महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।
ग्लोबल वार्मिंग में ब्लैक कार्बन का बड़ा हाथ है, यह बात साबित भी की जा चुकी है और पर्याप्त अध्ययन के बाद ब्लैक कार्बन से पहुंचे नुकसान का भी आंकलन काफी हद तक किया जा चुका है। हिमालय क्षेत्र में भी ब्लैक कार्बन की मौजूदगी काफी पहले ही दर्ज की जा चुकी है। ब्लैक कार्बन की हिमालय में मौजूदगी के बहुत बुरे व दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। इसी दिशा में नैनीताल के एरीज संस्थान के वैज्ञानिकों को हिमालयी वातावरण में इसकी सटीक मात्रा का अनुमान लगाने में भी बड़ी सफलता हाथ लगी है।
ब्लैक कार्बन जीवाश्म ईंधन, लकड़ी व अन्य तरह के ईंधनों के अपूर्ण रूप से जलने के कारण उत्पन्न होता है। कई बार इसे आम बोलचाल में 'सूट' भी कहा जाता है। ब्लैक कार्बन की उम्र कुछ दिनों से कुछ हफ़्तों तक हो सकती है, लेकिन इतने कम समय में ही पर्यावरण पर इसका काफी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में यह कार्बन डाई ऑक्साइड से 500 गुना अधिक खतरनाक है। बर्फ व ग्लेशियर को तेज़ी से पिघलने में भी यह योगदान देता है। इन दो कारणों से इसका हिमालय क्षेत्र में होना खतरनाक हो जाता है। इसके इतने दुष्प्रभावों के बावजूद इसकी हिमालय में उपस्थिति का सही अनुमान लगाना अब तक कठिन था, जिस कारण ठोस आंकड़ों की भी भारी कमी थी।
आर्यभट्ट अनुसंधान संस्थान (ARIES) नैनीताल के वैज्ञानिकों ने दिल्ली विश्वविद्यालय, आईआईटी कानपुर और इसरो के साथ मिलकर पहली बार मध्य हिमालयी क्षेत्र में ब्लैक कार्बन व अन्य तरह के कार्बन पर लम्बे समय तक नज़र रखी है। इन संस्थानों के वैज्ञानिकों ने ब्लैक कार्बन की मात्रा का सटीक आंकलन हर माह किया। एशिया पैसिफिक जर्नल ऑफ़ एटमोस्फियरिक साइंसेज में प्रियंका श्रीवास्तव और उनके सुपरवाइज़र डॉ. मनीष नाजा का शोध प्रकशित हुआ है, जिसमें इन्होंने ब्लैक कार्बन की मात्रा की वार्षिक गणना की है। इसको लेकर प्रियंका श्रीवास्तव कहती हैं कि इन गणनाओं से पता चलता है कि ब्लैक कार्बन यहां उत्पन्न नहीं हुआ है, बल्कि कहीं और से उड़कर हिमालय के वातावरण में पहुंच रहा है।
'हिलांश' की पूर्व में प्रकाशित एक रिपोर्ट में हम पहले भी ब्लैक कार्बन की हिमालय में मौजूदगी को लेकर काफी कुछ बता चुके हैं। उस रिपोर्ट में हमने वाडिया हिमालय के वरिष्ठ भू-गर्भीय वैज्ञानिक डॉ. पीएस नेगी के हवाले से बताया था कि असल में, यूरोप के विभिन्न देशों से निकलने वाला प्रदूषण हजारों किलोमीटर दूर हिमालय श्रृंखलाओं की सेहत बिगाड़ रहा है। ये प्रदूषण हिमालयी ग्लेशियरों में ब्लैक कार्बन के तौर पर चिपक रहा है, जिस कारण ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार पहले से ज्यादा तेज हो गई है। ब्लैक कार्बन का पता करने के लिये गोमुख से पहले 3600 मीटर की ऊंचाई में स्थित चीड़बासा में उपकरण लगाये गए थे, जिससे कुछ साल बाद जो नतीजे मिले वो चौंकाने वाले थे। शोध में पता चला था कि जनवरी में ब्लैक कार्बन भारत से नहीं, बल्कि यूरोप के देशों से पश्चिमी विक्षोभ के साथ आ रहा है। जनवरी में जब पश्चिमी विक्षोभ बारिश लेकर आता है, उसी के साथ ये गैस भी हवाओं के साथ आती है।
घटती-बढ़ती रहती है ब्लैक कार्बन की मात्रा
प्रियंका बताती हैं कि गणना में यह भी पाया गया कि मौसम बदलने से ब्लैक कार्बन की मात्रा घटती बढ़ती रहती है। एरीज के वैज्ञानिक दल के अनुसार अब मौसम पूर्वानुमान व जलवायु मॉडलों में सुधार आएगा व ब्लैक कार्बन द्वारा वार्मिंग प्रभावों का सटीक अनुमान भी लगाया जा सकेगा। इस शोध से ब्लैक कार्बन उत्सर्जन के स्रोतों को चिन्हित करने व रोकने में भी मदद मिलेगी। वो कहती हैं कि शोध के जरिये अब पर्याप्त संख्या में ब्लैक कार्बन से संबंधित आंकड़े जुटाए जा सकेंगे, जिससे इसके दुष्प्रभावों पर स्टडी कर ठोस वैज्ञानिक नीति बनाने में मदद मिलेगी।
ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों से हिमालय का पर्यावरण और उस पर निर्भर सारे जीव व मनुष्य अपने अपने तरीकों से जूझ रहे हैं। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन ने ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाया है, पर इसके दुष्परिणामों की जद में हाशिये के समुदाय ही ज्यादा आये हैं। साफ़ स्वच्छ ईंधन के जमाने में ग्रामीण भारत, वैश्विक दक्षिण देश व अन्य विकासशील देशों की अधिकतम जनसंख्या के पास स्वच्छ ईंधन नहीं है। वे अभी भी लकड़ी व अन्य तरह के परम्परागत इंधनो पर ही निर्भर हैं, जिस कारण ब्लैक कार्बन भारी मात्रा में उत्पन्न हो रहा है। एक शोध के अनुसार दुनिया का 88% ब्लैक कार्बन इन्ही देशों से उत्पन्न होता है जो उड़कर अन्य जगहों पर भी अपने प्रभाव दिखाता है।
ईंधन जैसी मूलभूत समस्या भी ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दे रही है, जिसका निस्तारण वैश्विक स्तर पर ही संभव है। प्रियंका कहती हैं कि हालिया कुछ सालों में ग्लोबल वार्मिंग और पर्यावरण के मुद्दे पर दुनिया एक मत होकर एक मंच पर जरूर आयी है, लेकिन अभी भी हाशिये पर पड़े समुदायों को सशक्त व सुदृढ़ करने पर काफी काम होना बाकी है। ग्लोबल वार्मिंग एक वैश्विक चुनौती है, जिसे मिलकर ही सुलझाया जा सकता है।
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