एक थी काजी, एक था रंगा...

kazirangaएक थी काजी, एक था रंगा...

निधि सक्सेना

निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है। 

(भाग: 1) इंसान जैसे जानवर, जानवर से इंसान! पिछले 20 दिनों से मैं सूरज से नहा रही थी, हवा बिछा रही थी, तारे ओढ़ रही थी, चांद सिरहाना था...ये जन्नत का नज़ारा नज़र आता है न?...तो हम सब को जो मालूम है जन्नत की हकीक़त..फिर क्या कहूं? मैं पानी पर चल रही थी, हवा में गांठ लगा रही थी, अब जो उपमा मन को भाए, वो रख लीजिए, बस सीधे-सीधे कहती हूं, मेरी बात सुन लीजिए, इजाज़त है? मेहरबानी! बड़ा मन कर रहा था बताने का कि पिछले महीने भर मैं जंगल में रही (याहू बता दिया!), और वो भी ऐसे-वैसे नहीं, जंगलों में जंगल की हैसियत रखने वाले, जंगलों के राजा काज़ीरंगा में बिन नाम, बिन पते घूम रही थी...कहीं डगर बदल रही थी, कभी रास्ते भूल रही थी, घर से 3000 किलोमीटर दूर।

साथ न दोस्त थे, न परिचित, न साथी। किसी जान-पहचान वाले से दो बात हो जाए, बस दुआ-सलाम या हाल-चाल हो जाने फोन भी नहीं और सच, कहीं किसी की कोई कमी भी नहीं! दूर जंगल में बिचरते हुए मैं जंगल-जंगल हुई जा रही थी और वही जंगल मुझे पनाह की सैकड़ों राहों में हजार बाहों से थामे था, जिसे डिस्कवरी वालों ने सनसनीखेज धुनों के साथ मिला-मिला के महाभुतहा साबित कर रखा है! ना, मैं उनके काम को खारिज करने की बिसात नहीं रखती, बल्कि उनके लिए मैं अपनी टोपी उतारकर, सर झुका कर कहने को तैयार हूं- हैट्स ऑफ सर!

क्या कमाल की जानकारियां आप हम तक पहुंचाते हैं, लेकिन 'ति-ली-ली-ली' टोपी मैंने पहनी ही नहीं है और मैं हंसते हुए सबको बता रही हूं, 'जंगल जरा भी सनसनीखेज़ नहीं, डरावना नहीं। अरे! वहां इंसान जैसे जानवर रहते हैं, आप-हम जैसे जानवर से इंसान थोड़े ही!'

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जल जाएगी दिल की बुझी रोशनी
ना यकीन हो मेरी बात पर, तो मिल आइए, भटक आइए जंगल में कुछ दिन! जो बुझ गई होगी दिल की भीनी रोशनी, तो सब शमाएं जल उठेंगी...मन के परवाने मस्त हो महकने लगेंगे। सच! वादा रहा, इतने दिन में कभी रहस्यमयी, कंपकपा देने वाली कोई धुन किसी भी लम्हा मेरे अंदर नहीं गूंजी।

हां, आवाज़ें थीं...जंगल में हर ओर बिखरी हवा की, हवा में तैरते परिंदों की...सरसराहटें थीं उड़ती पत्तियों की, लहलहाते जुगनुओं की और इन सब सुरों से जो सुनाई देता था, हर ओर वो ताजगी से महका एक राग था...जादू का राग...जंगल का राग...जिसने बड़ी खूबसूरती से खामोशी को अपना हिस्सा बना लिया था। बस वही राग सिर चढ़कर, दिल भर कर बोलता था...और जो दिखा, वो बस हरा ही हरा था। इतना हरा कि नज़र जहां तक जाती, उसके आर भी हरा था, उससे पार भी हरा।

यूं, हरे के ढेरों नाम, ढेरों किरदार हैं। जाने क्या-क्या तो कहते हैं अंग्रेजी में sap ग्रीन, burnt ग्रीन, अलाना ग्रीन, फलाना ग्रीन, लेकिन मैंने उस जंगली हरे का एक नाम रख दिया है, वही नाम-वही किरदार, हरे पर जंचता भी है हमेशा...`सुहाना हरा’। हर ओर जो था, जहां था उस मौसम का रंग, हरे से ही तो सुहाना था। बीच-बीच में लाली से दमकता-दहकता पलाश, जैसे किसी खिलखिलाते चेहरे पर प्यार से किसी ने अबीर छिड़का हो और फूलों का रस पीने को मंडराती बुलबुलें, कूकती कोयलें, जैसे-भरे सावन में तड़प कर किसी ने आवाज़ दी हो।

एक थी काज़ी, एक था रंगा...
अपने दिमाग की बत्ती तो यूं भी गुल ही रहती है और ये जो जुगनू सा चमकता दिल है मेरा, वहां जाकर पूरे पावर हाउस में तब्दील हो गया...होता क्यों नहीं, काजीरंगा के नाम ही में जो है प्यार, तो फितरत में कैसे न आता।

हां यूं तो होता ही है कई बार, 'आंख के अंधे नाम नयन सुख', लेकिन ऐसा भी होता है कई-कई बार कि नाम भी चिराग हो और रोशनी भी हो। कभी-कभी नाम नहीं भी होता और कहीं-कहीं कमाया भी जाता है। हालांकि ये नाम हमेशा अच्छे-अच्छे ही रखे जाते हैं, फिर भी ये बेचारे कभी-कहीं बदनाम भी हो जाते हैं-तो काजी और रंगा का नाम बदनाम हुआ या नामदार? चौंके? मैं गांव के हर दर पर, ज़बान-ज़बान पर कहानियां ढूंढ रही थी...वहीं एक नौजवान बोला, 'अरे काजीरंगा के तो नाम में ही में कहानी है, वो भी प्रेम कहानी...।'

देश-विदेश के समझदारों को, खबरदारों को पता भी नहीं कि ये नाम काजीरंगा, जो इतना एक साथ लिया जाता है, घुल कर मिल गया है। दरअसल, ये कभी दो अलग-अलग लोगों का नाम हुआ करता था। एक थी काज़ी और एक था रंगा। पास ही के गांव के दो बेबाक प्रेमी और जैसा होता ही है इनका प्रेम, इतना गाढ़ा प्रेम कि दूसरों की सांस में अटकने लगा। फिर सजा मिली...सजा में समाज से बेदखली ही नहीं, प्रेम की दूरी भी थी। दोनों दूर, दो दिशाओं में भटकते रहे, फिर ढूंढने को, ढूंढ कर मिल जाने को चिड़िया बन गए। एक बनी केतकी, दूसरा एक कुली (कोयल की दो प्रजातियां) और आकर मिले जंगल में।

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दोनों आवाज़ लगाते काज़ी...रंगा...और जंगल में ये आवाज़ें गूंजती रहतीं। मिल कर दोनों ने इतना प्यार किया कि उनका नाम हो गया। अब शान से इनकी कहानियां सुनाई जाती हैं और पूरी दुनिया बड़े प्यार से पुकारती है- काज़ीरंगा!

दिल है बीहड़, बहुत अकेला...
मैं जंगल में भीतर, और भीतर कदम रख रही थी और जंगल मुझमें बिछता जा रहा था। बहुत ऊबड़-खाबड़ रास्ते थे और मेरा दिल भी बीहड़ है बहुत। अकेला जंगल और अकेली मैं, हम दो अकेले मिल कर कितने साथ-साथ हो गए...क्या बताऊं, घने पेड़ों और नदी से छन-छन कर आती हवा से दिल के सब दाग भर रहे थे, हर हलचल तरंग में बदलती गई। नीली हवा के झोंकों में शरीर जैसे किसी तरल सा बहा जा रहा था। शुरू में दिल की कुछ पुरानी-दबी हिलोरों ने मुंह उठाया भी, लेकिन जैसे-जैसे जंगल घनघोर हुआ, ज़िंदगी की कड़ी धूप को जंगल के हरे सायों ने ढक लिया और हरियाली की इस छांव में सब शांत, बेहद शांत होता गया...ना चुप नहीं!

गुमसुम भी नहीं! वैसा, जैसे नन्हे, नटखट बच्चे के चेहरे पर नींद में सुकून की मासूम मुस्कान खेलती है। कदमों की चाप, जो सुनसान रस्ते पर पड़ती तो खटर-पटर नहीं..न शोर भी नहीं...लगता, जैसे किसी बंज़र साज़ पर बहकी उंगलियों ने मचलकर जुगलबंदी की है...हां सूखी पत्तियां, एक दम बुड्ढे, बड़े लोगों की तरह होती हैं, जरा सा छेड़ दो तो खूब खटर-पटर करती हैं...।

मखमल घास, शाखों की बांह
जंगल में सब कुछ है...लहराने को घास, धंसने को दलदल, उठने को पेड़, डूबने को नदी...इसे ज्ञानी लोग बायोडायवर्सिटी एरिया कहते हैं, जो प्राणि विज्ञान के लिए सबसे अच्छा है। आपको एक ही जगह, अलग अलग किस्म और खूबियों वाले प्रकृति और प्राणी मिल जाते हैं। मैं इन सबके बीच विचरती रही और वो जंगल, वो रास्ता हर पल मुझसे मिलता रहा, मुझमें आकार लेता रहा... ये घास हिली और मखमल-सी बिछती गई मुझमें...और आह! दिल हरी-हरी नई-नई घास से भर गया। खुशबू आई न भीनी-भीनी...।

यूं भी अपने देश के उस दूर-दराज़ हिस्से में वो जो घास मुंह उठाए खड़ी है, शाहों की शाह है। यूं तो उसकी लंबाई देखकर उसे हाथी घास कहा जाता है, लेकिन मैंने तो बड़े भारी हाथी को भी उस घास में खड़े-खड़े छिपता पाया। जी! इतनी ऊंची कि 10 फीट का हाथी ढक जाए। हालंकि वक्त पतझड़ का था...घास के चेहरे पर कई जगह बुढ़ापा छाया था, रंग ज़र्द था क्योंकि फॉरेस्ट में इसी मौसम में घास पूरी उम्र लेती है और इसी मौसम में उसे जला कर खत्म भी किया जाता है, ताकि वो जगह दे और नई नन्ही घास जन्म ले सके...जो खासकर वहां पाए जाने वाले गैंडों की पसंदीदा है...मेरा दिल क्या, पूरा वजूद घास की नरमाई में ढक गया...अब एक पेड़ लहलहाया, ये जड़ों ने पकड़ा, मजबूती से कसा और प्यार से जकड़ा। कुछ और शाखें बाहों सी बढ़ने लगीं..ये लो मुझ पर भी बौर आ गए। ऐसे ही विशाल मज़बूत पेड़ मुझे मिले वहां, जिनकी आदमकद-सी होती पत्तियां सूरज को अंदर झांकने भी नही देतीं। भला ऐसी प्यार की छांव में पक्षी क्यों न सुखी रहते।

ओ नदिया! रगों में दौड़ती-बहती रहना...मै गंगा से कई बार मिली, कई तरह से मिली, लेकिन अबकी उसकी बात वेटिंग में...। गंगा के ही नज़दीक से निकलती है ब्रह्मपुत्र और असम में बहती है। मैंने ब्रह्मपुत्र देखी, बल्कि देखी कहां गई? अपनी नजरों के पैमाने में वो ऊंचाई कहां, वो गहराई कहां कि आंख भर पाए ब्रह्मपुत्र से। दुनिया की सबसे विशाल ही नहीं, सबसे गुस्सैल नदी मेरे सामने स्वांग कर रही थी। एक और सुखद बात है कि खेलती कूदती डॉल्फिंस, जिन्हें निहारने के लिए ऑस्ट्रेलिया जाना पड़ता है, ब्रह्मपुत्र के एक हिस्से को अपना मकाम बनाए हैं। हालांकि ये आकार में कुछ छोटी होती हैं, लेकिन मस्ती में कम नहीं। एक कंज़र्वेटर से नदी के बारे में बात की, तो सुन कर मजा आ गया कि ब्रह्मपुत्र के बचाव और रखरखाव के लिए कुछ नहीं करना पड़ता।

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हां! हर साल आने वाली इसकी गुस्सैल बाढ़ से इंसानों का बचाव करना भारी काम है। अच्छा लगा ये सुनकर क्योंकि हमारे देश की बाकी सभी नदियां बीमार-सी, सूखी पड़ी हैं और अलग-अलग लोग उनके कंजर्वेशन के नाम पर युद्ध स्तर पर पैसा गंवा और कमा रहे हैं... फिर भी बीमार का हाल ज्यों का त्यों...लेकिन ब्रह्मपुत्र तो...जिधर देखती हूं, उधर तुम ही तुम हो। इस विशाल नदी से छू के आती हवा ने मेरे गाल सहलाए, बाल उड़ाए और दिल संदली-संदली कर दिया।

अब लो! दिल का गरमा गर्म उबलता-उफनता खून झील हुआ जा रहा है...खून की गर्मी जीवन के लिए मायने रखती है, लेकिन पानी कोई बुरी शय नहीं, सुंदरतम नेमत है, लेकिन जो खून पानी हो गया...ये सुनना गाली सा लगे, तो ठीक...कहती हूं, 'बेहद शीतल लहलहाती ठंडी नदी मेरी रगों में उतर मद्धम-मद्धम बहने लगी... और कांटे लगने पर जो खून बहा, तब भी ऐसी ही मौज रही, जैसे खून नहीं, जरा सा शरबत छलक गया हो।'

जंगल मिला, ज्यों मिल गई ज़िंदगी
जंगल में खोते-खोते जंगल मिलता गया मुझे। सब्र और सुकून की इन्तेहां ऐसे हुई कि दिल की हर मशाल लौ हुई जा रही थी। नाराज़ न होना-यूं मशालों की बेहद जरूरत है मेरी दुनिया को, लेकिन उसकी ज़रूरत भी तो नफरत ही की जाई है। उन झोंकों के बीच सरसराता मेरा वजूद इतना हल्का, इतना फुल्का हुआ कि मिट्टी के ढेले सा लगने लगता, फिर ये ढेला भी भारी-भारी सा। काश! ये इसी हवा में मरमरी हो बिखर जाए। वाह! आइडेंटिटी क्राइसिस की मारी मेरी दुनिया में ऐसा भी अहसास होता है और क्या खूब होता है! इतना साफ़, इतना ताज़ा है सबकुछ कि लगता है- यही वह बिंदु है, जहां से पृथ्वी का जन्म हुआ है। लगता है न मैं ये हूं न वो, मैं बस हूं!

मेरे होने का..जन्म भर का..जीवन का..मोल...अनमोल। मुझसा हर कोई जो सांस लेता है, जीवित है, वही बस। सबसे अनूठी बात है कि जीवन है और, और हम सब इस एक जीवन की इकाइयां हैं। जंगल ही वो जगह है, जहां घूमते हुए आप खुद को हज़ार सालां महसूस करेंगे। जैसे-कितनी ही सदियों से जागते, भटकते दुनिया, सभ्यताएं देखा किए हों। महसूस होगा मैं इस दुनिया का सबसे पहला, सबसे पुराना प्राणी हूं, जिसने दुनिया पल-पल बनते देखी है और जो बनी है और ऐसी खूबसूरत बनी है, तो बिगड़ न जाए। जंगल ही वो जगह भी है, जहां आपको अचानक लगेगा- मैं अभी इसी क्षण जन्मा हूं। इतना नया हूं कि लम्हा भी नहीं हुआ आंख खोले। ये दुनिया पहली बार देखी है, इसी पल कायनात के पहली बार दर्शन किए हैं।

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