उमेश तिवारी व्यंग्यकार, रंगकर्मी और मान्यताप्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। अपनी शर्तों पर जीने के ख़तरे उठाते हुए उन्होंने रंगकर्म, पत्रकारिता, लेखन, अध्यापन, राजनीति से होकर गुज़रती ज़िंदगी के रोमांच को जिया है। रंगकर्म के लेखे-जोखे पर 2019 में 'थिएटर इन नैनीताल' नाम से किताब छप चुकी है।
एक ज़माने में जब मुल्क में टीवी अवतरित हुआ, उसे दूरदर्शन के नाम से जाना गया। मालूम नहीं उसका यह नाम 'दूर के दर्शन' करवाने के कारण पड़ा या कोई चेतावनी रही कि इसे दूर से ही देखें! तथापि इसके प्रादुर्भाव से नवाज़े गए घर उस काल के इतिहास में सामुदायिक एकता और सौहार्द केन्द्र के रूप में दर्ज़ होंगे।
मेहमान एक नियत समय पर टीवी सज्जित घर पर आते, ‘हम लोग’ और 'चित्रहार' जैसे कार्यक्रमों का आनंद उठाते और ख़ुद के टीवी का सपना आंखों में बसाए निकल लेते। यदा-कदा मेज़बान दंपति अच्छे मूड में हों तो चाय-पानी या फलों के कटे टुकड़ों का इंटरवलीय अनुष्ठान भी होता। तबके दर्शकों का ध्यान प्रोग्राम के साथ आतिथेय के उच्चतर मानवीय गुणों और ड्राइंग रूम के फर्नीचर इत्यादि की गुणवत्ता, सुंदरता वगैरा पर भी होता था, जिससे टीआरपी साझा हो जाती होगी। शायद तब पड़ोसी के मन में जगा ईर्ष्या भाव टी वी का एकमात्र नेगेटिव पॉइंट रहा होगा।
अरसे तक सरकारी लालन-पालन में परवरिश होने से शायद मनोरंजन के विशेषज्ञों ने इसको 'बुद्धू बक्सा' करार दे दिया। उन्होंने न केवल टीवी को बुद्धू बताया, ख़ुद को तीसमारखां भी समझा! वो इसके कान उमेठ कर, चुटिया को टेढ़ा-सीधा घुमा कर अपनी विशेषज्ञता जस्टिफाई करते रहे।
गृहस्वामिनी भी उसे पिंजरे के तोते सा प्यार देती, अपने सामाजिक विमर्श में उसका ज़िक्र ले आती; 'बेटा अपनी मम्मी को बता दियो संडे को हम सनीमा जा रहे हेंगे, वहीं से नन्नू के ननिहाल चले जावेंगे। तुम्हारे तईं चाबी छोड़ जाते पर बल्लू जी के बच्चे बड़े उजड्ड हेंगे, तारों की खेंचम-खैंची न कर देवें..' वो अपने बुद्धू को स्टैंड के शटर प्लस क्रोशिया कवर और हैरिसन ताले की त्रिस्तरीय एक्स कैटेगरी की सुरक्षा में छोड़ कर चले जाते। जाते-जाते सब्ज़ी के ठेले वाले को बताना नहीं भूलत- 'भइया ज़रा नज़र रखियो, घर में टीवी वगैरा पड़ा है।'
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...इस दौरान वो ढके-ढके अकलमंद होता गया, उसने रंग बदल लिया, बाहर से अपने तार जोड़ लिए। पहले चैनल के नाम पर गोयल की दुकान का लोहे का गेट था, जो खोलते बंद करते चौबीस घंटे में बस दो बार चिंघाड़ता था, अब वो कुछ ना बेचता। सौ-सवासौ चैनल घर-घर चिल्लाते फेरी लगा रहे। पापा, मम्मी अपने फेवरेट चैनल पकड़ मस्त हेंगे और शेष बुद्धू बक्सा नन्नू के दिल के रस्ते दिमाग़ में घुस गया हैगा। अब कान जो है, नन्नू के उमेठे जावें और टी वी रिमोट से चलावें।
पिछले कुछ सालों में जैसे-जैसे देश की जीडीपी घटी है, टीवी प्रकोप अभूतपूर्व दर से बढ़ा है। उसका दखल सरकार से भी बड़ा है। उसने बताया कि 'हर एक फ़्रेंड ज़रूरी होता है' तो सबने नए-पुराने दोस्तों के सम्मान में हज़ारों नए सिम ख़रीद डाले। जिसे जो बेचना था वो घर-घर विराजमान बक्से की किरपा से बेचता चला गया। ख़बरिया चैनलों ने वो कर दिखाया जो इतिहास में पहले कभी न हुआ। उन्होंने आलू को चीकू बता कर उसे फलों के राजा के रूप में स्थापित कर दिया। अब वो 'आलू राजा' को नई-नई पैकिंग में लपेट कर देश के लिए एकमात्र विकल्प बता रहे हैं।
आप टीवी को एवंई ही बुद्धु बक्शा कहते रहे गये, इधर 'आलू राजा' ने रेटिंग-फेटिंग-सेंटिंग का ऐसा खेल दिखाया कि इधर सात साल गुजरने को आए, लोग भूल ही गए कि ससुरा उन्होंने आखिरी दफा कोई 'ढंग की बात' कब सुनी थी। अब हर रोज 'आलू राजा' की शान में सुनाए जाने वाले कसीदों के लिए बाकायदा नाटकीय धुन तैयार होती है। ये धुन 'मालगुडी डेज' की 'ता ना ना न ना न ना ना' वाला मजा तो नहीं देती, पर 'ओ तेरी की...' वाला रोमांच छुस्स-छुस्स कर दे जाती है। तैरते हुए अक्षर कूद-कूद कर आते हैं और लगातार हमें 'सब चंगा सी' की पावरफुल लोरी सुनाकर अच्छी नींद सुला जाते हैं। अरे वैसे ही जैसे अमिता बच्चन ट्यूलिप के गार्डन में रेखा जी की गोद में 'कट-कट' होने तक सोते रहते थे... अहा, क्या दिन थे वो भी हैं! कभी-कभी तो शायद वो कट्ट सुनना भी न चाहते हों! अपने भक्त भी इधर वैसे ही हैं... नाटक खत्म ही नहीं होता... कट्ट सुनना ही नहीं है उन्हें!
बतोलों की बहार और भजनों की भरमार है। एंकर प्यार के नग्मों से नफ़रत खोज कर दिन-रात बजाते हैं, बताते फ़रमाइशी हैं। अंगना से प्रेम करो पर दिया से नफ़रत ज़रूरी है। आत्महत्या को हत्या और बलात्कार को सत्कार बना रहे हैं।
...नन्नू के पापा हाथ में रिमोट थामे शातिरों के इस स्मार्ट हथियार को अब भी 'बुद्धू बक्सा' समझ रहे ठैरे।
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