जंगलों को लोगों से जोड़े बिना नहीं निकलेगा जानवरों से टकराव का हल

Nature Boxजंगलों को लोगों से जोड़े बिना नहीं निकलेगा जानवरों से टकराव का हल

महेंद्र रावत

महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।

पहली कड़ी में हमने हाथी और इंसानों के बीच बढ़ रहे टकरावों के जरिये वन्यजीव-मानव टकरावों के कारण को समझने की कोशिश की थी। इस कड़ी में हम कुछ अन्य जानवरों के मानवों के साथ टकराव पर बात करेंगे। इन टकरावों में अगर कृषि और मनुष्यों पर प्रभाव की बात करें तो सबसे ज्यादा मामले हाथी और जंगली सुअरों के साथ नीलगाय के हैं। खासकर हाथियों की बात करें तो ऐसा कोई दिन नहीं होता जब भारतीय मीडिया में हाथी से टकराव की कहीं कोई खबर न दिखाई दे।

हाल ही में 'चिंनाथंबी'(तमिल में छोटा भाई) की खबर ने लोगों का ध्यान खींचा। कोयम्बटूर जिले में फसलों को नुकसान पहुंचाने के कारण इस हाथी को पकड़ा गया। इसे राष्ट्रीय उद्यान में भेज दिया गया, लेकिन हाथी वहां से वापस लौट आया। इस हाथी को फिर से पकड़कर कैद किया गया। इस तरह की खबरें कुछ समय के लिए ध्यान जरूर खींचती हैं, लेकिन जल्दी ही लोग इसे भूल जाते हैं। ऐसे मामलों में यह सवाल तक नहीं उठते कि आखिर यह समस्याएं बार-बार क्यों पैदा हो रही हैं! या आखिर किस तरह से सरकारी प्रशासन जानवरों को बस्तियों से दूर रखे, इन घटनाओं को भुला दिया जाता है। नतीजतन इंसानों और जानवरों के बीच क्रूर हमले तक देखने को मिलते रहते हैं। 

शहरी वर्ग जो इस तरह के टकरावों से दूर है, उसका इस तरह की घटनाओं में अलग स्टैंड होता है, जबकि जमीनी हकीकत जो हाथियों से टकराव के रूप में किसान झेल रहे हैं, उनका स्टैंड बिल्कुल अलग होता है। दक्षिणी पश्चिम बंगाल में बहुत बड़े क्षेत्र की खड़ी फसल नियमित अंतराल में हाथियों के झुण्ड द्वारा रौंद दी जाती है। सूखा पड़ने के बाद जिन 50 हाथियों के झुण्ड का सफर 1986-87 में झारखण्ड के दालमा क्षेत्र से शुरू हुआ था, आज वह झुण्ड 150 से 200 की संख्या तक पहुंच गया है। इनमें से ज्यादातर तो उन इलाकों में ही नियमित मौजूद हैं, जहां पिछली कुछ सदियों में हाथी देखे ही नहीं गये थे। फिर इन इलाकों में हाथी की आवक अचानक क्यों बढ़ गई? इन इलाकों में अकेले 2015 में ही हाथियों से टकराव में 71 लोग मारे गए। यानी कि हर 2-3 हाथियों पर एक व्यक्ति की मौत का आंकड़ा, जो कि एक भयावह आंकड़ा है, लेकिन इसे लेकर जमीनी स्तर पर कोई ठोस काम किया गया हो, इसके नतीजे नहीं दिखते हैं।

प्रोफेसर सुकुमार कहते हैं- 'कुछ वर्षों पहले मैं बांकुरा और मेदिनीपुर जिलों में कुछ वरिष्ठ अफसरों के साथ गया। यहां हम ग्रामीणों को हाथी से बचने के तरीके बता रहे थे कि तभी एक सरपंच ने पूछा कि हमें लगता है कि ये हाथी इसलिए यहां आ रहे हैं, क्योंकि झारखण्ड में हाथियों के प्राकृतिक आवास को खनन ने बुरी तरह से प्रभावित किया है। दूसरे राज्य के हालातों के लिए हम खुद को कैसे कोसें? हाथियों के आतंक के भोगी हम क्यों बने और क्यों महीनों तक खेतों की रक्षा के लिए चैन की नींद भुला दें? किसी भी रात हमारे घर इन हाथियों द्वारा रौंदें जा सकते हैं। हमारे पास इन सवालों के कोई जवाब नहीं थे।' ये जायज सवाल थे, जो इंसानों ने ही अपने बढ़ते लालच के चलते दूसरे कमजोर इंसानों के लिये खड़े कर दिये थे।

पिछले कुछ दशकों में कितने लोग हाथियों द्वारा मारे गए इसी आंकड़े से मानव-हाथी टकरावों की तीव्रता में वृद्धि का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। सुकुमार कहते हैं- '1980 के दशक की शुरुआत में मैंने पूरे देश भर से आंकड़े जुटाए, जिसके मुताबिक साल भर में करीब 150 लोग जंगली हाथियों द्वारा मारे जा रहे थे। अधिकतर तब जब हाथी वन व वनों की परिधि में रहने वाले मानव बस्तियों व खेती के पास खाने के लिये आते थे। 2015-16 वर्ष में यह संख्या बढ़कर 500 लोगों की मृत्यु तक पहुंच गयी।' आंकड़े साफ बता रहे हैं कि हमले लगातार बढ़ रहे हैं।

हाथी ही नहीं बाघ भी मचा रहा आतंक 
हाथियों से इतर यहां पिछले कुछ वर्षों में बाघ और मानवों के बीच टकराव की घटनाएं भी बेतहाशा बढ़ी हैं। इसका असर ये हुआ कि कई इलाकों से बाघों को पकड़ने और यहां तक कि उनको मौत के घाट उतार देने तक की घटनाओं में तेजी से इजाफा हुआ है। महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में इन घटनाओं में पिछले कुछ सालों में तेजी आई है। इस पर नेशनल टाइगर कंज़र्वेशन अथॉरिटी ने एक 'आदर्श प्रक्रिया' निर्मित की है, ताकि मानवों से टकराव वाले बाघों से निपटा जा सके। भारत के कई राज्यों ने तो इस प्रक्रिया का जस का तस अपना लिया, लेकिन जमीन पर स्थितियां सुधरने के बजाय विवाद पैदा करने लगी। 

तदोबा (महाराष्ट्र) में 'अवनी' बाघिन के मामले को ही ले लीजिये, जिसने दर्जनों लोगों को अपना शिकार बनाया था, उसे नवंबर 2018 में गोली से मार गिराया गया। इस मामले ने ​बाद में विवाद का रूप ले लिया। अधिकतर वैज्ञानिक व संरक्षणवादी बाघिन को मारने से सहमत थे, लेकिन इसको मारने के तरीकों से असहमत। अवनी को कुछ शिकारियों के दल ने ढूंढ़कर मार गिराया था, ना कि सरकारी महकमे ने ये शिकार किया था। इसके उलट दूसरा पक्ष इस मामले में यह था की अवनी को मारने के बजाय, उसे कैद किया जाए।

तेंदुओं ने तो बस्तियों के करीब ही डाल लिया डेरा
बाघ और हाथियों के अलावा भारत में तेंदुए के हमले लगातार इंसानों पर बढ़े हैं। तेंदुआ एक शातिर जीव है, जो घात लगाकर इंसानों पर हमला करने से नहीं चूकता। तेंदुए पूरे देशभर में फैले हुए हैं। तेंदुए केवल जंगलों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वो गन्ने के खेतों में, चाय के बागानों, शहरों और कस्बों यानी हर उस जगह, जहां वे अपने शावकों को पाल सके व भोजन ढूंढ सके वहां घर बनाया है। ऐसा क्यों हुआ? तेंदुए बस्तियों के करीब क्यों आने लगे, इन सवालों के जवाब ढूंढे बिना ही नीतियां बना दी गई और हर इंसानी हमले के बाद उनका बड़े पैमाने पर शिकार भी किया जाने लगा है।

सोशल मीडिया पर तमाम ऐसे वीडियोज हैं, जिसमें मुंबई-ठाणे क्षेत्र के घरों, इमारतों व शॉपिंग मॉलों में तेंदुए को घुसते हुए देखा जा सकता है। हिमाचल और उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्यों में मामले और भी गंभीर हैं, जहां हर साल कई लोग तेंदुओं का शिकार बनते हैं। महाराष्ट्र में तो इन हमलों के पीछे गलत प्रबंधन कारण के रूप में सामने आता है। मसनल शहरी क्षेत्रों में जब तेंदुओं को पकड़ा जाता है तो, इन्हें 'दबोचकर' ऐसी जगहों पर छोड़ा जाता है, जो तेंदुओं का 'प्राकृतिक निवास' होता नहीं है बल्कि मान लिया जाता है। ऐसे में कई मामलों में तेंदुओं ने या तो पास के खेती वाले इलाकों में घर बना लिया है या फिर ये लम्बी दूरी नाप कर वापस 'दबोचे' जाने वाली जगहों पर वापस आ जाते हैं, जिसके चलते फिर से इंसानों पर हमला करने लगते हैं। कई राज्यों में लोगों के दबाव के चलते प्रशासन तेंदुओं को मारने की अनु​मति दे देता है और कई दफा ग्रामीण चोरी छिपे खुद ही घेरकर तेंदुओं का शिकार कर देते हैं। इससे पारिस्थितिकी संतुलन ही गड़बड़ाया है।

शेर अब तक शांत बैठे हैं, लेकिन कितने दिन और ये पता नहीं!
एशियाई शेर एक सदी तक गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान तक ही सीमित थे, लेकिन जैसे ही इनकी संख्या बढ़कर 250-300 हुई, ये ग्रेटर गिर भूदृश्य में फैलने लगे जो कि 20,000 वर्ग किमी में फैला हुआ इलाका है। इस क्षेत्र में एक बहुत बड़े हिस्से पर खेती भी होती है। इस इलाके में किसानों को फायदा ये हुआ कि नीलगाय जैसे जानवरों की बढ़ती संख्या को शेर नियंत्रित करने लगे और किसानों को शेरों का उनके बीच होने का फायदा मिलने लगा, लेकिन यह कह पाना कठिन है कि यह सहअस्तित्व कितना लम्बा चलेगा! शेर सामान्य तौर पर इंसानों पर घात लगाकर हमले नहीं करते हैं।

मौजूदा दौर में इस इलाके में 650 शेर हैं। यह अपने आप में उस प्रजाति के लिए एक बड़ी सफलता है, जिसकी संख्या 20वीं सदी के अंत तक दर्ज़न भर ही रह गई थी। आने वाले समय में जब शेरों की संख्या बढ़ने लगेगी और इंसानों के साथ टकराव बढ़ेंगे, खासकर कठिन जलवायु परिस्थितियों में जैसा कि 1986-87 में हुआ, तब यहां स्थितियां कैसी होंगी इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है।

जंगली सुअर जो उत्तराखंड से तमिनाडु तक रौंद रहे हैं फसल
किसानों के लिये उत्तराखंड से लेकर तमिलनाडु तक जिस जानवर ने सबसे ज्यादा मुश्किलें खड़ी की हैं, वह है जंगली सुअर। जंगली सुअर बड़े पैमाने पर फसलों को तो नुकसान पहुंचाता ही है, खेत में काम कर रहे किसानों पर हमले करने से भी नहीं चूकता है। उत्तराखंड से तमिलनाडु तक कई राज्यों ने सुअरों को वन क्षेत्र के बाहर सख्त निगरानी में छंटनी/मारने की इजाज़त दी है। इससे ऐसा लग सकता है कि जंगली सुअरों को मारना संरक्षणवादियों व समाजसेवियों का ध्यान आकर्षित नहीं कर पाया, लेकिन इस दिशा में भी विरोध अब सामने आने लगे हैं।

इन तमाम मालों को देखने के बाद मानव-वन्यजीव टकरावों के प्रबंधन हेतु तर्कसंगत नीति व ढांचे की जरूरत कई दफा महसूस भी हुई है। खेती के नुकसान पर मुआवजा (हाथी के मामले में), मवेशी व व्यक्ति के मारे जाने पर मुआवजा, वन्यजीव को पकड़कर वापस जंगल पहुंचाना या कैद करना, नुकसान पहुंचाने वाले जानवरों को भगाने के अभियान, छंटनी (कई बार मारना), बाड़ेबंदी ऐसे कुछ प्रयास हैं, जिनपर सरकार की ओर से काम किये गये हैं, लेकिन यह स्थाई समाधान में नहीं बदल सके हैं।

इन प्रयासों में से ज्यादातर ने प्रतिकूल परिणाम ही दिए हैं, जिसका खास लाभ नहीं मिल सका है। वन्यजीव संरक्षण और टकराव-रोकथाम जैसे सटीक लक्ष्य हासिल करने में भी यह प्रयास कारगर सिद्ध नहीं हुये हैं। इंसान और जंगली जानवरों के बीच टकराव लगातार बढ़े ही हैं और ऐसे में सरकार के प्रयास विफल होते हुये ही ज्यादा नजर आये हैं। फिर ऐसा क्या किया जाये, जो इन घटनाओं पर नियत्रंण किया जा सके!

ऐसे मामलों में जब भी प्रबंधन के उपायों पर बात की गयी, तब विज्ञान हमें वन्यजीवों की प्रवृति और प्रजाति के व्यवहार के बारे में तो बताता है, लेकिन जमीनी सवालों का जवाब देने में चूक जाता है। वन्यजीव प्रबंधकों को जिन समस्याओं का रोजाना जमीन पर सामना करना पड़ता है, वो बिल्कुल अलग होते हैं। इन घटनाओं में प्रभावित लोगों की जरूरतें और मत, रोकथाम के तरीकों का आर्थिक पक्ष, हर वन्यजीव प्रजाति का सांस्कृतिक महत्व, इन तमाम कारकों को लेकर कभी भी तार्किक रूप से असल में बहस या सलाह मशविरा हो ही नहीं पाया है। वन महकमे के ब्यूरोक्रेट्स भी इन मामलों में लबी रण​नीतियां बनाने के बजाय, नौकरी बजाने पर ही ज्यादा फोकस करते हैं।

प्रोफसर सुकुमार कहते हैं कि ऐसे वक्त में जबकि इंसान और जानवरों के बीच टकराव लगातार बढ़ रहा है, तब भारत में वन्यजीव प्रबंधन के लिए नीतिगत ढांचा तैयार करने की जरूरत और अधिक बढ़ जाती है। यह सच है कि 'दिक्कत' बन चुके बाघों से निपटने के लिये एक 'आदर्श प्रक्रिया' मौजूद है, पारिस्थितिकीय परिस्थितियों पर निर्भर ढांचा है, तमाम 'एक्शन प्लान' और रोकथाम के तरीके हैं, लेकिन यह जमीनी आंकलन से तैयार किये गये हों, ऐसा बिल्कुल नहीं है। कई दफा तो ये एक्शन प्लान प्रभावित लोगों से सलाह मशविरे के बगैर ही ब्यूरोक्रेट्स तैयार कर देते हैं, जिसके नतीजे लंबे समय तक प्रभावी नहीं रह पाते हैं। 

प्रोफेसर सुकुमार कहते हैं कि भारत को ज्यादा से ज्यादा 'संरक्षित क्षेत्र' बनाने पर ध्यान देने के बजाय लोगों को जमीनी स्तर पर जैव विविधता, संरक्षण और मानव-वन्यजीव टकराव रोकथाम के कार्यक्रमों से जोड़ने पर काम करने की जरूरत है। वो कहते हैं कि इस वक्त सबसे बड़ी जरूरत भूदृश्यों के अंदर व बाहर अलग-अलग तरह के जानवरों का प्रबंधन कैसे हो, इस दिशा में सटीक नीतियों के निर्माण की जरूरत है। हालांकि, ऐसे बहुत से पक्षों को 2017 से 2032 तक चलने वाली राष्ट्रीय वन्यजीव कार्य योजना में शामिल किया गया है, परन्तु इन्हें संरक्षण योजनाओं में व क्षेत्रीय स्तर पर क्रियान्वित करने की भी जरूरत है।

यह भी पढ़ें : क्यों घर की मुंडेर पर दस्तक दे रहे हैं हाथी, दोराहे पर कैसे खड़ा है संरक्षण!

भूदृश्यों के स्तर पर प्रबंधन हेतु जो पैमाने अपनाये गए हैं, वह वन्यजीव की अलग-अलग प्रजातियों पर निर्भर करेंगे। एक ही पैमाने को हाथी और जंगली सुअर पर लागू नहीं किया जा सकता है। ऐसे ही बाघ और तेंदुए के लिए भी एक पैमाना लागू नहीं किया जा सकता है, जबकि ऐसा ही हो रहा है। प्रोफेसर सुकुमार कहते हैं- 'मेरा सुझाव है कि जब हम बात करते हैं दुनिया के सबसे बड़े जमीनी शाकाहारी (हाथी) और सबसे खौफनाक मांसभक्षी (बाघ) के बीच, तब हमें साफ़ अंतर करने की जरूरत है। साथ ही अलग प्रजातियों के लिए अलग-अलग प्रबंधन नीतियों की भी भारत को जरूरत है। वन्यजीवों और मानवों को पूर्णतः अलग नहीं किया जा सकता है और हमें अलग-अलग वन्यजीव प्रजातियों के साथ सहअस्तित्व की ओर बढ़ना होगा, ताकि क्षेत्रीय स्तर व प्राथमिकताओं के आधार पर उनका प्रबंधन परिभाषित हो सके। पहली पंक्ति पर कार्यरत वन्य कर्मचारियों के साथ-साथ स्थानीय समुदायों को भी वन्यजीव प्रबंधन हेतु सक्षम बनाने की जरूरत है।' 

कुल मिलाकर देखें तो सरकारी स्तर पर नीतियों में बड़े बदलाव और जंगलों से स्थानीय लोगों के जुड़ाव के बिना, इंसान और जनवारों में लगातार बढ़ रहे टकराव को टाला नहीं जा सकता है। इंसान और जानवरों के बीच टकराव का समाधान हर दफा गोली से हो जाएगा, ऐसा भी लंबे समय तक चलने वाला नहीं है। इसमें नुकसान ही ज्यादा हैं और लाभ तात्कालिक। 

Leave your comment

Leave a comment

The required fields have * symbols