निधि सक्सेना युवा चित्रकार-शिल्पकार, स्क्रीनराइटर और स्तंभकार हैं। लॉस एंजेलिस फ़िल्म इंस्टीट्यूट से फ़िल्ममेकिंग और फ़िल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया से विभिन्न विधाओं में प्रशिक्षण लिया है। फ़िल्म डिवीज़न के लिए डॉक्यूमेंट्री व जयपुर दूरदर्शन के लिए टीवी शृंखला- "राग रेगिस्तानी' का निर्माण-निर्देशन। इन दिनों मुंबई में निवास। निधि ने हाल ही में एक फिल्म का निर्देशन किया है।
(भाग: 3) काजीरंगा में सिर्फ चिड़िया और जानवर ही नहीं दिखते, बल्कि बेढ़ंगे इंसान भी नजर आते हैं। हां! बात बिगड़ी भी, ऐसे लोगों की वजह से, जिन्हें देख के लगता...उफ़! सीधे जंगल से छूटे हैं। इन्हें फ़ौरन सर्कस में बंद करो। जीप में लदे ढेरों उत्साही नौजवान अपने सुंदरतम कपड़ों, चश्मों और टोपियों में सजे वहां आते और टोपी के नीचे अपनी अक्ल छिपा बैठते। पंछियों-जानवरों को देखते ही जोर से शोर का तूफ़ान उठता- ई देखो, वो वो !!! ये..याहू...के नारे लगते। सोचिए, पक्षियों का क्या हाल होता होगा! पक्षी तो पक्षी, बेचारे जानवर भी जान बचाके भागते। एक हठी ने हमारे सामने एक हाथी परिवार को खदेड़ दिया। वो हाथी के बच्चे की तस्वीर कुछ ज्यादा ही नज़दीक से लेने चल पड़ा था...अब छेड़ने पर तो लड़की भी तमाचा जड़ती है, (जो नहीं जड़ती, उसे जड़ना चाहिए) वो तो हाथी है...।
किसी जगह, किसी देश, किसी घर की पहचान वहां की इमारत से नहीं, लोगों से होती है। जैसे- कपडे अच्छे थोड़े ही होते हैं, अच्छा तो आदमी होता हैं। अब कोई पूछे-कैसे थे वहां के लोग, तो मैं कहूंगी- वो इंसान थे। अनजान लोग भी मुझे प्यार से खिलाते, चाय पिलाते, तामोली (सुपारी) पेश करते। जुमोली नाम की एक लड़की ने सुरों-सी सुरीली, मिठाई से मीठी आवाज़ में असमिया गीत सुनाए और हाथ से बनी वहां की पोशाक भी भेंट की। रिश्ता? हम दोनों इंसान थे। वो मुझसे हिंदी में बात करने की कोशिश करते-करते अचानक असमिया बोलने लगती। बतियाते-बतियाते बहुत देर में याद आता कि ये मुझे समझ ही नहीं आ रहा होगा।
दिल-तमिल-हिंदी-दोस्ती
इस बात से एक बात और निकली है-बहुत साल पहले एक पांच साल का तमिलियन बच्चा मुझे मिला। वो देखते ही मुझसे चिपक गया और सुबह से लेके देर रात तक लगातार हम दोनों बात करते रहे। मुश्किल से सोया, अगली सुबह फिर गप्पें शुरू। हमने घंटों, बल्कि कई दिनों बात की। मेरी उम्र 20 साल थी, उसकी पांच साल...उसे हिंदी नहीं आती थी मुझे तमिल। ..और अंग्रेजों की अंग्रेजी से तो खैर, हम दोनों ही महरूम थे। हां, हमें जो भी देखता, यही सोचता कि बेस्ट फ्रेंड्स हैं। सही है न! प्यार की बात होंठों से नहीं, आंखों से बयां होती है। वहां एक दिन खाना न खाओ, तब तो खैर लोग चिंता से आपको पलकों पर उठा लेंगे। कम खाओ तो पांच बार पूछेंगे-क्या बात है? पसंद नहीं आया, क्या खाओगे, कुछ और लाएं, तबियत ठीक नहीं?
यहां कुछ और भी लोग मुझे मिले। व्यापार की बागडोर यहां भी मारवाड़ियों के हाथ थी। पूरी-भाजी खिलाते एक मारवाड़ी को जब पता चला कि मैं जयपुर की हूं, तब उसने पूरी तसल्ली से सारी तफसील ली। फिर कहा- जहां सूरज नहीं पहुंचता, वहां भी मारवाड़ी काम करने जाता है। सच है, सूखे-रेतीले इलाकों के ये लोग दुनिया में दूर-दूर तक फैले हैं।
हैरानी की बात है पर है कि वहां गाय हैं, भैंस हैं, घास भी है पर दूध नहीं है। 55 रुपये किलो दूध अमीर लोग बस बच्चों के लिए खरीदते हैं। खुद सुबह-शाम घर पर बनी चावल की ताज़ी सुगंधित बीयर पीते हैं और चाय काली नहीं, लाल पीते हैं।
खैर, हमने वहां चाय की एक खूबसूरत थड़ी ढूंढ़ निकाली, जहां ताज़े दूध की गर्म चाय की मीठी चुस्की ली जा सकती थी। अब जहां चाय होगी, वहां बात भी होगी। कॉलेज के कुछ लड़के-लडकियां वहां जमे गप्पें मार रहे थे। इतने में मैंने फ़ोन पर शिलॉन्ग घूम आने की बात कही और वो वहीं से आ रहे थे। वो मेरे गाइड बन बैठे। इतने में उनका फ़ोन बजा। पता लगा- वो जयपुर जा रहे हैं, सो मैं उनकी गाइड बन गई और हम हंसे-दुनिया कितनी छोटी है न...है न?
तीस मार खां और घरेलू टाइगर
और हां, जंगल में बस जानवर ही नहीं मिलते, कुछ तीस मार खां भी मिलते हैं। जब हम आए, तब पता चला- एक और फोटोग्राफर आ रहे हैं। अब नाम नहीं बताऊंगी। कुछ दिन बाद एक सनकी से बुज़ुर्ग मिले। मुझे देखकर पूछा-आपको कहीं तास्केर दिखा? मैं उसकी तलाश में हूं। अपने कार्ड थमाते हुए बोले कि वो कितने बड़े फोटोग्राफर हैं और साक्षात अपने एलबम के साथ पधारे हैं। एलबम में जंगल की दुनिया की ऐसी नायाब तस्वीरें हैं, जैसी न आज तक बड़े-बड़े टीवी चैनल्स पर देखने को मिलती हैं, न मैगज़ींस में...वो अपनी खींची तस्वीरें किसी को दे ही नहीं सकते...हां! हम देखना चाहें तो जरूर दिखाएंगे।
उनके पास एक छोटा-सा कैमरा था, इतना छोटा कि हमारा बड़ा-सा लेंस शरमा जाए और वो बार-बार कह रहे थे- असली जंगली टाइगर की तस्वीरें हैं। ठीक है फोटोग्राफर साहब, लेकिन पालतू टाइगर भी होता है क्या? आवाज़ में दंभ का, दंभ में तंज़ का झोंका था कि आओ बच्ची! देखो, असली काम क्या होता है और कहते हुए उन्होंने वहां जितने लोग थे, सब को अपने कार्ड थमा दिए।
कुछ दिन बाद मैं अपने गार्ड अनिल दा से बतिया रही थी, तो उन्होंने बताया- एक पागल फोटोग्राफर आया था। यूं तो, सारे फोटोग्राफर्स टोपी वाले और आधे पागल होते हैं (ये मेरा कमेंट नहीं है) पर ये थोड़ा ज्यादा था। छोटा सा कैमरा लेकर जंगल में घुसता चला जाता और मैं कुछ कहता तो डांटता- अरे! हमने इतनी तस्वीरें खींची हैं टाइगर की। मुझे शक हुआ- ये वही तो नहीं थे तीस मार खां साहब! इतने में अनिल दा ने उनका कार्ड दिखाते हुए कहा- इतने लोगों को बांटता है ये कार्ड, मुझे तो डर है कि जानवरों को भी बांट दिया होगा।
कार्ड देखते ही मैं मुस्कराई- अरे! ठीक है, लेकिन एलबम देखे क्या? और उनके मुंह से ऐसे फूटा, जैसे आत्मा का बोझ हलका कर रहे हों- अरे बहुत ही बुरी थी। सो, ऐसे बड़े-बड़े शेरखान भी जंगल में खूब मिले। फोटोग्राफर्स की बात चली है, तो एक बात और बता दूं। कुछ फोटो देखे, एक मरती हुई रायनो के, जिसके साथ बल्कि उसे छूते हुए सबने फोटो खिंचवाई थी। पता चला- मीटिंग (मिलन) के दौरान उस 2000 किलो के जानवर की मज़बूत पीठ की हड्डी टूट गई और भयानक दर्द सहते हुए उसने अपना सिर पटक-पटक कर आत्महत्या की। हां, जंगल में अमंगल भी होता है। पहले तो मैं नाराज़ हुई- मरती हुई रायनो को छूकर परेशान किया...चैन से मरने तो देते, लेकिन भोला-सा जवाब मिला- इसके अलावा हम कभी ज़िंदा रायनो को नहीं छू सकते थे। मैं होती तब, तो क्या करती? क्या रायनो के इतने करीब उसे छूने का मोह या लोभ छोड़ पाती? न! सहलाती ज़रूर...।
यह भी पढ़ें : राजकपूर की एक तस्वीर के लिए बैंक मैनेजर ने आधी रात दौड़ा दिया था स्टाॅफ
पिघलता सूरज और बर्फ की रगों में शामिल होने की बेकरारी लौटते हुए हिमालय की चोटियां दिख रही थीं, जैसे- बर्फ की सिल्लियां जोड़-जोड़कर बनाया हो और उस बर्फ पर गर्मागर्म सूरज पिघल-पिघल कर टपक रहा था। जैसे-सूरज का लाल बासंती रंग बर्फ की रगों में शामिल हो जाने को बेकरार हो उसमें तैर जाना चाहता हो। इस बेमिसाल मिलन की जद्दोजहद में कुछ और रंग भी फूट रहे थे।
जंगल पीछे, बहुत पीछे छूटता जा रहा था। ट्रेन के सफ़र में धीरे-धीरे बदलते हैं रास्ते के मंज़र। रास्ते का हर पड़ाव मंजिल की और जाने का एक मकाम होता है लेकिन यहां तो दो घंटे के भीतर हज़ार सदियों का वक्फा बीत गया हो जैसे। लगा मुझे किसी टाइम मशीन में डालकर अचानक कहीं आगे, किसी बहुत नए अनजान समय में पटक दिया गया हो।
मैंने महसूस किया बहुत-बहुत तेज़ी से अपने अन्दर घूमते पहिए को...इतना तेज़ कि लगा बहुत कट-पिट गई हूं। थोड़े ही समय में मैं कह रही थी- उफ़! क्यों आई मैं इस परेशानियों के शहर में। बेतरतीब घरों के बारे में अक्सर कहा जाता है न-घर को जंगल बना रखा है और बेतरतीब इंसानों को जंगली, लेकिन बहुत नाइंसाफी की है हमारी आदमजात ने जंगल को यूं बदनाम करके। नहीं, जंगल की फितरत जंगली नहीं, इसके मायने वहशी नहीं, बदमिजाज, बेलिहाज़ नहीं। हमारे घर, अपने शहर बिखरे भी हैं, बेतरतीब भी। यहां तारों से नहीं, धुएं से, इमारतों से ढका आकाश हमें मिलता है, जरा सी बारिश पर धरती से बू उठा करती है, सोंधी-गीली खुशबू नहीं। जंगल एकदम करीने से सजा है। इंसानों ने बड़े मन से संवारा हो जैसे। सब चीज़ ठीक-ठीक जगह पर है, एकदम वहीं जहां होनी चाहिए। पक्षी डालों पर हैं, बिजली के तारों पर नहीं। मछली लहरों में खिलखिलाती हैं कांच के मर्तबान में नहीं।
जंगल में हर ओर बिखरी फलियां देखी, पक्षियों की खाई, सूखी फली के बीज वाला हिस्सा ठीक गोलाकार छीलकर खाया गया था। इतने करीने से न आदमी खा पाए, न आदमी की बनाई मशीन। जब किसी को अच्छा कहना होता है, तब हम कहते हैं- वो इन्सान है, आप शौक से मुझे जंगली कह सकते हैं।
मेरे दिल में कहीं जंगल बसता है...
यूं, मुझे हमेशा से गुमान था कि मेरे दिल के एक कोने में कहां जंगल बसता है। मैं थोड़ी-सी तो जंगली हूं, लेकिन अब लगता है- मेरे भीतर दरअसल वही पूरी की पूरी सभ्यता है। मैं उसी समय, उसी जगह की हूं, इतनी जुड़ी हूं कि खुद को खुरच के भी उसे निकाल नही पाऊंगी। आप कभी जंगल जाएं तो खाली होके जाइएगा। जो खुद भरे रहे, तो जंगल को कहां जगह दे पाएंगे और हो सके तो अकेले जाइए।
यह भी पढ़ें : 'गाजे-बाजे के साथ उस शव यात्रा का एक सिरा नदी में था और दूसरा सड़क पर'
जब हम अपने सबसे अच्छे मित्रों के साथ जाते हैं, तब अपनी एक बनी-बनाई दुनिया साथ ले जाते हैं। दिल का एक कोना हमेशा भरा ही रहता है, अरे- जब वो खाली होगा, तभी तो अजनबी भी दोस्त बन पाएंगे। ...और हां, जंगल में विचरते हुए खामोशी से जाएं, तब ही तो उसकी धुन सुनाई देगी। कभी-कभी खामोशियां भी बहुत कुछ कहती हैं। भोर के पंछियों की आवाज़ें, धरती पर बारिश की सरगोशियां, उड़ती हवाएं सुनना...सब आपके मन से बात करेंगे और तब आप भी अपनी आवाज़ सुन पाएंगे, वो आवाज़ जो शायद बरसों से न सुन पाए हों।
यूं, आज मुझे लगता है, मैं जंगल की ही हूं। मैं जंगल में अकेले विचर पाती हूं, जंगल से अपनी कहानी कह पाती हूं। उसे दिनों-दिन सुन पाती हूं, लेकिन मैं हमेशा से ऐसी नहीं थी। हम जो कुछ भी होते हैं, उसके पीछे ढेरों लोगों का प्यार साथ होता है। जो हमें वो बनाते हैं, जो हम हैं। मैंने जंगल में जाने की तमीज अपने पापा से पाई है। बचपन में वो अपनी साइकिल के आगे बिठाकर मुझे जंगल घुमाने ले जाते। मैं शोर मचाती, तो प्यार से कहते- 'श्श्श् ये तुम्हारा घर नहीं है, हम पंछियों के घर में हैं, दूसरों के घर शोर नहीं मचाते।'
छुटपन में भरतपुर, रणथंबौर जैसे जंगलों में पापा के साथ खूब घूमी। बड़े होकर ढेर सारे प्रोफेशनल बर्ड वाचर्स से मिली, लेकिन एक के भी साथ जंगल घूमने का वो मजा नहीं आया। वो लोग एक बर्ड डिक्शनरी की तरह लगते और पापा की बातें पंछियों की आत्मकथा-सी होतीं। पंछी देखते हुए उनका चेहरा बच्चे सा खिलता, खुशनुमा हो जाता, फिर वो बताना शुरू करते। फिर मैं बड़ी हो गई और मैंने अपनेआप, अपनी पसंद की जिंदगी चुननी शुरू की। घूमी, पढ़ा, सुना, देखा। जंगल कुछ देर को कहीं पीछे रह गया।
बड़े होने की एक निशानी मुझे गुस्सा भी खूब आने लगा था। मैं अक्सर पापा के निश्छल चेहरे को देख के पूछती, 'पापा आपको गुस्सा क्यों नहीं आता है?' और वो हमेशा कहते, 'क्यूंकि मैं जंगलों में घूमा हूँ। वहां आदमी सुनना सीखता है, देखना सीखता है'। शायद मेरे हाथ से जंगल कहीं छूट गया था, अब फिर मैंने उसे भागकर पा लिया है। इस बार गई, तो पतझड़ था, फिर भी जंगल खूब गुलज़ार था। मन है- अबके बहार में जाऊं, बरसात में जाऊं। ये पेड़, ये पहाड़ियां मन करता है, हर एक को देख और छू आऊं, पूरी धरती को कदमो से सहलाऊं ,हर इंसान, हर पक्षी, हर जानवर, हर पंछी, हर फूल, हर कांटे से बतियाऊं। मेरा ये स्वप्न पूरा होगा न?
Leave your comment