया मसला नागरिकों के सामने खड़ा कर दिया गया है, बस इस दफा नागरिक जरा एलीट हैं। इन्हें आप कारोबारी नागरिक कहिए... असल में हाल ही में मोदी सरकार ने एक नया धमाका किया है, हालांकि पहले से ही इसकी सुगबुगाहट तो थी।
सरकार ने फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया मंचों पर निगरानी और डिजिटल मीडिया और स्ट्रीमिंग मंचों को कड़े नियमों में बांधने की अपनी योजना को विस्तार से बता दिया है। सुनने में बेहद अच्छा लग रहा है ना! वाउ, व्हट अ मूव ब्रो... कहने का मन है! असल में ऐसा है नहीं। सरकार की भी अपनी आईटी सेल होती है, जो सरकार के 'क्रिटिक्स' को ढूंढकर उन्हें टोल करती है! ऐसा हुआ तो उनका कारोबार बंद हो जाएगा और भला ऐसा कोई भी शख्स क्यों चाहेगा, जबकि लाभ की स्थिति में वही सबसे आगे हो... एकदम बिग बुल माफिक! सबसे आगे मतलब लाइन में सबसे आगे, जहां से बाकियों की लाइन शुरू होती हो!
इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी (इंटरमीडियरी गाइडलाइंस) नियम 2021 के नाम से लाए गए ये दिशानिर्देश देश के टेक्नोलॉजी नियामक क्षेत्र में करीब एक दशक में हुआ सबसे बड़ा बदलाव है। आईटी मिनिस्टर रविशंकर प्रसाद अवतरित हुए और बता दिया कि नए नियमों के हिसाब से बड़ी सोशल मीडिया कंपनियों को किसी उचित सरकारी एजेंसी या अदालत के आदेश/नोटिस पर एक विशिष्ट समय-सीमा के भीतर गैर कानूनी सामग्री हटानी होगी।
नियमों में सेक्सुअल कंटेट के लिए अलग श्रेणी बनाई गई है, जहां किसी व्यक्ति के निजी अंगों को दिखाए जाने या ऐसे शो जहां पूर्ण या आंशिक नग्नता हो या किसी की फोटो से छेड़छाड़ कर उसका प्रतिरूप बनने जैसे मामलों में इस माध्यम को चौबीस घंटों के अंदर इस आपत्तिजनक कंटेंट को हटाना होगा। एक ऐप है 'उल्लू' उसका क्या होगा! चलिए मान लिया उनकी टीम महीनाभर बैठकर साइट क्लीन करेगी पर ऑल्ट बालाजी का क्या होगा... चलिए वो भी मालदार पार्टी है, निपट लेंगी लेकिन उनका क्या होगा जिन्हें कंटेंट के नाम पर अब तक आपने परोसा ही यही! इस कंटेंट के भी तो भक्त होते ही होंगे! बिल्कुल होते होंगे... आप ही के कई नेता रसिक मिजाज हैं। अपराध में जेल जा चुके हैं, विधानसभा में पकड़े जा चुके हैं... पार्टी कार्योलयों में यौन शोषण के आरोप लग रहे हैं! चल क्या रहा है मतलब, कुछ तो समझ आए। बॉनबीटा पीने वालों का बुद्धि विकास कितना हुआ है, वो उनके सह नागरिकों की परेशानी में शामिल होने न होने से ही आजकल तय हो जा रहा है।
एक दिलचस्प किस्सा है। गांव में वीसीआर किराए पर आता था, तो लड़के एक पॉर्न फिल्म भी लेकर आते थे। सात से 11 बजे तक का स्लॉट बी आर चोपड़ा के लिए आरक्षित होता था और 11 बजे के बाद का वक्त अनाम नायकों को समर्पित! लेट नाइट शोज के इन किस्सों को मैं उन दोस्तों से सुनता था, जिन्हें शामिल होने का मौका हासिल हो चुका था। एक लड़के ने तो 'द पार्टी एट किटी एंड स्टड्स' देखकर ही बॉडी बिल्डिंग शुरू कर दी। उससे प्रेरित दूसरे ने और ये गांव के लौंडों का शगल बन गया। उनकी भुजाओं पर अजीब ढंग से गोला उभर आया था। ओरल हिस्ट्री है ये लौंडा इतिहास की हुजूर...।
...और आपकी फिट इंडिया योजना से पहले जब ये काम सिल्वेटर साहब कर ही रहे थे, तो उनके आदर्शों पर चलकर काम कर रहे कंटेट निर्माताओं को काहे आप सता रहे हैं। खैर, कुछ वाजिब पाबंदियां लगाइए। इस मुल्क में रेप रोकने के लिए सख्त कदम उठाइए। कोई इलाज के अभाव में ही न मरे, ऐसा नियम बनाइए... कड़ा नियम बनाइए, नागरिक विरोध नहीं करेगा। गारंटी है!
चलिए आगे बढ़ा जाए तो हजरात और ख्वातीन रवि शंकर प्रसाद ने बड़ा उदार और खुला दिल दिखाते हुए] बिना झिझके कह दिया कि सोशल मीडिया मंचों के बार-बार दुरुपयोग तथा फर्जी खबरों के प्रसार के बारे में चिंताएं व्यक्त की जाती रहीं हैं, जिसके लिए सरकार ‘सॉफ्ट टच’ विनियमन ला रही है। अब बताइए झूठ की जिन फैक्टियों से आपकी ही पार्टी के कुछ नेताओं की दुकान चल रही है, उनको तो कम से कम नागरिकों से थोड़ा उंचा ही रहने दीजिए, इतनी अपेष्क्षा तो वह भी करते ही होंगे आपसे।
आईटी मंत्री की उदारता यहीं खत्म नहीं हुई बल्कि, उन्होंने कहा कि अधिकांश लागू होने योग्य संस्थाओं के लिए ये नियम उन्हें सूचित किए जाने के दिन से लागू हो जाएंगे, लेकिन उन ‘महत्वपूर्ण सोशल मीडिया माध्यमों’- एक अलग श्रेणी की कंपनियों को तीन महीने का अतिरिक्त समय दिया जाएगा, जिन पर अनुपालन का अधिक बोझ है। बोझ जरा ज्यादा ही होगा शायद या उनकी टेस्टिंग की जा रही है! छोड़िए हमें क्या कॉरपोरेट का मसला है वही निपट लेगा।
एक और दिलचस्प वाकया इस प्रेस वार्ता में हुआ। प्रसाद ने कहा सरकार या अदालत के कहने पर सोशल मीडिया मंचों, खासकर मैसेजिंग की प्रकृति (जैसे वॉट्सऐप) वाले मंचों को शरारतपूर्ण सूचना की शुरुआत करने वाले ‘प्रथम व्यक्ति’ की पहचान का खुलासा करना होगा। मतलब कि सरकार शरारती दिमाग पर ही सीधे धप्पा मारेगी, लेकिन उधर कपिल मिश्रा हुए तब? न्यूज़लॉन्ड्री ने हाल ही में उनके द्वारा शुरू किए गए एक अभियान का खुलासा किया है। ये भी बता देना चाहिए! नागरिक डरकर रहेगा...
ये मसला बेहद पेचीदा है। इसकी गहराई में जाएं तो सरकार कभी भी आपको धर लेगी! मसलन आपने एक मैसेज भेजा 'मोदी सरकार ने फलां काम अच्छा नहीं किया'! अब सरकार ने इसे शरारतपूर्ण मान लिया और धप्पा... आकर कह दिया तब! ऐसा हुआ है न पहले, इसलिए बता रहा हूं। मनदीप पूनिया एक पत्रकार है, युवा है। कुछ दिनों पहले उसे किसान आंदोलन की रिपोर्टिंग करने पहुंचे थे कि बीच रास्ते से दोस्तों के समाने पुलिस ने उठा लिया और जेल पहुंचा दिया। पूछने पर भी नहीं बताया कि कहां है, क्यों है! ...तो ऐसा हो चुका है इसलिए बता रहा हूं। खैर, मनदीप के समर्थन में कई पत्रकार सामने आ गए और सरकार को उसे छोड़ना पड़ा। इस नए नियम से कंपनियों को उनकी एंड टू एंड एन्क्रिप्शन वाले प्रोटोकॉल को तोडना होगा, जिससे नागरिकों पर ‘सर्विलांस’ का रास्ता खुल जाएगा।
इस नए नियम के अनुसार, ‘महत्वपूर्ण सोशल मीडिया मंचों, खासकर जो मुख्य रूप से संदेश भेजने की प्रकृति में सेवाएं प्रदान करते हैं, को केवल उस जानकारी के पहले मूल व्यक्ति की पहचान करने में सक्षम होना चाहिए, जो भारत की संप्रभुता और अखंडता से संबंधित अपराध की रोकथाम, उसका पता लगाने, जांच, अभियोजन या दंड के प्रयोजन, राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध या सार्वजनिक आदेश या उपरोक्त के संबंध में अपराध के उकसावे या बलात्कार, यौन रूप से स्पष्ट सामग्री या बाल यौन शोषण सामग्री संबंधी अपराध, जो पांच वर्ष से कम अवधि के कारावास के साथ दंडनीय हैं, के लिए आवश्यक है। इसके साथ ही सोशल मीडिया मंचों को मासिक रूप से अनुपालन रिपोर्ट दायर करनी होगी।
जकड़न में ओटीटी और डिजिटल मीडिया
नए बदलावों में 'कोड ऑफ एथिक्स एंड प्रोसीजर एंड सेफगार्ड्स इन रिलेशन टू डिजिटल/ऑनलाइन मीडिया' भी शामिल हैं। ये नियम ऑनलाइन न्यूज और डिजिटल मीडिया इकाइयों से लेकर नेटफ्लिक्स और अमेज़ॉन प्राइम पर भी लागू होंगे। सरकार ने कहा है कि नेटफ्लिक्स और प्राइम वीडियो जैसे ओटीटी मंचों को (दर्शकों की) उम्र पर आधारित पांच श्रेणियों- यू (यूनीवर्सल), यू/ए सात साल (से अधिक उम्र के), यू/ए 13 से (अधिक उम्र के), यू/ए 16 से (अधिक उम्र के) और ए (बालिग) में अपने आप को वर्गीकृत करना होगा। चलिए ये कोई बड़ा मसला नहीं। हिन्दुस्तान में सिनेमा वैसे भी सर्टिफिकेट देखकर नहीं देखा जाता।
रवि शंकर प्रसाद के बाद अब बारी आई सूचना एवं प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर की, जिन्होंने और मुक्त कंठ से साफ कर दिया। उन्होंने कहा 'ऐसे मंचों को यू/ए 13 (साल से अधिक उम्र) श्रेणी की सामग्री के लिए अभिभावक तालाबंदी प्रणाली तथा ए श्रेणी की सामग्री के वास्ते भरोसेमंद उम्र सत्यापण प्रणाली लागू करनी होगी।'
उन्होंने बताया कि ऑनलाइन सामग्री के प्रकाशकों को हर सामग्री या कार्यक्रम के बारे में विवरण देते समय प्रमुखता से उसका वर्गीकरण भी प्रदर्शित करना होगा ताकि उपयोगकर्ता उसकी प्रकृति के बारे में जान पाएं. इससे दर्शक को हर कार्यक्रम के प्रारंभ में ही उसकी सामग्री की प्रकृति का मूल्यांकन करने में और उसे देखने से पूर्व सुविचारित निर्णय लेने में मदद मिलेगी। डिजिटल मीडिया पर खबरों के प्रकाशकों को भारतीय प्रेस परिषद की पत्रकारीय नियमावली तथा केबल टेलीविजन नेटवर्क नियामकीय अधिनियम की कार्यक्रम संहिता का पालन करना होगा, जिससे ऑफलाइन (प्रिंट, टीवी) और डिजिटल मीडिया के बीच समान अवसर उपलब्ध हो।
तो भैया जब पूरा मुल्क ही लाइन पर लगा हो, तब भला कोई भी क्यों चैन से बैठे। सही है नागरिकों में आत्मीयता का बोध आएगा और एकाकीपन भी खत्म होगा! ...लेकिन अंत में आखिरकार द हीरो ऑफ द इवेंट एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने कहा कि ‘बेलगाम’ सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के नाम पर सरकार मीडिया को मिली संवैधानिक सुरक्षा को छीन नहीं सकती है। हुंह!
गिल्ड ने इस बात को लेकर भी चिंता ज़ाहिर कहा है कि इन नियमों के तहत सरकार को असीमित शक्तियां दे दी गई हैं। बस ये नहीं कहा कि ये नियम सरकार के विरोधियों पर नकेल कसेंगे, ये मैं कह देता हूं। गिल्ड के पास बहुत काम है। गिल्ड ने की है कि सरकार इन नियमों को वापस ले और ‘बेलगाम सोशल मीडिया’ को कंट्रोल करने के नाम पर सरकार ‘मीडिया को मिली संवैधानिक सुरक्षा’ को ना ही छीने तो बेहतर। एडिटर्स गिल्ड ने ये भी साफ कहा है कि, ‘इसके चलते भारत में मीडिया की स्वतंत्रता को गहरा धक्का लगेगा। इसने केंद्र सरकार को देश में कहीं भी प्रकाशित समाचारों को ब्लॉक करने, हटाने या संशोधित करने का अधिकार दिया है और यह सभी प्रकाशकों को एक शिकायत निवारण तंत्र स्थापित करने के लिए बाध्य करते हैं।’
संस्था ने कहा कि इस तरह का ‘रिफॉर्म्स’ बनाते वक्त सरकार ने इससे जुड़े हितधारकों से कोई विचार नहीं किया, इसलिए इन नियमों को लागू नहीं किया जाना चाहिए और सभी संबंधित लोगों से बात की जाए। अब बताइये यही तो भारत का हर हितधारक कह रहा है कि सरकार ने उससे तो पूछा ही नहीं कि भला क्या करना है! पहले ही क्या 'बैन' और 'बॉयकाट' को पार कर 'गोली मारो सालों को तक' क्या कम था जो ये नया हथौड़ा दे मारा है! देखिए आगे कौन सा नया कानून आता है, जो नागरिकों को बताए कि 'कायदे में रहो बेटा...' और ढीटता ऐसी ओढ़ ली गई है कि हो-हल्ला तो मचता ही रहता है। अमरीका से लेकर चीन-रूस तक में जनता मचा रही थी या मचा रही है, तब ये तो भारत है, ज्यादा जनसंख्या वाला देश, जिसे जल्दी सरकार किसी दूसरे, तीसरे या चौथे मुद्दे पर पटक सकती है।!
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