रिन्यूएबल एनर्जी की ओर बढ़ती दुनिया क्या सदियों से खदानों में भिड़े हुए कामगारों को भूल जाएगी!

Photo Credit: PC: Daniel Etter

Nature Boxरिन्यूएबल एनर्जी की ओर बढ़ती दुनिया क्या सदियों से खदानों में भिड़े हुए कामगारों को भूल जाएगी!

महेंद्र रावत

महेंद्र जंतु विज्ञान से परास्नातक हैं और विज्ञान पत्रकारिता में डिप्लोमा ले चुके हैं। महेन्द्र विज्ञान की जादुई दुनिया के किस्से, कथा, रिपोर्ट नेचर बाॅक्स सीरीज के जरिए हिलांश के पाठकों के लिए लेकर हाजिर होते रहेंगे। वर्तमान में पिथौरागढ में ‘आरंभ’ की विभिन्न गतिविधियों में भी वो सक्रिय हैं।

कल जब हम पलटकर गुजरे साल की ओर देखेंगे तो पाएंगे कि धरती को बचाने के लिए क्या कुछ नहीं हुआ! बहुचर्चित कॉप 26 का ग्लासगो में समापन हुआ। पृथ्वी पर मानव व जीव जगत के अस्तित्व को बचाने व रहने लायक वातावरण बनाए रखने के हिसाब से 21वीं सदी का यह सबसे जरूरी सम्मलेन भी रहा है। आने वाले वैश्विक पर्यावरण संकटों से निपटने, पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने और जलवायु परिवर्तन को रोकने में अपने योगदान को तय करने के लिए सारे देश इस सम्मलेन का हिस्सा बने।

हालांकि, बहुत सारे पर्यावरण कार्यकर्ता इस सम्मलेन को विफल बता रहे हैं, जबकि कई इसपर अपनी असहमति जताते हैं। कुछेक का मानना है कि इस सम्मेलन के जरिए वैश्विक स्तर पर जिम्मेदारी और जवाबदेही तय करने की ओर प्रगति हुई है। सम्मलेन का बड़ा हिस्सा और ध्यान वैश्विक स्तर पर ऊर्जा आपूर्ति के लिए फॉसिल फ्यूल और कोयले की निर्भरता को काम करने पर टिका हुआ था।

जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए इस निर्भरता को खत्म करने पर बहुत अधिक जोर दिया जा रहा है। अनेकों देशों ने अपनी कोयले पर निर्भरता को खत्म करने का साल घोषित किया। इधर भारत ने इसे खत्म न कर इस निर्भरता को कम करने की बात कही है। तब सवाल यह भी उठता है कि ऊर्जा के लिए कोयले और फॉसिल फ्यूल पर निर्भरता समाप्त करने के इस क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए क्या मायने हैं? अगर फॉसिल फ्यूल और कोयले पर निर्भरता खत्म कर दी जाए तो इस क्षेत्र से आजीविका कमा रहे लोगों का क्या होगा?

इसी पर संदीप पाई व उनकी टीम द्वारा किये गए शोध में कुछ चौंकाने वाले आंकड़े सामने आये हैं। 'One Earth' पत्रिका में छपे शोध में संदीप व उनकी टीम का कहना है कि अगर ऐसा वैश्विक स्तर पर होता है, तो दुनिया भर में लगभग ऊर्जा क्षेत्र की 80 फीसदी नौकरियां खत्म हो जाएंगी। यह नौकरियां विशेषकर कोयला खनन, तेल और गैस उत्पादन क्षेत्र की हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक़ इन क्षेत्रों में अभी एक करोड़ छब्बीस लाख नौकरियां हैं और भविष्य में वह घटकर तीस लाख भी नहीं रह जाएंगी।
       
पर्यावरण व जलवायु संरक्षण की दिशा में बढ़ने का सबसे बड़ा इम्पैक्ट तकरीबन 80 लाख लोगों की आजीविका पर सीधे-सीधे पड़ेगा। ऐसे में ये सवाल भी उठता है कि क्या इस धरती को बचाने की इतनी बड़ी कीमत कोयला खदानों और तेल निकालने वालों को ही चुकानी पड़ेगी? ये बलिदान भी मुश्किल से अपनी गुज़र बसर कर पा रहे मज़दूरों को ही करना पड़ेगा? आमतौर पर पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन की बात करते हुए इन समुदायों के हितों को लेकर कोई ठोस योजना तो छोड़िए, इनके बारे में सोचा तक नहीं जाता है। नीतिनियंता यह भूल जाते हैं कि ये सभी समस्या का हिस्सा नहीं, बल्कि समाधान का हिस्सा हैं। जलवायु परिवर्तन को रोकने की बात इन मज़दूरों के बिना अधूरी है। पर्यावरण के लिए सोचते हुए इस समुदाय के सही समायोजन (Just transition) को लेकर भी काम करने की जरूरते हैं।

शोध के मुताबिक अगर पेरिस संधि में तय की गयी 2 डिग्री सेल्सियस (सदी के अंत तक धरती के तापमान को 2 डिग्री के नीचे रखने का प्रयास) की सीमा का लक्ष्य रखा जाएगा, तो पूरी दुनिया में इससे भारी संख्या में नौकरियां चली जाएंगी।

हालांकि, अन्य वैकल्पिक ऊर्जा क्षेत्र पर तेजी से निर्भरता भी इससे बढ़ेगी और रिन्यूएबल एनर्जी के क्षेत्र में नौकरियों में बड़ा उछाल आएगा। शोध के अनुसार 80 लाख नौकरियां अगर खत्म हो रही हैं, तो रिन्यूएबल ऊर्जा के क्षेत्र में एक करोड़ नए रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे, लेकिन ये उजड़े हुए मजदूरों को स्थापित करने में मददगार होगी, यह कहना अभी जल्दबाजी होगा।

वैकल्पिक ऊर्जा क्षेत्र में निर्भरता बढ़ने से सौर और पवन ऊर्जा के निर्माण क्षेत्र (Manufacturing sector) में रोजगारों के अवसरों में वैश्विक उछाल आएगा। पाई के शोध के अनुसार 2050 आने तक ऊर्जा क्षेत्र की 84 फीसदी नौकरियां सौर व पवन ऊर्जा निर्माण क्षेत्र की होंगी, जबकि फॉसिल फ्यूल आधारित केवल 11 फीसदी ही नौकरियां रह जाएंगी।

वैश्विक स्तर पर अनेक देश इस दिशा में कार्य व भारी निवेश भी कर रहे हैं। आने वाला समय इस तरह की ऊर्जा का है। भारत भी इस दिशा में धीरे धीरे बढ़ता दिख रहा है पर यह तथ्य भी ध्यान योग्य है कि अभी भी भारत अपनी ऊर्जा आपूर्ति के लिए लगभग 55 फीसदी कोयले पर निर्भर है, जबकि रिन्यूएबल ऊर्जा पर केवल 22 फीसदी तक।
 
ऐसे में अगर वर्तमान की जलवायु संधियों के लक्ष्यों के हिसाब से दुनिया आगे बढ़ती है, तब विश्व के विभिन्न हिस्सों में रोजगारों पर इसका अलग-अलग तरह का प्रभाव देखने को मिलने जा रहा है। ये प्रभाव भारी मात्रा में फॉसिल का आयात करने वाले देशों में कम देखने को मिलेगा। ऐसे देशो में नौकरियों पर भी कम असर पड़ेगा और अन्य रोजगारों की संख्या में बढ़ोतरी भी हो सकती है। पाई कहते हैं- " मेक्सिको, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका बड़ी मात्रा में फॉसिल फ्यूल का निर्यात करते हैं। अगर जलवायु संरक्षण नीतियां सधे रूप में काम करती हैं, तो इन देशों में रोज़गारों का भारी नुकसान होना तय है। उभरती हुई आर्थिक व्यवस्थाएं जैसे इंडोनेशिया, दक्षिण पूर्व एशिया, ब्राज़ील, भारत में भारी जनसंख्या ऊर्जा क्षेत्र में कार्यरत है और शोध यहां रिन्यूएबल ऊर्जा क्षेत्र में 2050 तक बढ़ता रोज़गार दिखाता है।" रिन्यूएबल एनर्जी की ओर बढ़ती दुनिया के कदमों से चीन को भी बड़ा झटका लगेगा, क्योंकि ये देश कोयला निर्यात बहुत अधिक मात्रा में करता है। ऐसे में यहां भी बड़े पैमाने पर रोजगार का संकट खड़ा हो सकता है।

जब इस भारी मात्रा में वैश्विक स्तर पर नौकरियां जाना तय हैं तो पर्यावरण संरक्षण और जलवायु परिवर्तन रोकने का इन परिवारों के लिए क्या मायने है? इन्हें अपनी रोज़ी रोटी छोड़नी होगी ताकि जलवायु परिवर्तन रुक सके? कोई भी पर्यावरण और जलवायु नीति जो इस कीमत पर संरक्षण करना चाहती है वह गलत है, इस तबके को संरक्षित किये बिना जलवायु परिवर्तन रोकने की कोई भी नीति अधूरी है। अधिकतर देश गैर पारम्परिक ऊर्जा स्रोतों पर निर्भरता बढ़ा रहे है, मसलन सौर और पवन ऊर्जा।

ऐसे में इन मुल्कों के सामने पाम्परिक ऊर्जा स्रोतों के खनन में लगे मज़दूरों को इस नए ऊर्जा क्षेत्र (रिन्यूएबल) में काम करने लायक बनाने की भी ज़िम्मेदारी उठानी होगी, ताकि संसाधनों से वंचित मज़दूर तबका, तेजी से बदलते रोजगारों व ऊर्जा क्षेत्र में खुद को ढाल सके और अपने परिवार की देखभाल कर सके।

भारत व चीन जैसे देश जो कि बड़े पैमाने पर कोयले निर्यात करते हैं, जब इस क्षेत्र पर अपनी निर्भरता घटाने की ओर बढ़ेगेख्की तो इसकी गाज मजदूरों पर गिरेगी। तब इन मज़दूरों को बदलते क्षेत्र के हुनर देने की तैयारी भी अभी से शुरू हो जानी चाहिए। गौरतलब है कि सौर व पवन ऊर्जा के निर्माण क्षेत्र के विकास में वैश्विक स्तर पर चीन ने बड़े-बड़े देशों को पीछे छोड़ रखा है, जबकि भारत भी इस दिशा में निवेश को बढ़ा रहा है। भारत में अभी बुनियादी चीजों पर काम किया जा रहा है और आगे अभी रिन्यूएबल एनर्जी की दिशा में भारत को लंबी दूरी तय करनी है।

दुनिया का हर देश अपने-अपने हिसाब से इस दिशा में काम कर रहा है और जब रिन्यूएबल एनर्जी को लेकर नीति वैश्विक है, जिसके चलते ऊर्जा क्षेत्र में बहुत बड़ा बदलाव आ रहा है, तब नीति बनाने वालों को ऊर्जा क्षेत्र में पहले से काम कर रहे समुदाय के लिए भी एक वैश्विक योजना बनाने की जरूरत आ खड़ी हुई है।   
 

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