केशव भट्ट उत्तराखंड के एक हिमालयी कस्बे बागेश्वर में रहते हैं। केशव को ढूंढना बेहद आसान है। बागेश्वर में उनकी एक मिठाई की दुकान है, लेकिन यही उनकी पहचानभर नहीं है! असल में केशव ने लंबे वक्त तक अखबारों के लिए लेखन किया है और इससे भी बढ़कर उन्होंने हिमालय के अलग-अलग हिस्सों को नापा है। केशव का लेखन ताजगी से भरा हुआ है और इससे गुजरते हुए वो आपको अपने साथ हिमालय के दर्रों और घाटियों में चुपचाप लिए चलते हैं। 'हिलांश' पर केशव के किस्सों की एक पूरी खेप आ रही है।
(एपिसोड - 1) ‘मामा अब ट्रैकिंग में मैं नहीं आऊंगा...!’ मिलम गांव से मुनस्यारी की ओर वापस आते हुए नितिन के ये शब्द मुझे मुनस्यारी पहुंचने तक कचोटते रहे। ऐसा नहीं था कि नितिन इस ट्रैक में शारीरिक रूप से थक गया था। कम उम्र होने के बावजूद पीठ में रूकसैक लादे वो हर रोज हमारी टीम के साथ मीलों पैदल रास्ता नाप रहा था। दरअसल इस ट्रैक में बार्डर के बे-सर पैर के नियम कानूनों व उलझनों से परेशान होकर नितिन मानसिक रूप से थक गया था और इस बात का गुस्सा वो मुझ पर निकाल रहा था।
ये असल में इनरलाइन के दायरे के भीतर के इलाकों में होता ही है। खैर, देर सांय मुनस्यारी पहुंचने पर उस वक्त अचानक माजरा ही बदल गया जब उसने कहा, ‘मामा अगले साल कहां का ट्रैक है, मुझे मत भूलना!’ ये दिलचस्प प्रतिक्रिया थी। मुझे तो यह बात कुरेदने लगी थी कि कहीं नितिन अपने पहले ट्रैक के बुरे अनुभवों के लिए मुझे ही ताउम्र जिम्मेदार ना माने, लेकिन अब जब हम अपने ठिकाने पर थे, वो मुझसे अगले ट्रैक पर लिए चलने की बात कह रहा था। असल में मिलम से मलारी के ट्रैक के लिए मैंने एक लंबे वक्त तक इंतजार किया था और फिर एक रोज इसी इंतजार से खीझकर इस ट्रैक को पूरा करने की ठान ली थी।
पहाड़ धीरे-धीरे ही पसंद आते हैं। हम तो नितिन को उसके पहले ही ट्रैक पर तिब्बत की सरहद के करीब ले आए थे। ये वो जगह थी जो मुल्कों की सरहद को बांध रही थी। एकदम बियाबान। चारों ओर सिर्फ पहाड़ और उसकी बर्फ से ढकी चोटियों के नीचे पसरी वीरान घाटियां।
उत्तराखंड में हिमालय से लगी तिब्बत की सीमा कैसी होती होगी...! वहां बार्डर में क्या हलचल होती होगी? सरहद पर मुस्तैद सैनिकों की जिंदगी कैसी होगी? सिपाहियों का जीवन वहां कैसा होता होगा? पहले जब सीमाओं का बंधन नहीं था, तब लोगों का काफिला दर्रों को पार कर कैसे आता-जाता होगा? वो दर्रे कैसे होते होंगे जिनपर दूर देश से आदमी यात्रा कर इस ओर पहुंच जाता होगा....! ऐसी न जाने कितनी जिज्ञासाओं को लेकर हम सरयू के तट पर हिमालय के एक छोटे से कस्बे बागेश्वर में जवान हुए। कई हिमालयी यात्राएं करने के बाद दुर्गम हिमालयी बॉर्डर की यात्रा करने की इच्छाएं इन्हीं सवालों को तलाशने की यात्रा थी। मन में कुलबुलाहट मचने लगी तो व्यास व दारमा घाटी का रूख करने का ख्याल आया। व्यास घाटी में ओम पर्वत और छोटा कैलाश की यात्रा के साथ ही सिनला पास की यात्रा भी कर आए, लेकिन बार्डर के कई सवाल अब भी जिज्ञासा का हिस्सा हैं।हांलाकि, हम व्यास व दारमा घाटी की अद्भुत सुंदरता व इतिहास से इस दौरान अच्छे से रूबरू हुए।
दशकों पहले अल्मोड़ा बारामंडल का सबसे बड़ा गांव था मिलम। मिलम जोहार में छोटे-बड़े 500 मकानों का गांव था। मूलत: ये गांव व्यापारियों का है। हिमालय के दुर्गम इलाकों के ये व्यापारी एक दौर में इलाके में व्यापार की अहम कड़ी थे। तिब्बत से लेकर भारत की मंडियों तक पसरा कारोबार इस इलाके के लोगों को समृद्ध बनाता था। ऐसे ही जोशीमठ के पास मलारी गांव भी था। मलारी और मिलम दोनों ही गांवो के व्यापारी सदियों पहले ऊंटा धूरा दर्रा को पार कर तिब्बत से व्यापार करते थे।
तिब्बत की संस्कृति की झलक इन इलाकों में अब भी मिलती है। मिलम तब एक बड़ी व्यापारिक मंडी थी। हालांकि, अब मिलम गांव खंडहर हो चुका है। कुछ ही ग्रामीण गर्मियों में प्रवास में गांव में पहुंचते हैं। व्यापारियों के इन गांवों को करीब से देखने के इरादे से साल 1998 में हमारा एक दल मिलम से मलारी अभियान पर निकला। गाइड का स्वास्थ्य बिगड़ जाने पर बुढ़ादुंग से हमें वापस लौटना पड़ा। तब ऊंटा धूरा दर्रा पार कर मलारी ना पहुंच पाने का मलाल बाकी रह गया था।
इस मलाल के साथ ही कई साल गुजर गए और फिर अचानक साल 2011 में मेरे ही एक दोस्त भुवन चौबे ने कलकत्ता के एक दल के साथ मिलम-मलारी अभियान पर चलने की पेशकश की। ये बिन मांगे पूरी हो जाने वाली मुराद जैसा था। इस अभियान ने अगस्त के महीने रवाना होना था, जो पहाड़ों पर ट्रैकिंग के लिहाज से खुशनुमा धूप भरे दिन होते हैं। हालांकि, कई दफा रास्ते में बारिश भी परेशान करती है, लेकिन बावजूद इसके अधिकत्तर दिन अच्छे ही होते हैं।
कलकत्ता के दल का इंतजार करते हुए अगस्त भी गुजरने ही जा रहा था कि तभी खबर मिली को वो मिलम से मलारी के बजाय अब सिनला पास जा रहे हैं। हमारे सामने भी सिनला पास चलने की पेशकश की गई, लेकिन सिनला दर्रे को हमारे दल ने साल 2007 में ही पार किया था, इसलिए हमने इस पेशकश को शालीनता से ठुकरा दिया। मिलम-मलारी अभियान के अचानक फेल होने से हम इतने व्यथित हो गए थे कि हमने इस अभियान पर खुद ही निकल पड़ने का मन बना लिया। अब इस अभियान पर निकलने के लिए योगेष परिहार, संजय पांडे व नितिन भट्ट समेत चार लोग तैयार थे। सितंबर के पहले सप्ताह में ही हम इस अभियान पर निकलने के लिए तैयार थे। इस दौरान हमने पिथौरागढ़ के बुजुर्ग साहित्कार बी.डी. कसनियाल व नाचनी के केबल जोशी से भी अपनी यात्रा के लिए शुभकामनाएं बटोर ली।
(भाग- 2) : ‘हमारे उपकरणों ने सिग्नल देना बंद कर दिया, केबिन के चारों ओर बर्फ की दीवार जम गई’
सात सितंबर 2011 को हमारा दल बागेश्वर से मुनस्यारी के लिए निकल पड़ा। बस से हमारा सफर थल तक का ही था और इससे आगे की यात्रा के लिए जीप तैयार खड़ी थी। सड़क कई जगह ध्वस्त होने के चलते मुनस्यारी तक बस से पहुंचना मुमकिन नहीं था। जीप में सवार हुए तो गोरी गंगा के साथ-साथ सफर आगे को बढ़ने लगा। बादरास्ते में नजर पड़ी तो बादल फटने से दफ्न हो चुके ला-झेकला गांवों की जमीन में घास उग चुकी थी। अगस्त 2009 में बादल फटने से ये गांव भूस्खलन की चपेट में आने से बह गए थे। इस भयानक हादसे में गांव में रह रहे 42 लोग मौत की आगोश में चले गए थे। उस दौर के अखबारों की सुर्खियां मेरे आगे तैर गई थी। जब तक जीप इस इलाके से बाहर नहीं निकल गई, नजरें इन गांवों पर ही टिकी रही। कितना भयावह क्षण रहा होगा... मिट्टी और मलबे के सैलाब ने 42 जिंदा लोगों को अपने भीतर निकल लिया था। जो बचे होंगे वो कैसे भुला पाते होंगे उस दिन को।
चढ़ाई में जीप की रफ्तार थम गई थी। दूर से ही बिर्थी झरना मोहित कर रहा था। गांव के पास ही 125 मीटर की उंचाई से लहराते हुए नीचे गिरता झरना बरबस ही किसी की भी निगाहें अपनी ओर खींच ले। यहां झरने के पास ही कुमाऊं मंडल विकास निगम का सुंदर बंगला है। धीरे-धीरे जीप सर्पाकार सड़क में ऊंचाई को ओ बढ़ती जा रही थी। बार-बार हम घूमकर पहली वाली जगह के ही ऊपर और ऊपर बढ़ते चले जा रहे थे। यहां पर सड़क बेहद खूबसूरत अहसास करवाती है। हालांकि, सड़क की सेहत काफी दुबली दिखी। सड़क के किनारों पर पैराफिट नहीं के बराबर हैं। राज्य समेत देश के शीर्ष पदों पर शासन चला रहे कई दिग्गजों के मुनस्यारी और जोहार समेत आस-पास के इलाकों में गांव हैं। वो भी अक्सर इसी सड़क से अपने पैतृक गांवों में पहुंचते हैं। बावजूद इसके इस सड़कों की बदहाली सोचने पर मजबूर कर देती है। शायद उन्हें अब गांवों की परवाह ही ना हो..
मेरे ख्यालों पर भी जीप के एक झटके से रुकते ही ब्रेक लग गया। घंटी बजने की आवाज पर बाहर झांककर देखा। हम 2700 मीटर की ऊंचाई पर मौजूद कालामुनि टॉप पर मौजूद थे। जीप की कैद से बाहर निकलकर सबसे पहले हमने पास ही में मौजूद एक मंदिर की राह पकड़ी। हमारे पीछे-पीछे भोटिया कुत्ते के चार पिल्ले भी दौड़ लगाते हुए आ गए। हम उन्हीं के साथ काफी देर तक खेलते रहे। पहाड़ों पर ये कुत्ते काफी फ्रेंडली माने जाते हैं।
अचानक जीप का हॉर्न सुनाई दिया और हम वापस जीप में सवार हो गए। जीप अब नीचे की ओर उतर रही थी। सड़क के नीचे वन विभाग का हर्बल गार्डन दिखाई दे रहा था। एक दौर में इस गार्डन के घोटालों की खूब चर्चा होती रही है। हालांकि, इन घोटालों की जांच भी हो सकी या फिर नहीं इसकी जानकारी कभी नहीं मिल सकी। जीप से ही मैंने नजर बाहर दौड़ाई तो सामने पंचाचूली की चोटियों के ठीक ऊपर बादलों की लुका-छिपी जारी थी। जीप धीरे-धीरे उतरकर मुनस्यारी बाजार में पांडे लॉज के पास आकर रुकी।
हमारे आज का ठिकाना पांडे लॉज ही था। पहले से पांडे लॉज के स्वामी को हमने अपने ठहरने का इंतजाम करने के लिए कहा था। सरल स्वभाव के पांडेजी हमारा सामान रखने में खुद भी मदद करने लगे। मुनस्यारी में उनका लॉज उनके मीठे स्वभाव की तरह ही काफी चर्चित और सुकूनदायक है। यह मुनस्यारी में कम दाम में रुकने की अच्छी जगह है। इस यात्रा के लिए पांडेजी ने ही हमारे लिए गाइड के तौर पर मनोज कुमार को तय कर रखा था। मनोज के आने के बाद हम सभी आईटीबीपी कैम्प में गए।
मिलम क्षेत्र में जाने के लिए प्रशासन के साथ ही आईटीबीपी की भी परमिशन जरूरी होती है। जब हम आईटीबीपी कैम्प में पंहुचे तो वहां के साहब ऊंटा धूरा के लिए ना-नुकुर सी करने लगे। उन्होंने कई किस्म के बहाने इस दौरान बनाए। हमने अपने मित्र एवरेस्टर हीरा राम जो कि आईटीबीपी में पिथौरागढ़ में सुबेदार मेजर पद पर थे, उनका परिचय देने के साथ ही अपनी यात्रा का उद्देश्य भी बताया। इस दौरान मैं नितिन की झुंझलाहट को दख रहा था। वो जल्दी से यहां से बस चल देना चाहता था। काफी मशक्कत के बाद बामुश्किलन वो हमारे परमिट में साइन करने के लिए राजी हुए। अब हमारी यात्रा की आधिकारिक शुरुआत हो रही थी।
जारी है...
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