उधड़े हिमालय से उपजे सवालः क्या एलएंडटी पर लागू नहीं होते पर्यावरण के नियम? 

उधड़े हिमालय से उपजे सवालः क्या एलएंडटी पर लागू नहीं होते पर्यावरण के नियम? 

गौरव नौड़ियाल

गौरव नौड़ियाल ने लंबे समय तक कई नामी मीडिया हाउसेज के लिए काम किया है। खबरों की दुनिया में गोते लगाने के बाद फिलहाल गौरव फिल्में लिख रहे हैं। गौरव अखबार, रेडियो, टीवी और न्यूज वेबसाइट्स में काम करने का लंबा अनुभव रखते हैं।  

बाजार के खुले और दैत्याकार जबड़े में हिमालय पिछले बीस सालों में जितनी तेजी से समाया है, इससे पहले पहाड़ ने इस रफ्तार और निर्माण के पैमाने को कभी नहीं महसूसा था। इन दिनों हर गुजरते दस किलोमीटर पर धमाकों की आवाज इस बात का अहसास करवा देती है कि हिमालय की चट्टानों से मशीनें पार पाने में वक्त खपा रही हैं, तो कंपनियों ने अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए उन्हें बारूद से उड़ा दिया है। ये धमाके पूरे मध्य हिमालय में अब भी जारी हैं।

मध्य हिमालय में इन दिनों बड़े प्रोजेक्ट्स ने जिस पैमाने पर खलबली मचाई हुई है, उसने यहां की बसावटों पर अभूतपूर्व संकट खड़े कर दिए हैं। दिल्ली से महज 200 किमी दूर शुरू हुई इस तबाही की कहानी सड़क और सुरंगों, दोनों के जरिए पूरे मध्य हिमालय को निगलने को आतुर नजर आती है, लेकिन देश में पर्यावरण  के नियम बनाने और उन्हें ठीक ढंग से लागू करवाने वाली दिल्ली ही इस पूरे खेल के केन्द्र में होने के बावजूद आंख बंद कर, इस तबाही पर कान तक नहीं लगाती।

हिमालय विश्व की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है और यह अभी भी निर्माणाधीन है। भूवैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो उत्तराखंड एक अत्यंत सक्रिय भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है। ऐसे में यहां बेकाबू निर्माण गतिविधियां मसलन बड़ी संख्या में जल-विद्युत परियोजनाएँ, चार धाम ऑल वेदर रोड या ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल लाइन में सुरंग खोदने के लिए विस्फोटकों का धड़ल्ले से उपयोग, पहले से ही नाजुक स्थिति को और बिगाड़ रहे हैं।

मैं एक ऐसे ही गांव में पड़ताल के लिए पहुंचा, जहां इन दिनों रेलवे के विस्तार का मलबा और धूल का गुब्बार ही ज्यादा नजर आता है। श्रीनगर से महज 15 किमी दूर रामपुर गांव ऐसी ही एक जगह है, जहां हिमालय में पसरी हुई तबाही की एक छोटी सी, लेकिन भयावह तस्वीर सामने नजर आती है।

रामपुर गांव के बुजुर्ग सत्यनारायण खंडूरी बताते हैं कि जब शुरुआत में यहां रेल लाइन के लिए बन रहे वायाडक्ट और टनल के काम को पूरा करने के लिए एलएंडटी पहुंची, तब उसके कर्मचारियों ने ग्रामीणों को किसी भी प्रकार की दिक्कत पहुंचने पर निस्तारण का आश्वासन दिया था, लेकिन अब सिर्फ समस्याएं और कंपनी की मनमानी ही चारों ओर पसरी हुई है।

ग्रामीणों के पेयजल स्त्रोत सूख गए हैं और उनके खेत तबाह हो गए। दिक्कत ये है कि कई दफा इस सबंध में अधिकारियों और कंपनी को बताने के बावजूद ग्रामीणों की सुनवाई नहीं हो रही है। सत्यनारायण खंडूरी कहते हैं कि हम जानते थे कि इतने बड़े पैमाने पर जब काम शुरू होता है, तो कुछ दिक्कतें पैदा होती ही हैं, लेकिन जब इन दिक्कतों को कंपनियां बढ़ा ही रही हों और इसके निस्तारण पर ध्यान ही न दे पा रही हों, तब ग्रामीणों के पास सिवाय काम रोकने के और क्या चारा रह जाता है।

ये सिर्फ एक गांव की कहानी है। पहाड़ों पर टिके एक छोटे से गांव रामपुर के सत्यनारायण खंडूरी उस कंपनी का जिक्र यहां कर अपनी परेशानियां बता रहे थे, जिसने साल 2019-20 में राजनीतिक दलों को 85 करोड़ का चंदा केवल इलेक्टोरल बाॅन्ड के जरिए दिया था। मैं भारत में इंजीनियरिंग और कंस्ट्रक्शन के धंधे में काम करने वाली सबसे मशहूर कंपनी एलएंडटी यानि कि लार्सन एंड ट्यूब्रो का जिक्र कर रहा हूं।

इस जाइंट कंपनी के बरक्स पूरे हिमालय में जगह-जगह वो 15-20 लोग खड़े हैं, जो गांवों में पीछे रह गए हैं। इन कंपनियों के खिलाफ आवाज उठाने वालों में वो तबका है, जिसे भारत में गरीबी की परिभाषा के करीब ही ज्यादा रखा जा सकता है।

आप ऐसी बातों को सरकारी प्रचार में फंसकर विकास विरोधी कह सकते हैं, लेकिन असल जमीन पर सरकार के डिजाइन किए हुए इन सारे ही प्रोजेक्ट्स से बड़ी मात्रा में न केवल हिमालय की इकोलाॅजी तबाह हुई है, बल्कि पहाड़ियों पर छितराए हुए छोटे-छोटे गांवों में भी संकट बढ़ गया है। विशेषज्ञों का कहना है कि नाजुक हिमालय में सुरंग बनाना जोखिमों से भरा हुआ है।

इसी प्रोजेक्ट की एक अन्य प्रभावित परमेश्वरी देवी कहती हैं कि टनल निर्माण में चल रही ब्लास्टिंग के चलते इलाके के कई घरों में दरारें आ गई हैं। इस बाबत उन्होंने जब कंपनी से संपर्क किया तो उनके लोग कई बार आए तो जरूर, लेकिन सिर्फ फोटो खींचकर चलते बने। परमेश्वरि देवी भी उस छोटे से समूह का हिस्सा हैं, जो कंपनी से उपजी दिक्कतों के खिलाफ प्रदर्शन करने पहुंची थी।

परमेश्वरी कहती हैं कि हम 12-14 लोगों की गिरफ्तारी के लिए प्रशासन ने 40 से अधिक पुलिस कर्मियों को गांव में भेज दिया। वो सवाल पूछती हैं कि क्या हम आतंकवादी हैं या कोई घोषित अपराधी, जो प्रशासन हमारी समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय हमें गिरफ्तार करने के लिए पूरी फोर्स भेज देता है?

हिमालय चौतरफा कंस्ट्रक्शन कंपनियों के बिछाए हुए बारूद के ढेर पर टिका हुआ है। इसकी बसावटों पर नए संकट खड़े हो गए हैं, जिनमें जल स्त्रोतों के सूखने और नदियों के दूषित होने के पर्यावरणीय खतरे ही नहीं, बल्कि घरों के उजड़ने जैसे गंभीर संकट भी सामने आ खड़े हुए हैं।

सत्यनारायण खंडूरी और उनके जैसे दर्जनों लोगों के हिस्से के हिमालय को खोदने का ठेका एक हिस्से में इसी कंपनी एलएंडटी यानि कि लार्सन एंड ट्यूब्रो को मिला हुआ है, जो रामपुर के पास बन रहे वायाडक्ट पर काम कर रही है। अकेले रामपुर में ही समस्याएं हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। रामपुर तो सिर्फ एक बानगी है, जहां कंपनी की मनमानियां और पर्यावरण की अनदेखी के खिलाफ गांव वाले मुखर होकर बोल रहे हैं।

रामपुर और आसपास के पांच गांवों ने गांव के ही एक युवा संजय खंडूरी के नेतृत्व में संघर्ष समिति बनाई है, जो अब अपनी मांगों को लेकर लड़ाई लड़ रहे हैं। संजय बताते हैं कि कंपनी ने अपना मलबा हमारे गदेरों में डंप कर दिया है और इलाके के पेयजल स्त्रोत गायब हो गए। संजय इससे भी आगे अपने अनुभवों के आधार पर कहते हैं कि पहले जिन इलाकों में वाइल्ड लाइफ आसानी से दिख जाती थी, वहां अब टनल से निकले मलबे का पहाड़ ही नजर आता है। वो कहते हैं कि आश्चर्यजनक ढंग से इलाके की वाइल्डलाइफ गायब हो गई है।

एक कंपनी जो 85 करोड़ रुपये सिर्फ राजनीतिक चंदे में देने की ताकत, एक साल के भीतर ही देने का दम रखती है, उसके सामने पलायन के बाद पीछे छूट चुके ये लोग कितनी लंबी लड़ाई लड़ सकेंगे, इसको लेकर भी कुछ नहीं कहा जा सकता। कंपनी के गुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी है कि उसमें ग्रामीणों का जीवन बहुत छोटा और लाचार नजर आने लगता है।

एक अन्य प्रभावित पीताम्बरी देवी कहती हैं कि उनके पति ने मेहनत मजदूरी कर एक घर हाल ही में बनाया था, लेकिन अब उस घर में दरारें डराने लगी हैं। उनके गांव के लिए आवाजाही के पारंपरिक रास्ते तबाह हो गए हैं और छोटे पुल खत्म हो गए, जिससे बरसाती नालों को पार पाना नई चुनौती बन गई है। वो बताती हैं कि ऐसे ही एक रोज बारिश के दिन उनका नाती पानी में बहते-बहते बचा है। ये गंभीर सवाल है, जिसे कंपनी लगातार नजरअंदाज कर रही है।

निर्माण कंपनी केवल ग्रामीणों की ही अनदेखी नहीं कर रही, बल्कि इस पूरे इलाके में जो तबाही कंपनी ने मचाई है, उसका आंकलन अगर ठीक से हो और पर्यावरण नियमों का ठीक से अनुपालन करवाया जाए, तो ये कंपनी किसी भी मुल्क में ब्लैकलिस्ट कर दी जाएगी।

ऋषिकेश से कर्णप्रयाग तक रेलवे लाइन के लिए बनने वाली सुरंगों का ये ठेका कंपनी ने एक मोटी रकम चुकाकर हासिल किया है। बिजनेस स्टेंडर्ड की एक रिपोर्ट बताती है कि एलएंडटी की कंस्ट्रक्शन विंग ने 3338 करोड़ रुपये की बोली लगाकर रेलवे विकास निगम से पाॅकेट 4 का वर्क आर्डर हासिल किया है। इस काम को कई फेज में बांट दिया गया है, जिससे 100 किमी की परियोजना पर एनवायरमेंट एसिसमेंट की पेचीदा फाॅर्मेलिटी से बचा जा सके।

ये कंपनी कितनी ताकत रखती है, इसका भी अहसास ग्रामीणों को उस वक्त हो गया, जब कंपनी के ही एक लाइजनर ने स्थानीय मीडिया में झूठी खबर उड़वा दी कि ग्रामीणों ने टनल के भीतर उनके वर्कर कैद कर लिए हैं। इस घटना के बाद गांव में भारी संख्या में पौड़ी जिले के डीएम आशीष चौहान के आदेश पर पुलिस बल पहुंच गया, हालांकि मौके पर ऐसी कोई स्थिति न पाकर पुलिस बल को भी बैरंग लौटना पड़ा, लेकिन इस घटना ने ग्रामीणों में आक्रोश जरूर पैदा कर दिया।

एक अन्य प्रभावित सुशीला खंडूरी कहती हैं कि कंपनी ने जब से गांव के आस-पास निर्माण कार्य शुरू किया है, उनके गांव को नजदीकी शहर से जोड़ने वाली सड़क का बुरा हाल है। इस सड़क पर कई दफा हादसे भी हो चुके, लेकिन कंपनी की मनमानियां जारी हैं।

उत्तर के इस सबसे संवेदनशील इलाके मध्य हिमालय में बांधों के बाद अचानक तेज हुई इस नई हलचल से नए संकट भी खड़े हो गए हैं। पहले बांधों ने हिमालय की बुनावट और मौसम में तब्दीलियां पैदा की और अब टनल इसके पहाड़ों को चूरकर, एक बड़ी भीड़ को इस इलाके तक पहुंचाने के लिए रास्ता तैयार कर रही है।

सरकार की ओर से इन परियोजनाओं से पैदा हुए संकट, खासकर जल संकट का क्या इंतजाम है, ये भी अभी तय नहीं हुआ है। टनल के लिए होने वाली ब्लास्टिंग से तकरीबन सभी इलाकों में, जहां से भी टनल गुजर रही है, गांवों में पेयजल का संकट खड़ा हो गया है। गांव की प्राकृतिक जलधाराएं लोप हो गई हैं और पेयजल का संकट, प्रतिदिन काम के कई घंटों में तब्दील हो गए हैं। हिमालय को जानने समझने वाले जानते हैं कि भले ही सुरंग बनाने के लिए पर्यावरण अनुकूल तकनीक का उपयोग किया जाए, लेकिन बावजूद इसके पहाड़ियों की जल निकासी प्रणाली सुरंगों के जाल से प्रभावित होती है और जल स्रोत सूख जाते हैं।

सरकारी आंकड़ों में घरों की दरारों की संख्या नाकाफी है, लेकिन जमीन पर हर वो शख्स निर्माण कंपनियों पर अनदेखी के आरोप जड़ रहा है, जिसकी सुनवाई ही नहीं हो पा रही। ऐसा नहीं है कि नुकसान का आंकलन करने कंपनी के लोग नहीं आते, बल्कि वो आते हैं और हर बार गांव वालों को कोरे वायदे कर लौट जाते हैं। एक दिन ऐसी तमाम कंपनियां वापस कहीं और लौट जाएंगी और अपने पीछे छोड़ जाएंगी एक बड़ी तबाही, जिसे अंत में सिर्फ और सिर्फ स्थानीय लोगों को झेलना है।

हिमालय जिस तेजी से हर रोज नष्ट किया जा रहा है, इतनी रफ्तार ब्रिटिश शासन में भी लूट की नहीं देखी गई थी। ब्रिटिशर्स ने हिमालय से टिंबर का दोहन किया, तो इसके टिके रहने का भी प्रबंध भी उन्होंने वैज्ञानिक पद्धतियों से कर दिया था। उनके बनाए हुए संस्थान टिंबर की चुगाई के नियम ही नहीं बनाते थे, बल्कि नए जंगलों के लिए नीति भी तय करते थे। ... लेकिन आजाद भारत में जितनी तेजी खुद के हिमालय को नष्ट करने के लिए मौजूदा सरकारें दिखा रही हैं, उतनी तेजी गुजरे दशकों में कभी नजर नहीं आई थी। वैज्ञानिकों ने भी हिमालय में बड़ी परियोजनाओं को लेकर कई मौकों पर चेताया है, लेकिन सुनवाई कहां हो... इसका ठीक ठीक जवाब भी हिमालय की कमजोर चट्टानों को काटकर बनी अंधेरी सुरंग में ही दफ्न हो गया।

125 किमी ऋषिकेश-कर्णप्रयाग ब्राॅड गेज रेलवे लाइन में 17 टनल, वायाडक्ट और 35 पुलों का निर्माण किया जाना है। 12 स्टेशनों वाली इस रेलवे लाइन की महत्वपूर्ण बात यह है कि इसका करीब 84 फीसदी हिस्सा जो कि करीब104 किमी का होगा, सुरंगों से होकर गुजरेगा। इन दिनों मध्य हिमालय में रेल मंत्रालय के इस महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट पर जोरों-शोरों से काम चल रहा है।

सरकार की मंशा उत्तराखंड में मौजूद चार धाम को रेल नेटवर्क से जोड़ने का है, जिसमें करीब 246 बिलियन रुपये खर्च किए जाने हैं। आसान भाषा में कहें तो हिमालय को खोदने के लिए इतना पैसा झोंक दिया गया है, जिसकी कीमत आगे आने वाले कई सालों तक ये इलाके चुकाने जा रहे हैं।

हिमालय में सुरंग बनाने के लिए नियमों का उल्लंघन यहां की दशकों पुरानी बसावटों के लिए और भी घातक हो जाता है, क्योंकि उत्तराखंड में सुरंग से संबंधित कई आपदाएं हाल ही में देखी गई हैं। 2007 में, जब जयप्रकाश पावर वेंचर्स लिमिटेड की 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग जलविद्युत परियोजना की सुरंग से रिसाव शुरू हुआ, तो चांई गांव के 12 परिवारों को विस्थापित करना पड़ा था।

ठीक ऐसे ही 7 फरवरी, 2021 को उत्तराखंड के ऋषिगंगा और धौलीगंगा घाटियों में आई बाढ़ ने कम से कम 204 लोगों की जान ले ली। इनमें राज्य के स्वामित्व वाली एनटीपीसी लिमिटेड की निर्माणाधीन 520 मेगावाट तपोवन विष्णुगढ़ जलविद्युत परियोजना की सुरंगों में मरने वाले लगभग 37 श्रमिक शामिल थे। इस घटना ने बेहतर आपदा तैयारी, जैसे कि अर्ली वार्निंग सिस्टम की स्थापना की आवश्यकता को रेखांकित किया। इसके बाद नवंबर 2023 में, सिलक्यारा-बरकोट सुरंग ढह गई। इस घटना में 41 मजदूर लगभग 17 दिनों तक टनल में फंसे रहे और ये मामला राष्ट्रीय सुर्खियों में आ गया।

सुरंग के प्रभावों को समझने के लिए बेहतर वैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता पहाड़ी क्षेत्रों में और अधिक बढ़ जाती है। सुरंग निर्माण के प्रभावों का आंकलन करना अक्सर कठिन होता है, क्योंकि वैज्ञानिक डेटा और विश्लेषण की कमी स्पष्ट नजर आती है। इसका एक उदाहरण जोशीमठ है- जहां भूमि धंसने से कम से कम 868 घर क्षतिग्रस्त हो गए हैं, जबकि धंसने की ये प्रक्रिया साल 2021 में शुरू हुई थी।

आज भी जोशीमठ के प्रभावित न्याय के इंतजार में हैं, लेकिन सरकार ने इस मामले में गंभीरता दिखाने के बजाय जनआंदोलन को ही खत्म करने पर ज्यादा जोर दिया। जोशीमठ के निवासी और सामाजिक कार्यकर्ता अतुल सती दावा करते हैं कि धंसती भूमि के पीछे के प्रमुख कारणों में से एक तपोवन विष्णुगाड जलविद्युत परियोजना की निर्माणाधीन 12 किलोमीटर हेड रेस सुरंग थी।

सुरंगे पहाड़ में निर्माण तकनीक के लिए बेहतर विकल्प हो सकती हैं, बशर्ते दिशानिर्देशों का पालन करने में चूक न हो। यदि विस्तृत वैज्ञानिक जांच के बाद मौजूदा मानदंडों का पालन करते हुए अनुभवी एजेंसियों द्वारा सुरंगों का निर्माण होता है, तब ऐसी सुरंगें पहाड़ियों और पहाड़ों के बड़े हिस्सों को चौड़ी सड़कों के लिए काटने से अधिक विश्वसनीय हो सकती हैं। सड़कों के लिए पहाड़ों को काटने से नए लैंडस्लाइड जोन बनने के खतरों को भी सुंरग कम कर सकती हैं, लेकिन ठीक इसके उलट जब कंपनियां मनमाने ढंग से काम करती हैं, तब ये नई आफत स्थानीय लोगों के कंधों पर डाल देती हैं।

इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने की दिशा में उत्तराखंड में बुनियादी ढांचे के विस्तार की ये दौड़ कहां तक जारी रहेगी, इसका जवाब फिलवक्त भविष्य के गर्भ में है। इसका एक प्रमुख कारण पर्यटन और चीन की सीमा से लगा हुआ क्षेत्र है। 2011 में जब आखिरी जनगणना की गई थी, तब 10 मिलियन की जनसंख्या वाले उत्तराखंड ने 2022 में 54 मिलियन घरेलू पर्यटकों की मेजबानी की, जिसमें मुख्यमंत्री ने चार-धाम जैसे बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के आधार पर इसे 70 मिलियन तक विस्तारित करने का इरादा जाहिर किया था, लेकिन यही भीड़ ग्लेशियर्स और यहां के पर्यावरण के लिए खतरनाक साबित होती जा रही है। पहाड़ों पर न वेस्ट मैनेजमेंट का प्रबंध है, न उच्च हिमालयी क्षेत्रों में जमा हो रहे प्लास्टिक कचरे के निस्तारण की कोई ठोस व्यवस्था। ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि तीसरी दुनिया के इन अनाम पहाड़ी इलाकों में कम्पनियाँ किस हद तक पर्यावरण नियमों का पालन कर रही होंगी।  

रक्षा मंत्रालय के अनुसार, चार धाम परियोजना के तहत चौड़ी की जा रही कुल 825 किलोमीटर में से 674 किलोमीटर फीडर सड़कें हैं जो भारत-चीन सीमा तक जाती हैं और इसलिए सामरिक महत्व की हैं, लेकिन तब रेल की जरुरत यहाँ क्यों आ पड़ी इसका जवाब शायद बाज़ार के पास हो! सुरंग निर्माण के दौरान खड़ी हुई विकराल समस्याओं के अलावा जलवायु आपदाएँ भी पहाड़ों पर बड़ी चुनौतियाँ पेश करती हैं। भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार उत्तराखंड में चरम वर्षा की घटनाएँ बढ़ रही हैं। ये सुरंग निर्माण और संचालन में जोखिम बढ़ाते हैं। 13 अगस्त, 2023 को, शिवपुरी, उत्तराखंड में भारी बारिश के बाद एक निर्माणाधीन रेलवे सुरंग में पानी भर जाने के बाद 114 श्रमिक फंस गए थे,जिन्हें घंटों प्रयास के बाद बचाया जा सका था।

माउंटिंग जोखिमों के बावजूद, वर्तमान सुरंग निर्माण मानदंडों में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को अभी तक ध्यान में नहीं रखा गया है। सुरंग निर्माण से निकलने वाला मलवा, जिसे अक्सर नदियों और धाराओं में या उनके किनारे अवैध रूप से डंप किया जाता है, बरसात में ये निचले इलाकों में बाढ़ के खतरे को बढ़ा सकता है।

इन प्रोजेक्ट्स को लेकर तमाम तरह की वैज्ञानिक चिंताओं को दरकिनार कर दिया गया है, विकास का शोर इतनी जोर से चारों ओर फैला दिया गया है कि एक अकेला रामपुर गांव ही नहीं बल्कि पहाड़ों के कई गांवों की आवाजें दब गई हैं। उनके स्त्रोत ही नहीं सूखे, उनकी खेती की जमींने ही तबाह नहीं हुई बल्कि निर्माण के दौरान होने वाली आवाजाही की समस्याएं भी विकराल रूप ले चुकी। इलाकों की सड़कें या भारी निर्माण मशीनरी की आवाजाही से खराब हैं या लैंडस्लाइड जोन में हैं।

हिमालय में इन भारी निर्माण परियोजनाओं के चलते कितनी तबाही मची है, इसका आंकलन भी उन्हीं सरकारों के पास होता है, जो हर बार और अधिक लापरवाही से प्रोजेक्ट्स को हरी झंडी दिखाने के बाद सो जाती हैं और कंपनियां अपने मुनाफे के लिए बेधड़क बिना किसी नियम की प्रवाह किए बगैर निर्माण जारी रखती हैं। इन कंपनियों के नुकसान के आंकलन को अगर ठीक ढंग से अध्ययन किया जाए, तो कई कंपनियां पर्यावरण को पंहुचे नुकसान की क्षतिपूर्ति करने में ही दिवालिया हो जाएं। फिलहाल तो हिमालय के ग्रामीणों की जायज मांगों को कुचलकर उत्तराखंड में कंपनियां विकास से उपजी तबाही की कहानियां ही हर रोज लिख रही हैं.   

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