निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
(भाग: 2) चिड़ियों को खोज पाना इतना आसान नहीं था। यूं भी पापा कहते हैं-चिड़िया सबको नहीं दिखती। एक ही पेड़ पर आप चिड़िया निहारने का आनंद ले रहे होंगे, लेकिन अपने मित्र को दिखाते-दिखाते थक जाएंगे और उसकी नज़रें चिड़िया के आसपास पर तक नहीं मार पाएंगी। इन्हें देखने के लिए तो प्यार की तमन्ना भरी नज़र चाहिए। अच्छी-खासी, कूदती-फांदती चिड़िया, जो जंगली भैंसे की भीमकाय सींगों और पूंछ तक का खौफ़ नहीं खाती, रायनो की पीठ पर ठाठ से सवारी करती है, हमारी आहटों पर ही पर बिदकी जा रही थी। हम उसे दूर पेड़ पर दूरबीन से देखते और देखते ही देखते वो फुर्र करके...गायब! डाल से उड़ी, जा छिपी पत्तों के घने झुरमुटों के बीच। फिर धीरे-धीरे जाने कैसे वो दिल की बुलाहट पर आने लगी या आहट से फितरत पहचान गई या शायद फोटो खिंचवाने का, हीरोइन बन जाने का जी चाहा हो...वो हमारी आंखों ही में नहीं, कैमरे की झपकती पलकों में भी समाने लगी।
मार्च के शुरुआती दिन थे और मैं चिड़ियों की तलाश में जा रही थी। गर्मी से मोटी खाल वाला आदमी बेहाल था, चिड़िया क्योंकर बहाल होती? सबने कहा- ये सही वक्त नहीं! सर्दियों में जाना...असम फॉरेस्ट डिपार्टमेंट से भी परमीशन से पहले सलाह मिली- 'इस मौसम में बहुत मुश्किल है, असंभव जैसा’, लेकिन मेरे हौसले भी बुलंद थे, इरादे भी अनेक...सारे नेक और मन में एक बात थी- काज़ीरंगा एंडेमिक बर्ड्स, यानी वो परिंदे, जो जन्मते जिस जगह हैं, दम रहने तक वहीं रहते हैं। अपना चंबा छोड़ जाते नहीं कहीं। गर्मी से डरकर विदेशी मेहमान परिंदे जब जा रहे होंगे अपनी प्यारी हिमालयन बर्ड्स ने कहा होगा, 'कौन जाए हिमालय की गोदी छोड़कर'।
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मैं, मेरे कैमरा परसन नासिफ, असिस्टेंट धर्म, फॉरेस्ट गार्ड अनिल और हमारे रथ का सारथी बाबलू कमर की पेटियां कस कर उड़ लिए अपनी खुली जीप पर परिंदों से हाथ मिलाने। दरख्तों पर परिंदों की प्रदर्शनी! भरतपुर बर्ड सेंचुरी में मैं इतनी चिड़िया इस तरह देख चुकी थी, जैसे बर्ड्स की एक्जिबिशन लगी हो, वो भी 'ओपन फॉर ऑल'। पेड़ों पर पत्तियों से ज्यादा परिंदे दिखते। नज़ारा ऐसा, जैसे जंगल कोई आर्ट गैलरी हो, पक्षी पेंटिंग्स और बनाने वाले ने अपनी कलाकृति बड़े सलीके से सजाई हो।
काज़ीरंगा जैसे जंगल में तो ये यूं भी असंभव था, क्योंकि ऊंची-ऊंची घास और छतरी से फैले पत्ते जहां सूरज तक छिपाने का हौसला रखते हैं, फिर वहां चिड़िया कहां दिखती...सो हम एक-एक डाल से चिड़िया चुग रहे थे...हां, मौसम नए-नकोर सपूतों की पैदाइश का था, रायनो हों या हाथी या जंगली भैंसे या पक्षी...कुछ की गोदें बच्चों से भर चुकी थीं, कुछ तैयारी में थे और अगले महीने तक वो भी बाल-बच्चेदार हो जाने वाले थे...कुछ के साए कैमरे में कैद हुए और छूट गए वो नज़ारे आंखों में सजे अब भी तैर रहे हैं।
मैं 450 हिमालयी चिड़ियों के नाम-पते साथ ले गई थी कि सबसे मिलूंगी, लेकिन दिन भी कम थे और दोस्त ज्यादा...सो कोई 30 तरह की चिड़िया दिखीं और 24 किस्म की चिड़ियों ने फ़िल्म में रोल निभाया (अब ये न पूछना किसका कितना पार्ट था, लेकिन हां हर चिड़िया अपने आप में एक किरदार थी)। अब अगर तकदीर सी कोई चीज़ होती हो तो हमारी अच्छी थी, क्योंकि दस दिन में जंगल में इतना फ़िल्मा लेने पर `वाह! वाह! क्या बात है’ ना भी कहा जा सके, तो भी पीठ ठोंकने लायक कारनामा तो है ही। हां, हमें पंछियों का मेला तो नहीं मिला...लेकिन हम डाल से पंछी चुग रहे थे, एक-एक चिड़िया के पीछे भाग रहे थे।
चिड़िया जब पहली बार दिखती और हम फ़िल्मा नहीं पाते, तब थोड़ी निराशा होती। लगता-फिर मिलेंगे या नहीं! किंगफिशर मिला और बहुत खूब मिला, सपरिवार मिला, लेकिन आंखें तब झपकना भूल गईं, जब ज़िन्दगी में पहली-पहली बार ह्वाइट किंगफिशर को देखा। डाल पर बैठा था, जब तक देखती फुर्र, लेकिन देखकर ही आंखें तृप्त हो गईं...फिर एक झील पर मिला, कैमरा सेट होते ही उसने उड़ान ली। हमने उसकी उड़ान का पीछा किया, लेकिन कहां कर पाए, क्योंकि बाकी पंछियों की तरह अर्ध गोला बनाते. उसने धीमे-धीमे उंचाई नहीं पकड़ी, बल्कि वो ठीक निशाने पर लगने वाली गोली की तरह आकाश भेदता सीधे उड़ा। अब मैंने ठान लिया, 'साहब को फिल्माना है', फिर वो हमें एक झील पर मिले...आखेट पर निकले हुए। (इस झील को याद रखिए, आगे बताऊंगी...क्या कुछ मिला यहां!)
झील किनारे, किंगफिशर पुकारे
कैसी झील थी, वो क्या बताऊं...दूर तक धरती के सीने पर मचलती लहरें, लहरों के किनारे भीगी धरती और धरती के किनारे मुंह उठाए झुंड के झुंड खड़ी घास...इसी झील के पानी के ऊपर आसमान में स्टैच्यू से खड़े हो गए सफ़ेद किंगफिशर साहब।
ऊपर से पानी में झांकते हुए, फिर अचानक तेज़ पंख फड़फड़ाए और सीधे पानी में वार किया...बल्कि पानी में छिपी किसी मनचाही स्वादिष्ट डिश पर....लेकिन इस बार भी हमारे कैमरे की नज़र चूक गई। काफी देर इंतज़ार किया, लेकिन पेट भरने पर तो तान के सोया जाता है, सो वो न आए। मुझे लगा जो तीन बार दिखा है, तो फिर ज़रूर दिखेगा और इस झील में शिकार खेलता है तो यहीं आएगा। लौटकर, उसी शाम हम उसी की तलाश में फिर झील पर आए और देखा साहब पैनी निगाह धारदार चोंच ताने फिर पानी पे फड़फड़ा रहे थे। इस बार मैंने गार्ड दा की बन्दूक तान दी, मुस्कुराते हुए कहा, 'मुझे ये शॉट चाहिए...मतलब चाहिए ही' और हुर्रे हमें मिल गया। हमने सांस थामे, आंख गड़ाए उसका पीछा किया और पा लिए चमचमाते-उड़ते रंग और ये बेबाक उड़ान। बहुत ख़ास झील थी ये। इस झील पर हमने कई किस्म के परिंदे ही नहीं पाए, जानवर भी पाए और इंसान भी पाए। फिर मिलना तुम यार रायनो!
यूं, न मैं कोई जंगल विशेषज्ञ हूं, न कोई समझदार जंतु अन्वेषक, सो मैं क्या बता पाऊंगी आपको जंगल के बारे में, लेकिन चूंकि जंगल से मिलकर लौटी हूं और बहुत अमीर होके लोटी हूं, सो बोलने को बहुत कुछ है मेरे पास। शायद मैं ऐसे बोलूं, जैसे-कोई छोटा बच्चा अपने पहले शब्द बोलता है। फिर भी शायद जो मैं जंगल के बारे में कह पाऊं, वो कोई और न बताए, सो मुझे मेरे हिस्से का कह लेने दीजिए। मैं वहां चिड़ियों पर डॉक्यूमेंट्री बनाने गई थी...उनके पीछे डाल-डाल भागते हुए ये जंगल मुझ पर किसी हसीन राज़ की तरह धीरे-धीरे खुलता रहा। भरा-पूरा जंगल था और जंगल में मंगल ही मंगल था। मुझसे पहले तीन दोस्त वहां घूमने जा चुके थे। दो खाली हाथ, जबकि एक-एक साथी रायनो की एक तस्वीर के साथ लौटे थे।
हालांकि डॉक्यूमेंट्री के चलते ख़ास हिस्सों में जाने की इजाज़त थी, सो मै जंगल में वहां-वहां थी, जहां टूरिस्ट नहीं बस जानवर ही मिला करते हैं। 5-5, 6-6 के झुण्ड में घूमते रायनो तक मिलते, हर दिन 20 से 25 रायनो देखे। इतनी बार, इतने करीब, इतनी तरह से देखे कि उस तरह तो अपनी गली में भटकते कुत्ते और गाय तक नहीं मिलती। कितनी ही बार एक ही पगडण्डी पर हम आमने-सामने हुए। हम रुके, ताकि वो पहले रास्ता पार करे। कितनी ही बार हम रुके कि सामने और पीछे, हर ओर के रास्तों पर वो जुगाली कर रहा था। मैं गदगद हुई जा रही थी कि अपने घर से इतनी दूर, एक ऐसा दुर्लभ प्राणी मुझे इस तरह दिख रहा है, जो हमारी ओर पाया ही नहीं जाता।
झील के पास...(वही झील, जिसका ज़िक्र मैं पहले ही कर चुकी हूं), दलदल के एक सूखे हिस्से में हम कैमरा लगाए खड़े थे। बाबलू ऊंची-ऊंची घास के पास पढ़ने में गुम था। मुझे उस घास के जंगल में जहां नज़रें तक उलझ जाती हैं, कहीं रायनो की हलकी सी आवाज़ सुनाई दी। पूरा यकीन तो नहीं था, फिर भी कहा- आसपास शायद रायनो है और सिक्यूरिटी दादा बोले-अरे नहीं-नहीं, लेकिन दो मिनट के अंदर ही हम सबकुछ उठाकर और कुछ गिराकर भाग रहे थे...क्यों भला, इसलिए क्योंकि हमसे मीटर भर की दूरी पर ही रायनो था। अचानक मैंने पाया, सब बहुत आगे निकल चुके हैं और मैं और सिक्यूरिटी दादा पीछे-पीछे और हमारे समानांतर उसी दिशा में तेज़ी से भागते हुए एक रायनो निकला...दूसरा हमारे साथ-साथ भागने लगा। हम ठिठक गए, दूली राम ने हवाई फायर करना चाहा पर बंदूक नहीं चली। हम चुपचाप खड़े थे, मैं तैयार थी...आज हम अपनी वफाओं का असर देखेंगे, लेकिन रायनो तो पहले वाले रायनो का पीछा करते निकल गया। उसने मेरी ओर झांका तक नहीं। फिर पता चला, आगे रायनो नहीं रायनी थी, जिसका पीछा करने में उसका रायनो मशगूल था... फिर भला मुझे क्यों देखता।
उसके जाने के बाद हम सब दूली राम पर हंस रहे थे और गार्ड्स के मचाननुमा पड़ाव पर बैठे लाल चाय के साथ गप्पें मार रहे थे। दोपहर 12 से 2 बजे जब सूरज सर तक चढ़ आता, तो हम जंगल के बीच इन्हीं मचानों पर गार्ड्स के साथ खाना खाते-बनाते और किस्से-कहानी बतियाते और हां, विविधभारती भी सुनते...। तो इस झील पर मिलने वाले परिंदों की भी बात हुई और जानवर की भी कहानी हुई पूरी, लेकिन ये झील ऐसी करोड़पति झील थी कि इस पर इंसान भी मिले।
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सुनो कहानी-शेर के मुंह में उपेन दादा का हाथ नन्हे-मुन्नों जैसे भोले-भाले चेहरे वाले एक सुन्दर, प्यारे से बुज़ुर्ग वहां रायनो प्रकरण पर हंसते हुए घूम रहे थे। मैंने उनसे गार्ड के काम के बारे में कुछ बात की, तो मुस्कुराते हुए अपना हाथ दिखाया...चमड़े की पतली सी नई परत हड्डियों पर ढकी थी। बोले, 'तब मैं जवान था जब टाइगर से मेरी यहां मुठभेड़ हो गई। मुझे न उसे मारना था, न खुद मरना था। उसने मेरे सिर की ओर निशाना साधते हुए मुंह फाड़ा और मैंने सिर की जगह अपना घूंसा उसके जबड़ों की गुफा में घुसा दिया। हाथ तो गया लेकिन ज़िन्दगी बच गयी ना।’
ये कहने के बाद उन्होंने कुछ और निशान दिखाए। शरीर पर इतने टांके, जैसे-मांस की कतरन जोड़-जोड़ के शरीर बना हो। ये टास्कर से लड़ाई के निशान थे (टास्कर, बोले तो-एक मीटर लंबे दांतों वाला खतरनाक जंगली हाथी)। उनके किस्से पूरे भी नहीं हुए थे कि नौजवान गार्डों ने टोक दिया-ये सब ठीक है, लेकिन बाहर वालों को क्यों बता रहे हैं? जंगल की ऐसे बातें बताने की अनुमति नहीं हैं। दादा ने उतना ही हंसते हुए कहा-मैं साठ साल का हो रहा हूं। कितनी कहानियां हैं मेरे पास। अगर मैं लिख पाता, तो अपनी आत्मकथा लिखता। अब ये लड़की मेरी कहानी लिख देगी।
मैंने भी कहा-हां दादा, मैं आपकी कहानी पूरी दुनिया को बताऊंगी। दादा का नाम है उपेन तामोली और उन्होंने कहा था-मेरा नाम भूलना नहीं। मैंने भी वादा किया था-दादा मैं आपका नाम कभी नही भूलूंगी। देखो दादा मुझे याद है! हमेशा रहेगा!!
ऐसे ढेरों गार्ड हमें जंगल में मिले, हम थे जिनके सहारे। ये आस-पास के गांवों के ही लोग थे, जो जानवरों-खासकर रायनो से हमारी और जंगल में जान-माल की रक्षा की खातिर यहां गार्ड की ड्यूटी निभा रहे थे। महज 1500 रुपये में घर से दूर, तमाम खतरनाक जंगली प्राणियों से भरे जंगल में नाम की बंदूकें लिए इस धरती, इस आकाश के नाम अपनी जिंदगी लगाए हुए थे। उनके पास ना ठीक कपड़े होते, न खाने सा खाना...हां एक रेडियो और शुभकामना के लिए गले में लटका हिरन का सींग हर जगह मौजूद था।
सफ़ेद बर्फ पर काली रेशम
स्कूल में एक हिमालयी चिरिया वेग टेल पर एक कविता पढ़ी थी। छोटी-सी, बित्ते भर की पंछी, सफ़ेद बर्फ पर काली रेशम की कशीदाकारी सा रंग। अपनी पूंछ पेंडुलम की तरह ऊपर-नीचे टक-टक करती रहती है। दिखी और देखते ही पहचान हो गई। शुरू में तो उसने भी नखरे दिखाए, फिर तो इस कदर दिखी कि जहां जा रहे हैं, वहीं वो आगे-आगे। यहां तक कि जीप के आगे उड़ रही है। जीप रोकी, तो वो भी बैठ गई। छोटी-छोटी घास के बीच अपना भोजन तलाशते और आराम से शौक फरमाते उसे खूब देखा। ब्राह्मणी बतख, लाल कलगी लगाए सुनहरे रंगों से भरपूर जंगल फाउल, सुन्दरता में मोर की बराबरी करने वाली खलीज पिजेंट जैसे खूब पक्षी मिले, लेकिन मज़ा तो हमें तब आया, जब पक्षी ढूढ़ते-ढूंढते हमें नदी किनारे एक ठूंठ मिला। यूं, पक्षी देखने में गर्दन ऊंची रखने की आदत हो गई थी और हर चीज़ चिड़िया नज़र आती थी। हंसते थे कि अब तो सपने में भी चिड़िया दिखती है और शॉट बनने से पहले उड़ जाती है...।
उस ठूंठ की बात ही कुछ और थी। गर्मी से गरमाए पक्षी नदी में गोता लगाते, फिर वहां बैठकर सूर्य स्नान का मज़ा पाते। पांच किस्म की चिड़िया...हैरानी ये कि एक के बाद एक चिड़िया वहां आती, जैसे हमाम की लाइन लगी हो। एक ही जगह इतनी चिड़िया...हमारे तो हौसले बुलंद हो गए। हमने उस जगह को फोटो स्टूडियो नाम दे डाला और हौसलों की बुलंदी कुछ ऐसे बढ़ी कि जब द्रांगो नाम की नीली चमकदार चिड़िया देर तक ठूंठ पर नहीं बैठी तो धर्म ने कहा- चुप! फोटो दो!
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आर्रलेसर एडजंट , ग्रेटर एडजंट, स्टॉक, ब्लॉक नकद स्टॉक जैसी बड़ी भारी चिड़ियों का ज़िक्र तो करना ही भूल गई। कद चार फीट के आस-पास। सुराहीदार गर्दन और सीधे सज्ज़न व्यक्ति की तरह हैं ये, जो बिना तेवर दिखाए आसानी से दलदल में दाना-तुनका चुगते दिख जाते थे। घंटों एक ही जगह, एक ही मुद्रा में खड़े या टहलते। हां, ज्यादा आहट हुई तो दलदल या पानी के पास खड़े ऊंचे पेड़ों पर बने अपने घोंसलों पर उड़ जाते। मैं तो हैरान हो गई इन्हें उड़ता देख। विश्वास नहीं हुआ, इतना भारी शरीर लेकर भी कोई उड़ सकता है। अब पंख है तो उड़ान भी है...लेकिन इसी भरे-पूरे शरीर के कारण इनकी उड़ान बेहद खूबसूरत, भद्र सी लगती है।
आकाश का एक हिस्सा इनके पंख ढक लेते और सुनहरी किरनें इनसे फूटती-सी दिखतीं। अगर आकाश पर छाई इनकी ये उड़ान न होती, तो शायद ये मुझे उतने पसंद ही न आते। मुझे छोटी चिड़िया ज्यादा पसंद हैं। वो मुझे चमत्कृत कर देती हैं, हैरान-परेशान कर देती हैं। बड़ी चिड़िया के पास सौम्यता तो है, लेकिन वैसी चंचलता नहीं। उनके रंग अक्सर फीके ही होते हैं, धुंधले-धुंधले, ताकि वे आसानी से नज़र न आएं, जबकि छोटी चिड़ियों ने जम के रंग-गुलाल खेला होता है। एक से एक चटखदार रंगीन दुशाले ओढ़े...जैसा रंग, वैसा ढंग। मिजाज़ भी रंगीन, फुर्र से गायब हो जाने वाली, आसानी से हाथ (नज़र) न आने वाली। खूब ललचाती, बहुत सताती ये छोटी चिड़िया और मैंने भी खूब सताया अपनी टीम को। बहुत दौड़ाया, क्योंकि मुझे यही प्यारी थी।
मुझे यही बोलती-बुलाती सी लगती। वो हमें एक पेड़ पर दिखती। लाल, हरी, पीली, नीली और चिड़ियों से लहलहाया पेड़, जैसे-रंगों का एक डिब्बा हो। हम जब तक उतरते, वो उड़कर दूसरे पेड़ पर। हम वहां जाकर कैमरा लगाते, वो तीसरे पेड़ पर। देर तक लुका-छिपी चलती, फिर अचानक भूल-भुलैया शुरू हो जाती। वो किन्हीं पेड़ों में गायब हो जातीं...हम जान ही नहीं पाते कि कहां गई? ढूंढते ..कभी रास्ता भटक जाते, कभी मंजिल पा जाते। हमें खूब छकाने वाली चिड़ियों में नीलकंठ भी शामिल थी।
चिनार वन में ड्रिल मशीन चिनार वन से गुज़रना अपने आप में एक खुशनुमा अहसास है, लेकिन अगर इन चिनार वनों के बीच घुर्र-घुर्र की ऐसी आवाज़ सुनाई पड़े, जैसे-कहीं दूर कोई ड्रिलमशीन चल रही है तो समझ जाइएगा, पास ही कहीं वुडपैकर अपना आशियां सजा रहा है। हमने उसे डाल-डाल, तने-तने घूमते पाया किसी जिम्मेदार गृहस्थ की तरह घर की ज़मीन ढूंढते। वो एक-एक तने पर चोंच मारकर जांच रहा था और मनचाहा तना मिलते ही घुर्र...और लो घंटे भर में ही तैयार है मकान। इंतज़ार में है मेज़बान। एक कोर्मोरेंट डाल पर पंख फैलाए मिला। हमें देखते ही पर समेटे-फैलाए और उड़ गया, लेकिन बाबलू ने बताया- ये फिर दिखेगा, यहीं दिखेगा। ये पिछले साल भी यहां आया था और इसी डाल पर बैठता था।
मैंने उसके शब्द पहेली की तरह सुने-तुम्हें कैसे पता कि ये पिछले साल वाला ही कोर्मोरेंट है। खैर, शाम को हमें वो, वही कोर्मोरेंट फिर उसी डाल पर बैठा मिल गया। शान से पंख बांहों की तरह खोले बैठा था, लगा-खुद को ईसा मसीह समझता है। मैंने जाना- जैसे, हम अपनी पसंदीदा जगहों पर लौट-लौट कर जाते हैं, ये पक्षी भी ऐसे ही, वहीं आराम फरमाते हैं।
यूं, काज़ीरंगा में पेलिकान वैली ही है। किसी भी झील के पास सत्तर-अस्सी पेलिकांस एक साथ देखने का मज़ा लिया जा सकता है। हालांकि गर्मी के कारण हमें सात-आठ के ही झुण्ड मिले। गुलाबी रंग और लगभग दो फीट का पेलिकन! मिठाई चुराने जाते किसी बच्चे की तरह पैर दबाते हुए चलता। पानी के किनारे झुण्ड में पसरे वार हडड गूज मिले, जिनका ये नाम उनके सिर पर पड़ी लकीरों के कारण पड़ा...हर वक्त या तो आलसी ऊंघते या घास में टूंगते। सुबह से शाम तक बस सोने-खाने में तमाम करते। बमुश्किल ही कभी उड़ते भी, तो कहीं पास ही जाकर फिर जम जाते। हमें घोसला बनाती चिड़िया मिली, शिकार करती ख़ास फिश आई इगे । जब हम देर तक किसी चिड़िया की हरकतें संजो चुके होते, तो चाहते कि इनकी उड़ान भी मिल जाए, ताकि इसकी उड़ती तस्वीर के सहारे हम भी दुनिया का एक चक्कर लगा आएं, लेकिन होता ये कि चिड़िया घंटों नहीं उड़ती, हम हाथ-पैर जोड़ते रह जाते, उड़ान के इंतज़ार में घंटों खड़े रह जाते...। अब कोई क़ानून तो है नहीं। नहीं उड़ना, यानी नहीं उड़ना और कोई-कोई चिड़िया देखते ही उड़ जाती।
चिड़ियों में दो तरह की चिड़िया ही पाई जाती हैं। एक उड़ने वाली, एक न उड़ने वाली। एक से रुकने की प्राथना करते, एक से उड़ने की और दोनों ही थीं अपने मन की। धीरे-धीरे हमें बैठने की मुद्रा से पहचान हो गई- ये उड़ेगी, ये नहीं! एक बार न उड़ने वाली बारबेत पेड़ पर दिखी, कैमरा लगाया गया, शॉट तैयार था...। इतने में अनिल दा ने टहलते हुए सीटी बजा दी और सुरीली चिड़िया को ये पसंद नहीं आया। वो उड़ गई। सुबह से ज्यादा शॉट मिले भी नहीं थे, सो मुझे थोड़ा गुस्सा आ गया। मैंने तमतमाते हुए कहा- उड़ा दी न? अब वापस बुला के लाओ... और सब हंस दिए। मुझे आज तक समझ नहीं आया-क्यों हंसा जा रहा है मुझ पर!
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हालत तो ये थी कि शिकार चिड़िया तलाशती, दुआ मैं मांगती- काश! इसे कोई शिकार मिल जाए। जैसे ही चिड़िया पानी में चोंच मारती, मुझमें भी उम्मीद गुदगुदाती, आशा जगमगाती, 'खाने को कुछ मिला?' हां, कुछ चिड़िया ऐसे भी थीं- 'मैं अलबेली बड़ी शर्मीली'। अब न जाने शर्मीली थी कि बस यूं ही चिढ़ाने को पीछे-पीछे घुमाने के लिए तेवर दिखा रही थी। एक थी कोकुल, धरती को ढके, घनी झाड़ियों में भागकर छिप जाती। काले मखमली शरीर पर सोने से सुनहले पर और खूब भारी काली पूंछ, जैसे-किसी लड़की की पीठ पर मटकती सुंदर चोटी। धरती से उठते आकाश तक जाते पैरों पर भी एक और थीं मोहतरमा...मिस माल्खोआ साहिबा। कमाल की खूबसूरत, गज़ब का चमचमाता नीला मोरपंखी रंग और उस पर सफ़ेद पोल्का स्पॉट्स और पूंछ जापानी पंखे सरीखी फैलती। उसकी मैंने ढेरों तस्वीरे देखीं, लेकिन हर तस्वीर माल्खोआ के तस्सवुर के आगे फीकी निकली। तस्सवुर भी कैसा? पलक झपकाने जितना, बस उसको तो पूरा-पूरा देख भी न पाई। जब दिखी, पीछे से भागती-छिपती नज़र आई। इतनी फुर्तीली कि नज़र पकड़ ही न पाए। हम कहते- इसका नाम है माल्खोआ। इसे माल खिलाओ, तब आएगी। मन तो करता था, उसे हाथ पर बिठा के समझाती, बतियाती- क्यों भाई, बड़ी उड़ रही हो। यूं, ऐसे फिरना, वो भी ऐसा रूप लेके, कुछ ठीक नहीं।
तो कोकुल और माल्खोआ ने हम पांच को पीछे-पीछे खूब दौड़ाया, छकाया पर मोस्ट वांटेड ही बनी रहीं। वो तो बाद में पता चला, जब किताब-कहानी दोनों एक ही प्रजाति की हसीनाएं थीं, सो एक-सा खून रगों में था या दोनों ने मिल कर तय किया था- आसानी से हाथ न आना। जो किसी को मिल जाएं, तो मेरा सलाम कहना और कहना- निधि इंतज़ार करती है, कभी मिल आओ।
मिला तो हमें वो भी, जो काज़ीरंगा के जंगल में पंछियों का राजा है- ग्रेट पाइड इंडियन हॉर्नबिल। सिर के ऊपर से जो उड़ान भर के निकल जाता, तो कान उसके परों की आवाज़ सुनकर आत्मविभोर हो जाते। 'ज़प्प ज़प्प ज़प्प ज़प्प' सी आवाज़ कानों में उतर जाती। डाल पर मीठे रसीले फल चटकारता मिला। अच्छा-खासा भारी-भरकम शरीर। बड़े-बड़े रंगीन पर, लेकिन सबसे बड़ी खासियत ठीक राजा के मुकुट सी सजी इसके चेहरे पर चोंच। यूं, इस अनमोल चोंच की कीमत कोई क्या लगाएगा, फिर भी सुना है कि बड़ी बेशकीमती है। हर बेशकीमती चीज के लिए लूटपाट होती है, सो लुटेरों ने इस चोंच के लिए खूब हॉर्नबिल मारे। सिर्फ हिमालय में पाए जाने वाले इस पक्षी पर हिमालय वाले नाज़ करते हैं और नाज़ का नज़ारा दिखाने को उसकी चोंच अपने माथों पर सजाया करते। हालांकि अब ऐसा करने पर रोक लगा दी गई है और चूंकि हॉर्नबिल तो ज्यादा बचा नहीं, सो प्लास्टिक की चोंचें बाज़ार में मिलने लगी हैं। अब हमारी दुनिया ऐसी ही नकली चीजों से सजाई जाएगी ...प्लास्टिक के पंछी, कागज़ के फूल, पत्थर के लोग!
रॉकेट-सी उड़ती जीप, कहीं भी बैठकर पढ़ता बाबलू हिमालय की गोद में और क्या ख़ास मिलता है? बताऊं? वहां बाबलू पैदा होते हैं। अरे वही, हमारे रथ का सारथी, जो जीप को रॉकेट की तरह चलाता था और पंछी देख के ख़ुशी से ऐसा बावला हो जाता था कि हम सब कहते थे- बाबलू रुक-रुक-रुक और वो जीप की स्पीड और तेज़ कर देता। लगता-सीधे डाल पर ही ले जाएगा। वो तो शुक्र है कि उसका बस ही नहीं चलता। बस हमारा चलता, जो उसे डांट कर जीप रुकवा देते, नहीं तो बाबलू सीधे चिड़िया के घोंसले के आगे ही जीप पार्क करता। पर रुकिए...बाबलू ये नहीं है...या ये भी है पर इससे ज्यादा बहुत कुछ है। तेरह साल का लड़का है, जिसके जीप चलाने से उसका घर चलता है। घर में मां है, बहन है, भाई है। बाबलू इससे भी बहुत कुछ ज्यादा है।
ये जंगल से जुड़े एक ऐसे गांव का बच्चा है, जहां पता नहीं चलता- कहां जंगल शुरू होता है, कहां गांव खत्म होता है। दिल में जंगल, आंखों में खोज, होंठों पर खुशी...एक हाथ में दूरबीन, एक हाथ में किताब और मन में ललक ही ललक। जहां जरा सी फुरसत मिल जाती, पढने बैठ जाता। न किताब उसकी, न दूरबीन, इसलिए ही शायद उसे उस किताब और समय की कीमत पता है। मिले हुए वक्त का एक भी मिनट गंवाए बिना वो किताब में पूरा खो जाता। हैरानी होती, अंग्रेजी की मोटी-मोटी किताबें पढ़ता। कविताएं भी, लेकिन खासकर पंछियों पर लिखी। दूरबीन से देखता और पंछी का पूरा कच्चा चिट्ठा खोल देता। चलते-चलते भी पढ़ता रहता। बड़ा जादुई लड़का है बाबलू।
उसे दूरबीन और किताब में यूं गुम एक दिन देख रही थी, तो हंसी आ गई-पूरा सलीम अली का पोता लगता है।काश! वो सलीम अली का पोता ही निकले, इतना पढ़े, इतना पढ़े कि सब जान जाए और सब दुनिया उसे जान जाए। जाते हुए मैंने उससे कहा-तू इतना पहचानता है चिड़ियों को...नाम-काम, और क्यों नहीं पढ़ता? सीधा जवाब-किताबें ही नहीं हैं।
बाबलू को कुछ ही दिन में पता चल गया था कि मेरे पास किताबें हैं और दूरबीन भी, तो नीचे ही से आवाज़ लगाता, दीदी किताबें रख लेना। और कुछ दिन में तो कमरे में आता, किताबें छांटकर ले जाता। मैं जाने लगी, तो आ गया और कहने लगा- आप कल चली जाओगी, तो मई क्या करूंगा। मैंने हैरानी से उसे देखा।
भोली- भाली आंखों में ब्रह्मपुत्र उमड़ रही थी। फिर खुद ही कहा- 'करूंगा क्या, बस जीप ही चलाऊंगा। पहले भी तो वही करता था...'और, और उमड़ती नदी उसकी आंख से उफन गई। मैंने कहा-चल! मेरे साथ राजस्थान चल, वहीं रह।
क्या आप सोच सकते हैं-तेरह साल का वो बच्चा, जो अपना घर चलाता हो, किसी के ये कहने पर कि तीन हज़ार किलोमीटर दूर चल...इस सवाल का क्या जवाब देगा? आपसे कोई पूछे तो आप क्या जवाब देंगे? मैं तो कभी वो बात नहीं कह सकती, जो बाबलू एक सांस में कह गया- वहां के जंगल में क्या-क्या मिलता है?
मेरे मुंह से एक लफ्ज़ नहीं निकला। बस चेहरा ताकती रह गई। कितना बसा है जंगल तेरे में? मैंने तो सोचा था- कहेगा, कैसे जाऊं या वहां क्या करूंगा? भला ये क्या सवाल हुआ बाबलू? उसके जंगल से बमुश्किल निकलते हुए मैंने जवाब दिया- जैसे यहां रायनो हैं, वहां ऊंट मिलता है। मोर मिलता है, नील गाएं, चिंकारा हिरन...। वो थोड़ा खुश हुआ और बोला—ठीक है, कभी तो आऊंगा पर आप भूल जाएंगी। मैंने कहा- शायद अगली बार आऊं, तब तक तू लंबा हो जाए और मैं मोटी, तो तू भी नहीं पहचान पाएगा मुझे। वो बोला- मैं आपको हमेशा पहचान लूंगा किताबों वाली दीदी। याद हो आया, बचपन में जब कोई पूछता था- तुम कौन-सी निधि हो, तो पापा कहते थे साहित्य निधि...मैं वो तो नहीं हूं, होना असंभव है.. लेकिन बाबलू की किताबों वाली दीदी बन के ज्यादा खुश हूं।
मेरे जयपुर आने के बाद बाबलू और गांव में मिले दोस्तों के फ़ोन आए (बल्कि पहुंचने से पहले शुरू हो गए)। भाई ने बात करने की बड़ी कोशिश की, लेकिन हो नहीं पाई। मैं आई, तो मुझसे पूछा-उन्हें तो न हिंदी आती है न अंग्रेजी, तेरी दोस्ती कैसे हो गई...ख़ैर, वो भी छोड़। काम कैसे चल पाया... लेकिन होता है न ऐसा! कभी-कभी की बात हुई तो थी पर बनी नहीं और ऐसे भी तो होता है कि जाने क्या तूने कही, जाने क्या मैंने सुनी, बात कुछ बन ही गई ...और हमारी बातें बनती ही चली गईं...फिर ये भी तो कहते हैं- दिल की बात जुबान से नहीं, आंखों से बयां होती हैं। कहीं, कभी कुछ भाषा की वजह से नहीं अटका, बल्कि बातों से तो बना ही बना, बात ही बन गई।
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