संभावना वर्सेस अपार संभावना!

Hafta Bol!संभावना वर्सेस अपार संभावना!

उमेश तिवारी 'विश्वास'

उमेश तिवारी व्यंग्यकार, रंगकर्मी और मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। अपनी शर्तों पर जीने के ख़तरे उठाते हुए उन्होंने रंगकर्म, पत्रकारिता, लेखन, अध्यापन, राजनीति से होकर गुज़रती ज़िंदगी के रोमांच को जिया है। रंगकर्म के लेखे-जोखे पर 2019 में 'थिएटर इन नैनीताल' नाम से किताब छप चुकी है।

आपने ग़ौर किया होगा मुल्क में समय-समय पर कुछ चीज़ों की संभावना और किन्ही की अपार संभावना जताई जाती है। आइए हम भी संभावना और अपार संभावना के बीच अंतर को समझने का प्रयास करें। ऐंवैं ही..!

विकासोन्मुख देश में संभावना होना साधारण सी बात है। वह भी कई क्षेत्रों में; जल, थल, नभ में संभावना ही संभावना। विकास संबंधी आंकड़ों में प्रयोग हेतु संभावना को उत्तम माना जाता है; जैसे रोज़गार, दंगा-फ़साद, मंहगाई या जीडीपी आदि क्षेत्रों से जुड़े डेटा में संभावना। संभावना के दोहन को सरकारी व्यवस्था और प्राइवेट बिजनेस दोनों ही दुलकी चाल से प्रयासरत रहते हैं, युद्ध स्तर के मंसूबे नहीं बनाते। गुजरात-महाराष्ट्र के समीपवर्ती समुद्र में मौजूद तेल भंडार इसका बहुत अच्छा उदाहरण हैं। यहां तेल-गैस मिलने की संभावना बताई गई, लेकिन 'अपार संभावनाएं' नहीं।

इस कारण सरकार पिछले कई वर्षों से यहां, हफ़्ते में औसतन एक दिन तेल ढूंढ रही है। बिजनेस के फ़ायदे हेतु तेल खोजने के बनिस्पत उसका आयात अधिक सुविधाजनक और मुनाफ़ाजनक है। कार्ययोजना पूरी होने तक आवश्यकता भर का तेल आयात होता रहेगा। कोई टेंशन नहीं। टीवी, अख़बार हस्बे-मामूल तेल के रेट मॉनिटर करते रहेंगे। दो-चार पैसे प्रति मिलीलीटर की मामूली मूल्य वृद्धि को कंट्रोल करने में सरकार की कोई दिलचस्पी नहीं।

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एक दिन आएगा जब अपना सस्ता तेल निकलेगा, तब जनता को भी सस्ता मिल जाएगा। जनता भी तेल पर टैक्स घटाने की मांग करती है, लेकिन तेज़ी से तेल खोजने को दबाव नहीं बनाती। उसे भी पता है कि संभावना अपार नहीं है। अब यदि तेल कंपनियों के बिजनेस में अपार संभावनाएं न दिखने से सरकार नादान उद्योगपतियों को कंपनी बेच कर उल्लू बनाना चाहती है तो तक़लीफ़ काहे की?

दूसरी ओर पर्यटन की अपार संभावनाओं से युक्त उत्तराखंड जैसे राज्य भी हैं। पता नहीं ऐसा कब से है पर उत्तराखंड बनने के बाद अपार संभावनाएं व्यक्त करने वालों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। बल्कि यूं कहिए, छै-आठ माह के अंतराल पर राज्य रीडिस्कवर होता रैता है और बताया जाता है कि यहां पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं।

इससे प्रतीत होता है कि संभावनाओं का महत्व तभी है जब वो वर्तमान में व्यक्त की जाएं, लेकिन हों भविष्य की। भूतकाल में व्यक्त संभावना छूट गई ट्रेन सरीखी है, जिसके लिए यात्री स्वयं उत्तरदायी माना जायेगा। प्लेटफार्म पर खड़ा यात्री वर्तमान है, जिसकी बुद्धिमानी इसी में है कि वो भविष्य की संभावना संसूचित करे। वरना उसे मूरख समझा जाएगा। हो सकता है पूछ लें 'तुम तब क्या कर रहे थे?' यानी ट्रेन छूट कैसे गई!

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ख़ैर, उत्तराखंड पर लौटता हूं। अपार संभावना की घोषणा भतेरी संजीदगी के साथ आशा से ओत-प्रोत संभाषणों द्वारा की जाती है। इस समय नेपथ्य में सितार पर झाला बज रहा होता है। अख़बार इसे विज्ञापनों के बाद छपने वाले मुखपृष्ठ पर स्थान देते हैं और टीवी वाले बक्ता की बाइट को प्राइम टाइम बुलेटिन में बजा देते हैं। फलस्वरूप एक उत्सव का वातावरण सृजित होता है जिसमें छलकते उत्साह से अनुमान लगाने वाले लगा लेते हैं कि सरकार फ़िज़ूलख़र्ची के मूड में है। इसकी गंध गली-मुहल्ले से लेकर प्रेस क्लबों तक फैल जाती है।

इस दौर की कुछ विशेषताएं निम्नवत हैं; इसमें हर किसम का मीडिया विज्ञापन की मांग करने लगता है। विषय विशेषज्ञ कंसल्टेंसी का प्रस्ताव भेजते हैं। संबंधित विभाग के ऑफ़िसर टाइम से दफ़्तर आने लगते हैं। मुख्यमंत्री मंत्री से, मंत्री सचिव से, ओ एस डी बिजनेस मैन से मीटिंग करते हैं। आर्थराइटिस ग्रसित पार्टी भी लंगड़ाते हुए एक सैक्शन से दूसरे को दौड़ पड़ती हैं। जताई गई संभावना रजनीगंधा की महकती डाली सी जिस गलियारे से निकलती है, नए शोहदे पीछे जुड़ते जाते हैं। अन्य विभाग वाले हसरत भरी निगाहों से संभावना को देखते हैं। पार्टी का आश्वासन हासिल कर ठंडी सांसें भरते हुए वापस सीटों पर बैठ जाते हैं।

...तब एक बड़ा सेमिनार आयोजित होता है जिसमें टी ए, मानदेय, बैंक्वेट, डिनर, आवास व्यवस्था और स्मृति उपहारों पर आशा के अनुरूप बजट से अधिक व्यय हो जाता है पर बेहतर कॉर्डिनेशन के चलते इस दौर के सब बिल पास हो जाते हैं। आख़िर वह दिन भी आता है जब मुख्य परियोजना बजट स्वीकृत हो जाता है। आशा से कम आबंटन और पूर्व में अवमुक्त राशि के समायोजित होने के कारण सचिवालय में चारों ओर अवसाद और निराशा की वायलिन सी बजने लगती है। हर अनुभाग में 'धत्तेरेकी, धत्तेरेकी, धत्तेरेकी' आवाज़ें सुनाई देती हैं। अगली सुबह संभावना फोटोस्टेट मशीन के गलियारे में बुझी बीड़ी सी पड़ी मिलती है।

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इस बीच जनता समझती है कि संभावनाओं पर काम चल रहा है, वह विकास के मुद्दे पर आश्वस्त नज़र आती है। जनता को आश्वस्त देखकर हुक्मरान अपने ‘असली’ काम पर लग जाते हैं। अपार संभावना का विश्वास क़ायम हो चुकने का ज़मीनी फ़ायदा यह होता है कि अटैची वाले ठेकेदार हरक़त में आकर पार्टी कैडर से सम्पर्क स्थापित करने लगते हैं। कैडर उत्साहित होकर चौराहों पर नेताओं के साथ अपनी फोटो वाली फ्लेक्सियां लगा देते हैं। इनमें संभावना को विकास से जोड़ते हुए जुमले जड़े होते हैं। उदाहरणार्थ, पर्यटन की अपार संभावना को सड़क निर्माण से जोड़ता फ्लेक्स निम्न प्रकार बनेगा; ऊपर से क्रमशः घटते साइज़ के क्रम में प्रधानमंत्री, केन्द्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री और पी डब्लु डी मंत्री के फ़ोटो होंगे। बीच में संदेश 'पर्यटन की फड़क है, गांव-गांव अब सड़क है' और निचली पायदान पर विज्ञापन के निवेशक का फ़ोटो सहित नाम। जनता यह सब देखकर प्रसन्न होती है। वह समझती है कहीं विकास हो रहा है जिसके पोस्टर यहां भी लगे हैं।..

कुछ दिनों में फ्लेक्स फट जाते हैं। कुछ दिनों लटकी रहने के बाद विकास की चिन्दियां मुंसिपालिटी उतरवा देती है। मंत्री-मुख्यमंत्री बदल जाते हैं, यहां तक कि सरकारें बदल जाती हैं, पर अपार संभावना अपने आत्मा रूप में राजधानी क्षेत्र में विचरण करती रहती है। हो सकता है महाराष्ट्र-गुजरात में तेल मिलने के बाद इसका भी चोला बदल हो।

...फ़िलहाल अभी-अभी सचिवालय में नये मुख्यमंत्री की टीम को पर्यटन की अपार संभावना महसूस हुई है। महसूस करने में किसी का क्या लगता है, न बकवास करने में! पुनः सितार बजाया जाए या पुरानी रिकॉर्डिंग से काम चलाएं, बस यही सामरिक महत्व का निर्णय लिया जाना बाक़ी है। कुछ ही दिनों में बड़े होर्डिंग्स पर नए जुमलों के साथ नई तस्वीरें लगेंगी। कहना न होगा फटी जीन से झांकते घुटने सी संभावना जब भी इधर से गुज़रे, इनकी नज़रों से बच निकलना मुश्किल होगा।

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