भारत से फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष को गांधी का मिला था साथ

फिलिस्तीनभारत से फिलिस्तीन के मुक्ति संघर्ष को गांधी का मिला था साथ

NEWSMAN DESK

इस वक्त जब मिडिल ईस्ट में दुनिया के दो देश एक दूसरे पर गोला-बारूद दाग रहे हैं, तब सवाल यह उठता है कि आखिर हमें फिलिस्तीन के आंदोलन का समर्थन क्यों करना चाहिये! देश में कई मुसलमान इसलिये फिलिस्तीन का समर्थन करते हैं, क्योंकि वो उसे मुसलमान और यहूदियों की लड़ाई मानते है। उनका मानना है कि यहूदियों ने फिलिस्तीन की जमीन पर कब्जा किया है। लिहाजा, पूरी दुनिया को इजरायल का विरोध करना चाहिये। इसलिये हम जैसे आम लोग भी जो मुसलमान नहीं है, फिलिस्तीन और इजरायल की लड़ाई को धर्म के चश्मे से देखते रहे हैं। जबकि फिलिस्तीन का मुक्ति आंदोलन इतिहास में भारत की आजादी से भी पुराना और एक सेक्युलर मूवमेंट रहा है। 

फिलिस्तीन कभी तुर्की सम्राज्य का हिस्सा रहा। जिस प्रकार सीरिया, सउदी अरब, यूएई, यमन, अफ्रीका, इरान और इराक जैसे दर्जनों देश उस्मानिया या तुर्की सम्राज्य के हिस्सा रहे, उसी तरह फिलिस्तीन भी रहा। ये सभी लगभग मुसलमान देश ही हैं। उन्नीसवीं और बीसवी सदी में ये सभी देश तुर्की के उस्मानिया सल्तनत से आजादी का आंदोलन लड़ रहे थे। यहां पर धर्म कहीं नहीं था, क्योंकि ये सभी मुसलमान देश ही थे। इन देशों की लड़ाई आजादी की थी। ये देश सामंतवादी जुल्म और राजशाही से तंग आकर आजादी की बगावत कर रहे थे।

इसी दौरान यूरोप में औद्योगीकरण हुआ तो इंग्लैंड, स्पेन, फ्रांस, अमेरिका आदि देश आर्थिक रूप से मजबूत और आधुनिक साम्राज्यवादी बने। इन मुल्कों ने उम्दा हथियार और प्रणाली दोनों विकसित कर ली। इनकी नौसेना और वायुसेना बहुत विकसित हुई। लिहाजा, पहले विश्वयुद्ध में उस्मानिया साम्राज्य को दो मोर्चे पर लड़ना पड़ा। एक यूरोपियन साम्राज्यवाद से और दूसरे अपने अधीन मुस्लिम देशों के आजादी के संघर्ष से। इसलिये पहले विश्व युद्ध में उस्मानिया सल्तनत ताश के पत्तों की तरह ढह गई और ज्यादातर देश यूरोपियन साम्राज्यवादी देशों के अधीन आ गये।

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उस्मानिया सल्तनत के अधीन आने वाले गुलाम देशों को सभी विजेता यूरोपियन साम्राज्यवादियों ने अपने शेयर आफ इनफ्लुएंस में बांटा। इनमें फिलिस्तीन और मिस्र आया अंग्रेजों के हिस्से में, जबकि लेबनान और सीरिया फ्रांस के हिस्से में आया। इटली ने झटक लिया लीबिया। ऐसे ही कई अन्य देशों का भी बंटवारा हुआ। इन देशों के साथ धोखा ये हुआ कि पहले ये किसी और की गुलामी कर रहे थे और अब ये यूरोपियन देशों की सरपरस्ती में नई गुलामी के जाल में फंसे। ऐसे में इन मुल्कों का आजादी का आंदोलन फिर से शुरू हो गया। उस वक्त तक दुनिया में इनकी आवाजों के साथ कोई नेता खड़ा नहीं होता था, लेकिन बीसवीं सदी के शुरुआत में महात्मा गांधी ने सबसे पहले फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष को अपना समर्थन दिया।

इसके बाद गुलाम भारत की कांग्रेस पार्टी ने भी इस आंदोलन के समर्थन में आवाज बुलंद की। इसके कुछ समय बाद साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के कारण भारत और अफ्रीका के कई देश तो आजाद हो गये, लेकिन सम्राज्यवादी देशों ने भारत और फिलिस्तीन की तरह कई अन्य गुलाम देशों के साथ भी ठीक इसी वक्त 'खेला' कर दिया। जैसे भारत के दो टुकड़े किये गये थे, उससे भी भयानक रूप से फलिस्तीन के दो टुकड़े कर दिये गये। दौर था 1947 का। यहां ये बात गौर करने वाली है कि जैसे भारत के आजादी के आंदोलन में हिंदू और मुसलमान दोनों ही थे। वैसे ही फलिस्तीन के आजादी के आंदोलन में मुसलमान, ईसाई और यहूदी तीनों ही थे। सभी साथ मिलकर लड़ रहे थे और ये आंदोलन धर्म के लिये नहीं, बल्कि क्षेत्रीय आजादी के लिये था।

इसलिये इस आंदोलन को दुनिया भर के प्रगतिशील नेताओं का समर्थन रहा, लेकिन जब फिलिस्तीन से अंग्रेज गये तो उन्होंने भारत की तरह इसके दो टुकड़े कर दिये और एक बड़ा भू-भाग यहूदियों को दे दिया। असल में तब तक सोवियत रूस जैसे देश फिलिस्तीन मुक्ति आंदोलन के समर्थन में आ गये थे और वहां पर एक बड़ा तबका सोवियत रूस से प्रभावित होने लगा था। इसी के बाद साम्राज्यवादियों ने इसे वैसे ही धर्म की लड़ाई में बदल दिया, जैसे पाकिस्तान और भारत को हिंदू और मुसलमान के रूप में अलग-अलग किया गया। ​अब फिलिस्तीन के बगल में वजूद में आया इजरायल। दुनियाभर से यहूदियों को आमंत्रित कर कहा गया कि 'तुम्हारा नया मुल्क बन गया है'। यहीं से नया झगड़ा भी शुरू हुआ और जर्मन के 'सताए' हुए यहूदियों ने अब फिलिस्तीन को सताना शुरू कर दिया। ऐसा ही मोरोक्को को स्पेन ने जाते-जाते उसका पड़ोसी देश सहारवी गणतंत्र वहां की जनता के खिलाफ दे दिया, जिसका आंदोलन आज भी चल रहा है।

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गुलामी झेल रहे देशों के टुकड़े कर अब एक नया विवाद धर्म के नाम पर यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों ने खड़ा कर दिया। जिसका खामियाजा आज भी भारत कश्मीर के रूप में झेल रहा है। कश्मीर का आंदोलन भी पहले जहां आजादी का था, वहीं 1980 के दौर में ये जेहाद के नाम पर लड़ा जाने लगा। खैर, इस पर चर्चा फिर कभी। हम दुबारा फिलिस्तीन पर आते हैं। फलिस्तीन का एक बहुत बड़ा हिस्सा उनकी मर्जी के खिलाफ यहूदियों को दे दिया गया और उसके कुछ समय बाद ही इजरायल ने वहां से लाखों की तदाद में रह रहे अरब मुसलमानों को उनकी ही जमीन से बेदखल कर दिया। 

अब सवाल उठता है कि ऐसा साम्राज्यवादी देशों ने क्यों किया? इसके पीछे सीधा सा जवाब है, तब तक मध्य पूर्व में तेल के विशाल भंडार खोजे जा चुके थे और साम्राज्यवादी दुनिया के देश ये समझ गये कि आने वाले वक्त में ये तेल ही उन्हें मजबूत करेगा। जिसकी मुट्ठी में तेल, उसके पास दुनिया में राज करने की चाबी! इसलिये उन्होंने मध्य पूर्व के हर देश को आजाद कर ऐसी सरकारें स्थापित की जो कट्टर धार्मिक हो। मसलन, सउदी अरब, यूएई, इराक, इरान जैसे देशों में अपने पिछलग्गू फासीवादी सरकार स्थापित की और जहां नहीं कर पाये वहां की सीमाओं को अलग-अलग कर धर्म की दीवारे खड़ी कर दी गई। ऐसा ही फिलिस्तीन और सहारवी गणतंत्र के साथ भी किया गया, तो इधर साउथ एशिया में वियतनाम और कोरिया के साथ यही कहानी दोहराई गई। ... और अपना भारत का उदाहरण तो है ही। 

इसी कारण दुनिया की साम्राज्यवादी विरोधी ताकतों और प्रगतिशील आंदोलन ने फिलिस्तीन की हर संभव मदद की और इसमें सबसे बड़ा मददगार था सोवियत रूस। वही रूस जिसने इरान और इराक में राजाओं के खिलाफ वहां के नेताओं को ताकत दी। इसलिये इरान, इराक, सीरिया में फिर से सत्ता बदल कर सेक्युलर ताकतों के पास आ गई और कालांतर में अमेरिका और यूरोपीय देशों ने इन देशों में गदर काटी।

इन देशों के नये नेता कैसे भी थे, लेकिन ये पूरी तरह से सेक्युलर थे। फिर चाहे वो सद्दाम हो या असद। इन देशों की सत्ता परिवर्तन के बाद ही सउदी अरब और तुर्की, इरान, इराक और सीरिया के खिलाफ खड़े हो गये। बाद में आधुनिक तुर्की में भी फासीवादी सरकार लोकतंत्र के जरिये आ गई। सोवियत रूस उस वक्त प्रत्यक्ष तौर पर फिलिस्तीन की मुक्ति आंदोलन, वियतनाम, कोरिया के साथ ही कई अन्य देशों की मदद करता था, लेकिन सोवियत रूस के ढहने से कुछ समय पहले ही इन आंदोलनों को बहुत बड़ा धक्का लगा। मसलन, फिलिस्तीन के सेक्युलर आंदोलन में फिलिस्तीन लिब्रेशन आर्मी के सबसे बडे नेता यासर अराफात जो अल फतह के नेता थे, उसमें फूट पड़ गई। इस आर्मी में 1948 से पहले केवल मुसलमान ही नहीं थे, बल्कि ईसाई और यहूदी भी थे।

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ये संगठन फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष से निकला था, जिसमें बाद में यूरोपियन ताकतों ने फूट डलवाई और उससे एक अलग संगठन हमास निकला। इस संगठन ने फिलिस्तीन मुक्ति संघर्ष को बदल कर जेहाद में तरमीम कर दिया। उसी तरह अफगानिस्तान में पहले अलकायदा और बाद में तालीबान अमेरिका ने खड़ा किया। इराक में सद्दाम के बाद आईएसआईएस अमेरिका की खादपानी से खड़ा हुआ, जिसने पूरी दुनिया में मुसलमानों को बदनाम किया और इन देशों के आजादी के संघर्ष को धर्म के संघर्ष में बदल डाला।

इन देशों की नयी फासीवादी सरकारों ने स्कूलों के पाठयक्रमों में भारी बदलाव किया, जिसमें सेकुलरवाद को हटा कर कट्टर इस्लाम की इमारत को खड़ा किया गया, जबकि इस्लाम का शाब्दिक अर्थ ही होता है 'शांति'। इस कट्टर इस्लाम की सबसे बड़ी कीमत ये ही इस्लामिक देश भुगत रहे है। इसी प्लानिंग के तहत भारत में भी एक धर्म के खिलाफ हव्वा बना कर फासीवादी सरकार स्थापित की गई।

कुल मिलाकर फिलिस्तीन का आंदोलन हर उस सम्राज्यवादी ताकत के खिलाफ है, जिसने दुनिया को बदसूरत बना दिया है। हमें इसलिये फलिस्तीन के आंदोलन का समर्थन करना चाहिये। ...और अंत में दुनिया में शांति पसरने की उम्मीद के साथ फैज पर खत्म करते हैं। फैज अहमद फैज ने 1980 में बेरूत में एक नज्म लिखी थी, जो कुछ यूं थी...

मत रो बच्चे
रो रो के अभी
तेरे अम्मी की आंख लगी है

मत रो बच्चे
कुछ ही पहले
तेरे अब्बा ने 
अपने गम से रूख्सत ली है

मत रो बच्चे
तेरा भाई
अपने ख्वाब की तितली पीछे
दूर कहीं परदेस गया है

मत रो बच्चे
तेरी बाजी का
डोला पारये देस गया है

मत रो बच्चे
तेरे आंगन में
 मुर्दा सूरज नहला के गये हैं
चंदरमा दफना के गये हैं

मत रो बच्चे 
गर तू रोयेगा तो ये सब
अम्मी, अब्बा, बाजी, भाई
चांद और सूरज

और भी तुझको रूलावायेंगे
तू मुस्करायेगा तो शायद
सारे इक दिन भेस बदलकर 
तुझसे खेलने लौट आयेंगे