बिछड़े घर की तलाश में उम्र भर सफ़र

ऋत्विक घटकबिछड़े घर की तलाश में उम्र भर सफ़र

निधि सक्सेना

निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है। 

ऋत्विक घटक ने बांग्ला में फिल्में बनाई। इन फिल्मों में जिंदगी के दुख की जो तान थी, उसके स्वर भारत के गरीब-दुखियारे लोगों के जीवन से आए थे। उनकी फिल्मों के श्वेत-श्याम दृश्यों में संवेदना और अनुभव मर्म को छू लेने वाला दृश्य बन गए हैं। उनकी फिल्में जैसे पुकारती हैं- आवाज देती हैं। खोते हुए समय और गहराते हुए दुखों को। ऋत्विक का अपना जीवन जन-जन के इसी अनुभव-संसार में संवाद करते हुए बना था। अपने छोटे से जीवन में उन्होंने जो कुछ रचा, वह आज भी अपनी मिशाल आप है।

ऋत्विक महज सिनेमा नहीं बना रहे थे, बल्कि वो अपने दौर के भारत के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक ताने-बाने को भी 70 एमएम पर बुन रहे थे। द्वितीय विश्व युद्ध के असर, असहयोग आंदोलन आदि राजनीतिक हलचलों से प्रभावित हो, बंगाल के युवाओं ने एक संगठन तैयार किया, नाम था- किल्लोल। इसके मुखिया ऋत्विक के भाई मनीष घटक थे। मानिक बनर्जी की देख-रेख में ये संगठन राजनीतिक गतिविधियां करता था। ऋत्विक भी इससे अछूते नहीं रहे, जिसका असर उनके सिनेमा पर भी नजर आता है। ऋत्विक घटक पर ये सीरीज निधि लिख रही हैं।

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चपन की याद में तड़प के नायक कहता है- 'मैं भाग रहा था...हम किसी तरह लदे जा रहे थे। मां कहीं पीछे छूट गई उस ओर… पिता पता नहीं कहां! ये रेल की पटरियां लोगों को मिलाती हैं न! इन्होंने मुझे अलग कर दिया। मेरा अपना घर अब परदेस है और यहां मैं परदेसी।'

एक बूढ़ा कराहता है- 'ये ही है न स्वप्नों की वो स्वर्ग नगरी… जिसकी ख़ातिर हम रिफ्यूजी बन चले आए...। आधी रात को प्लेटफॉर्म पर बेचैन ये बेतरतीब भीड़… गंध और धुएं से भरा ये आकाश, उफ! मेरा सिर घूमता है, मैं जहां जाऊं, ये धुआं, ये गंध मेरा पीछा करते हैं।'
 
ये कौन है, जो विरह के ऐसे दृश्य,  बेचैन विलाप से रंग रहा है... क्या छूट गया है इसका...कहां छूट गया? कितने लंबे हैं मन को भेद देने वाले इसके ये जुदाई के गीत! बात ऋत्विक घटक की हो रही है जो खुद  कहते हैं- 'अपनी फ़िल्म 'तिताश' बनाते समय जैसे अचानक मुझे अहसास  हुआ, पिछला कुछ भी तो नहीं बचा है', सब बीत जाता है...कुछ रहा ही नहीं, रहता भी नहीं।

बिछोह की दर्दभरी तस्वीरें और दिल की एलबम
उम्र बीत जाती है, घर छूट जाते हैं, प्रेमी बिछड़ जाते हैं, प्रेम पत्र रह जाते हैं, जैसे खिलौने टूटते हैं और कुछ बचे-टूटे टुकड़ों को बटोर रख लेते हैं, वो जो टुकड़े भी नहीं रख पाते, यादों के समंदर से दिल के कोने भर लेते हैं, फिर ज़िंदगी की पूरी इमारत इन्हीं तूफ़ानों के हवाले बनती-ढहती रहती है। बांग्ला फ़िल्म निर्देशक ऋत्विक घटक के हाथ से बहुत कुछ फिसला था, वे ता-उम्र बचपन की संजोई यादें ही बुनते रहे।

साल 1947, भारत-पाकिस्तान इतिहास के सबसे भयंकर बंटवारे ने ना जाने कितने शरीर अपनी आत्माओं से अलग कर दिए। दस मिलियन धड़कनें अपने दिलों से ज़ुदा हो कहीं और घर ढूंढ रही थीं और घर की तलाश के इस रास्ते में लूट, खून, बलात्कार, आगजनी जैसी हिंसाएं कील बन ज़िंदगियों पर ठुक रही थीं। ढाका से उखड़ पश्चिम बंगाल के बड़े शहरों की ओर से भागते लाखों के उस हुजूम में एक युवा भी विस्थापित हुआ, जिस के दिल की एलबम बिछोह, याद और टीस की दर्दनाक तस्वीरों से भर गई।

अपने देस, अपने गांव के सोंधे चित्र भी विरह के दर्द भरे गीत गाने लगे। 26 साल के इस बेचैन होते युवक को दुनिया ऋत्विक घटक कह कर पुकारती है। ऋत्विक की आंखों ने स्वप्नों की जगह अपनी धरती की याद और विस्थापन की टीस भरी इतनी तस्वीरें रख लीं कि उनकी हर फ़िल्म के एक-एक फ्रेम में ज़ुदाई का दर्द अंकित हो गया।

दिल की जेब में तहकर रखा बचपन  
4 नवंबर, 1925 को ढाका के ज़ीन्दाबज़र इलाके में राय बहादुर सुरेश चन्द्र घटक के घर दो जुड़वा बच्चों ने जन्म लिया। ऋत्विक और उनकी जुड़वा बहन प्रतीति बाकी नौ बच्चों से बड़े थे। डिप्टी मजिस्ट्रेट सुरेश चन्द्र घटक के घर का रहन-सहन पूर्व और पश्चिम बंगाल, दोनों का मिलाजुला असर लिए चलता था। खूब बड़ा-सा घर ठीक प्रकृति की गोद में था। ऊंचे-ऊंचे लहलहाते पेड़ आकाश छूने की कोशिश करते और आसमान उन पेड़ों से भी विशाल हर चीज पर छाया रहता। नन्हे ऋत्विक को ये आकाश बेहद उद्वेलित करता। वो अपने दिन-रात इन्हीं सायों में बिताते। पहाड़ नापा करते, आकाश ताका करते, फूलों के रंग से बचपन सजाते और हरियाली की ताज़गी से उमंग महका करती।

शायद सभी कलाकार अपने बचपन को अपने साथ कहीं जेब में तहाकर साथ रखते हैं। ऋत्विक अक्सर गांव-घर याद करते हुए कहा करते- 'मेरी मुश्किल ये है कि मेरी आत्मा मेरे पैरों के साथ नहीं आई, अब मैं दूसरी आत्मा कहां से लाऊं, इसलिए मेरे क़दमों को ही अपनी भूमि की ओर लौटना होगा।'

नाज़ुक सपनों की तकिया और उम्मीदों का बोझ 
ऋत्विक बड़े थे और ऐसे परिवार के बड़े बेटे होने के नाते उनसे भी मजिस्ट्रेट बनने की उम्मीदें ही लगाई जातीं, लेकिन बालक का मन रंगों, चित्रों और सुरों में उलझा रहता। संगीत की दुनिया से परिचय कराया उस्ताद अलाउद्दीन खान ने, लेकिन सुर तो किसी दायरे, किसी ज़बान में बंधे होते नहीं...बहुत जल्द उन्हें पश्चिम की क्लासिकल धुनों ने अपने जादू में बांध लिया। बीथोवन से शुरू ये सिलसिला बहुत आगे तक पहुंचा। हालांकि भारतीय संगीत में भी उनकी समान रुचि थी। टैगोर संगीत और सुकांत भट्टाचार्य की कविताएं उन्हें दिल के करीब लगतीं। अवनींद्र नाथ टैगोर के वे दीवाने थे। राज कहानी, बुरो अंगला कहानियां तो उनके बचपन से उनके बेटे के बचपने तक उन्हें हंसाती-रुलाती रहीं।

श्रीमती घटक बताती हैं कि उनके बेटे रित्बन ने हजारों बार ये कहानियां पिता से सुनी होंगी, लेकिन हर बार ये कहानियां सुनते-सुनाते दोनों के गालों पर आंसू लुढ़क रहे होते। विभूति भूषण वंद्योपाध्याय, मानिक बनर्जी और तारा शंकर वंद्योपाध्याय की कहानियां भी ऋत्विक को पसंद थीं। इसके साथ ही अब्राहम लिंकन और लेनिन के विचार सूत्र में वे बंधने लगे थे। ज्ञानेंद्र नाथ टैगोर की पंच पेंटिंग्स ने भी ऋत्विक घटक को प्रेरित किया। वे जितना लिखते-पढ़ते गए, दिल उतना अशांत रहने लगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के असर, असहयोग आंदोलन आदि हलचलों से प्रभावित हो युवकों ने एक संगठन तैयार किया- किल्लोल। इसके मुखिया उनके एक भाई मनीष घटक थे। मानिक बनर्जी की देख-रेख में ये संगठन राजनीतिक गतिविधियां करता। ये सब घटना देख ऋत्विक की ज्ञानेंद्रियों में भी उथल-पुथल हुई। 

नहीं करेंगे अफ़सरी, बनेंगे कॉमरेड! 
1948 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एमए पूरा हुआ और इसके बाद मजिस्ट्रेट तो नहीं, लेकिन ऋत्विक के भविष्य की डोलती नैया को इन्कम टैक्स अफसर की नौकरी मिल गई, लेकिन उस समय ही उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों की भी खबर हो गई। ऋत्विक के विचारों के ताने-बाने कोई टैक्स फ़ाइल भला कहां सुलझाती, सो उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल होने के लिए वो नौकरी छोड़ दी...। लेकिन अब बात थी काम की...

ऋत्विक के चचेरे भाई सुधीश घटक एक कैमरामैन की हैसियत से न्यू थिएटर्स में काम कर रहे थे। उन्होंने ऋत्विक की मुलाकात बिमल रॉय और प्रथमेश बरुआ से सहायक के रूप में करा दी, लेकिन फ़िल्म निर्माण का काम भी उन्हें ज्यादा जमा नहीं। ऋत्विक जब पहली बार यूं सिनेमा के बुलावे को अनसुना कर पीठ मोड़ चले गए, तब किसे अंदाज़ा होगा कि यही एक दिन ऐसी फ़िल्में बनाएंगे, जो विश्व सिनेमा की अमूल्य निधि होंगी।

वक्त की इबारत से भरीं मन की दीवारें     
फ़िल्म से ठीक लगा कपड़ा बनाना और वे कानपुर की एक टेक्सटाइल मिल में काम करने लगे। मिल मजदूरों के शोषण भरे जीवन चक्र ने ऋत्विक घटक के दिल की चूलें फिर हिला दीं और उन्होंने एक कहानी लिखी-राजा, जो सनिबार चिट्ठी नाम के एक अखबार में छपी। अब ऋत्विक कहानियां लिखने लगे।

जो मन की दीवारें भी वक्त की इबारत लिख-लिख भर गई हों, तो इंसान क्या करे? या तो बुरी छापों की स्याही आंसुओं से मिटाए या उसी स्याही से कलम भर-भर दुनिया सजा दे। और ऋत्विक का दिल तो यूं भी लबालब था। उन्हें सब सवालों के जवाब पता थे, बस कलम ढूंढ रहे थे।

जारी है...

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