महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।
हाल ही में झारखंड के जामताड़ा इलाके में हाथी ने बस्ती में घुसकर एक युवक को मौत के घाट उतार दिया था। ये कोई अकेली या पहली घटना नहीं है, बल्कि आये दिन भारत के अलग-अलग इलाकों से ऐसी खबरें सामने आती रहती हैं जब इंसानों से हाथी का टकराव होता है। आखिर क्यों हाथी इंसानों की बस्ती में घुसा चला आता है... इसकी वजहें क्या हैं और इसका समाधान क्या है। हम ऐसे ही तमाम सवालों से जूझते हुए उस व्याख्यान तक पहुंचे जहां प्रोफ़ेसर रमन सुकुमार इन सवालों के जवाब तलाशते हुए नजर आते हैं। 'नेचर बाॅक्स' की पहली कड़ी में हम हाथियों और इंसानों के टकराव को समझने की कोशिश कर रहे हैं...
एक बहुत ही प्राचीन और प्रकृति आधारित मूल्य तंत्र होने के बावजूद आज़ादी के दौरान भारतीय वन और वन्यजीव एक बहुत ही बड़े संकट के गवाह बने। एक तरफ भारत के जंगलों को बड़ी ही क्रूरता से औपनिवेशिक विस्तार के लिए काटा गया, तो दूसरी तरफ उतनी ही क्रूरता से वन्यजीवों को खेल व शिकार के लिए मार दिया गया। 1972 वन्यजीव सुरक्षा अधिनियम का लागू होना पहला ऐसा कदम था, जिसने बहुत सी वन्यजीव प्रजातियों के दिन फिरा दिए। इसके बाद एक और सुखद बदलाव हुआ और वो था 1980 का वन संरक्षण अधिनियम कानून, जिसने वनों के कटान की रफ़्तार को धीमा करने का काम किया।
पिछले कुछ दशकों में भारत अपने वन्यजीवों के रख रखाव के मामले में काफी आगे निकला है। नतीजतन बहुत सारी प्रजातियां खतरे से बाहर आयी हैं, जो विलुप्त होने की कगार पर पहुँच चुकी थी। भारत अपने वन्यजीवों की सुरक्षा में तो आगे बढ़ा, लेकिन इधर एक संकट चुपचाप बड़ा होता चला गया। ये संकट है हालिया दशकों में वन्यजीवों का मानव के साथ टकराव, जो काफी बढ़ा है।
कृषि, पशुपालन, संपत्ति और यहाँ तक की मानव जीवन पर वन्य जीव कई दफा भारी पड़े हैं। विशाल वन्यजीवों मसलन हाथी, शेर, बाघ के साथ होने वाले मानव के टकराव इधर खूब सुर्खियां भी बटोरते रहे और कई दफा घर की मुंडेंरो तक जानवरों ने दस्तक दी है। इन टकरावों का सबसे ज्यादा खामियाजा जंगलों के करीब या बीच में रहने वाले किसानों को उठाना पड़ा है।
प्रोफ़ेसर रमन सुकुमार कहते हैं- 'हाल के दशकों में ये टकराव प्राकृतिक निवासों एवं सरकार द्वारा नियंत्रित वन और घास के मैदान में सीमित न रहकर काफी फैल चुके हैं। साथ ही साथ इन टकरावों में बहुत से जानवर घायल होते हैं और मारे जाते हैं। इधर इंसानों पर भी हमले बढ़े हैं। वन्यजीव रेलगाड़ियों से कटकर, सड़क दुर्घटनाओं में अथवा खेतों व मानव बस्तियों में करंट के चपेट में आकर मारे जा रहे हैं। इसीलिए यह जरूरी है कि मानवों व वन्यजीवों, दोनों की भलाई के लिए कुछ व्यावहारिक समाधान खोजे जाएँ जिससे ये टकराव कम हो सकें।’
सुकुमार मानव और वन्य जीवों के टकराव को रेाकने के लिए एक प्रभावी और कारगार नीति की बात करते हुए कहते हैं- 'बहुत जरूरी है कि इन टकरावों के पारिस्थितिकीय कारणों को समझा जाए। विशेषकर हाल के दशकों में इन टकरावों के बढ़ने के कारणों को समझा जाए और इन्हें कम करने के लिए एक व्यापक रूप से प्रभावी नीति लायी जाए। अन्यथा हम एक ऐसी स्थिति की ओर बढ़ने के खतरे में है जहाँ से अति कड़े कदम उठाए बिना 'सामान्य स्थिति' की ओर लौट पाना बहुत कठिन होगा।’
वो आगे कहते हैं- 'मीडिया मानव-वन्यजीव टकराव पर एक बहुत ही सरलीकृत नजरिया पेश कर बताती है कि मानवों ने वन्यजीवों के प्राकृतिक निवासों में घुसपैठ व बर्बादी की है और अब ये सब वन्यजीव अपनी सुरक्षा और अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। इस कहानी में सत्यता के अनेक तत्व व पुट है। एक बेहद लम्बे ऐतिहासिक समयकाल में वन्यजीवों के निवासों ने धीरे.धीरे अपने पारिस्थिकीय मूल्य और विशेषताएँ खोयी है, नतीजतन मानव-वन्यजीव टकरावों में इजाफा हुआ है। हाल के दशकों में जब वर्तमान नीति व्यावहारिक प्रबंधन की स्थितियों के अनुरूप है, यह कहानी और जटिल हो जाती है।’
मानव-वन्यजीव टकराव के कारण कई पारिस्थितिकीय कारक शाकाहारी जानवरों को खेती पर हमला करने को धकेलते हैं, नतीजतन टकराव बढ़ने की संभावना भी बढ़ जाती है। टकरावों को बढ़ाने वाले कारकों को श्रेणीबद्ध करने का आसान तरीका है- जानवरों के 'प्राकृतिक निवास' से 'धकेलना' और घनी मानव बस्तियों में 'खींचना' में इसे बांटकर देखना। ज़ाहिर सा प्रश्न है कि 'प्राकृतिक निवास' आखिर क्या है? हम आखिर वन्यजीवों को उन सीमाओं में सीमित क्यों कर देना चाहते हैं, जिन्हें हम उनका 'प्राकृतिक निवास' समझते हैं? क्या वन्यजीवों को जहाँ पसंद है वहाँ नहीं रहने देना चाहिए? इन प्रश्नों के जवाबों से पहले हाथी के उदहारण से मानवों से टकरावों के सन्दर्भ में सुकुमार 'धकेलना' व 'खींचना' वाली वजहों पर ध्यान खींचते हैं।
सुकुमार अपने व्याख्यान में कहते हैं- 'धकेलना' कारक साफ़ तौर पर तभी लागू होता है, जब हाथी बहुत तेज़ी से अपने निवास खोते चले जाते हैं। ऐसा 1990 के दौरान उत्तर-पश्चिम असम में हुआ था। बहुत ही कम समय में जंगल के एक बहुत बड़े हिस्से को काटकर लोगों को बसाया गया व खेती की जमीन तैयार की गई। ऐसा पृथक राज्य के लिए चले सामजिक-राजनीतिक आंदोलन के चलते हुआ, लेकिन इसका खामियाजा हाथियों को भुगतना पड़ा। सैकड़ों हाथियों को बेघर कर दिया गया था, जिसके परिणामस्वरूप हाथी और किसान के बीच टकराव तेज़ी से एक विशाल क्षेत्र में फैलता चला गया। बेघर हाथी तमाम मानव बस्तियों से गुज़रते हुए ब्रह्मपुत्र किनारे दक्षिण में तेज़पुर तक पहुंच गए।
पूर्वी-केंद्रीय राज्यों जैसे झारखण्ड-ओडिशा में इंसान और हाथियों के टकराव को बढ़ाने में भी जंगल के भीतर ऐसी ही गतिविधियों का हाथ रहा है। खदान व अन्य विकास की गतिविधियों ने वनों के अंदर तक घुसपैठ की है और ये अब भी विकास के नाम पर तेजी से बढ़ रही है। छत्तीसगढ़ व दक्षिणी पश्चिम बंगाल की कुछ जगहों के साथ यह पूरा क्षेत्र सबसे अधिक मानव-हाथी टकरावों का गवाह बना है।
सुकुमार आगे हाथियों और इंसानों के बीच टकराव को समझाने के लिए और महीन उदाहरणों का इस्तेमाल करते हुए कहते हैं- ‘प्राकृतिक निवास के नष्ट होने को समझना- समझाना कठिन है पर उन्हें चरागाहों एवं चरने के संसाधनों के नष्ट होने की प्रक्रिया के रूप में समझना थोड़ा आसान हो जाता है। आम धारणा के विपरीत, नमी युक्त चुनिंदा वनों का काटा जाना व झूम खेती किसी भी निवास व परिवेश की वन्यजीवों को पालने, संसाधन मुहैया कराने की क्षमता में इजाफा करती है, जिससे कृषि क्षेत्रों में हाथी-मानव टकराव बढ़ जाते हैं। वन्य क्षेत्र में खनन, जलावन, चारे इत्यादि का दबाव हाथियों व अन्य वन्यजीवों के चरागाहों पर बहुत ज्यादा दबाव डालता है।
हालिया वर्षों में 'घुसपैठिया पौध' (Lantana Camara) दक्षिण भारत के जंगलों में तेजी से फैली है। सुकुमार अंदेशा जताते हुए कहते हैं- 'संभवतः इसने हाथियों के खाने लायक घास की जगह लेकर इसे काम किया होगा, जिससे हाथियों को वनों से बाहर खाने के लिए भटकने को मज़बूर किया। ये स्थितियां निवास क्षेत्र के नष्ट होने का कारण बनती हैं। हालांकि, हमें सिक्के के दूसरे पहलू पर भी गौर करना चाहिए। बहुत लम्बी दूरी और क्षेत्र में फैले ऐसे वन भी हैं, जो क्षतिग्रस्त नहीं हैं और हाथियों को पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराते हैं। इन वनों में ऐसे बहुत से हाथी हैं, जो फिर भी फसलों पर हमला करते हैं। ऐसे इलाकों में हाथियों का फसलों की ओर खिंचने की एक बड़ी वजह पर्याप्त मात्रा में भोजन का उपलब्ध होना है। चाहे वह बाजरा, दालें, गन्ना हो या फिर नारियल पेड़ के चुनिंदा भाग। इतना ही नहीं कटहल जैसे फलों को तो हाथी बड़े स्वाद से खाते हैं। ऐसे में देखें तो फसलों के वनों की घास से अधिक मात्रा और अधिक पौष्टिकता हाथियों को खेतों तक खींच लताी है।'
भारत के कई इलाकों में पिछले कुछ दशकों में छोटे बाँध, नहरें व पम्पों से सिंचाई की व्यवस्था हुई। इससे हुआ यह कि जो किसान बारिश पर निर्भर था, वो अब साल में एक फसल के बजाय सालाना 2-3 फसलों का उत्पादन करने लगा। पानी की इस उपलब्धता का लाभ अकेले किसानों को नहीं मिला, बल्कि हाथियों ने भी इस पानी का लाभ उठाना शुरू कर दिया। इससे भी आगे जाकर अब साल भर हाथियों के पास चरागाहों के सिमटने से फसलों का विकल्प खुल गया।
सुकुमार कहते हैं- 'भला हाथी जंगल की सूखी रोटी क्यों खाये जब उसे जंगल के पास ही फसलों के रूप में बना बनाया केक मिल रहा हो? ये 'धकेले' और 'खिंचते' चले जाने के कारण एक दूसरे से पूर्णतः स्वतंत्र नहीं है, बल्कि एक साथ एक ही समय पर भी संचालित हो सकते हैं। सूखा पड़ना जैसी एक जलवायु घटना को ही ले लीजिये। जब 1982 में दक्षिण भारत ने पिछली सदी का सबसे कठिन सूखे का दौर देखा तब हाथियों के कई समूहों ने होसूर, तमिलनाडू, बन्नेरघट्टा और कर्नाटक के जंगलों को छोड़कर आंध्र प्रदेश के चित्तूर वनों की तरफ कूच किया। यहां पिछली कुछ सदियों से हाथी देखे तक नहीं गए थे। हाथियों ने पास की खेतियों पर हमला शुरू किया जो भूजल से उगाई जा रही थी। अचानक खेतों में धमके हाथियों के चलते टकराव बढ़ने लगे। असल में इंसानों ने जिस पैमाने पर जंगलों को निगला है, उसी ने हाथियों को जंगलों से बाहर नई दुनिया में आने के लिए प्रेरित किया।’
हाथी ऐसा जानवर है जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपने तय काॅरिडोर पर मूवमेंट करता है। फिर उसे काॅरिडोर छोड़ने या बदलने के लिए किसने मजबूर किया? इसके काफी हद तक जवाब सुकुमार दे चुके हैं।
मानव बस्तियों और खेतियों के बीच विचरण हाथियों के लिए भी घातक सौदा होता है। हाथी जो चुनौतियों को पार करने के लिए पहचाना जाता है, उसके लिए आसानी से उपलब्ध पौष्टिक खाने के लिए खतरा मोल लेना कोई बड़ी बात नहीं रह जाती है। यहां पर जैविक उत्पत्ति के पहलू भी सक्रिय हो जाते हैं। जब नर हाथी वयस्क बनने की कगार पर पहुंचते हैंए तब इन्हें ज्यादा खाने की जरूरत होती है। नर हाथी बाकायदा दूसरे नर हाथी पर भारी पड़ने के लिए खुद पर खूब ध्यान देता है, ताकि वो बाकी नरों से विशाल और ताकतवर बन सकें जो उसे आने वाले समय में चुनौती देंगे। इस पूरी शक्ति का इस्तेमाल वे मुस्थ में करते हैं, ताकि प्रजनन के लक्ष्य को सफलतापूर्वक साध सकें। इन युवा हाथियों को अपने परिवारों को अलविदा भी कहना पड़ता हैए ताकि नई जगह और परिवारों में अपना भविष्य तलाश सकें। ऐसा न करने पर हाथी का अपने ही परिवार में प्रजनन का खतरा बढ़ जाता हैए जिससे उनके जीन अपने ही परिवार में सिमटकर विलुप्त हो सकते हैं।
दिलचस्प बात यह है कि वयस्कों से लेकर छोटी उम्र के कुछ हाथी एक बड़े क्षेत्र में फ़ैल जाते हैं और अन्य बुजुर्ग या वयस्क हाथियों से सम्बन्ध बनाते हैं। यहींवो खेतों पर हमले की कला भी सीखते है और यहीं हाथी और मानव टकराव के लिए मंच भी तैयार होने लगता है। मादा हाथी और उनके परिवार मानव क्षेत्र में जाने का खतरा मोल नहीं लेती। नन्हे हाथियों की सुरक्षा के चलते वो इस खतरे से दूर रहती हैं, लेकिन जब जलवायु विपरीत हो जाती है या फिर प्राकृतिक निवास उजाड़ दिया जाता हैए तब हाथीअपनी जरूरतें पूरी नहीं कर पाते और मज़बूरन मानव बस्तियों का रूख करते हैं।
सुकुमार कहते हैं- 'बढ़ते मानव.वन्यजीव टकराव ने संरक्षण की दिशा में उठाये गए कदमों को सफलता दिलाई है। इससे वन्यजीवों की जनसंख्या में वृद्धि दर्ज की गई है। पिछले चार दशकों में अनेक क्षेत्रों में ;दक्षिण और उत्तरद्ध हाथियों की संख्या बढ़ी है और एक बड़े कृषि क्षेत्र में फैली भी है। इस दौरान शाकाहारी जानवर जैसे काले हिरन और नीलगाय केंद्रीय व उत्तर पश्चिम भारत में कई गुना बढ़ें हैं। कई प्रजातियां जो हज़ारों की संख्या में थी अब दसियों हज़ारों में पहुंच चुकी है। ऐसे में वन्यजीव संख्या वृद्धि भी टकराव को बढ़ा देती हैं।'
जारी है...
(प्रस्तुत लेख व्याख्यान प्रोफ़ेसर रमन सुकुमार द्वारा जी.बी.पंत राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान, कोसी कटारमल, अल्मोड़ा में गोविंद बल्लभ पंत स्मृति व्याख्यान.2019'के रूप में दिया गया था। इसमें उन्होंने मानव वन्यजीव संघर्षों पर विस्तृत बात रखी है। व्याख्यान में वे हाथियों को केंद्र में रखकर पूरे भारत में चल रहे हाथी मानव संघर्ष के विभिन्न पहलुओं पर विस्तृत प्रकाश डाल रहे हैं।)
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